सामयिक (Current Issues)

राहुल गांधी, एक भला आदमी

राहुल गांधी वह नहीं हैं जो कांग्रेस समर्थक सोचते हैं।

राहुल गांधी जो भी हो “एक भला आदमी है”, यह बात भोले-भाले कांग्रेस समर्थकों का भ्रम है।

जो व्यक्ति बिना किसी प्रशासकीय अनुभव के खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान ले, उसके पहले बिना किसी चुनाव के पार्टी का अध्यक्ष बन जाए,वह दरअसल सत्तालोलुप है, भला आदमी नहीं।

भला आदमी क्या होता है? मैं खाली सड़क में रात को बारह बजे भी सिग्नल पर गाड़ी रोकता हूँ, ईमानदारी से टैक्स भरता हूँ। तो क्या मैं पार्टी अध्यक्ष पद के लायक हो गया? यह भला आदमी होने का बहाना दरअसल परिवार के प्रभामंडल से सम्मोहित कांग्रेसियों का हथियार है जिससे वे अपनी स्वामीभक्ति को खुद से छिपाना चाहते हैं।

2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद न केवल राहुल ने नैतिकता के आधार पद से इस्तीफा दिया, बल्कि यह भी कहा मेरे परिवार से बाहर जिसको चाहो अध्यक्ष बनाओ। लेकिन ऐसा कहने के बाद अपनी बहन के साथ मिलकर खुलेआम पार्टी के निर्णय लेना यह दर्शाता है कि राहुल को सत्ता के बिना राहत नहीं मिलती। इस्तीफा दिया था तो निर्णय नहीं लेने चाहिए। दूर रहो। आपकी बहन केवल एक राज्य की महासचिव है, वह पूरे देश में पार्टी के फैसले क्यों ले रही है?

दरअसल यह राहुल गांधी की घोर परिवारवादी मानसिकता को दर्शाता है। अब इसके आगे की बात करते हैं।

2014 में कांग्रेस के 9 मुख्यमंत्री थे। अभी केवल 2 हैं। 2014 के बाद से जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं, इनमें कांग्रेस ने भाजपा से सीधी टक्कर की स्थिती में केवल 3 चुनाव जीते, और उनसे बनी सरकारों में भी एक गिरवा दी।

सीधे मुकाबलों में भाजपा के ख़िलाफ़ कांग्रेस का जीत प्रतिशत करीब 4 प्रतिशत है। यह सब तब हुआ है तब कांग्रेस के सारे फैसलों पर राहुल गांधी की मोहर है।

संगठन क्षमता की बात करें तो उनके महान फैसलों का महान तमाशा पंजाब में पिछले छह महीनों में हम देख चुके हैं। पार्टी की अंदर के लड़ाई को यूँ सरेआम होने देने में न केवल नेतृत्व की असफलता थी बल्कि उसकी (अर्थात भाई-बहन की) सक्रिय भागीदारी भी थी। और नहीं तो अपने मातहत लोगों पर भी आपका नियंत्रण नहीं जिनकी नियुक्ति आपने खुद की है!

कांग्रेस खुद को विपक्ष का सबसे बड़ा और आवश्यक अंग मानती है। लेकिन उसके शासक परिवार के मुखिया का व्यवहार देखिए। राहुल गांधी ने आज तक मुम्बई जाकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं की है। पार्टी टूटने के डर से बचने के लिए आप महाराष्ट्र सरकार में शामिल हुए। यदि महान नैतिकतावादी हो तो शामिल नहीं होना था , यदि हुए तो फैसले को स्वीकार करो। यह फूफा की तरह चलती बारात से दूरी बनाना क्या एक अच्छे नेता को शोभा देता है? यूपीए के विस्तार के लिए खुद आगे होकर राहुल विपक्ष के किस नेता के घर जाकर उससे मिले? क्यों विपक्ष के नेता (पवार, ममता सहित) आज भी सोनिया गांधी से मिलते हैं, राहुल से नहीं?

मेरे गृहराज्य छत्तीसगढ़ में भी उनके दौरे के लिए हमारे मुख्यमंत्री को महीनों मिन्नतें करनी पड़ीं। अंततः वे तब आए जब हमारे मुख्यमंत्री ने असम के बाद उत्तर प्रदेश चुनावों का जिम्मा उठाया (अर्थात क्या किया यह बताने की आवश्यकता नहीं है)।

संगठन क्षमता की एक और बानगी। अपने अनेक साक्षात्कारों में राहुल ने यह स्वीकार किया है कि उनकी पार्टी का प्रचार तंत्र कमज़ोर है। लेकिन यदि ऐसा है तो अमरिंदर सिंह जैसे को पार्टी से निकालने का दम रखने वाले राहुल एक अदद रणदीप सिंह सुरजेवाला को प्रवक्ता पद से हटाने का दम क्यों नहीं रखते? यह तो कोई भी एक कांफ्रेंस देखकर बता देगा कि सूरजेवाला एक फिसड्डी प्रवक्ता है। जो अध्यक्ष वही ठीक नहीं कर सकता वह पार्टी और देश में क्या खाक ठीक कर देगा?

