कहानी (Story), विविध (General)

बड़े घर की बेटी- मुंशी प्रेमचंद

बड़े घर की बेटी

बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गॉँव के जमींदार और नम्बरदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य संपन्न थे। गॉँव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तंभ थे। कहते हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था; पर दूध शायद बहुत देती थी; क्योंकि एक न एक आदमी हॉँड़ी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे। उनकी वर्तमान आय एक हजार रुपये वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था। उसने बहुत दिनों के परिश्रम और उद्योग के बाद बी.ए. की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल-बिहारी सिंह दोहरे बदन का, सजीला जवान था। भरा हुआ मुखड़ा,चौड़ी छाती। भैंस का दो सेर ताजा दूध वह उठ कर सबेरे पी जाता था। श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी। इन नेत्रप्रिय गुणों को उन्होंने बी०ए०–इन्हीं दो अक्षरों पर न्योछावर कर दिया था। इन दो अक्षरों ने उनके शरीर को निर्बल और चेहरे को कांतिहीन बना दिया था। इसी से वैद्यक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधियों पर उनका अधिक विश्वास था। शाम-सबेरे उनके कमरे से प्राय: खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनायी दिया करती थी। लाहौर और कलकत्ते के वैद्यों से बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी।      श्रीकंठ इस अँगरेजी डिग्री के अधिपति होने पर भी अँगरेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे; बल्कि वह बहुधा बड़े जोर से उसकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से गॉँव में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते थे। गौरीपुर में रामलीला के वही जन्मदाता थे। प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था। सम्मिलित कुटुम्ब के तो वह एक-मात्र उपासक थे। आज-कल स्त्रियों को कुटुम्ब को कुटुम्ब में मिल-जुल कर रहने की जो अरुचि होती है, उसे वह जाति और देश दोनों के लिए हानिकारक समझते थे। यही कारण था कि गॉँव की ललनाऍं उनकी निंदक थीं ! कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थीं !  स्वयं उनकी पत्नी को ही इस विषय में उनसे विरोध था। यह इसलिए नहीं कि उसे अपने सास-ससुर, देवर या जेठ आदि घृणा थी; बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने और तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाह न हो सके, तो आये-दिन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकायी जाय।      आनंदी एक बड़े उच्च कुल की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी-सी रियासत के ताल्लुकेदार थे। विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी-शिकरे, झाड़-फानूस, आनरेरी मजिस्ट्रेट और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदार के भोग्य पदार्थ हैं, सभी यहॉँ विद्यमान थे। नाम था भूपसिंह। बड़े उदार-चित्त और  प्रतिभाशाली पुरुष थे; पर दुर्भाग्य से लड़का एक भी न था। सात लड़कियॉँ हुईं और दैवयोग से सब की सब जीवित रहीं। पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किये; पर पंद्रह-बीस हजार रुपयों का कर्ज सिर पर हो गया, तो ऑंखें खुलीं, हाथ समेट लिया। आनंदी चौथी लड़की थी। वह अपनी सब बहनों से अधिक रूपवती और गुणवती थी। इससे ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुन्दर संतान को कदाचित् उसके माता-पिता भी अधिक चाहते हैं। ठाकुर साहब बड़े धर्म-संकट में थे कि इसका विवाह कहॉँ करें? न तो यही चाहते थे कि ऋण का बोझ बढ़े और न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े। एक दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चंदे का रुपया मॉँगने आये। शायद नागरी-प्रचार का चंदा था। भूपसिंह उनके स्वभाव पर रीझ गये और धूमधाम से श्रीकंठसिंह का आनंदी के साथ ब्याह हो गया।      आनंदी अपने नये घर में आयी, तो यहॉँ का रंग-ढंग कुछ और ही देखा। जिस टीम-टाम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी हुई थी, वह यहां नाम-मात्र को भी न थी। हाथी-घोड़ों का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुंदर बहली तक न थी। रेशमी स्लीपर साथ लायी थी; पर यहॉँ बाग कहॉँ। मकान में खिड़कियॉँ तक न थीं, न जमीन पर फर्श, न दीवार पर तस्वीरें। यह एक सीधा-सादा देहाती गृहस्थी का मकान था; किन्तु आनंदी ने थोड़े ही दिनों में अपने को इस नयी अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानों उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे। 

एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह दो चिड़िया लिये हुए आया और भावज से बोला–जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनंदी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठी। हांड़ी में देखा, तो घी पाव-भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोला-दाल में घी क्यों नहीं छोड़ा?      आनंदी ने कहा–घी सब मॉँस में पड़ गया। लालबिहारी जोर से बोला–अभी परसों घी आया है। इतना जल्द उठ गया?      आनंदी ने उत्तर दिया–आज तो कुल पाव–भर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया।      जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है। लालबिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक कर बोला–मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो !      स्त्री गालियॉँ सह लेती हैं, मार भी सह लेती हैं; पर मैके की निंदा उनसे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली–हाथी मरा भी, तो नौ लाख का। वहॉँ इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं।      लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी, और बोला–जी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूँ।      आनंद को भी क्रोध आ गया। मुँह लाल हो गया, बोली–वह होते तो आज इसका मजा चखाते।      अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठाकर आनंदी की ओर जोर से फेंकी, और बोला–जिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी।      आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सिर बच गया; पर अँगली में बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भॉँति कॉँपती हुई अपने कमरे में आ कर खड़ी हो गयी। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमंड होता है। आनंदी खून का घूँट पी कर रह गयी।

 

श्रीकंठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे। वृहस्पति को यह घटना हुई थी। दो दिन तक आनंदी कोप-भवन में रही। न कुछ खाया न पिया, उनकी बाट देखती रही। अंत में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये और बाहर बैठ कर कुछ इधर-उधर की बातें, कुछ देश-काल संबंधी समाचार तथा कुछ नये मुकदमों आदि की चर्चा करने लगे। यह वार्तालाप दस बजे रात तक होता रहा। गॉँव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने-पीने की भी सुधि न रहती थी। श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। ये दो-तीन घंटे आनंदी ने बड़े कष्ट से काटे ! किसी तरह भोजन का समय आया। पंचायत उठी। एकांत हुआ, तो लालबिहारी ने कहा–भैया, आप जरा भाभी को समझा दीजिएगा कि मुँह सँभाल कर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायगा।      बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर साक्षी दी–हॉँ, बहू-बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि मर्दों के मूँह लगें।      लालबिहारी–वह बड़े घर की बेटी हैं, तो हम भी कोई कुर्मी-कहार नहीं है। श्रीकंठ ने चिंतित स्वर से पूछा–आखिर बात क्या हुई?      लालबिहारी ने कहा–कुछ भी नहीं; यों ही आप ही आप उलझ पड़ीं। मैके के सामने हम लोगों को कुछ समझती ही नहीं।      श्रीकंठ खा-पीकर आनंदी के पास गये। वह भरी बैठी थी। यह हजरत भी कुछ तीखे थे। आनंदी ने पूछा–चित्त तो प्रसन्न है।      श्रीकंठ बोले–बहुत प्रसन्न है; पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है?      आनंदी की त्योरियों पर बल पड़ गये, झुँझलाहट के मारे बदन में ज्वाला-सी दहक उठी। बोली–जिसने तुमसे यह आग लगायी है, उसे पाऊँ, मुँह झुलस दूँ।      श्रीकंठ–इतनी गरम क्यों होती हो, बात तो कहो।      आनंदी–क्या कहूँ, यह मेरे भाग्य का फेर है ! नहीं तो गँवार छोकरा, जिसको चपरासगिरी करने का भी शऊर नहीं, मुझे खड़ाऊँ से मार कर यों न अकड़ता।श्रीकंठ–सब हाल साफ-साफ कहा, तो मालूम हो। मुझे तो कुछ पता नहीं।            आनंदी–परसों तुम्हारे लाड़ले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा। घी हॉँडी में पाव-भर से अधिक न था। वह सब मैंने मांस में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा–दल में घी क्यों नहीं है? बस, इसी पर मेरे मैके को बुरा-भला कहने लगा–मुझसे न रहा गया। मैंने कहा कि वहॉँ इतना घी तो नाई-कहार खा जाते हैं, और किसी को जान भी नहीं पड़ता। बस इतनी सी बात पर इस अन्यायी ने मुझ पर खड़ाऊँ फेंक मारी। यदि हाथ से न रोक लूँ, तो सिर फट जाय। उसी से पूछो, मैंने जो कुछ कहा है, वह सच है या झूठ।      