अपनी बात

इन दिनों मैं क्यों कम लिखता और बोलता हूँ?

आजकल यूँ तो मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूँ, लेकिन जितना अधिक चाहता हूँ, उतना ही कम कहता हूँ। ऐसा बहुत कुछ मेरी दुनिया में घटित हो रहा है जो मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है। लेकिन हर बार जब मन करता है कि किसी बात पर मेरी अपनी भी कोई बात होनी चाहिए, तब मैं चुप हो जाता हूँ।  

कभी-कभी मैं यह सोचकर चुप हो जाता हूँ कि जो मैं कहने जा रहा हूँ, वैसा ही जब पहले कहा था तो उसका कोई असर नहीं हुआ। कभी इसलिए कुछ नहीं कहता कि मुझे लगता है कि इस विषय में मेरे लिए फ़िलहाल कोई भी मुकम्मल राय बना पाना संभव नहीं है, या कि मुझे कुछ भी कहने से पहले और अधिक जानने की आवश्यकता है।  

लेकिन इन दोनों कारणों से बढ़कर एक कारण और है। बीते दस सालों में दुनिया में बात करना बहुत ही मुश्किल हो गया है। किसी भी बात को कहना चाहो तो यह सोचना पड़ता है कि सुनने या पढ़ने वालों की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। ऐसे विषय जिन पर पहले कभी कोई बहस नहीं हुआ करती थी, लोग अब उन पर घंटों उलझे रहते हैं। यदि किसी बात का केवल एक पक्ष भी हो, तो भी लोग उस बात के दो पक्ष या अनेक पक्ष बना लेते हैं। शायद इसीलिए बना लेते हैं ताकि कहने वाले के जवाब में वे भी कुछ कह पाएँ। इससे किसी भी बात के कहे जाने पर एक शोर-शराबे का माहौल बन जाता है। केवल दो लोग एक बंद कमरे में बात कर रहे हों, वे ज़ोरों से भले ही बात न करें, लेकिन उनकी बातों से बाहर नहीं तो उनके अपने भीतर ही शोर हो जाता है। 

लोग पहले जब चौपालों में या बैठकों में आपस में बातें करते थे, तो कुछ लोग कहने वाले होते थे, और बहुत से सुनने वाले।  बहसें तब भी होती होंगी, लेकिन उन बहसों से किसी को पीड़ा नहीं पहुँचती थी। अब लोग शायद यह देखने लगे हैं कि कैसे हम बात करें कि किसी न किसी को पीड़ा हो। बात चाहे साहित्य की हो, राजनीति की, या किसी बीमारी के इलाज की ही क्यों न हो , लोगों से किसी भी विषय पर बात करना एक पीड़ादायक अनुभव बनता जा रहा है।  

ईमानदारी से यह स्वीकार करता हूँ कि कुछ साल पहले जब इस किस्म की चर्चाओं की शुरुआत हुई, तो मैं खुद बातों को उलझाने में या बात करते हुए एक क़िस्म की वाचिक हिंसा फैलाने में सुख पाया करता था। किसी से अपनी बात मनवा ली, या किसी को बहस में हरा दिया, या किसी को इतना परेशान कर दिया कि उसने बहस ही छोड़ दी, मैं इन सबमें आनंद महसूस किया करता था। लेकिन बीते करीब एक साल से मुझे ऐसा लगने लगा है कि इससे एक तो मेरे भीतर की शांति भंग हो रही है, दूसरे, मुझे या इन चर्चाओं में भाग वाले किसी और को भी, इन सब बातों से कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। कई बार बेहद उद्वेलित कर देने वाली घटनाओं पर भी मैं इसीलिए चुप रहने लगा हूँ।

मैं किसी से यह नहीं कहना चाहता कि वे चुप रहें, न ही मैं मौन रहने की कोई वक़ालत कर रहा हूँ। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि हम एक ऐसे अभूतपूर्व समय में जी रहे हैं जहाँ किसी भी प्रकार की अर्थपूर्ण चर्चा की शायद कोई भी संभावना नहीं बची है। ऐसी अवस्था में क्या किया जाना चाहिए यह मैं नहीं कह सकता। न ही मैं उन्हें ग़लत कह सकता हूँ जो तमाम बाधाओं के बावजूद अपनी बात अभी भी रख रहे हैं। लेकिन निजी तौर पर कुछ भी कहना मुझे अब निरर्थक ही लगने लगा है। यहाँ मैं जानबूझकर ऐसी चर्चाओं के उदाहरण नहीं लिख रहा, क्योंकि उन उदाहरणों के उल्लेख मात्र से इसे पढ़ने वाले का ध्यान उन घटनाओं पर चला जाएगा और इस लिखे हुए का भी वही परिणाम होगा जिसकी मुझे शिकायत है। 

चुप रहकर क्या मुझे अधिक शांति का अनुभव होता है? नहीं। मेरे भीतर बहुत सी बातें हैं, बहुत से विषयों पर मेरी एक राय है, इसलिए मैं भीतर बहुत शांत हूँ ऐसा भी नहीं है। लेकिन किसी बात को कहने के बाद आजकल जो वाचिक हिंसा का माहौल बनता है, मैं फिलहाल उस अतिरिक्त वेदना से तो बचना ही चाहता हूँ। 

– हितेन्द्र अनंत 

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