विविध (General), My Poems (कविताएँ)

चालीस पार

क्या बोले? उमर?

भिया बयालीस के हो गए हैं अपन

देखते देखते टाइम निकल गया भिया

अरे काहे का जवान

बड़ी वाली इलेवन्थ में छोटा पाँचवी में भिया

शादी को समझो बीस साल

बस अब अपना हो गया

अब तो जो देखना है बच्चों का देखना है भिया

मैं तो बड़ी वाली को बोल दिया हूँ भिया

जो तुम्हारा मन है लाइफ़ में वही करो

जिसमें बनाना है करियर बनाओ

लेकिन पहले इंजीनियरिंग कर लो

उसके लिए उसको कनविन्स कर लिया हूँ

उसको भी समझ आया न भिया

क्या है एक बेस मिल जाता है

कि कुछ और नई भी की तो इंजीनियरिंग के दम पे

नौकरी तो मिलनाइच्च है

अपने यहाँ सब एकदम फ्री माइंड के हैं भिया

शादी होतेइच्च मम्मी बोली मेरी वाइफ़ को

जीन्स पहन, सूट पहन तेरी मर्ज़ी

बस गाँव से रिश्तेदार लोग आएँगे

तो साड़ी पहनना और घूंघट रखना पड़ेगा

और वाइफ़ में भी बहुत परिवर्तन आया है

माने सुरू में आई थी तो बिना नहाए किचन में चल देती थी

फिर मम्मी समझाई उसको धीरे-धीरे

अब सुधर गई है

मेरे को क्या है भिया, नहाओ चाहे मत नहाओ

लेकिन मैं बोला माँ तेरे को इतना फ़्रीडम दे रही है

तो तू भी थोड़ा निभा के चल

साल में एक बार बाहर जाता हूँ भिया

नार्थ पूरा हो गया मेरा

साउथ में केरल छोड़ के सब हो गया

गोवा तो कई बार हो गया है

गोवा में मैं तो इसको बोला, रेड वाईन तो पी ही सकती है

चखी भी है वो, लेकिन उसको जमा नई

मेरे को बोली तुमको पीना है पियो

खाना है खाओ

लेकिन घर में कुछ नई लाना

अपन भी संतुलन बना के चलते हैं न भिया

फ्रायडे को फ़िक्स है मेरा

सनीचर और मंगल नई चलता ना

फ्रायडे को दुकान बन्द किया,

दोस्त के साथ गाड़ी में लिटिल लिटिल लगाया

घर आया, खाना खाया, सो गया

संडे को दुकान बंद, मतलब बंद

कोई मतलब नई है भिया

और कितना भागना है

मैं तो भगवान को इतनाइच्च बोलता हूँ

जो दिए हो वो वापस मत लेना

जो है बहुत है

वोइच्च चलता रहे

कमाने के लिए कमा लोगे

लेकिन लेके ऊपर थोड़ी जाओगे

माँ को चारों धाम करा दिया हूँ भिया

चारों कुम्भ भी करवा दिया हूँ

वृंदावन में अपने महाराज हैं

साल में एक महीना वहीं रहती है

अब मैं बोला उसको बुढ़ापे में अपने हिसाब से जीने दो

बोली अयोध्या भी जाना है

मैं बोला अपन सब जाएंगे

बस थोड़ा रुक जा

पहला साल है ना भिया

फिर भीड़ थोड़ा कम हो जाएगी

तो अपन आराम से दरसन भी करेंगे

और तब तक मन्दिर भी पूरा बन जाएगा

बस बच्चे सेटल हो जाएँ

और इतना रहे कि कुछ कमी ना हो

बुढ़ापे में किसी पे लदना नहीं है अपन को

आज अपन माँ बाप की सेवा कर रहे हैं

अपनी कोई नई करेगा भिया

हाथ पैर चलता रहे बस

हौ ना!