श्रीकंठ की ऑंखें लाल हो गयीं। बोले–यहॉँ तक हो गया, इस छोकरे का यह साहस !    आनंदी स्त्रियों के स्वभावानुसार रोने लगी; क्योंकि ऑंसू उनकी पलकों पर रहते हैं। श्रीकंठ बड़े धैर्यवान् और शांति पुरुष थे। उन्हें कदाचित् ही कभी क्रोध आता था; स्त्रियों के ऑंसू पुरुष की क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम देते हैं। रात भर करवटें बदलते रहे। उद्विग्नता के कारण पलक तक नहीं झपकी। प्रात:काल अपने बाप के पास जाकर बोले–दादा, अब इस घर में मेरा निबाह न होगा।      इस तरह की विद्रोह-पूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था; परन्तु दुर्भाग्य, आज उन्हें स्वयं वे ही बातें अपने मुँह से कहनी पड़ी ! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज  है!      बेनीमाधव सिंह घबरा उठे और बोले–क्यों?      श्रीकंठ–इसलिए कि मुझे भी अपनी मान–प्रतिष्ठा का कुछ विचार है। आपके घर में अब अन्याय और हठ का प्रकोप हो रहा है। जिनको बड़ों का आदर–सम्मान करना चाहिए, वे उनके सिर चढ़ते हैं। मैं दूसरे का नौकर ठहरा घर पर रहता नहीं। यहॉँ मेरे पीछे स्त्रियों पर खड़ाऊँ और जूतों की बौछारें होती हैं। कड़ी बात तक चिन्ता नहीं। कोई एक की दो कह ले, वहॉँ तक मैं सह सकता हूँ किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात-घूँसे पड़ें और मैं दम न मारुँ। बेनीमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर अवाक् रह गया। केवल इतना ही बोला–बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो? स्त्रियॉं इस तरह घर का नाश कर देती है। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।श्रीकंठ–इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से, इसी गॉँव में कई घर सँभल गये, पर जिस स्त्री की मान-प्रतिष्ठा का ईश्वर के दरबार में उत्तरदाता हूँ, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत् व्यवहार मुझे असह्य है। आप सच मानिए, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लालबिहारी को कुछ दंड नहीं होता।अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाये। ऐसी बातें और न सुन सके। बोले–लालबिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल–चूक हो, उसके कान पकड़ो लेकिन.श्रीकंठलालबिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।बेनीमाधव सिंह–स्त्री के पीछे?श्रीकंठजी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण।दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लालबिहारी ने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गॉँव के और कई सज्जन हुक्के-चिलम के बहाने वहॉँ आ बैठे। कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने की तैयार हैं, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणियॉँ सुनने के लिए उनकी आत्माऍं तिलमिलाने लगीं। गॉँव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कुल की नीतिपूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे। वे कहा करते थेश्रीकंठ अपने बाप से दबता है, इसीलिए वह दब्बू है। उसने विद्या पढ़ी, इसलिए वह किताबों का कीड़ा है। बेनीमाधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है। इन महानुभावों की शुभकामनाऍं आज पूरी होती दिखायी दीं। कोई हुक्का पीने के बहाने और कोई लगान की रसीद दिखाने आ कर बैठ गया। बेनीमाधव सिंह पुराने आदमी थे। इन भावों को ताड़ गये। उन्होंने निश्चय किया चाहे कुछ ही क्यों न हो, इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूँगा। तुरंत कोमल शब्दों में बोले–बेटा, मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ। तम्हारा जो जी चाहे करो, अब तो लड़के से अपराध हो गया।इलाहाबाद का अनुभव-रहित झल्लाया हुआ ग्रेजुएट इस बात को न समझ सका। उसे डिबेटिंग-क्लब में अपनी बात पर अड़ने की आदत थी, इन हथकंडों की उसे क्या खबर? बाप ने जिस मतलब से बात पलटी थी, वह उसकी समझ में न आया। बोलालालबिहारी के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता।      बेनीमाधवबेटा, बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते। वह बेसमझ लड़का है। उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बड़े होकर क्षमा करो।      