विविध (General), My Poems (कविताएँ)

चालीस पार

क्या बोले? उमर?

भिया बयालीस के हो गए हैं अपन

देखते देखते टाइम निकल गया भिया

अरे काहे का जवान

बड़ी वाली इलेवन्थ में छोटा पाँचवी में भिया

शादी को समझो बीस साल

बस अब अपना हो गया

अब तो जो देखना है बच्चों का देखना है भिया

मैं तो बड़ी वाली को बोल दिया हूँ भिया

जो तुम्हारा मन है लाइफ़ में वही करो

जिसमें बनाना है करियर बनाओ

लेकिन पहले इंजीनियरिंग कर लो

उसके लिए उसको कनविन्स कर लिया हूँ

उसको भी समझ आया न भिया

क्या है एक बेस मिल जाता है

कि कुछ और नई भी की तो इंजीनियरिंग के दम पे

नौकरी तो मिलनाइच्च है

अपने यहाँ सब एकदम फ्री माइंड के हैं भिया

शादी होतेइच्च मम्मी बोली मेरी वाइफ़ को

जीन्स पहन, सूट पहन तेरी मर्ज़ी

बस गाँव से रिश्तेदार लोग आएँगे

तो साड़ी पहनना और घूंघट रखना पड़ेगा

और वाइफ़ में भी बहुत परिवर्तन आया है

माने सुरू में आई थी तो बिना नहाए किचन में चल देती थी

फिर मम्मी समझाई उसको धीरे-धीरे

अब सुधर गई है

मेरे को क्या है भिया, नहाओ चाहे मत नहाओ

लेकिन मैं बोला माँ तेरे को इतना फ़्रीडम दे रही है

तो तू भी थोड़ा निभा के चल

साल में एक बार बाहर जाता हूँ भिया

नार्थ पूरा हो गया मेरा

साउथ में केरल छोड़ के सब हो गया

गोवा तो कई बार हो गया है

गोवा में मैं तो इसको बोला, रेड वाईन तो पी ही सकती है

चखी भी है वो, लेकिन उसको जमा नई

मेरे को बोली तुमको पीना है पियो

खाना है खाओ

लेकिन घर में कुछ नई लाना

अपन भी संतुलन बना के चलते हैं न भिया

फ्रायडे को फ़िक्स है मेरा

सनीचर और मंगल नई चलता ना

फ्रायडे को दुकान बन्द किया,

दोस्त के साथ गाड़ी में लिटिल लिटिल लगाया

घर आया, खाना खाया, सो गया

संडे को दुकान बंद, मतलब बंद

कोई मतलब नई है भिया

और कितना भागना है

मैं तो भगवान को इतनाइच्च बोलता हूँ

जो दिए हो वो वापस मत लेना

जो है बहुत है

वोइच्च चलता रहे

कमाने के लिए कमा लोगे

लेकिन लेके ऊपर थोड़ी जाओगे

माँ को चारों धाम करा दिया हूँ भिया

चारों कुम्भ भी करवा दिया हूँ

वृंदावन में अपने महाराज हैं

साल में एक महीना वहीं रहती है

अब मैं बोला उसको बुढ़ापे में अपने हिसाब से जीने दो

बोली अयोध्या भी जाना है

मैं बोला अपन सब जाएंगे

बस थोड़ा रुक जा

पहला साल है ना भिया

फिर भीड़ थोड़ा कम हो जाएगी

तो अपन आराम से दरसन भी करेंगे

और तब तक मन्दिर भी पूरा बन जाएगा

बस बच्चे सेटल हो जाएँ

और इतना रहे कि कुछ कमी ना हो

बुढ़ापे में किसी पे लदना नहीं है अपन को

आज अपन माँ बाप की सेवा कर रहे हैं

अपनी कोई नई करेगा भिया

हाथ पैर चलता रहे बस

हौ ना!