रात को मैं चावल नई खाता भिया

वाइफ़ को बोला मेरे को ज्वार की रोटी बना दिए कर

दारू भी कम कर दिया हूँ भिया

पहले रोज का था

अभी केवल फ्रायडे

एक लिमिट में हर चीज सही है भिया

डॉक्टर भी बोलता है कि हार्ट के लिए थोड़ा लेना चिये

अति किसी भी चीज की खराब है

जिम उम से अपन को क्या करना भिया

लौंडे तो रहे नहीं अपन कि बॉडी बनाना है

वाकिंग अपन रोज करते हैं

हर संडे दोस्तों के साथ तीन घंटा क्रिकेट

उतना बहुत है भिया

हम लोग का जो डिस्ट्रीब्यूटर है ना

उसके तरफ़ से एक बार बैंकाक गया था भिया

मतलब आना-जाना रहना खाना फ्री

ऊपर का खर्चा अपना

ही ही ही

अब समन्दर में जाओगे तो डुबकी तो लगाओगे ना

बोलना मत भिया किसी को

आप भी चलोगे तो बोलो ना

अब तो मेरे को पूरा समझ आ गया है

कहाँ जाना है, कैसे क्या करना है

मिलने के लिए तो आजकल इंडिया में सब है भिया

लेकिन जो जिधर का अच्छा है

उधर का ही अच्छा रहेगा ना

रशियन वशियन जो बोलो भिया

आप एक बार प्लान तो बनाओ

ड्यूटी फ्री से मैं लाया था ना भिया

सिंगल माल्ट लाया था

दोस्त के यहाँ रखवा दिया था

अरे मैं तो ला दूंगा आपके लिए

लेकिन आप चलो ना साथ में

दोनों भाई जाएंगे

चिन्ता मत करो भिया

वहाँ का राज़ वहीं डुबा देंगे

ही ही ही

– हितेन्द्र अनंत

मानक
अपनी बात, सामयिक (Current Issues)

दानिश अली की इज़्ज़त मेरी इज़्ज़त है!

यह सही है कि जो सड़कों पर आम है, वही संसद के भीतर खुलकर आ गया।

यह भी सही है कि इसमें बहुत अधिक हतप्रभ होने की बात नहीं है।

शायद यह भी सही हो कि न्याय, और कार्यवाही की बातें बेमानी हैं।

लेकिन इन सबके बावजूद, जब आपको बरसों से किसी बड़े अहित का अंदेशा हो, वह जब सामने घटित होता दिखाई दे तो दुख उतना ही होता है।

संसद और उसके संस्कार हमारे संविधान निर्माताओं की देन हैं। वहां पर यों तो आए दिन एक नया अन्याय हो ही रहा था, लेकिन जो सांसद दानिश अली के साथ हुआ है उसमें बड़ा दुख यही है कि इस घटना ने सच को सबसे बड़े मंच पर नंगा करके सबके सामने रख दिया है। यह दुख, यह शर्मिंदगी उसी बात की है।

यह मेरा निजी दुख है, जिसमें मेरे बचपन के सीखे आदर्शों का ध्वस्त होना, मेरे स्वयं असहाय होने का भाव, और मेरी आंखों के सामने मेरे प्रिय भारतीय समाज के सबसे सुंदर गुण – उसकी समरसता का वध होते देखने का दुर्भाग्य, ये सब शामिल हैं।

मैंने बचपन में पंद्रह अगस्त के जुलूस में कौमी एकता के नारे लगाए, एक दृष्टि से अपने देश और समाज को समझा, और एक खास वातावरण में अपने बचपन को जिया, आज वह सब आधिकारिक रूप से खत्म होता दिखे तो जो महसूस होना चाहिए वह महसूस हो रहा है।

मेरा दर्द वह समझ सकता है जिसका बचपन मेरे जैसा था। बाकी सब यदि कुछ और समझें तो मुझे उनसे कुछ नहीं कहना है। इतना लिख देने से दर्द हल्का भी नहीं होगा, लेकिन मेरे जैसे और लोगों तक बांटा जा सकेगा।

मैं वह अभागा भारतीय हूं जो अपने प्यारे वतन को अपने सामने बिखरते देख रहा है और कुछ नहीं कर सकता।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues), My Poems (कविताएँ)