बाद इन सबके, जब चारों ओर से कांग्रेस की यह आलोचना हो रही है कि वह परिवारवादी पार्टी है तो नैतिकता का दूसरा नाम राहुल गांधी, क्यों नहीं यह घोषणा कर देते कि चूँकि यह चर्चा है, आरोप है, इसलिए मेरा परिवार इस पद से दूर रहेगा। इन बातों से आहत कांग्रेसी यही सोचे कि यदि महात्मा गांधी पर इस आरोप का दसवाँ हिस्सा भी लगता तो वो क्या करते? इसलिए, नैतिकता के ये दावे झूठे हैं।

चुभेगी बात लेकिन सच यही है कि राहुल गांधी सत्ता के आदी हो चुके हैं, उन्हें पार्टी पर नियंत्रण की सनक है, और उनकी सँगठन क्षमता दोयम दर्जे से भी गई बीती है। उनके और उनकी बहन के नेतृत्व को देश की जनता नकारते-नकारते थक गई है। इसलिए पुरखों का दिया कुछ संस्कार बाकी हो तो तत्काल पार्टी के निर्णय तंत्र से सौ कोस दूर चले जाएँ। ऐसा करके वे और उनकी बहन देश की सबसे बड़ी सेवा करेंगे। एक अप्रैल से अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाएँ पूरी क्षमता से बहाल भी हो रही हैं। इसका फ़ायदा फ्रीक्वेंट फ्लायर राहुल को अवश्य ही उठाना चाहिए।

– हितेन्द्र अनंत

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मानक
व्यंग्य (Satire)

ऊंचाई बनाम लम्बाई

फलाना छह फुट ऊँचा है या छह फुट लम्बा?

अंग्रेज़ी में तो हाइट ही नापी जाती है। हिन्दी में क्या सही उपयोग होगा यह जानने के लिए प्रचलित साहित्य की ओर रुख किया तो एक गीत की यह पँक्तियाँ ध्यान आईं:

एक ऊँचा-लम्बा कद
दूजा सोणी वी तू हद

अब मामला कठिन हो गया। व्याकरण की समस्या, काव्य के उदाहरण से सुलझ नहीं पाई। नहीं सुलझ पाई सो ठीक लेकिन एक और समस्या सामने आ गई।

यदि कोई स्त्री “सोणी भी तू हद’ है, जिसमें सोणी का अर्थ रूपवती से है, और हद का अर्थ सीमा होता है, तो उसका रूप सीमित हुआ या असीमित? असीमित सौन्दर्य के लिए “सोणी वी तू बेहद” कहना चाहिए था।

ख़ैर, साहित्य से मामला नहीं सुलझा तो हमने बाज़ार की ओर रुख किया। बाज़ार में भी दो तरह के इश्तेहार हैं। “लंबाई बढ़ाने की दवा” के, और “ऊँचाई बढ़ाने की दवा” के। कुछ हिंग्लिश के भी इश्तेहार हैं जो “हाइट बढ़ाने की दवा” बेचते हैं। इन इश्तेहारों पर ग़ौर किया तो समझ आया कि लम्बाई और ऊँचाई बढ़ाने की दवाओं के मक़सद अलग-अलग हो सकते हैं।

मामला अमर्यादित हो जाए, उससे अच्छा है कि कहावतों की ओर रुख किया जाए। एक कहावत याद आई:

“ऊँची दुकान, फीके पकवान”।

इससे मूल प्रश्न का उत्तर तो नहीं मिला लेकिन यह सवाल उठा कि “ऊँची दुकान” का अर्थ दुकान के भवन की ऊँचाई से है या उसके अंदर मिलने वाले पकवानों की क़ीमतों से?

एक तरफ़ “जमुना किनारे मोरी ऊँची हवेली” है, तो दूसरी तरफ़ “बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर” है। अब हवेली ऊँची भी हो सकती है और बड़ी भी, और दोनों भी। लेकिन पेड़ ऊँचा होगा, बड़ा भी होगा क्या?

“ऊँच-नीच” के फेर में भी पेंच हैं। यदि कोई ऊँचा है तो दूसरा कम ऊँचा होगा, इन्सान क्या कुँआ है जो नीचा होगा? बौना हो सकता है, नीचा कैसे?

“ऊँचे लोग, ऊँची पसन्द” वाला गुटखा किसकी पसन्द नहीं हो सकता? बौने लोगों की या कथित “नीचे” वाले लोगों की?

ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी में होने वाले सभी प्रयोग गड़बड़ ही होते हैं। यह गीत एकदम सही प्रयोग का प्रदर्शन करता है:

“ओ नीचे फूलों की दुकान
ऊपर गोरी का मकान”

बात ऊँचाई बनाम लम्बाई की थी। ऊँच-नीच की बातें अच्छी नहीं।

  • हितेन्द्र अनंत

सार_यही_है_भन्ते

मानक
सामयिक (Current Issues)

On the Karnataka Hijab Controversy

1. The boys wearing saffron scarves in Karnataka and protesting against women wearing Hijab in colleges are doing the wrong thing, more than that, this will lead them to an almost permanent fundamentalist frame of mind where the “other” must be abhorred, or negated.

2. The women who have a legitimate right to enter educational institutions while wearing a Hijab or a Burqa, and who are now trending #ILoveHijab are also gullible. Most likely, this whole thing will lead them to an almost permanent fundamentalist frame of mind where the “other” must be abhorred, or negated.

Ultimately, religion and competitive politics combined, are ruining an entire generation. If you only look beyond the basic issue of the fundamental right to dress by choice, you can see the danger is bigger and the issue is far more complex than it appears.

At the first place, a piece of cloth (origins of it cultural or religious) which is definitely a symbol of oppression and misogyny, is now becoming symbol of “freedom of choice”, thereby, those willing to wear it forget the original reason of this necessity imposed on them. That imposition is real, it also has other manifestations. It hurts the emancipation of women suffering because of living life under that particular religious structure. (Needless to say, almost all religions oppress women, but women from each one need to fight their own battles).