श्रीकंठउसकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता। या तो वही घर में रहेगा, या मैं ही। आपको यदि वह अधिक प्यारा है, तो मुझे विदा कीजिए, मैं अपना भार आप सॅंभाल लूँगा। यदि मुझे रखना चाहते हैं तो उससे कहिए, जहॉँ चाहे चला जाय। बस यह मेरा अंतिम निश्चय है।      लालबिहारी सिंह दरवाजे की चौखट पर चुपचाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था। वह उनका बहुत आदर करता था। उसे कभी इतना साहस न हुआ था कि श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाय, हुक्का पी ले या पान खा ले। बाप का भी वह इतना मान न करता था। श्रीकंठ का भी उस पर हार्दिक स्नेह था। अपने होश में उन्होंने कभी उसे घुड़का तक न था। जब वह इलाहाबाद से आते, तो उसके लिए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते। मुगदर की जोड़ी उन्होंने ही बनवा दी थी। पिछले साल जब उसने अपने से ड्यौढ़े जवान को नागपंचमी के दिन दंगल में पछाड़ दिया, तो उन्होंने पुलकित होकर अखाड़े में ही जा कर उसे गले लगा लिया था, पॉँच रुपये के पैसे लुटाये थे। ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी हृदय-विदारक बात सुनकर लालबिहारी को बड़ी ग्लानि हुई। वह फूट-फूट कर रोने लगा। इसमें संदेह नहीं कि अपने किये पर पछता रहा था। भाई के आने से एक दिन पहले से उसकी छाती धड़कती थी कि देखूँ भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊँगा, उनसे कैसे बोलूँगा, मेरी ऑंखें उनके सामने कैसे उठेगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे। इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया। वह मूर्ख था। परंतु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं। यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो-चार बातें कह देते; इतना ही नहीं दो-चार तमाचे भी लगा देते तो कदाचित् उसे इतना दु:ख न होता; पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता, लालबिहारी से सहा न गया ! वह रोता हुआ घर आया। कोठारी में जा कर कपड़े पहने, ऑंखें पोंछी, जिसमें कोई यह न समझे कि रोता था। तब आनंदी के द्वार पर आकर बोलाभाभी, भैया ने निश्चय किया है कि वह मेरे साथ इस घर में न रहेंगे। अब वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए अब मैं जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊँगा ! मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना।       यह कहते-कहते लालबिहारी का गला भर आया।                        जिस समय लालबिहारी सिंह सिर झुकाये आनंदी के द्वार पर खड़ था, उसी समय श्रीकंठ सिंह भी ऑंखें लाल किये बाहर से आये। भाई को खड़ा देखा, तो घृणा से ऑंखें फेर लीं, और कतरा कर निकल गये। मानों उसकी परछाही से दूर भागते हों।आनंदी ने लालबिहारी की शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में पछता रही थी वह स्वभाव से ही दयावती थी। उसे इसका तनिक भी ध्यान न था कि बात इतनी बढ़ जायगी। वह मन में अपने पति पर झुँझला रही थी कि यह इतने गरम क्यों होते हैं। उस पर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो कैसे क्या करुँगी। इस बीच में जब उसने लालबिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ, मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, क्षमा करना, तो उसका रहा-सहा क्रोध भी पानी हो गया। वह रोने लगी। मन का मैल धोने के लिए नयन-जल से उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है।      श्रीकंठ को देखकर आनंदी ने कहालाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं।      श्रीकंठ–तो मैं क्या करूँ?      आनंदीभीतर बुला लो। मेरी जीभ में आग लगे ! मैंने कहॉँ से यह झगड़ा उठाया।      श्रीकंठ–मैं न बुलाऊँगा।      आनंदी–पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गयी है, ऐसा न हो, कहीं चल दें।      श्रीकंठ न उठे। इतने में लालबिहारी ने फिर कहा–भाभी, भैया से मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए मैं भी अपना मुँह उन्हें न दिखाऊँगा।      लालबिहारी इतना कह कर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अंत में आनंदी कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लालबिहारी ने पीछे फिर कर देखा और ऑंखों में ऑंसू भरे बोला–मुझे जाने दो।