पागल बादशाह

बादशाह मोहम्मद बिन तुगलक ने 

दिल्ली का नाम दौलताबाद रख दिया होता 

तो दिल्ली से दौलताबाद जाने की ज़रूरत नहीं होती 

दिल्ली ही दौलताबाद हो जाती 

उत्तर दक्कन बन जाता 

और उससे बादशाह को दक्कन को जीतना आसान हो जाता 

दक्क्न की रियाया के लिए भी

हिन्दोस्तान यानी उत्तर के राजा के पास फ़रियाद के लिए जाना 

आसान हो जाता 

नाम भर बदल लेता 

बादशाह अगर 

ताम्बे के सिक्के न चलाकर

सोने का नाम ताम्बा रख देता

तो बादशाह को कोई पागल बादशाह न कहता 

– हितेन्द अनंत 

मानक
My Poems (कविताएँ)

नाम क्या लिखते हैं भिया अपन?

सीमेंट है ना भ़िया

भेजने के लिए भेज देता भिया

लेकिन लड़के लोग नई हैं

एक दिन का त्यौहार होता है

दस दिन के लिए भग जाते हैं भिया

नई भिया तनखा काटने से कोई फरक नई पड़ता

मेहनत करनाइच्च नई चाहते भिया

सरकार देती है दो रुपया किलो चांवल

आधा खाते हैं, आधा को बेच के दारू पी देते हैं

क्या करोगे भिया

पहले तो ये फोकट का नाटक बंद करना चिये

साले लोग अलाल हो गए हैं

वोइच्च तो बात है भिया़

आप एड्रेस दे दो मैं रिक्सा करवा के भेज दूंगा

नाम क्या लिखते हैं भिया अपन?

अरे मेरा लड़का उठेगा बारा बजे 

तो दुकान कब आएगा सोचो ना आप

उप्पर से बहू प्रेगनेंट है अपनी

मैं तो बोला उसको

बेटे आप रोज़ गीता पढ़ो एक अध्याय

बच्चे पे अच्छा असर पड़ेगा ना भिया

अपन नई देंगे तो कोन संस्कार देगा

बोली पापाजी समझ नई आता

मैं बोला बेटे पढ़ना तो पड़ेगा 

नई अब तो पढ़ती है रोज़ 

एड्रेस क्या रहेगा भिया 

अरे सप्ते में आधा दिन तो खाना ऑर्डर करते हैं

अब कोन किसको क्या बोलेगा भिया

बनाने के लिए बना देती मेरी मिसेस

लेकिन एक्चुअल में उसको कमर में दिक्कत है

अब क्या बोलोगे

मैं तो बोला भिया

मंगाना है मंगाओ लेकिन

ये छोटापारा, मौदहापारा वालों से नई मंगवाना है

अरे ये लोग थूक-थूक के खाना देते हैं अपन को भिया

बकायदा वीडियो है

एक ठो नई अनेकों है

रिक्सेवाले का नंबर मैसेज किया हूँ आपको 

एक बार ये लोग नूरजहां से मंगवा दिए बिरयानी

मेरे को बोले अशोका से मंगवाए हैं

मैं समझ गया भिया

साफ मना किया मैं

बोला बाप को चूतिया मत बनाओ

अरे घरिच्च के लोग नई सुनते 

तो देश भर के कहाँ से इकट्ठे होंगे

और ये लोग? 

