समाज, सामयिक (Current Issues)

उबर पर युनाइटेड किंगडम के फ़ैसले के भारत में गिग इकोनॉमी के लिए मायने

यूनाइटेड किंगडम के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में टैक्सी एग्रीगेटर एप उबर के ख़िलाफ़ फैसला दिया है कि उसकी टैक्सी चलाने वाले सभी चालक अब उसके कर्मचारी माने जाएंगे और वे सभी सेवानिवृत्ति और सामाजिक सुरक्षा के लाभों के हक़दार होंगे।

इस फैसले के भारत सहित पूरे विश्व में दूरगामी परिणाम होंगे। बाकी देशों की अदलातों के सामने इस फ़ैसले का संदर्भ निश्चित ही महत्वपूर्ण होगा।

फैसले के बारे में:

1. सात वर्ष चली इस न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उबर ने यह दलील रखी कि वह सिर्फ ग्राहकों और चालकों को प्लैटफॉर्म की सुविधा देती है। और चूँकि, चालक अपनी मर्ज़ी के अनुसार जब चाहे और जितनी देर चाहे काम कर सकते हैं, उन्हें उबर का कर्मचारी नहीं मना जा सकता।
2. उबर की इस दलील को रद्द करते हुए अदालत ने जिन बातों को आधार माना उनमें प्रमुख यह है कि भले ही उबर और चालकों के बीच का क़रार एक नियोक्ता और कर्मचारी के बीच होने वाला क़रार नहीं है, फिर भी, उबर इस पूरे व्यापार की शर्तों को पूरी तरह नियंत्रित करती है और इन्हें निर्धारित करने में चालकों की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं है। अर्थात, यह सम्बन्ध व्यापारिक संबंधों की तरह दोतरफ़ा न होकर नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों की तरह एकतरफा है।
3. अदालत के अनुसार ग्राहकों द्वारा दिए गए रेटिंग सिस्टम के आधार पर उबर चालकों की सेवा रद्द करने का अधिकार रखती है। अदालत ने माना कि उबर यह भी तय करती है कि किसी भी फेरे में अधिकतम किराया कितना होगा, इस प्रकार उबर चालकों की अधिकतम आय पर नियंत्रण रखती है। साथ ही, एक बार लॉगिन करने के बाद उबर के चालक के पास आने वाले फेरों में से चुनने का अधिकार नहीं होता है। यदि चालक बार-बार राइड कैंसल करें, तो उबर उन पर जुर्माना भी लगाती है, यह भी उबर द्वारा नियंत्रित है। एक और बात जो अदालत ने मानी वह यह कि फेरों के तय होने तक यात्री और चालक के बीच सीधे संवाद असम्भव है। अतः इस दृष्टि से भी इस प्रक्रिया में उबर का ही नियंत्रण है। इन सभी कारणों से उबर और चालकों के बीच के सम्बन्ध को एक नियोक्ता और कर्मचारी के बीच का सम्बन्ध ही माना जा सकता है।
4. गिग इकोनॉमी प्रायः ऐसे व्यापारों की व्यवस्था को कहते हैं जिनमें कोई ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म ग्राहकों को पार्टटाइम या फ्रीलांस पेशेवरों या कामगारों को जोड़ता है। स्विगी,जोमैटो, बिग-बास्केट, ओला व उबर इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
5. भारत में हाल ही के केंद्रीय बजट में गिग इकोनॉमी के कामगारों को सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों से जोड़ने की बात की गई है। नए लेबर कोड में भी इसका कुछ उल्लेख है। यह अच्छी संकेत हैं। लेकिन बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