On the other hand, those protesting against it, are undoubtedly not protesting against any symbol of oppression, they are protesting against a religious identity. By protesting against display of identity by people of only one particular religion, they are clearly sending a message that in their society, they do not accept people of that religion. They are not protesting against display of religious symbols of other religions, they are also not concerned about the sorry state of women under their own religious structure, which means they are clearly targeting women of one and only one community this time. This will leave serious and long lasting divisions in the society.

One wrong gives birth to another and a vicious cycle starts. The post-truth world cannot think objectively.

No, this is not a “balancing post”. If you think so, you need to balance your own outlook first.

– Hitendra Anant

मानक
सामयिक (Current Issues)

राहुल गांधी के भाषण पर

  1. कुछ लोग इसे महान भाषण बता रहे हैं।
  2. कुछ का कहना है कि भाषण जैसा भी हो, राहुल ने साहस के साथ सही बातें की हैं।

मेरा अपना आकलन यह है:

  1. वक्तृत्व कला के पैमाने पर, अंग्रेज़ी में भी, यह औसत प्रदर्शन था। जो ठहराव लिए गए वो कम से कम ऐसे आदमी को नहीं लेने चाहिए जिसका करियर खराब करने का आधा श्रेय मीम बनाने वालों को जाता है।
  2. खरी बात कहने पर लोग सही बोल रहे हैं कि उन्होंने बहुत सी खरी बातें की। लेकिन इस देश में कौन नहीं है जो ऐसी बातें कर रहा है। इनसे भी अधिक ईमानदारी से खरी बातें करने वाले हैं, उनमें से कुछ जेल में हैं कुछ बाहर और कुछ संसद में भी।
  3. राहुल ने परनाना, दादी और पिता का ज़िक्र इस तरह से किया कि वो उनके उत्तराधिकारी हैं। उनका हक है कि वो उनकी विरासत पर दावा करें। लेकिन ऐसा करेंगे तो यह दावा छोड़ना पड़ेगा कि पूर्वजों की नाकामियों का मैं भागी नहीं हूँ।
  4. विदेश नीति में वर्तमान सरकार असफल है। इसमें कोई शक नहीं। नेपाल से लेकर श्रीलंका तक हर पड़ोसी हमने खोया है। चीन से लेकर पाकिस्तान तक हर तरफ़ हमने समस्याएँ बढ़ाई हैं। लेकिन एक “ईमानदार” और “निर्भीक” वक्ता को मालूम होना चाहिए कि इस किस्म की भूलें और असफलताएँ उन तीनों महान हस्तियों के खाते में भी हैं जिनकी महान विरासत और छाती की गोलियों का ज़िक्र राहुल ने संसद में किया।
  5. चीन के साथ 1962 में जो हुआ वह तत्कालीन सरकार की विदेश नीति और सैन्य मोर्चों पर विफलता ही थी। पंजाब संकट को पैदा करने में तत्कालीन सरकार के फैसले भी जिम्मेदार हैं। श्रीलंका में शांति सेना भेजने का प्राणघातक फैसला भी भयंकर भूल था। और भी बातें हैं जो गिनाई जा सकती हैं।
  6. तमिलनाडु में द्रविड़ दलों की बहुत सी बातें सही हैं। लेकिन यह भी सही है कि यही द्रविड़ दल एक समय तक अलगाववादी विचारों को खुलेआम हवा दे रहे थे। उसके बीज वहाँ के समाज में आज भी हैं। इस सबकी शुरुआत कांग्रेस के नेतृत्व द्वारा तमिलनाडु पर हिन्दी थोपने के प्रयासों से शुरू हुई थी।
  7. लोकतंत्र को मजबूती देने वाले संस्थानों को क्या कांग्रेस ने कमज़ोर नहीं किया? टी एन शेषन से पहले चुनाव आयोग की क्या दशा थी यह कम से कम तब की पीढ़ी को याद होगा। बूथ कैप्चरिंग शब्द आजकल अखबारों से ग़ायब है। पता कीजिए कि किनके राज में यह आए दिन छपा करता था? 356 का सबसे अधिक बेज़ा इस्तेमाल किसने किया? दंगों में क्या कांग्रेस के हाथ काले नहीं हैं?
  8. भ्रष्टाचार और एक लचर प्रशासनिक तंत्र कांग्रेस की पैदाइश हैं। ट्रांसफर उद्योग, पोस्टिंग के नाम पर वसूली, नौकरी देने में धांधली यह सब 2014 के बाद शुरू नहीं हुआ। आए दिन आलाकमान के द्वारा चुने हुए लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों को हटाकर कौन सरकारें पलटता रहा क्या यह किसी से छिपा है? अधिकारियों से इस्तीफे दिलवाकर उन्हें चुनाव लड़वाने का काम क्या कांग्रेस ने नहीं किया?
  9. देश के विश्वविद्यालयों का माहौल भाजपा ने खराब किया है। लेकिन 2014 के पहले क्या वहाँ शोध और पैटेंट की आंधी चल रही थी? छात्रसंघ के पुराने तरीके से चुनावों के दौर की हिंसाएँ और उनमें एनएसयूआई की गुंडागर्दी (बाकियों की भी) क्या लोग भूल गए हैं? गांधी परिवार की सुविधा के हिसाब से स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास पाठ्यक्रमों में जुड़वाकर विश्वविद्यालयों में चमचागिरी करने वाले प्रोफेसरों की फौज किसने खड़ी की, क्या कोई राहुल गांधी को यह भी बताएगा? वैसे यह उसी पाठ्यक्रम का नतीजा है कि परिवार के बाहर के महान कांग्रेसी नेताओं को भाजपा अपने खाते में जोड़ पा रही है।
  10. ग़रीब, युवा, बेरोज़गार की बातें भाजपा नहीं करती। वह उन्हें गुमराह कर रही है। लेकिन राहुल के परिवार के लोग जब देश के प्रधान थे तब बेरोज़गारी की दर क्या थी? अच्छा-बुरा बाद में, लेकिन देश में नौकरियों में वृद्धि तब हुई जब नरसिंह राव की सरकार ने लाइसेंस कोटा राज खत्म किया। पटेल, शास्त्री और सुभाष छोड़ दीजिए, गांधी परिवार नीत कांग्रेस को नरसिंह राव का नाम तक लेने में शर्म आती है।
  11. पर्यावरण से खिलवाड़, आदिवासियों की ज़मीनें हड़पना, किसानों की दुर्दशा यह सब 2014 के बाद शुरू नहीं हुआ है।
  12. क्या कांग्रेस की वर्तमान राज्य सरकारें जिनके मुख्यमंत्री राहुल के नाम की कसमें आए दिन खाते रहते हैं, राहुल के भाषणों के अनुसार काम कर रही हैं? क्या अडानी को कोयला देने के लिए एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री दूसरे कांग्रेसी मुख्यमंत्री से नहीं लड़ रहा? क्या इन राज्यों में धर्म के नाम पर जनता को नहीं लुभाया जा रहा? क्या यहाँ ट्रांसफ़र-पोस्टिंग, रेत माफ़िया, आरटीओ आदि हर किस्म का भ्रष्टाचार खत्म हो गया है? राहुल महान नेता हैं तो अपने इन्हीं राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर उनका कितना असर है?
  13. यह सब इसलिए गिनाया है कि जिन भले लोगों के राहुल गांधी में मसीहा इत्यादि दिखाई देता है, वो सपनों की दुनिया से बाहर आएँ।
  14. एक “ईमानदार” और सत्यवादी वक्ता और नेता को किसी दिन इन ग़लतियों को स्वीकार करना चाहिए। आप पुरखों के नाम का गुणगान करने के हक़दार हैं बशर्ते आपमें उनकी नाकामियों का बोझा ढोने की भी ईमानदारी हो।
  15. अंत में, आप वह मत ढूंढिए जो आप देखना चाहते हैं लेकिन है नहीं। उस भाषण में अच्छा बहुत कुछ था, विलक्षण कुछ नहीं था।