नई ये तो मानना पड़ेगा इनका

यूनिटी एकदम जबरदस्त

वोइच्च तो बात है ना

अब एक नई होंगे तो

2050 तक इनकी मेजॉरिटी होगी भिया

फिर नूरजहां से खाना मंगवाने की भी 

औकात नहीं रहेगी अपनी

अब वो एक अकेला कितना करेगा भियाा

अपना भी तो कुछ बनता है ना

एक नई हुए ना

तो सब खतम है भिया

चलो आप और मैं नई रहेंगे ये देखने के लिए

लेकिन बच्चों का तो सोचना पड़ेगा ना

आएगा तो फोन करेगा भियाा 

आप सौ पचास उप्पर से दे देना तो रखवा भी देगा

बाकी इस बार के लिए सॉरी रहेगा भिया

फिर लड़के लोग आ जाएंगे तो सिद्धा घर भिजवा दूंगा

ओक्के भिया 

– हितेन्द अनंत 

मानक
अपनी बात

आज़ादी

हमारा सच्चा अस्तित्व जैविक और भौतिक है। यही हमारे होने की असलियत है। यह ठीक है कि हम सोचते हैं, बोलते हैं, याद रखते हैं, इसलिए रोते हैं, हँसते हैं, प्यार करते हैं, और दुखी भी होते हैं। लेकिन भावनात्मक पीड़ाओं से बढ़कर शरीर की पीड़ा होती है। प्रेम की कमी से जो तकलीफ़ होती है, भूख की तकलीफ़ उससे बड़ी है। प्रसिद्ध होने की इच्छा से बड़ी इच्छा अपनी संतति छोड़ जाने की है। 

इसलिए दुनिया के तमाम दर्शन बेकार हैं यदि वे हमारी असली ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकते। उन ग्रंथों, गीतों, कहानियों, और पहचानों का कोई मतलब नहीं जो हमारी भूख नहीं मिटा सकतीं। उन नक्शों और झंडों का नंबर बहुत बाद में आता है, पहले उन पेड़-पौधों, नदी-तालाबों और पशु-पक्षियों-प्राणियों का नंबर आता है जो हमारे अस्तित्व की ज़रूरतों को पूरा करते हैं। 

जो नक्शे, सीमाएँ, झंडे, पहचानें, और भाषाएँ हमारी प्राथमिक ज़रूरतों को पूरा करें वो उपयोगी हैं, जो न करें वो नहीं हैं। उनमें जो आज हैं, हो सकता है कल नहीं होंगे। हमारे लिए वो हैं, हमनें उन्हें बनाया है। 

मनुष्य की आज़ादी का मतलब यही है कि जो आज़ादी हवाओं, नदियों, बादलों, पक्षियों और मछलियों को हासिल है, वही इंसानों को भी हासिल हो। 

– हितेन्द्र अनंत

मानक
अपनी बात

My current struggle with expressing myself by writing

This is something I have been experiencing for many months. I am not able to write anymore.

A little bit of background first. I started this blog more than 17 years ago. irrespective of the quality of my writing, I was mostly regular with my blog. Then came the initial days of popularity of social media and since 2010, I have been very “active” on Facebook, expressing my opinion on many subjects ranging from politics, my opinion on social issues, to food, drinks, humor etc. I would also engage a lot in social media debates, sometimes seriously contributing to discussions and sometimes just trying to show other people down.

The level of my activity was such that I used to think of myself as one of the “well known” people in the little cocoon that I had built around me in the virtual world. I thought my opinion mattered. I had this sense of responsibility that I must express my views on something to shape the opinion of the number of people I thought were reading me on the internet. I also had this sense (not anymore) that I had achieved the level of some intellect and my opinion could make an impact on something somewhere. It is difficult to define in a word, but I thought very highly of myself. What added to this was the increasing numbers of “likes”, “shares” and “followers” for me on social media.

Then around the time I turned forty, which was also the time when the world was struggling with Covid-19, I was gradually, but in a short period of time, disenchanted by actively engaging in social media. I still cared for the subjects of my interest, but found it futile to express my opinion on any of them. No matter how moved I was with a situation, or how interesting I found a tweet on Twitter, or a post on Facebook, I had lost the desire to express my views on it.

I am very worried about using adjectives for myself, hence I can only say that I read a lot. I still read a lot and in fact, have been reading more ever since I have reduced my activity on this blog and social media. This also means that when I read books, news articles, opinion page columns, essays, and social media posts, I gather that I have an opinion on it. But now, I just do not express it.

After a few months of keeping myself from writing or engaging anywhere, I have sensed that I have this struggle within. On one hand, I do not wish to engage in futile debates or repeating a lot of things that others anyway would, on the other, I feel suffocated because from within, these thoughts never rest, they keep shaking me. Things that happen outside affect me, but writing on it seems to be a futile exercise. Yes, futile is the word.