भारत में इस फैसले का यहाँ की गिग इकोनॉमी प्रभाव और अन्य प्रश्न
6. उम्मीद की जानी चाहिए कि ब्रिटेन के फैसले के आधार पर भारत में भी अदालतें गिग इकोनॉमी के कामगारों के अधिकारों को मान्यता देते हुए उन्हें राहत पहुंचाएंगी।
7. इस प्रकरण से एक सवाल यह उठता है आखिर यह गिग इकोनॉमी क्या वाकई समाज एवँ बाज़ार के लिए उपयोगी हैं? हममें से अनेक लोग प्रायः यह कहते हैं कि ओला-उबर की वजह से रिक्शे वालों की मनमानी से हमें मुक्ति मिली है। यह बात ठीक भी है। लेकिन रिक्शे वालों की मनमानी का प्रमुख कारण क्या यह नहीं कि भारत के अधिकांश शहरों में पुलिस एवँ आरटीओ रिक्शे वालों से क़ानून का पालन करवाने में अक्षम रहे हैं? मुम्बई एवँ कुछ गिने-चुने शहरों के अतिरिक्त भारत में चलती-फिरती टैक्सी को मान्यता ही नहीं है। इसलिए ओला-उबर ने यदि कोई कमी पूरी की भी है, तो क्या ऐसा नहीं है कि वो अन्य तरीकों से पूरी नहीं हो सकती थी?
8. नए रिक्शों के लाइसेन्स प्रायः या तो निकलते नहीं या उनके हासिल करने की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार है। रिक्शों या टैक्सी के लिए लोन पाना कितना आसान है यह भी एक सवाल है।
9. ओला-उबर ने हालाँकि ग्राहकों को कुछ राहत पहुँचाई है, लेकिन उनके द्वारा चालकों का जो शोषण किया जाता है वह अब एक निर्विवाद तथ्य है। ग्राहकों के संदर्भ में भी शुरुआती सालों की सस्ताई के दिन अब लद गए हैं। दिन के महत्वपूर्ण घंटों, छुट्टी के दिनों और एयरपोर्ट जैसी महत्वपूर्ण जगहों पर “सर्ज प्राइसिंग” के जरिए ये कम्पनियाँ ग्राहकों को भी लूट ही रही हैं।
10. सिर्फ़ कामगारों का सवाल नहीं है। स्विगी और जोमैटो जैसी कंपनियों से रेस्त्रां मालिक परेशान हैं,वहीं ओयो एप की वजह से होटल मालिक त्रस्त हैं। गूगल न्यूज़ ने समाचार माध्यमों का हक छीना है। यानी नुक़सान सभी वर्गों का है।
11. प्रत्येक बात को ग्राहकों या उपभोक्ताओं की सुविधा या हित से जोड़ने की सोच भी समाज विरोधी है। “ग्राहक सबसे ऊपर” का अर्थ यह नहीं कि समाज के एक वर्ग का शोषण होने दिया जाए।
12. हमारे घरों तक पिज़्ज़ा पहुँचाने वाले, या दूध-सब्ज़ी लाने वाले लड़कों को भी सम्मानजनक वेतन एवँ सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता है। यदि इसका अर्थ सेवाओं का महँगा होना है तो वही सही! क्या इन सेवाओं के पहले हम दूध, सब्ज़ी या पिज़्ज़ा का सेवन नहीं करते थे?
13. एक प्रश्न तकनीकी पर नियंत्रण के ज़रिए अनावश्यक लाभ उठाना भी है। ओला-उबर-जोमैटो जैसी कम्पनियाँ जिन सेवाओं या उत्पादों को ग्राहकों तक पहुँचा रही हैं, उस प्रक्रिया में तकनीकी प्लेटफ़ॉर्म बनाने के अतिरिक्त उनका कोई योगदान नहीं है। लेकिन पूरे व्यापार में कमाई पर उनका हिस्सा एकतरफ़ा है। यह सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तकनीकी तक उनकी पहुँच है और एक बड़े वर्ग की नहीं। क्या यह एक नए क़िस्म की पुरोहिताई नहीं है जिसमें धर्म के तरीकों और धर्म की भाषा पर वर्ग विशेष के नियंत्रण की वजह से हमारे देश को आज तक ग़ैरबराबरी को झेलना पड़ रहा है?
14. तकनीकी के असीम विकास का अर्थ क्या यह है कि हम हर नई ईजाद को अपनाएँ भले ही उससे हमें नुक़सान हो? पिछली सदी की अनेक ईजादों को अंधा होकर अपनाने के नुक़सान क्या हमारे सामने नहीं हैं?
15. सब कुछ बाज़ार की शर्तों पर छोड़ देना क्या उचित है? सामाजिक सुरक्षा, सभी वर्गों तक न्यूनतम जीवन-स्तर के साधन जुटाना क्या समाज की और राज्य की जिम्मेदारी नहीं है?

– हितेन्द्र अनंत

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