पुस्तकें

“कसप’ पर

मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास “कसप” पढ़ा। इसमें कुमाऊँनी हिन्दी का जो सौंदर्य बिखरा है, वह शायद इस उपन्यास का सबसे अच्छा पहलू है। हालाँकि इसे कुमाऊँनी समाज की कहानी न मानते हुए वहाँ के ब्राह्मण समाज की कहानी अधिक माना जाना चाहिए। आदि से अंत तक केवल ब्राह्मण परिदृश्य है, हालाँकि केवल ऐसा होने में कोई बुराई नहीं लेकिन फिर इसे हिन्दी में कुमाऊँनी समाज का प्रतिनिधित्व करता हुआ उपन्यास न माना जाए।

जोशी जी सहित अनेक उपन्यासकार बात कहने के लिए “लार्जर देन लाइफ़” बातें बना देते हैं, यह अब अखरने लगा है। सामान्य पृष्ठभूमि की नायिका का सांसद बन जाना और नायक का हॉलीवुड का प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक बना दिया जाना कुछ ज़्यादा ही ऊँची छलांग है।

प्रेम के भावों में डूबे हुए संवाद आकर्षक हैं। नायिका अकेली है जिसका चरित्र जोशी जी ने पूरी सफलता से उकेरा है। शरतचन्द्र के बाद जोशी जी दूसरे पुरुष होंगे जो स्त्री मन को इतना समझ पाए।

कहानी कहने की अलग शैली दरअसल बोझिल मालूम हुई।

कुलमिलाकर अच्छा उपन्यास है लेकिन बहुत महान कृति कहलाने के योग्य नहीं है।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
अपनी बात

पैमाने

एक बड़ी लंबी सड़क शहर से मेरे गाँव तक आती है। वह गाँव के जिस सिरे से जुड़ती है, मुझे लगता है कि गाँव वहीं से शुरू होता है। अब भी मैं गाँव की कल्पना करूँ तो उसका नक्शा वहीं से बनाना शुरू करता हूँ।

शहर के जिस हिस्से में मैं ज़्यादातर रहा हूँ, मुझे लगता है कि असली शहर तो यही है, बाकी उसका विस्तार है।

मैं अपनी नस्ल के इंसानों को मानक समझते हुए, बाकी नस्लों के इंसानों की शारिरिक बनावट को कौतुहल से देखता हूँ।

मैं स्वयं को इस दुनिया का केंद्र मानता हूँ। इस दुनिया को मैं पूरे यूनिवर्स का केंद्र मानता हूँ।

मुझे लगता है कि समय दिन और रात में विभाजित है। मुझे पूरा विश्वास है कि बारह महीनों में विभाजित वर्ष ही जीवन को मापने का सबसे सही पैमाना है। मैं समझता हूँ कि जो भी बड़े परिवर्तन विश्व में होने हैं, वो मेरे जीवनकाल के भीतर ही हो जाएंगे।

जिन पैमानों, संदर्भों, मानकों और दायरों से मैं विश्व और जीवन को समझता हूँ, वह सब ग़लत हों, या बदल दिए जाएँ, या उन्हें मैं भूल जाऊँ तो?

– हितेन्द्र अनंत 

मानक
संस्मरण

शनिवार का बाज़ार 

सप्ताह में एक दिन बाज़ार भरता था। मेरे गाँव छुरा में शनिवार के दिन बाज़ार भरता था। गरियाबंद के लिए शायद शुक्रवार था, पाण्डुका के लिए गुरूवार और बाकी गाँवों के लिए और दिन तय थे। बाज़ार मेरे घर के बहुत पास भरता था। वह जगह बरगद के एक विशाल पेड़ के नीचे थी। गाँव में उसे बर रूख या बड़ झाड़ भी कहते थे। ज़्यादातर दुकानदार बरगद की छाँह में ज़मीन पर प्लास्टिक की चादर या जूट के बोरे पसार कर उस पर सामान रखते थे। उस समय इलेक्ट्रॉनिक तराज़ू नहीं हुआ करते थे। वज़न के बाटों की जगह कई दुकानदार पत्थरों से तौलते थे। बाज़ार में ग्राम पंचायत ने बहुत सी छोटे आकार की झोपड़ियाँ भी बनाई थीं जिन्हें हटरी कहते थे। इन हटरियों में कुछ बड़े सब्ज़ी वालों के साथ ही किराना वाले, कपडे वाले, बर्तन वाले और सोनार भी दुकान लगाते थे। छत्तीसगढ़ी शब्द हटरी का हिन्दी अर्थ झोपड़ी होता है; हिन्दी हाट का अर्थ बाज़ार, अंग्रेज़ी में भी हट का अर्थ झोपड़ी ही होता है; ऐसा हमारे स्कूल शिक्षक बताते थे। हटरी में जो सोनारों की दुकानें थीं, उनमे से एक सोनार गरियाबंद से आते थे, ये हमारे पिता के मित्र थे। अतः इस दिन प्रायः इनका दोपहर का भोजन हमारे घर हुआ करता था। इनके अलावा केवल एक और दुकानदार था जिसे मैं जानता था, वह था मेरे साथ पढ़ने वाला नंदकुमार साहू। वह अपने पिता के साथ बाज़ार में सब्ज़ी बेचा करता था। नंदकुमार मेरे साथ मिडिल स्कूल में था। मिडिल स्कूल मेरे घर से एकदम पास ही था। शनिवार का स्कूल पूरा करने के बाद नंदकुमार पिता के साथ दुकान पर बैठ जाता था।   

