संगीत

एक ख़ूबसूरत गीत जिसका फिल्मांकन भी उतना ही ख़ूबसूरत है

हिन्दी फ़िल्मी गीतों के समृद्ध संसार में, ऐसे कुछ ही गीत हुए हैं जिनकी हर एक बात ख़ास है। यानी गीत अच्छा, गायकी अच्छी, अच्छा संगीत और फिल्मांकन भी उतना ही अच्छा। इनमें से एक गीत जो मुझे बेहद पसंद है वह है फिल्म मासूम (१९८३) का “हुज़ूर इस क़दर भी न इतरा के चलिए“।

गीत को लिखा है गुलज़ार ने, संगीत दिया है राहुल देव बर्मन ने और इसे गाया है दो महान गायकों भूपेन्द्र और सुरेश वाडकर की जोड़ी ने। यह गीत मुख्य रूप से दो महान अभिनेताओं सईद जाफ़री और नसीरुद्दीन शाह पर फिल्माया गया है।

गुलज़ार ने यह जो गीत लिखा है, वह उनके सबसे अच्छे गीतों में से एक है। इसका यूँ तो एक-एक अंतरा सुंदर है, लेकिन मुखड़े के अतिरिक्त आख़िरी अंतरा “बहुत ख़ूबसूरत है हर बात लेकिन, अगर दिल भी होता तो क्या बात होती” इस गीत को अलग ही स्तर पर ले जाता है।

आर डी बर्मन का संगीत भी बेहद अच्छा बन पड़ा है। एक ख़ास महफ़िल के माहौल में यह संगीत एकदम सटीक बैठता है।

सुरेश वाडकर और भूपेन्द्र दोनों ने ही जो गया है वह यादगार है। मैं इस गीत को सुनते हुए दोनों की आवाज़ पर ग़ौर करता हूँ और दोनों को एक दूसरे से बेहतर पाता हूँ। भूपेन्द्र की आवाज़ में विशेष गम्भीरता है जो ग़ज़लों-नज़्मों पर फिट बैठती है। सुरेश वाडकर की सुरीली आवाज़ इस गीत की गहराई बढ़ा देती है।

अब इन सबसे बढ़कर जो बात है, वह है इस गीत का फिल्मांकन। सत्तर-अस्सी के दशक की एक महफ़िल का दृश्य है। सईद जाफ़री और नसीरुद्दीन शाह दोनों ने थोड़ी शराब पी रखी है। सईद जाफ़री की अपेक्षा नसीर साहब कुछ अधिक ही मस्तमौला मूड में दिखाए दे रहे हैं। कभी वो सिर पर जाम रखकर नाचते हैं, तो कभी फर्श पर पसर जाते हैं। उनकी पत्नी की भूमिका निभा रही शबाना आज़मी हल्की सी शंकित तो हैं, लेकिन अपने पति के इन मस्ती वाले पलों को मुस्कुराते हुए निहार भी रही हैं। सईद साहब और नसीर साहब, दोनों दोस्त महफ़िल में आई सुंदरियों के साथ हल्का मज़ाक करते हैं , तो कभी नृत्य कर लेते हैं। इस पूरे दौर में नसीर साहब की आंखें एकदम वैसी गोल हो गई हैं जैसी किसी नशे में मस्त शराबी की होती हैं। और दोनों का नृत्य यूँ है कि बस संगीत और नशे की लय में जो अच्छा लगा कर लिया। एक जगह तो दोनों ज़रा सा भरनाट्यम भी करते देखे जाते हैं। अब नसीर साहब जैसे महान अभिनेता को इस तरह नाचते देखना, भला हिंदी फिल्मों का कौन रसिक है जो कभी भूल पाएगा।

महफ़िल के इस दृश्य को देखकर सोचता हूँ, वो दौर कहाँ गया जब शामों का और महफ़िलों का ऐसा आयोजन हुआ करता था। मन करता है ऐसी किसी महफ़िल में जाकर दोस्तों के साथ कोई गीत गाऊँ। शराब पी जा रही है, लेकिन शराब है, वह “दारू” नहीं जो जिसे पीना आजकल के गानों में मर्दानगी या बहादुरी का प्रतीक बना दिया गया है। शराब मस्त माहौल का एक ज़रिया है। संगीत महफ़िल की जान है। दोस्तों की चुहलबाज़ी नयनाभिराम है।

आजकल की अनेक महफ़िलों में जहाँ डीजे का कानफोड़ू संगीत है , और नृत्य का मतलब फ़िल्मी नृत्य की नकल बन गया है, इस गीत को देख लेना और सुन लेना ठण्डक प्रदान करता है।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
संगीत, समाज

“कमल की वखत तो केवल कमल जानता है। सागौन जो यहाँ लगे हैं, इनको क्या मालूम कमल की वखत?