रात को मैं चावल नई खाता भिया

वाइफ़ को बोला मेरे को ज्वार की रोटी बना दिए कर

दारू भी कम कर दिया हूँ भिया

पहले रोज का था

अभी केवल फ्रायडे

एक लिमिट में हर चीज सही है भिया

डॉक्टर भी बोलता है कि हार्ट के लिए थोड़ा लेना चिये

अति किसी भी चीज की खराब है

जिम उम से अपन को क्या करना भिया

लौंडे तो रहे नहीं अपन कि बॉडी बनाना है

वाकिंग अपन रोज करते हैं

हर संडे दोस्तों के साथ तीन घंटा क्रिकेट

उतना बहुत है भिया

हम लोग का जो डिस्ट्रीब्यूटर है ना

उसके तरफ़ से एक बार बैंकाक गया था भिया

मतलब आना-जाना रहना खाना फ्री

ऊपर का खर्चा अपना

ही ही ही

अब समन्दर में जाओगे तो डुबकी तो लगाओगे ना

बोलना मत भिया किसी को

आप भी चलोगे तो बोलो ना

अब तो मेरे को पूरा समझ आ गया है

कहाँ जाना है, कैसे क्या करना है

मिलने के लिए तो आजकल इंडिया में सब है भिया

लेकिन जो जिधर का अच्छा है

उधर का ही अच्छा रहेगा ना

रशियन वशियन जो बोलो भिया

आप एक बार प्लान तो बनाओ

ड्यूटी फ्री से मैं लाया था ना भिया

सिंगल माल्ट लाया था

दोस्त के यहाँ रखवा दिया था

अरे मैं तो ला दूंगा आपके लिए

लेकिन आप चलो ना साथ में

दोनों भाई जाएंगे

चिन्ता मत करो भिया

वहाँ का राज़ वहीं डुबा देंगे

ही ही ही

– हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues), My Poems (कविताएँ)

पागल बादशाह

बादशाह मोहम्मद बिन तुगलक ने 

दिल्ली का नाम दौलताबाद रख दिया होता 

तो दिल्ली से दौलताबाद जाने की ज़रूरत नहीं होती 

दिल्ली ही दौलताबाद हो जाती 

उत्तर दक्कन बन जाता 

और उससे बादशाह को दक्कन को जीतना आसान हो जाता 

दक्क्न की रियाया के लिए भी

हिन्दोस्तान यानी उत्तर के राजा के पास फ़रियाद के लिए जाना 

आसान हो जाता 

नाम भर बदल लेता 

बादशाह अगर 

ताम्बे के सिक्के न चलाकर

सोने का नाम ताम्बा रख देता

तो बादशाह को कोई पागल बादशाह न कहता 

– हितेन्द अनंत 

मानक
My Poems (कविताएँ)

नाम क्या लिखते हैं भिया अपन?

सीमेंट है ना भ़िया

भेजने के लिए भेज देता भिया

लेकिन लड़के लोग नई हैं

एक दिन का त्यौहार होता है

दस दिन के लिए भग जाते हैं भिया

नई भिया तनखा काटने से कोई फरक नई पड़ता

मेहनत करनाइच्च नई चाहते भिया

सरकार देती है दो रुपया किलो चांवल

आधा खाते हैं, आधा को बेच के दारू पी देते हैं

क्या करोगे भिया

पहले तो ये फोकट का नाटक बंद करना चिये

साले लोग अलाल हो गए हैं

वोइच्च तो बात है भिया़

आप एड्रेस दे दो मैं रिक्सा करवा के भेज दूंगा

नाम क्या लिखते हैं भिया अपन?