हितेन्द्र अनंत

मानक
व्यंग्य (Satire)

थोड़ा पढ़ लेते बेटे तो क्या बात थी!

आज मेडिकल स्टोर गया तो एक अंकल पहले से काउंटर पर थे। मैं अंकल उन्हें बोलता हूँ जो साठ या उससे अधिक उम्र के होते हैं। काउंटर पर लड़का उनका हिसाब कर रहा था। लड़के की उम्र बीस साल की थी। अपन चालीस के हैं।

तो स्टोर का लड़का कैलकुलेटर पर हिसाब कर रहा था। जब हिसाब पूरा हुआ तो उसने मुंडी उठाकर अंकल से कहा “तीन सौ पच्चीस।”

अंकल के हाथ में पहले से ही तीन सौ पच्चीस रुपए तैयार थे। अंकल मुस्कुराकर बोले कि “भिया मैं पहलेइच्च गिन लिया था कि तीन सौ पच्चीस हुआ। आप कैलकुलेटर में टाइम खराब कर दिए।”

लड़के का मुँह इतना सा हो गया। [लड़का 0, अंकल 1]

अपना कूदना अब ज़रूरी हो गया था। अपन बोले, “आजकल कहाँ पहाड़ा कोई पढ़ता है अंकल। आपको तो आज भी पहाड़ा याद होगा।” [लड़का 0, अंकल 2, अपन 1]

अंकल बोले – “अरे पहाड़ा क्या भिया अपन को ड्यौढ़ा, सवैया, तोला, माशा, रत्ती सब याद है।” [लड़का 0, अंकल 2, अपन 1]

अपन बोले – “इसमें ये क्या करेगा अंकल, इसको पढ़ायाइच्च नई होगा तो ये कैलकुलेटरीच्च उठाएगा ना। क्यों भाई, पढ़ा है क्या तू पहाड़ा?”

अंकल – “अरे कहाँ पढ़ा होगा!”

लड़का – “पढ़ा हूँ भिया। पूरा बीस तक पढ़ा हूँ। लेकिन भिया बात मालिक के दुकान का है इसलिए अपन चांस नहीं ले सकते। भिया नौकरी की मजबूरी है, इसलिए कैलकुलेटर जरूरी है”। [लड़का 1, अंकल 2, अपन 1]

अपन – “अंकल ये तोला माशा रत्ती तो हमको भी नहीं पढ़ाया। माने कहावतों में सुना है। तोला तो फिर भी मालूम है कि सोनार उसी में सोना बेचता है”।

अपन लड़के से – “क्यों भाई तू सुना है वो कहावत कि पल में तोला, पल में माशा”।

लड़का – “नहीं भिया”। [लड़का 1, अंकल 2, अपन 2]

अपन – “तो रत्ती भर फरक नहीं पड़ा, ये सुना है क्या?’