      आनंदी कहॉँ जाते हो?

लालबिहारी–जहॉँ कोई मेरा मुँह न देखे।      आनंदीमैं न जाने दूँगी?      लालबिहारीमैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।      आनंदीतुम्हें मेरी सौगंध अब एक पग भी आगे न बढ़ाना।      लालबिहारीजब तक मुझे यह न मालूम हो जाय कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापि न रहूँगा।      आनंदीमैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मैल नहीं है।      अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लालबिहारी को गले लगा लिया। दोनों भाई खूब फूट-फूट कर रोये। लालबिहारी ने सिसकते हुए कहाभैया, अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूँगा। इसके सिवा आप जो दंड देंगे, मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा।      श्रीकंठ ने कॉँपते हुए स्वर में कहा–लल्लू ! इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा, तो फिर ऐसा अवसर न आवेगा।      बेनीमाधव सिंह बाहर से आ रहे थे। दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनंद से पुलकित हो गये। बोल उठेबड़े घर की बेटियॉँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं।      गॉँव में जिसने यह वृत्तांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा—‘बड़े घर की बेटियॉँ ऐसी ही होती हैं।

 

मानक

45 विचार “बड़े घर की बेटी- मुंशी प्रेमचंद&rdquo पर;

  1. md.mohsin jawed कहते हैं:

    main munshi premchand ka fan hoon, premchand ji mere sabse favourite writter hain..main unki bahut si kahaniyan padhh chuka hoon,unki bahut si kitabein mere paas hain, main manta hoon ki wey ek mahaan lekhak the unke jaisa koi aur na ho sakega kyonki unki kahaniyaan gaaon ki pristbhoomi per hoti thi.aaj 150 saal baad bhi unki kahani hameim sochne per majboor kar deti hai………….