अरे मेरा लड़का उठेगा बारा बजे 

तो दुकान कब आएगा सोचो ना आप

उप्पर से बहू प्रेगनेंट है अपनी

मैं तो बोला उसको

बेटे आप रोज़ गीता पढ़ो एक अध्याय

बच्चे पे अच्छा असर पड़ेगा ना भिया

अपन नई देंगे तो कोन संस्कार देगा

बोली पापाजी समझ नई आता

मैं बोला बेटे पढ़ना तो पड़ेगा 

नई अब तो पढ़ती है रोज़ 

एड्रेस क्या रहेगा भिया 

अरे सप्ते में आधा दिन तो खाना ऑर्डर करते हैं

अब कोन किसको क्या बोलेगा भिया

बनाने के लिए बना देती मेरी मिसेस

लेकिन एक्चुअल में उसको कमर में दिक्कत है

अब क्या बोलोगे

मैं तो बोला भिया

मंगाना है मंगाओ लेकिन

ये छोटापारा, मौदहापारा वालों से नई मंगवाना है

अरे ये लोग थूक-थूक के खाना देते हैं अपन को भिया

बकायदा वीडियो है

एक ठो नई अनेकों है

रिक्सेवाले का नंबर मैसेज किया हूँ आपको 

एक बार ये लोग नूरजहां से मंगवा दिए बिरयानी

मेरे को बोले अशोका से मंगवाए हैं

मैं समझ गया भिया

साफ मना किया मैं

बोला बाप को चूतिया मत बनाओ

अरे घरिच्च के लोग नई सुनते 

तो देश भर के कहाँ से इकट्ठे होंगे

और ये लोग? 

नई ये तो मानना पड़ेगा इनका

यूनिटी एकदम जबरदस्त

वोइच्च तो बात है ना

अब एक नई होंगे तो

2050 तक इनकी मेजॉरिटी होगी भिया

फिर नूरजहां से खाना मंगवाने की भी 

औकात नहीं रहेगी अपनी

अब वो एक अकेला कितना करेगा भियाा

अपना भी तो कुछ बनता है ना

एक नई हुए ना

तो सब खतम है भिया

चलो आप और मैं नई रहेंगे ये देखने के लिए

लेकिन बच्चों का तो सोचना पड़ेगा ना

आएगा तो फोन करेगा भियाा 

आप सौ पचास उप्पर से दे देना तो रखवा भी देगा

बाकी इस बार के लिए सॉरी रहेगा भिया

फिर लड़के लोग आ जाएंगे तो सिद्धा घर भिजवा दूंगा

ओक्के भिया 

– हितेन्द अनंत 

मानक
My Poems (कविताएँ)

ढाबे जैसी दाल

उन्हें जीते हुए राज्य गिनने दीजिए
आपको लाशें गिनने का काम दिया गया है
आपसे उम्मीद है कि आप इंजेक्शन ढूंढते रहें
आपको चाहिए कि आप एम्बुलेंस में लेटे हुए
हर अस्पताल के बाहर चक्कर लगाएँ
और पलंग न होने पर ठुकराए जाते रहें
आपको यह करना है कि अपनी दुकानें बंद रखें
नौकरियाँ ढूंढिए, न मिलें तो सब्ज़ी बेचिए
और फिर भी वक्त है तो
वो कहानियाँ आपको आध्यात्म सिखाएंगी
कि कैसे एक अमीर एक महंगी कार से अस्पताल आया
और पलंग उसे भी न मिला तो फर्श पर लेटा कराहता रहा
जीवन या तो नश्वर है
या जीवन है “लॉक डाउन एन्जॉय” करने का नाम
ब्लेसिंग इन डिसगाइस क्यों नहीं ढूंढते आप
हिन्दी में उसका मतलब है “आपदा में अवसर” तलाशना
इतने काम हैं आपके पास
और आप हैं कि हिसाब लगा रहे हैं
कि जनता इतना कुछ होने के बाद भी
उन्हें वोट क्यों देती है?
आप परेशान क्यों हैं कि लोकतंत्र का क्या होगा?
वैसे भी कौन सा लोकतंत्र साहब?
कौन सा लोकतंत्र?
कौन जनता?
ये नफ़रत के नशे में चूर, पागल, बीमार, भूखी भीड़, जनता है?
और वो छलावा जो “पहुँच” का तंत्र है, वह लोकतंत्र?
छोड़िए यह सब
जाइए देखिए यू ट्यूब में
कि ढाबे जैसी दाल घर में कैसे बनाएँ

-निरालाई गुप्तेस्तोव

मानक
My Poems (कविताएँ)