लड़का – “नहीं भिया”। [लड़का 1, अंकल 2, अपन 3]

अंकल एक साँस में – “भिया तोला पहले 12 ग्राम का होता था आजकल दस ग्राम का। माशा मतलब तोले का दसवाँ हिस्सा। रत्ती मतलब तोले का सौवां हिस्सा।” [लड़का 1, अंकल 5, अपन 3]

अंकल फिर से – “पढ़ाई ज़रूरी है भिया। पढ़ोगे तभी तो जानोगे कि तोला क्या है। तभी तो सोनार को बोलोगे कि कितने तोला और कितने माशा का गहना बनाना है”।

लड़का – “क्या करेंगे अंकल पढ़के? आपके जमाने में तो सरकार आठवीं पास को बुला के तहसीलदार बना देती थी। हम पढ़ भी लिए तो इसी मेडिकल दुकान में काम करेंगे। यहाँ काम करेंगे तो सोना कहाँ से लेंगे जी।” [लड़का 6, अंकल 5, अपन 3]

अपन – “सही तो बोल रहा है अंकल। पढ़ लिख के भी क्या मिल जाएगा। अपन तो इंजीनियरिंग किए, एमबीए किए, क्या मिल गया? और पीएचडी भी कर लेते तो क्या मिल जाता? क्या Pawan Yadav एक बार में हमारा फोन उठा लेता या Pawan Sarda हमारे पोस्ट पे लाइक-कमेंट कर देते?”
[लड़का 6, अंकल 5, अपन 10]

अंकल चुप। लड़का कैलकुलेटर पे मेरा हिसाब करने लगा। बगल की दुकान में गाना बज रहा था –

“सबेरे चली जाएगी, तू बड़ा याद आएगी। तू बड़ा याद आएगी, याद आएगी”।

अंकल गाना सुनते हुए चल दिए।

एक परीक्षा के पेपर में एक लड़का कुछ नहीं लिखा तो ये मिसरा लिखा:

“किस्मत की कुंजी आपके पास थी, अगर पास कर देते गुरुजी तो क्या बात थी”

गुरुजी ने मिसरा पूरा किया:

“पुस्तक की कुंजी आपके पास थी, थोड़ा पढ़ लेते बेटे तो क्या बात थी”

  • हितेन्द्र अनन्त

* Pawan Yadav हमारे वह मित्र हैं जो दोस्तों के फोन न उठाने के लिए कुख्यात हैं।

*Pawan Sarda – हमारे मित्र जो फेसबुक पर पढ़ते तो सब हैं लेकिन न कभी लाइक करते हैं न कमेंट्स।

मानक
विविध (General)

यह जो हमारा ध्यान भटक जाता है

हमारे सामने इस समय सबसे बड़ी समस्याएँ कौन सी हैं?


१. पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन का संकट

२. आर्थिक असमानता

३. सुपोषक भोजन, शिक्षा, पेयजल और स्वास्थ्य का बड़ी आबादी की पहुँच से बाहर होना

४. तकनीकी विकास के बाद मशीनों द्वारा रोज़गारों छिनने का ख़तरा

लेकिन हमारा ध्यान किन बातों पर है?
१. हिन्दू बनाम मुस्लिम

२. हिन्दू बनाम हिंदुत्ववादी

३. गांधी बनाम गोडसे

४. “लव जिहाद” सहित अन्य सभी प्रकार के “जिहाद”

५. धर्मांतरण बनाम घर वापसी

असल समस्याओं से हटकर हमारा ध्यान चाहे-अनचाहे इन फ़िज़ूल के मुद्दों पर क्यों अटका है या अटक जाता है?
क्योकि सबसे पहले जो चार असल समस्याएँ लिखी हैं, उनमें एक और समस्या जोड़ी जानी चाहिए:
५. तकनीकी, मीडिया एवँ सोशल मीडिया पर नियंत्रण के ज़रिए समाज में झूठी सूचनाओं का फैलाया जाना।

दुनिया की बड़ी आबादी, बहुसंख्य देश, किसी न किसी प्रकार की आधी-अधूरी ही सही, लोकतांत्रिक व्यवस्था से संचालित हैं। इसलिए दुनिया में बड़े फैसले, अच्छे या बुरे, लागू करवाने के लिए, और बुरे फ़ैसलों का संभावित विरोध टालने के लिए, जनमत (पब्लिक ओपिनियन) को प्रभावित करने की सभी शक्तियों की आवश्यकता है। पूंजी की पहुँच रखने वाली ताकतों के लिए सोशल मीडिया एवँ मुख्यधारा के मीडिया पर नियंत्रण से यह सम्भव भी हो गया है।

सच की और हक की कोई भी लड़ाई अब तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि जनहित की बात करने वाली ताकतें भी जनमत को प्रभावित करने की उचित क्षमता विकसित न कर लें। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक उनके द्वारा कही गई किसी भी अच्छी बात का कोई असर नहीं होगा। अच्छी बातें हैं, उन्हें अच्छी तरह लोगों के सामने रखने वाले भी हैं, लेकिन उनका असर लगभग शून्य के बराबर है।

पुराने तरीकों से अब काम नहीं होगा। जिस प्रकार हथियारों का मुकाबला उतने ही अच्छे हथियारों से हो सकता यही , उसी प्रकार सूचना तंत्र पर बेज़ा इस्तेमाल की काट भी स्पष्ट होनी चाहिए। अन्यथा होगा यह कि प्रतिरोध के स्वर मौजूद तो रहेंगे, लेकिन उनकी मौजूदगी का भी इस्तेमाल जनविरोधी ताकतों के द्वारा किया जाएगा।
यह सब कैसे संभव होगा? यही वह बात है जो समझदार और सही मंशा रखने वालों को मिलजुलकर सोचना चाहिए।