  2. Ajeet Bartwal कहते हैं:

    —-Meri kahani—

    ****DO GARIB, JADUGAR AUR SADHU*********

    ek gaon main do bhai rhate the. jo ki bahut garib the. un dono bhaio main bahut prem tha. bade bhai ka naam mahesh aur chhote ka naam naresh tha.
    ek baar mahesh kisi kaam se gaon se bahar gya aur usne bahar jate samay naresh ko aapna khayal rakhane ke liye kha. mahesh jangal ke raste ja rha
    tha ki use wanha per ek aadmi mila jo ki bahut buda tha aur garib tha, usne mahesh se kha ki tum khna ja rhe ho, mahesh ne kha ki main shahar ja rha
    hoon, us bude ne kha ki main bhi shahar ja rha tha, par ab tum mil gye ho tho hum dono shahar jayenge. jisse ki hum dono ko choro ka dar nhi hoga aur
    hum ek dusre ki madad bhi ker sakte hai, aur mahesh aur buda dono shahar ki taraf jane lage, shahar kafi dur tha jisse ki unhe raat ko us jangal main
    hi rukna pda aur wo dono apne liye sone ki jagah dhundne lage, tabhi paas main hi unhe ek ghar dikhayi diya aur wo dono us taraf jane lage, us ghar
    main ek jadugar aadmi rahata tah jo ki bahut hi khatarnaak tha. wo logo ko maar ker ke unka sharir ek ped per latka deta tha aur kuch dino baad wo un
    latke sharir ko nikalta tha aur unki haddion se ghar banata tha. aur unke sharir ka maans nikal kar usko jangli janwaro ko khila deta tha….

    aise karne se jadugar ki skhatiya bar jati thi aur wo un skhatiyao ka galat upyog kerta tha. jab mahesh aur wo buda aadmi us ghar main gye tho jadugar
    us samay apne ghar main nhi tha. dono andar gye aur apna khana nikal ke khane lge, khana khane ke baad dono ek jagah kinare main so gye. aadhi raat
    ko jadugar apne ghar aya aur usne dekha ki do aadmi so rhe hai, jadugar maan hi maan khus hua ki aaj shikhar mil gya, jadugar ne dono ko bandh diya.
    uske baad khud bhi so gaya, jab subah hui tho dono ne dekha ki wo dono rassi se bandhe hai, aur unke samne jadugar beta hai, dono dar ke maare kapne
    lage.

    jadugar ne dono ko kha tum daro mat main tume maronga nhi. aur dono toda khus hue, parntu jadugar jhot bol rha tha. wo tho un dono ko khus kerne ke liye
    kha rha tha. thodi der baad jadugar ne dono ko kutta bna diya aur khud bahar chala gya, aab dono kutte ban gye the. tbi whna ek ladki ayi aur itne aache

    kutte dekh ke wo unko apne saat apne ghar le gyi, aur dono kutte uske ghar main rhane lage. kuhc saalo baad us gaon main ke sadhu aaya jo ki bahut hi
    gyani tha, usne dono kutto ko phachan liye aur socho yeh dono tho aadmi hai, aur yeh dono is dasa main kaise aaye, us shadu ne us ladki se un kutto ko
    apne saat le jane ke liye kha, ladki ne haan ker di, ab shadu un dono ko ek jangal main le gya jhna par wah jadugar rahata tha. jadugar ne dekha ki wo
    dono kutte ek sadhu ke paas hai, tho wo us sadhu se un kutto ko chinna cha par sadhu ne us jadugar ko bakri bna diya aur us jangal main hi chod diya.
    aur un dono ko wapas aadmi bna diya. aur ab dono mahesh aur wo buda apne asli rup main aa gye, aur us jadugar jo ki ab ek bakri tha use jangal main ek
    sher ne kha liya.

    wo dono aur sadhu ab gaon ki taraf jane lge. todi dur par sadhu ka ghar aa gaya tho shadu ne un dono ko bahut sa sona diya aur apne ghar chla gya,
    ab dono ke paas bahut sa sona tha, jisse ki dono ki garibi ab dur ho chhuki thi, dono ka pariwar ab sukhi tha.