कहानियाँ

मरुस्थल की रेत के पास होती हैं
बहती नदियों की कहानियाँ

जंगलों की कहानियाँ
धरती में दबा कोयला सुनाता है

मूर्तियाँ सुना सकती है
छैनियों और पत्थरों की कहानियाँ

मेरे पास तुम्हारी
और तुम्हारे पास मेरी कहानियाँ हैं

एक दिन उन नदियों और जंगलों की तरह
हम दोनों न होंगे

इसलिए चलो अपनी सारी कहानियाँ सुना दें हम
बहुत सारे बच्चों को
पीपल के पेड़ों को
बहती हुई नदियों
और गुफाओं को

हम नहीं होंगे
हमारी कहानियाँ होंगी

– हितेन्द्र अनंत

मानक
My Poems (कविताएँ)

द मेकिंग ऑफ़ – अ हिंदी कविता

द मेकिंग ऑफ़ – अ हिंदी कविता

[कवि ने सोचा कि कविता लिखी जाए
कविता में जनता के सरोकार हों
ग्राम्य जीवन की महक हो
इसलिए कवि ने लिखा]

चरवाहों के बच्चे
घूमते हैं सारा दिन
हाथों में बाँसुरी और एक लाठी लिए
हाँकते हुए बकरियों को

(यहाँ पैसिव वॉइस में “बच्चे चरवाहों के” लिखा जा सकता  था
घूमते की जगह “भटकते हैं सारा दिन” कैसा रहेगा?
बाँसुरी और लाठी कुछ जम नहीं रहा
बकरियों की जगह भेड़ें लिखें तो अपील यूनिवर्सल होगी
चरवाहों में कुछ मिथिकल सा एलिमेंट है
इसे प्रगतिशील और कंटेम्परेरी
बनाने के लिए चरवाहों को
मज़दूरों से रिप्लेस किया जाए)

[सो अब कवि ने लिखा]

बच्चे मज़दूरों के
भटकते हैं सारा दिन
उस बनती हुई ऊँची इमारत के इर्द गिर्द
जहाँ बिखरी हुई रेत और गिट्टी की तरह
बिखरता जाता है उनका बचपन

(पैसिव वॉइस बेहतर है
भटकते की बजाय भटकते रहते हैं होना चाहिए
बिखरी हुई रेत की जगह “बिखरी हुई बालू” बेहतर होगा
बचपन बिखरता जाता है या छूटता जाता है?
बिखरने में लय है
इसके आगे जल-जंगल-ज़मीन की एंट्री बनती है
इसके आगे कॉन्फ्लिक्ट जल्द आना चाहिए
एक इमोशनल कैरेक्टर भी चाहिए
माँ को लाना होगा)

[सो कवि ने आगे लिखा]

माँ उन बच्चों की
चाहकर भी नहीं ले पाती उनकी सुध
उसके सर पर काम का बोझ है
और दिल में बच्चों के बिखरते बचपन का दर्द
याद आती है उसे
गाँव के जल, जंगल और ज़मीन की

(सुध नहीं ले पाती या नज़र नहीं रख पाती?
माँ की एंट्री इमोशनल है
लेकिन जनवादी पक्ष छूटना नहीं चाहिए
कविता की शुरुआत में ही सरोकार हैं सर्वहारा वर्ग के
लेकिन अब तक इस कविता में आग नहीं है)

[कवि अब आग कहाँ से लाएगा
वह कोई गुलज़ार तो है नहीं
कि “जा पड़ोसी के चूल्हे से आग लई ले”
यह नितांत छिछोरी बात हो गई
वैसे पड़ोसी के चूल्हे से आग लेने में
एक क़िस्म की कॉमरेडरी तो है ही
कवि ने फ़ैसला किया है कि वह आगे लिखेगा]

कृपया ध्यान दें:
१. कोष्ठक से बाहर है वह कविता है।
२. ( ) के अंदर कवि की टीप है।
३. [ ] के अंदर निरालाई गुप्तेस्तोव की टीप है।

प्रस्तुति
निरालाई गुप्तेस्तोव
सुदूर साइबेरिया के क्रांतिकारी कवि
नोट: इनकी खुद की कविताओं में हमेशा आग होती है।