For over a month now, I have tried to write comments on social media and posts on this blog. But I have deleted most of that. I wish to detail what happens whenever I write something anywhere:

1. I read my own thing midway and realize that I am not writing anything new, I am not adding value to the subject, and that a similar opinion would have been expressed in much better writing than mine.
2. I think about the futility of writing anything. “No matter what you write and how well, the world remains a divided house, where people stick to their agendas and do not engage intellectually with others.” In such a case, I think one more comment or post from me is not going to make any difference and I give up on writing it.
3. On careful observation, I find that I have a serious level of incapability with my language (Including in Hindi, my first language). The phrases I write sound cliché, and weak. This is something I never thought would happen to me. This isn’t any fear of any criticism, I am just not impressed with my own writing.
4. I think of who will read this, why should anyone read it, and I don’t get a satisfying answer.

I don’t know if it’s a phase other people also go through, or if this is to do with my age and anything related to some “mid life crisis”. I must mention that I am perfectly at ease in face to face conversations (with like minded people), and I have no difficulty writing things for business. But the issue remains that I am moved by happenings around me, can’t do anything, can’t even vent my anger by writing it. Writing is the only form of expression I am good at, by my own standards. May be I am bad at writing, I can accept that, but I am not at ease with my inability to engage in the only form of communication I am most comfortable with. Then there’s this guilt that by not expressing myself when I do have an opinion, I am not being honest. Or, the thought that I am obligated to create (write) when I consume (read).

After a long time, this is the only thing I could write completely.

– Hitendra Anant

मानक
समीक्षा

पठान फ़िल्म पर

सब बोले 500 करोड़ किया है, सेक्युलरिज़्म भी बचाना है, तो हम कल रात हो आए।

आठ बजे के शो में हॉल 40 प्रतिशत भरा था।

सिनेमा में अभी तक यह नहीं ढूंढ पाया हूँ कि अच्छा क्या था?

शाहरुख के एक्शन में दम नहीं। एक सीन में सलमान उनसे बेहतर कर गए। शाहरुख सलमान जितना तो नहीं शायद देवानंद से बेहतर एक्शन कर पाए इस फ़िल्म में।

जॉन अब्राहम चड्डी पहने अच्छे लगते हैं, बॉडी में दम है, लेकिन अभिनय उनको नहीं आता।

दीपिका को अभिनय आता है, एक्शन भी अच्छा कर रही थीं, लेकिन उनका चरित्र लिखने वाले ने घिसा पिटा बना दिया।

डिम्पल और आशुतोष राणा में डिम्पल बेहतर अभिनय करती हैं। आवाज़ अच्छी है लेकिन आशुतोष बड़बोले हैं – स्क्रीन पर भी।

दरअसल सबसे कमज़ोर कड़ी है कहानी और संवाद। संवाद इतने घटिया हैं कि मीम के ज़माने में एक ढंग की पंचलाइन नहीं मिलेगी मीमस्टर्स को।

कहानी लगता है इसलिए लिखी गई कि विदेशों से तकनीशियन बुलाकर बढ़िया एक्शन दिखाना था, तो कुछ कहानी भी तो चाहिए थी, सो डाल दी। लॉजिक यानी तर्क का बॉलीवुड से यूँ भी रिश्ता नहीं है, लेकिन थोड़ी बहुत मर्यादा तो रखनी थी।

मर्यादा से याद आया, बेशर्म रंग गाना सिर्फ़ स्किन दिखाने के लिए बनाया है। अपन को उससे कोई समस्या नहीं है, लेकिन दुनिया में कुछ जगहों पर ये सब कहानी के आधार पर किया जाता है। अपने यहाँ ये करियर चमकाने का अस्त्र है।

मुझे वाकई लग रहा है कि 26 जनवरी वाला लंबा वीकेन्ड न होता और राइट विंग का साथ न होता तो फ़िल्म शायद ही इतना चल पाती।

पीआर चाहे जो बात मनवा दे। यह फ़िल्म शाहरुख की प्रतिष्ठा बढ़ाने या बचाने में असफल हुई है।

पठान फ़िल्म पैसा बर्बाद है। तय है कि मोदी जी 2029 का चुनाव भी जीतेंगे।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
अपनी बात

मौन का अर्थ

मौन का पहला अर्थ खुद को बोलने से रोकना होता है।

उसके आगे है कि केवल सुनना अच्छा लगे और बोलने की इच्छा न रहे।

उससे भी आगे है कि सुनने की ही आवश्यकता न रहे।

लेकिन सबसे आगे है कि सुन लिए गए और बोल दिए गए का अंदर कोई असर न हो। यही वास्तविक मौन है।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
अपनी बात