*** “कमल की वखत तो केवल कमल जानता है। सागौन जो यहाँ लगे हैं, इनको क्या मालूम कमल की वखत?” ***

“आप गाते हैं कि माला, मुद्रा, छाप, तिलक, व्रत आदि सब छोड़ने की बात #कबीर साहब करते हैं। लेकिन महंत बनकर जब आप खुद चौका-आरती करते हैं तो यह क्या है?”
स्टैंफोर्ड विश्वविद्यालय की प्रोफेसर लिंडा हेस यह सवाल खालिस हिन्दी में पूछती हैं, प्रख्यात कबीरपंथी गायक श्री प्रह्लाद टिपानिया से।

#टिपानिया जी जवाब देते हैं:

“आप उसके अंदर जाकर जब काम करेंगे तो पता चलेगा। भई जिन लोगों के अंदर चौका आरती के प्रति जो श्रद्धा बनी हुए है, उस श्रद्धा को आप ठुकराओगे तो आपको कौन मानेगा?

सवाल केवल यह है कि जो व्यवस्थाएँ हैं, उन व्यवस्थाओं के भीतर जो बुराइयाँ आ गयी हैं उन बुराइयों को आप कैसे दूर करेंगे?”

लिंडा फिर पूछती हैं – “दो रास्ते हैं, एक तो यह कि धर्म, परम्परा सब छोड़कर, ऊपर से, शिखर से, जगदर्शन का मेला देखें, या दूसरा यह कि हम परम्परा के अंदर, उस धार्मिक समाज के अंदर जाकर उसको बदलने की कोशिश करेंगे, तो वो दूसरा रास्ता आपने चुन लिया।”

टिपानिया जी कहते हैं:

“देखिए, हम इस भौतिक संसार के कीचड़ में फँसे हुए हैं, और बात हम ठेठ ऊपर की कर रहे हैं तो बहुत अच्छी बात है। वो इसलिए कि उस कीचड़ से आप ऊपर उठ गए हैं और फिर उस कीचड़ की या पानी की बूँद आप पर नहीं ठहरेगी। परन्तु कब? जब कमल बनोगे तब। और कमल हमेशा पानी के अंदर रहकर ही ऊपर आता है।

तो इसी तरह से किसी भी चीज़ के बोध के लिए आपको उसके अंदर जाना पड़ेगा। और उस कीचड़ के अंदर से जब आप ऊपर आएँगे तो तो कीचड़ वाले समझेंगे कि अरे बाप रे! ये हमारा आदमी था, हमारे बीच पैदा हुआ, लेकिन अब इसके भीतर ये ठहर क्यों नहीं रहा पानी? तो आपको उसमें रहकर तो उसके ऊपर आना पड़ेगा बाहर। पर ये कब होगा? जब आप उनके बीच में रहेंगे तब। आप सोचो कि आप तालाब के किनारे से बाहर ही रह गए तो आपको क्या मालूम पडेगा? और वो लोग क्यों मानें आपको? कमल की वखत तो केवल कमल जानता है। सागौन जो यहाँ लगे हैं, इनको क्या मालूम कमल की वखत?”
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यह और ऐसे बाकी महत्वपूर्ण संवाद इस डॉक्यूमेंट्री में हैं:

https://www.youtube.com/watch?v=K0ha9S2r-mI

लिखते समय संवादों को सुविधा हेतु बहुत थोड़ा सा बदला है।
– हितेन्द्र अनंत

मानक
संगीत

ओ एस अरुण की आवाज़ में भो: शम्भो

स्वामी दयानंद सरस्वती (आर्य समाज वाले नहीं) की रचना, बाबा भोलेनाथ की शायद सबसे सुंदर आराधना है। इसे अनेक गायकों ने गाया। अनेक नृत्यांगनाओं ने इस पर प्रस्तुति दी। कोक स्टूडियो में भी इसकी एक तर्ज मिलती है। लेकिन मुझे सबसे अधिक जो पसंद है वह है दक्षिण के शास्त्रीय संगीत के गायक ओ एस अरुण द्वारा गाई हुई।

जहाँ तक इस पर नृत्य का प्रश्न है, क्रोएशिया की निकोलिना निकोलेस्की का नृत्य मनमोहक है और अनेक भारतीय नृत्यांगनाओं से बेहतर है।

स्वामी दयानंद सरस्वती की रचना इस प्रकार है:

भो शम्भो शिव शम्भो स्वयंभो
गङ्गाधर शङ्कर करुणाकरा मामव भव सागर तारका
निर्गुण परब्रह्मस्वरूपा गमागम भूत प्रपञ्च रहिता
निज गुणनिहित नितान्त अनन्ता आनन्द अतिशय अक्षयलिङ्गा
धिमित धिमित धिमि धिमि किट किटतों तों तों तरिकिट तरिकिट किट तों
मतङ्ग मुनिवर वन्दित ईशा सर्व दिगंबर वेष्टित वेषा
नित्य निरञ्जन नित्य नटेशा ईशा सबेशा सर्वेशा

– हितेन्द्र अनंत

मानक