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संभवामि युगे युगे?

भारत का जनजीवन हजारों वर्षों से अवतारों की कहानियों के साथ विकसित होता आया है। अलग-अलग युगों में बहुत से अवतारों ने “तारणहार” की भूमिका निभायी है। एक ऐसे समाज में जहाँ बच्चा पैदा होते ही अवतारों की कहानियाँ सुनता है, उनकी पूजा करता है और उन्हीं को आदर्श मान अपने जीवन मूल्यों को गढ़ता है,  अवतार की अवधारणा एक बड़ी भूमिका निभाती है। इन अवतारों से हमें प्रेरणा मिली है। हमने इन अवतारों के गुणों को आदर्श रूप में अपनाया है, या इनके आचरण को आदर्श मापदंड मानकर हर व्यक्ति का उन्हीं मापदंडों के आधार पर आकलन किया है। अवतारों की कथाओं और उन पर जनमानस के विश्वास ने हमारा एक समाज के रूप में आत्मविश्वास बनाये रखा है।

लेकिन अवतारों को मूलतः “तारणहार” के रूप में देखने की प्रवृत्ति के नकारात्मक प्रभाव भी हैं। इनमें से कुछ पर विचार कीजिये:

1.  हम अवतारों के आगमन के प्रति सदा आश्वस्त रहते हैं। हमें समझाया गया है कि ईश्वर ने स्वयं कहा है कि:

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥”

अतः हम आकाश की ओर ताकते रहते हैं कि एक दिन ईश्वर अपना वचन पूरा करने के लिये अवश्य अवतार लेंगे।

2. हम अपने आसपास, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में नायकों की तलाश में रहते हैं। कोई भी यदि अपने क्षेत्र में थोड़ा अच्छा काम करे तो हम उससे चमत्कार की आशा लगा बैठते हैं। हम उन नायकों में एक छोटा ही सही, अवतार ढूंढने लगते हैं।

3. चूंकि हमें अवतारों की पूजा करना सिखाया गया है, हम अवतार या नायक में किसी भी दुर्बलता या अवगुण की संभावना को सिरे से नकार देते हैं। हम विश्वास ही नहीं कर सकते कि हमारा नायक कुछ गलत भी कर सकता है।

4. हम अवतारों और नायकों में इतनी अधिक आस्था और विश्वास रखते हैं, कि उन समस्याओं के समाधान के लिये स्वयं की किसी भी भूमिका की ओर विचार ही नहीं करते। हम अपनी ओर से समस्याओं के समाधान की पहल नहीं करते, बस नायक ढूंढते हैं और नायक से आशाएँ लगा बैठते हैं।

5. चूँकि हमारा नायकों पर विश्वास एक अवतार पर होने वाले विश्वास के स्तर का होता है, अपने नायक के असफल हो जाने पर हमें या तो उसकी असफलता पर ही विश्वास नहीं होता, या हमारी आस्था कुछ यों टूटती है कि हम तत्काल उस नायक को अवतार के पायदान से गिरा सीधे राक्षस बना बैठते हैं। हम कभी यह स्वीकार ही नहीं कर पाते कि जिसे हमने नायक मान लिया है, उसे असफल होने का भी अधिकार है। इसे स्पष्ट करने के लिये आइये कुछ उदाहरण लेते हैं।

6. महात्मा गांधी को इस देश में उनके जीवित रहते ही अनेक लोगों द्वारा अवतार मान लिया गया। उनके कृतित्व को देखते हुए आज भी अनेक लोग या तो उन्हें ही अवतार मानते हैं या उनके धरती पर आगमन को ईश्वर की किसी बड़ी योजना का हिस्सा मानते हैं। लेकिन जब अनेक इतिहासकारों ने उनके व्यक्तित्व की आलोचना की, उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को उजागर किया, या भारत-विभाजन को रोक पाने में उनकी तथाकथित विफलता की ओर इंगित किया, तब अनेक लोगों के लिये महात्मा गांधी अपने ही देश में घृणा के पात्र बन गये। “मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” जैसे नारे इसी देश में जन्मे हैं।

7. ऐसा ही कुछ पंडित नेहरू के साथ हुआ। एक नये देश के निर्माण में उनकी महान भूमिका रही है। लेकिन उनकी चीन-युद्ध या कश्मीर समस्या के संबंध में हुई संभावित रणनीतिक भूलों, उनके लेडी माउंटबेटन के साथ चर्चित संबंधों, या उनके वंशवाद को प्रश्रय देने की बातें कुछ लोगों को इतना आहत कर देती हैं कि वे नेहरू को देश की हर दुर्दशा के लिये उत्तरदायी ठहराते हैं।