पोहा, पेट्रोल, और प्यार की एक छोटी सी कहानी

नेक काम में न जाने कितने विघ्न आते हैं! और काम नेक होने के अलावा थोड़ा सा रूमानी भी हो, तो लगता है कि सारी कायनात…। 

ठण्ड के दिन हैं। अलसुबह मन हुआ कि इस देश के जिस भविष्य का हम घर में पालन कर रहे हैं, उसे स्कूल छोड़ने के बाद पत्नी के साथ किसी बढ़िया ठेले में गर्म पोहा खाया जाय और उसके बाद कड़क चाय पीकर घर वापसी की जाय। विचार रोमांटिक, पत्नी सहमत। सुबह जब शहर में ट्रैफिक कम हो, और ठण्ड के दिन हों, तो स्कूटर में थोड़ी ठण्ड सहते हुए शहर के पुराने हिस्से में जाकर किसी प्रसिद्ध ठेले में नाश्ता करने का जो आनंद है, वो नाक़ाबिल-ए-बयाँ है। खाने के अलावा, शहर में सुबह यूँ ही भटकने का जो मज़ा है वह हइये है।

तो हम तैयार होकर निकलने ही वाले थे कि देखा कि हमारी घरेलू सहायक आम दिनों की बजाय आज पहले ही घर आ गई है! कारण यह था कि काफ़ी दिनों से देरी से आने के कारण बीते कल ही श्रीमतीजी ने उसे समय पर आने की हिदायत देते हुए “समय का पालन” विषय पर एक लम्बा भाषण दिया था। हमने कब सोचा था कि भाषण का असर भी हो जाएगा! अब उसके काम पूरा करने तक रुकना पड़ा और मन-मस्तिष्क में पोहे की कड़ाही बार-बार आगमन करती रही। इधर ये भी लग रहा था कि सड़कों पर ट्रैफिक बढ़ जाएगा और ठण्ड कम हो जाएगी। यानी वो मज़ा नहीं आएगा जो सोच रखा था। 

आखिकरकर काम पूरा हुआ और हम घर से निकले। थोड़ा ही आगे गए थे कि एक नई मुसीबत से पाला पड़ा।  स्कूटर का पेट्रोल ख़त्म हो गया! ये मुसीबत सिर्फ पेट्रोल ख़त्म होने और मेरे द्वारा स्कूटर को पेट्रोल पम्प तक घसीटे जाने की नहीं थी। इसके साथ एक और विपदा थी। दरअसल स्कूटर में पेट्रोल खत्म हो गया है, ऐसा उसका इंडिकेटर कुछ दिनों से बता रहा था, लेकिन पेट्रोल भरवाने जाने की पत्नी की तमाम अपीलों के बावजूद मैं सीना चौड़ा करके उसे समझाता रहा कि “अरी पगली, काँटा भले ही कहे कि पेट्रोल “एम्प्टी” है, गाड़ी में बीसेक किलोमीटर का पेट्रोल फिर भी रहता है”।  सालों हो गए, मुझे पत्नी कहती रही कि जाओ पेट्रोल भरवा आओ, और मैं टालता रहा। इतने सालों तक मैं सही भी था, आज पहली बार ग़लत साबित हो गया। 

तो हुआ यह कि जिस जगह पेट्रोल सिरा गया वहाँ से पम्प तक पैदल जाने के बीस मिनट के रास्ते में पत्नी को मजबूरन मुझे “पेट्रोल समय पर भरवाने” के विषय पर भाषण देना पड़ा। कभी प्रोफेसर रह चुकीं पत्नी जी का भाषण देने का यह दूसरा दिन था। मुझे पत्नी पर बेहद तरस आया कि उसे लगातार दूसरे दिन ऐसा करना पड़ रहा है। बात उसकी तकलीफ़ की थी। बाकी आप जो सोच रहे/रही हैं कि मुझे डाँट खानी पड़ी, वह ग़लत है। दरअसल अपन मुश्किल से मुश्किल वक्त में भी मुस्कुराना जानते हैं। ही ही ही। 