मानक
My Poems (कविताएँ)

अफसर लिखे सो कविता – निरालाई गुप्तेस्तोव

अफ़सर लिखे तो कविता हो जाती है

वो गर्मी के दिन थे
सड़क पर पिघल रहा था कोलतार
(कवि क्या डामर है जो डामर लिखेगा?)
उसके पैरों में नहीं थी चप्पल
सर पर तपता सूरज
हाथों में थैला
मुट्ठी में सौ का नोट
मन में सूची सामानों की
दिल में खौफ़ मालकिन का
कि देर ना हो जाए

अफसर ने लिखी यह कविता
सर्वहारा वर्ग के प्रति उसकी संजीदगी को देखकर
पत्रिका के सम्पादक की आंखों में आँसू आ गए
अफ़सर की कविताओं में बिम्ब है चिम्ब है इम्ब है
भाषा ऐसी है कि वैसी है
संवेदना स्वर बनकर फूट पड़ी है
नए प्रतिमान गढ़े हैं
कविता हो तो ऐसी हो

  • निरालाई गुप्तेस्तोव
    (सुदूर रूस के साइबेरिया प्रांत में रहने वाले क्रांतिकारी कवि)
    नोट – इनकी कविताओं में आग है।
मानक
My Poems (कविताएँ)

रुक जाना चाहिए

एक दिन बस रुक जाना चाहिए
इससे कोई फ़र्क़ नही पड़ता कि अब तक आप कितना चले
और कितना चलना बाक़ी है

क्यों रुकना चाहिए?
क्योंकि सिर्फ़ चलते रहना
दरअसल एक प्रकार का थम जाना ही है

हितेन्द्र अनंत

मानक
My Poems (कविताएँ)

नदी किनारे नारियल है रे भाई

नदी किनारे
नारियल है रे भाई
नारियल है रे

टॉर्च की लाइट में
टेम्परेचर है रे भाई
टेम्परेचर है रे

कैंडल की लाइट में
टेम्परेचर है रे भाई
टेम्परेचर है रे

दिए की लाइट में
टेम्परेचर है रे भाई
टेम्परेचर है रे

म्हारे कोरोना का काल
टेम्परेचर है रे भाई
टेम्परेचर है रे

म्हारे मोदी जी में
स्वैग है रे भाई
स्वैग है रे

नदी किनारे
नारियल है रे भाई
नारियल है रे

  • निरालाई गुप्तेस्तोव
    साइबेरिया, रूस
    (नोट – हमारी कविताओ में आग है)
मानक
विविध (General), My Poems (कविताएँ)

भुला देना चाहता हूँ

आपके लिए आसान होगा यह कहना
कि सब कुछ याद रखा जाएगा
मेरे लिए नहीं है
अब तक जो याद रखा है
और रोज़ जो जुड़ता जा रहा है
वह मुझे बहुत बीमार बना रहा है

क्या करूंगा मैं याद रखकर?
क्या कोई जंग जीत जाने के बाद
सज़ाएँ लिखूंगा और बख़्शीशें बाटूंगा?
या स्वर्ग और नर्क के दरवाज़े पर
कहूँगा कि आप बाएँ मुड़िए और आप दाएँ?

इससे पहले भी बहुत कुछ याद रखा
क्या हुआ?

यह जो यादें भरी हैं
वो अंदर हैं
तकलीफ़ें बनकर रहती हैं
यादें हैं तो बार-बार आती हैं
बार-बार, वही सब
अब और नहीं

लोग कहते हैं यह दुनिया बहुत छोटी हो गई है
पर इस छोटी सी दुनिया में भी
किसी कोने में एक छोटी सी और दुनिया होगी
मैं वहाँ छिपकर रहना चाहता हूँ
जो है वह भुला दूँ
और नया कुछ न जोड़ूँ

आप मुझे कायर, भगौड़ा और डरपोक कहिए
कहिए मेरा भी यह सब याद रखा जाएगा
मैं आपके इस याद रखने को भी
भुला देना चाहता हूँ

– हितेन्द्र अनंत

मानक