8. क्रिकेट खिलाड़ियों के साथ तो प्रायः ऐसा होता आया है। यदि वे कुछ समय तक अच्छा खेलें तो उन्हें भगवान बना दिया जाता है।  फिर जब वे एक भी शृंखला हार जायें तो उनके पुतले फूंके जाते हैं।

9. अवतारवाद के मानने वालों के लिये यह संभव नहीं कि उनके अवतार या नायक में गुण और अवगुण एक साथ उपस्थित हो सकते हैं। आश्चर्यजनक रूप से यह उस समाज के बारे में है जो सत-रज-तम तीनों गुणों के सह-अस्तित्व और उपयोगिता को स्वीकार करता है।

10. अवतारवाद पर गहरे विश्वास, और वर्तमान सार्वजनिक जीवन में नायकों की घोर कमी के चलते अवतार ढूंढने की हमारी प्रवृत्ति और भी अधिक बलवती हो गयी है। कभी हम जयप्रकाश नारायण को सारी समस्याओं का समाधान मान लेते हैं, कभी अटल बिहारी वाजपेयी तो कभी अण्णा हजारे को। कभी हमें एपीजी अब्दुल कलाम में नायक नजर आता है तो कभी अरविंद केजरिवाल में। यदि कहीं किसी ईमानदार “प्रतीत” होने वाले अधिकारी पर नेता कार्यवाही करें तो जनता तुरंत उस अधिकारी का बचाव यों करने लगती है मानों पूरी मथुरा नगरी श्रीकृष्ण के बचाव में कंस से युद्ध को उद्दत हो!  लेकिन सच तो यह है कि जनता केवल उद्दत प्रतीत होती है, युद्ध लड़ती कभी नहीं। पूरी मथुरा को यही अपेक्षा है कि कोइ बालक आकर आततायी कंस से उन्हें मुक्त करायेगा।

11. नायकों पर अतिविश्वास और उनसे ही सभी समाधानों की अपेक्षाओं ने हमें व्यक्तिगत रूप से बेहद दुर्बल बना दिया है। हमने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लिया है। हम साहस से कोसों दूर हैं। अपने सीमित संसार में हम सुरक्षित जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। बाहर हो रहे अन्याय की हमें खूब जानकारी है, किंतु उस अन्याय को रोकना हम अपना काम नहीं मानते। इसलिये हम व्यक्तिगत रूप से कमजोर हैं।

12. इतना ही नहीं, हमारे बीच का हमारे ही जैसा कोइ व्यक्ति कोई पहल करे तो हम उसका विरोध करने लगते हैं। हम उसकी टांग खींचने लगते हैं, उसे हतोत्साहित करते हैं। ऐसा इसलिये है कि हमारा गहरा विश्वास है कि नायक आयेगा तो बाहर से आयेगा, या आकाश से अवतरित होगा। हमारे बीच, हमारा अपना ही कोई नायक हो सकता है, यह हमारे गले नहीं उतरता।

13.  समय आ गया है कि हम नायकों की खोज बाहर करना बंद करें। समय आ गया है कि हम यह जान लें कि नायक का अर्थ यह नहीं होता कि वह सारे संसार की समस्याओं का हल अकेला ही कर डाले। हमारे आस-पास की छोटी-छोटी समस्याओं का हल करने की पहल हम स्वयं करें। जो ऐसी पहल करें, हम उन्हें भी नायक का दर्जा दें।

14. हाँ, जिन्हें हम नायक का दर्जा दें उनसे चमत्कार की आशा न रखें। न ही उनके सर्वशक्तिमान-सर्वगुणसंपन्न होने का भ्रम पालें। जिस प्रकार हम कभी सफल और कभी असफल होते हैं, उसी प्रकार हमारे नायक भी कभी सफल और कभी असफल होंगे।

-हितेन्द्र अनंत

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मानक

10 विचार “संभवामि युगे युगे?&rdquo पर;

  1. आपसे सहमत हूँ| “लेकिन सच तो यह है कि जनता केवल उद्दत प्रतीत होती है, युद्ध लड़ती कभी नहीं। पूरी मथुरा को यही अपेक्षा है कि कोइ बालक आकर आततायी कंस से उन्हें मुक्त करायेगा।”

    एकदम सटीक बातें कही है| ऐसे ही लिखते रहें| 🙂

    • अरविंद जी,

      उन बहुसंख्य लोगों को ऐसे भरोसे से सहारा तो मिलता है पर कमजोरी भी पनपती है। दोनों को लेख में स्वीकार किया है, पर नकारात्मक पक्ष की ओर अधिक ध्यान दिया है। उस पर भी तो ध्यान देना है। ऐसे भी समाज हैं जो अवतारवाद पर विश्वास नहीं करते पर अपने समस्याओं से लड़ते आये हैं।

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