– हितेन्द्र अनंत

मानक
व्यंग्य (Satire), समाज

“वेडिंग” में अंकल- आंटी लोग

वेडिंग होती चाहे जिसकी हो उसकी शान रिटायर्ड अंकल-आंटी लोग हैं।

वेडिंग के मेहमानों का अस्सी प्रतिशत यही लोग होते हैं। चूँकि इनके पास फुल फ्री का समय है, तो ये हर रस्म को कुर्सी पर बैठकर आराम से देखते हैं।

इनमें से जो अंकल लोग दारू वाली खातिरदारी में शामिल होते हैं उनका जलवा सबसे अलग होता है। मैंने गौर किया है कि अंकल लोग चखना में उतना ध्यान नहीं देते, सीधे बोतल निबटा देते हैं। वेटर को “बेटे” कहकर बुलाते हैं। बातचीत के दौरान “मैं तब तक दफ़्तर नहीं छोड़ता था जब तक मेरी टेबल की सारी फाइलें न निबटा दूँ”, और “काम ईमानदारी से किया हमने, तो दिल में एक सैटिस्फैक्शन रहता है” ज़रूर बोलते हैं।

हमको सबसे सैड लगते हैं वो अंकल जो न पीते हैं, न खाते हैं, न नाचते हैं। ये चुपचाप हर जगह मौजूद होते हैं। ये अगर लहसुन-प्याज़ न खाएँ तो मेज़बान को अलग टेंशन लेना पड़ता है। इनको मंदिर वगैरह दिखाने के लिए एक्सट्रा गाड़ियों का इंतज़ाम भी करना पड़ता है।

वेडिंग में फोटोशूट के लिए दस लड़के अलग से लगे हों, लेकिन अपने फोन से अंकल को हर रस्म का फोटो लेना होता है।ये अंकल लोग शादी में जितने नए अंकल-आंटी से मिलें, उन सबका तुरन्त ही एक व्हाट्सऐप ग्रुप बना लेते हैं। उसमें “चाय शुरू हो गई है”, से लेकर “दुल्हन अभी तक स्टेज पर नहीं आई” जैसी महत्वपूर्ण सूचनाएँ भी होती हैं, मोदी जी तो ख़ैर होते ही हैं।

आंटी लोग आजकल रस्मों पर कमेंट नहीं करतीं। ना ही वो रिश्ता ढूंढती हैं। क्योंकि उनको मालूम है कि आजकल वो भाव उनको मिलेगा नहीं। आजकल आंटियाँ ड्रेस कोड के हिसाब से तैयार होने और स्टेटस लगाने में अपना समय अधिक व्यतीत करती हैं।सब मेहमान चला जाता है, लेकिन अंकल-आंटी शादी के बाद भी कुछ दिन रुक जाते हैं।

हमको मालूम है कि एक दिन हम भी अंकल बनूंगा, लेकिन इसको पढ़कर कुढ़ने वाले अंकल जान लें कि तब हम खाली बैठकर रस्में देखने की बजाए, बाकी के अंकल पर यूँ ही पोस्ट बनाकर हँसता रहूंगा।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
समीक्षा

पुस्तक – “एक देश बारह दुनिया”

शिरीष खरे की पुस्तक “एक देश बारह दुनिया” पढ़ी।

यह पुस्तक रिपोर्ताज संकलन भी है साथ ही यात्रा ससंमरण भी। शिरीष ने नर्मदा की यात्रा (परिक्रमा नहीं) की है। एक पत्रकार होने के नाते उन्होंने अनेक राज्यों के अनेक क्षेत्रों यात्राएँ की हैं, वहाँ से रिपोर्टें भेजी हैं। लेकिन इस दौरान एक पत्रकार बहुत कुछ देखता-समझता है जिसे अख़बारों में या तो छापा नहीं जाता या छापा जाना सम्भव नहीं। गनीमत है कि शिरीष जैसे कुछ लोग इन संस्मरणों को डायरी में लिख लेते हैं।

“एक देश बारह दुनिया”, शिरीष के उन्हीं संस्मरणों के ज़रिए एक भुला दी गयी लेकिन विशाल और त्रासदीग्रस्त दुनिया में पाठक को ले जाती है। जिन रास्तों से गुज़रते हुए हम-आप तस्वीरें खींचकर “ब्यूटीफुल कंट्रीसाइड” का स्टेटस सोशल मीडिया पर लगा देते हैं, उन जगहों पर ठहरकर एक पत्रकार देख पाता है कि यही “ब्यूटीफुल कंट्रीसाइड” दरअसल अन्यायों, तकलीफों, बीमारियों, लूट, चोरी, दोहन, शोषण की एक ऐसी दुनिया है जिससे निजात पाना वहाँ के निवासियों के लिए लगभग असम्भव है। शिरीष के ही शब्दों का उपयोग किया जाए तो “टूसी या थ्रीसी – दो कॉलम या तीन कॉलम” की छोटी सी जगह में इन जगहों की जो ख़बरें छपती हैं, जिन्हें यह विज्ञापनों से दबे हुए पृष्ठ में या तो देख नहीं पाते या देखकर भी “टू डिप्रेसिंग” मानकर पढ़ते नहीं, दरअसल उन ख़बरों से अखबार पटा होना चाहिए और हर रात की प्राइम टाइम बहस का यही एक मुद्दा होना चाहिए।