पेट्रोल भर गया तब अहसास हुआ कि अब भी हवा में ठंडक है और सड़कें ख़ाली ही हैं।  सो हम अन्ततः पोहे की अपनी प्रिय दुकान गए और जुर्माने के तौर पर थोड़ी सी जलेबी और समोसे का भी सेवन किया। चाय अच्छी थी इसलिए लगा कि घर वापसी भी उतनी कठिन नहीं होगी।

अलबत्ता, अच्छे नाश्ते के लिए मैं सुबह कितनी भी दूर जा सकता हूँ। हाल ही में अच्छा पोहा खाने के लिए रायपुर से राजनांदगाँव की सत्तर किलोमीटर की यात्रा की। राजनांदगाँव में “खंडेलवाल होटल” बरसों पुरानी दुकान है जहाँ का पोहा जगत के सर्वश्रेष्ठ पोहे का खिताब पाने का हकदार है। रतलामी सेव न हो, तो इंदौरी पोहा भी खंडेलवाल के पोहे के सामने पानी भरे, साथ चने की तर्री न हो तो नागपुरी पोहा खंडेलवाल के पोहे के सामने दंडवत हो जाए। जब पुणे रहता था तो किसी ख़ास दुकान पर वडा-पाव खाने लिए एक घंटे दूर तक जाना भी मेरे लिए आम बात थी।

दुनिया गर्म हो रही है। ठण्ड के दिन कम हो रहे हैं। खाने-पीने की ये रवायतें, ये मज़े ज़िंदा रहें। डाँट खाने का क्या है, पोहे के साथ वह भी मिलाकर खाते रहेंगे। 

– हितेन्द्र अनंत 

नोट्स:

१. रायपुर शहर में अनेक जगहों पर अच्छा पोहा मिलता है। जो मुझे पसंद हैं, उनमें एक फूल चौक/जयस्तंभ चौक का “साहू जी का पोहा” है, लेकिन उससे भी अधिक, पुरानी और प्रतिष्ठित दुकान है साहू जलेबी (कानूनी नाम – साहू समोसा होटल,, पुराना बस स्टैंड)

२. राजनांदगाँव शहर में पोहे की दो दुकानें प्रसिद्द हैं, एक “मानव मंदिर”, और दूसरी “खंडेलवाल होटल” । मेरी राय में खंडेलवाल बेहतर है। 

३. सुबह का प्लान सिर्फ़ रोमांटिक नहीं था, “अखिल भारतीय चटोरा महसंघ” का संस्थापक और अध्यक्ष होने के नाते भी मेरे कुछ कर्तव्य होते हैं।  

मानक
अपनी बात

अपन चुप रहे

एक ऐसे त्यौहारी समय में, जब मेरे मोहल्ले की आंटी की कर्कश आवाज़ में भजन सुनकर लगा कि इससे तो डीजे वाले बाबू हाई डेसिबल में “रा रा रक्कम्मा” लगा देते तो अच्छा था…

उन दिनों, जब पता चला कि एक कॉमरेड ने इस सवाल का उत्तर ढूंढने के लिए पार्टी की लीडरशिप छोड़ दी कि “स्टालिन के शासन को दुनिया के सबसे निकृष्ट तानाशाही शासनों में एक माना जाए कि नहीं?” (अपन और बाकी दुनिया इसका उत्तर पहलेइच्च जानते थे दीदी)…

एक ऐसे मौसम में, जब प्रदेश के सारे बाँधों में सौ प्रतिशत पानी भर जाने और अल नीनो के भाई ला नीना के कारण धान की खेती के लिए पर्याप्त बारिश न होने की खबरें एक साथ छप रही हों…

तब जब मन्नू भंडारी का एक उपन्यास इतना झेलाऊ लगा कि दस पन्नों के आगे डर लगने लगा और बीस के बाद हार मान ली…

…ऐसे अमृतकाल में अपन मोहल्ले में और इधर भी चुप रहे। और खुद के चुप रहने पर हैरत भी की और दुखी भी हुए।

– हितेन्द्र अनंत

मानक