    By–
    Ajeet Bartwal (ajju).
    dehradun
    abartwalajeet@gmail.com

  3. Ajeet Bartwal कहते हैं:

    Meri kahani—

    अजय अपने काम में इतना मशगूल है की उसे किसी की आवाज़ भी नही सुनाई दे रही थी, सोनिया उसे काफ़ी देर से आवाज़ दे रही है, पर अजय आज काम में इतना मशगूल है की उसे और बातो का असर ही नही पड़ रहा था, हो भी क्यूँ ना आज शाम को उसकी और सोनिया की शादी की सालगिरह की पार्टी जो है, और वो सालगिरह की पार्टी की तैयारी कर रहा था, अजय अंग्रेज़ी का टीचर है, और सोनिया हिन्दी की टीचर, दोनो का एक जैसा पेशा होने के कारण दोनो की मानसिक सोच मिलती थी. दोनो एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे और अभी उनकी शादी को सिर्फ़ एक साल ही हुआ था, अभी तक उनकी कोई संतान नही थी, वो दोनो लखनऊ शहर में रहते है. अजय के परिवार में उसके मम्मी-पापा, भैया-भाभी और उनके दो बच्चे है. उसकी बहन पूजा की शादी हो चुकी है, पूजा का सुसराल आगरा में है, पूजा का पति डाक्टर है, अजय का भाई संजय एक कुशल वकील है, अजय के पापा आर्मी में मेजर थे, इसलिए अजय का परिवार अनुशासन और संस्कृति को महत्व देता था, अजय के मम्मी-पापा और भैया का परिवार एक साथ इलाहाबाद में अपने घर पर ही रहते है, अजय और सोनिया लखनऊ में बहुत खुश है और दोनो हर महीने इलाहाबाद जाते रहते है, अजय का सुसराल दिल्ली में है, सोनिया के पापा डाक्टर है, सोनिया का भाई जो वायु सेना में कप्तान है. सोनिया बहुत ही सुंदर है, अजय को 2 साल पहले दिल्ली में सोनिया से प्यार हो गया था, दोनो की मुलाकात मेट्रो में हुई थी और यह सिलसिला प्यार से शादी तक चला. सोनिया, अजय के पास गयी और बोली अजय तुम तो पार्टी की तैयारी में इतने मस्त हो की तुम्हे मेरी आवाज़ भी नही सुनाई दे रही है, अजय ने कहा सोनिया डार्लिंग आज हमारी पहली सालगिरह है और सभी पार्टी में आने वाले लोगो को पता चलना चाहिए की हम दोनो एक दूसरे से कितना ज़्यादा प्यार करते है. सोनिया बोली यह तो ठीक है, पर अजय अभी तक तो केक वाला नही आया है, और अब तो 3 बज गये है, मैं सोच रही हूँ की तुम ही केक ले के आ जाओ, नही सोनिया वो केक ले के आता ही होगा. मुझे और भी तो बहुत से काम करने है, सोनिया भी खाने की तैयारी करने लग गयी. पार्टी में अजय और सोनिया के दोस्त, कुछ ख़ास मेहमान और उनके पड़ोसियों को मिला कर करीब 30 लोगो को आना है, अजय ने सोनिया के लिए हीरे की अंगूठी गिफ्ट देने के लिए खरीदी है, जिसके बारे में सोनिया को पता नही है, अजय नेक दिल लड़का है, शाम 4:30 बजे केक वाला भी आ गया. दोनो अपने काम में इतने मस्त थे की उनको पता ही नही चला की कब 8 बज गये, और लोगो का आना शुरू हो गया था, पार्टी का सब ने आनंद लिया और करीब रात 11 बजे पार्टी समाप्त हुई, सोनिया हीरा की अंगूठी को देख कर बहुत ही खुश थी और सोनिया ने अजय को घड़ी गिफ्ट में दी, सुबह के 9 बज गये पर दोनो अभी भी सो रहे थे, दोनो रात को बहुत थक गये थे जिसके कारण उनकी नींद अभी तक नही खुली थी, 9:15 बजे दूध वाला आया तो उसने कॉल बेल बजा कर दोनो को उठाया. आज रविवार था, इसलिए दोनो काफ़ी देर तक सोते रहे, सोनिया ने चाय बनाई, अजय भी तब तक उठ चुका था.

    By–
    Ajeet Bartwal (ajju).
    dehradun

  4. पिंगबैक: Hindi Websites – Librarianonline

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