इस क़िताब में नर्मदा की धीमी मौत की सच्चाई है, विस्थापन की कहानियाँ हैं, अफसरों, ठेकेदारों और नेताओं के ज़ुल्मों की दास्तानें हैं। राजस्थान की उन दो महिलाओं की कहानियाँ हैं जिन्होंने से ज़ुल्मों ने लड़ने के दो अलग रास्ते चुने, न्याय अलबत्ता दोनों को अबतक नहीं मिला। इस क़िताब में ग़ायब होते जंगल, मालिकों से प्रवासी मजदूरों में जबरन बदले जा रहे किसान और बंदूकों के साये में जी रहे आदिवासी भी हैं जिनका पुलिस न जाने कब फर्जी एनकाउंटर कर दे या कब मुखबिरी के आरोप में नक्सली उन्हें मार डालें।

“पत्रिका” के पत्रकार के रूप में शिरीष ने रायपुर-बस्तर में करीब तीन वर्ष बिताए, उनके इस दौरान के संस्मरणों का मेरे लिए और भी अधिक महत्त्व है क्योंकि छत्तीसगढ़ मेरा गृह राज्य है, और जिन वर्षों की कहानी शिरीष इस पुस्तक में लिखते हैं, तब मैं मेरे ही राज्य के लाखों युवाओं की तरह कहीं बाहर नौकरी कर रहा था। जब इक्कीस साल पहले हमारा राज्य अस्तित्व में आया था तब मैं कॉलेज में था, मेरे जैसे नौजवानों की आँखों में तब खुशहाली के जो सपने थे वो जल्द ही बर्बाद हो गए, उनकी बर्बादी का एक बड़ा कारण वह है जो “एक देश बारह दुनिया” के छत्तीसगढ़ के हिस्से में बेहद मार्मिक विवरण के साथ लिखा है।

शिरीष की पुस्तक को पढ़ना एक ऐसा पीड़ादायक अनुभव है जिससे हर पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय, शहरी भारतीय को गुजरना ही चाहिए। वह जो इस जैसी क़िताबों में छपा है, जब हर ड्राइंग रूम की बहसों का हिस्सा बनेगा तब शायद हम जान पाएंगे कि भारत का शासन तंत्र किस कदर अपने नागरिकों का शोषण करता है, विकास के असली मायने क्या हैं, और यह कि क्यों सदियों पुरानी दमन की व्यवस्थाएँ आज भी वैसी की वैसी जारी हैं।

एक महत्वपूर्ण पुस्तक जिसे पढ़ा जाना ज़रूरी है।

हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज

धर्मों के नाम पर हिंसाएँ क्यों होती हैं?

धर्मों के दो स्वरूप होते हैं। पहले एक आंतरिक स्वरूप होता है, जिसमें धर्म की अवधारणाएँ होती हैं, उसकी शिक्षा होती है और उसका दर्शन होता है।

लेकिन इस आंतरिक स्वरूप को जनसुलभ बनाने के लिए धीरे-धीरे उसका बाह्य स्वरूप आकार लेता है। इसमें अनेक बाते होती हैं, हलाल-हराम, शुभ-अशुभ, पवित्र-अपवित्र आदि। बाह्य स्वरूप में वेशभूषा, खानपान, केश व्यवस्था – बाल, दाढ़ी, चोटी इत्यादि आते हैं, साथ ही इनमें आंतरिक स्वरूप का ज्ञान देने वाली क़िताबें भी आती हैं जो खुद बाह्य स्वरूपों का एक हिस्सा बन जाती हैं।

समय के साथ प्रत्येक धर्म के बाह्य स्वरूप इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उस धर्म के आंतरिक स्वरूप को जानने समझने की चेष्टा कोई नहीं करता।

बाह्य स्वरूपों का पालन कट्टरपंथी विचारों को बढ़ावा देता है क्योंकि यही बाह्य स्वरूप उस धर्म के अनुयायियों को अन्य धर्मों के अनुयायियों से अलग दिखाता है। मसलन, बाल कभी न कटाना, दाढ़ी रखना, मूँछ न रखना, गंजे हो जाना, चोटी रखना, या कि खास रंग के कपड़े पहनना आदि।

धर्मो की असली शिक्षाओं का बाह्य दिखावे के सामने गौण हो जाना ही धर्मों के मॉडल का असफल हो जाना है। सभी धर्म इस मामले में एक बराबर हैं कि वे सभी असफल हो चुके हैं। क्यों असफल हैं? क्योंकि उनके मानने वाले उनकी शिक्षाओं को ताक पर रखकर केवल दिखावटी अंतरों को ही धर्म समझ बैठते हैं। ऐसी असफलता केवल धर्मो की हो ऐसा नहीं है, राजनीतिक विचारधाराओं के साथ भी ऐसा ही होता है।

इसलिए एक समय के बाद धर्मो में क़िताब का अपमान, कार्टून, चित्र, मांस भक्षण, लहसुन-प्याज़, जैसी बातें इंसानों की हत्याएँ करवा देती हैं, जबकि उनकी शिक्षाओं जिनमें, भलाई, मदद, सेवा, अहिंसा, भाईचारा आदि बातें (जितनी भी हों या जैसी भी हों) गौण हो जाती हैं।

आम लोगों को समझाने की गरज से या स्थानीय संस्कृति के तत्वों को अंगीकार करने की आवश्यकता से, धर्म जिन बाह्य स्वरूपों को अपनाते हैं, वही उनकी असल शिखाओं को कहीं अंदर दफ़ना देते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि धर्मो के नाम पर स्वाभाविक हिंसाएँ नहीं रुकेंगी।

फिर क्या है जो इस क़िस्म की हिंसाओं को रोक सकता है? एक ऐसा तंत्र जो धर्मों से भी अधिक कट्टर तौर पर सेक्युलर हो , लिखे हुए क़ानून पर चले, उसका सख़्ती से पालन कराए, न्याय करे और सबके लिए समान हो।

दुःख की बात यह है कि कम से कम भारत में ऐसा तंत्र भी उसी चक्र का शिकार है, ऐसा तंत्र कागज़ों में छपा तो है लेकिन उस पर अम्ल कितना होता है यह लिखने की आवश्यकता नहीं।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज, सामयिक (Current Issues)

गुडगाँव

गुडगाँव में वह हो रहा है जो हम पाकिस्तान में होता देख चुके हैं।

गुडगाँव के कुछ हिन्दू रहवासियों को मुसलमानों का किसी खुले मैदान में नमाज़ पढ़ना पसन्द नहीं आ रहा। इस दौर में एक बड़े अपवाद के तौर पर गुडगाँव का प्रशासन मुस्लिमों को सुरक्षा दे रहा है और नमाज़ पढ़ने में उनकी मदद कर रहा है।

मुझे नमाज़ की जानकारी नहीं लेकिन यह कोई डीजे बजाकर शोर मचाने वाला उपक्रम नहीं है। सार्वजनिक नमाज़ प्रायः शुक्रवार की दोपहर को पढ़ी जाती है। अधिकतम पन्द्रह मिनट का शांत कार्यक्रम होता है। चूँकि फ़िलहाल मस्जिदों में कोरोना के चलते भीड़ बढ़ाना स्वीकृत नहीं है, इसलिए कहा जा रहा है कि उस क्षेत्र के कामगार मुसलमान एक मैदान में अपना धार्मिक कर्तव्य अदा कर रहे हैं।

जब हिंदुओं के कुछ उत्सवों में दस-दस दिन लगभग पूरे दिन-रात डीजे बजाया जाता है, सड़कें घेरी जाती हैं, और जुलूसों के दौरान ट्रैफिक को बाधित जिया जाता है, तब पूरी आबादी इसे त्यौहारों की आवश्यकता समझकर साथ देती है। क्या दो मिनट की अज़ान सुन लेना या घर के सामने किसी को नमाज़ पढ़ते देख लेना इतना पीड़ादायक अनुभव है?

सुना है कि गुडगाँव के वही उपद्रवप्रेमी लोग अब ठीक नमाज़ के वक्त भजनों को लाउडस्पीकर पर बजा रहे हैं। ज़ाहिर है कि भजन को ठीक नमाज़ के वक्त गाने का हिन्दू धर्म में कोई आदेश या नियम नहीं है। बल्कि हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती ही यह है, और अन्य धर्मों के मुकाबले यह गुण उसमें बेहतर है, कि इसका कोई भी नियम स्वैच्छिक है। हिन्दू धर्म में उपासना का कोई एक नियमबाध्य तरीका नहीं है। अनेक तरीके हैं और अनेक मीमांसाएँ हैं जो उन तरीकों के पालन न हो पाने की स्थिति में विकल्प बताती हैं, और कोई हिन्दू चाहे इन्हें माने, चाहे न माने, वह फिर भी उतना ही हिन्दू रह सकता है। ऐसे में ऐन नमाज़ के वक्त भजन गाना सिवाय एक अन्य धर्म से नफ़रत के प्रदर्शन के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।

दरअसल हिन्दुओं का इतना भयादोहन किया गया है कि उन्हें दाढ़ी-टोपी वाले मुसलमान देखते ही डर लगने लगता है। दूसरी और अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज के सत्तालोलुप वर्ग को यह समझ आने लगा है कि हिन्दुओं के नाम पर कट्टरता का प्रदर्शन करने से उन्हें सत्ता की मलाई का एक छोटा सा टुकड़ा मिल सकता है। अतः समाज में कट्टरता दिखाने की होड़ लग रही है।

यही सब पाकिस्तान में हुआ। वहाँ जब सभी अल्पसंख्यकों का लगभग सफाया कर दिया गया, और आबादी को एक कट्टर इस्लाम की झूठी पहचान में ढाल दिया गया तो अब सत्ता पाने और प्रभाव जमाने के लिए एकमात्र विकल्प बचा है कि खुद को दूसरों से बेहतर मुसलमान साबित किया जाए। यही कारण है कि वहाँ इस्लाम के एक फ़िरक़े का दूसरे पर बम फेंकना अब आम बात हो गई है।

गुडगाँव के ये लोग उन्हीं हिन्दुओं की प्रारंभिक प्रजाति हैं जो एक दिन आपस में लड़ेंगे और यह साबित करने के लिए कि वही असली हिन्दू हैं, एक-दूसरे का ख़ून करने से भी न हिचकेंगे।

गुडगाँव का समझदार पुलिस प्रशासन हिंसा रोक रहा है। लेकिन देश के बहुसंख्यक समाज के दिलों में, उन्हीं के धर्म के संतों-महापुरुषों की शिक्षाओं की जो प्रतिदिन हत्या हो रही है, उसे कौन रोकेगा?

– हितेन्द्र अनंत

मानक