जब मैं प्रायमरी स्कूल में था, मुझे याद है कि मेरे घर से स्कूल की दूरी करीब डेढ़ किलोमीटर थी। शनिवार के दिन हम सफ़ेद कमीज और हाफ़ पैंट पहनकर स्कूल जाते थे। बाकी दिनों के लिए सफ़ेद कमीज और खाकी हाफ़ पेंट हुआ करती थी।  शनिवार के दिन स्कूल जल्दी छूट जाता था। वैसे तो हम पैदल ही घर जाते थे, लेकिन शनिवार के दिन आसपास के गाँवों से जो बैलगाड़ियाँ बाज़ार की ओर जा रही होती थीं, हम दौड़कर उनपर बैठ जाते थे। बैलगाड़ी पर बैठकर घर जाने में मुझे बहुत आनंद आता था। हालाँकि ऐसा अवसर कभी-कभार ही मिलता था। दूर-दराज़ के गाँवों के ऐसे बहुत से व्यापारी थे जो शुक्रवार की शाम को ही अपने सामान और बैलगाड़ियों के साथ बाज़ार में डेरा डाल देते थे। ये लोग रात का खाना बरगद के नीचे ही पकाया करते थे।   

मैं एक सरकारी कॉलोनी में रहता था। कॉलोनी के बाहर दफ्तर था, उसके आगे एक घूरा था जिसमें सब लोग कचरा फेंकते था। स्कूल में गुरूजी ने बताया था कि घूरे में फेंके हुए कचरे से कम्पोस्ट खाद बन जाती है। घूरे के आगे बाईं ओर मिडिल स्कूल जाने का रास्ता था, और दाईं ओर बर रुख था। बाज़ार से सब्ज़ी हमेशा मम्मी ही लाती थी। वह पड़ोस की आंटियों के साथ मिलकर सामान लाने जाती थी। मुझे याद है कि बाजार जाने से पहले मम्मी पाउडर लगाकर बालों को अच्छी तरह सँवारकर जाती थी। जब मम्मी तैयार होती थी तो मैं ध्यान से उन्हें तैयार होते हुए देखता था। मुझे याद हो गया था कि कब वह चेहरे पर पाउडर लगाती है और कब मांग में सिन्दूर भरती है। कभी-कभी मैं भी मम्मी के साथ सब्ज़ी लाने जाता था। सब्ज़ी न भी लेनी हो तो भी मैं दोस्तों के साथ हर शनिवार को बाज़ार का एक चक्कर लगा लिया करता था। इस दिन सामान खरीदने के लिए आसपास के छोटे गाँवों से हज़ारों लोग आते थे। एक मेला सा लग जाता था।

बर रुख के पीछे हटरियाँ बनी थीं। बाज़ार की जगह के चारों और सड़क के किनारे खाने-पीने के सामानों की दुकानें लगती थीं। इनमें गुलगुल भजिया, मिर्ची भजिया, कैंडी फ्लॉस जिसे गाँव में बॉम्बे मिठाई कहते थे और हिन्दी में कुछ जगहों पर “बुड्ढी के बाल” भी कहते हैं, आदि बेचे जाते थे। कुछ भेल पूरी या चाट के ठेले भी बाद में लगने लगे थे। इसके अलावा खिलौनेवाले होते थे जो प्रायः प्लास्टिक या मिट्टी से बने खिलौने, पुंगी, चकरी या फिरकी, झुनझने, बाँसुरी, और फुग्गे बेचा करते थे। एक कोने में मछली वाले बैठते थे। उनके पास जो तरह-तरह की मछलियाँ होती थीं उन्हें देखना हमें अच्छा लगता था। उस समय तक गाँवों में बोतल बंद पानी नहीं मिलता था। हालाँकि ऐसे पानी का विज्ञापन हमने टीवी में देखा था। बाज़ार के एक छोर पर, अस्पताल के सामने एक हैण्डपम्प था, बाज़ार आने वाले लोग उसी से पानी पी लेते होंगे। हैंडपम्प के पास ही एक छोटा सा रेस्तराँ था जिसका नाम “कैलाश होटल एन्ड बासा” था। यहाँ चाय-नाश्ते और खाने का प्रबंध हो जाता था। शायद कुछ गाँव वाले कैलाश के पास ही कुछ खा लेते होंगे।  

जो सब्ज़ियाँ मिलती थीं उनमें आलू-प्याज़ के अलावा तुरई, गिलखी, भिन्डी, टमाटर, तरह-तरह की पत्तेदार भाजियाँ, अलग-अलग प्रकार के कांदे, नीम्बू वगैरह होते थे। सभी सब्ज़ी वाले ज़ोर-ज़ोर से सब्ज़ियों के नाम और उनके भाव दिन भर पुकारते रहते थे। कुछ सब्ज़ियों के छत्तीसगढ़ी नाम अलग थे, लेकिन टमाटर के लिए पताल के अलावा बाकी सब्ज़ियों के लिए सब्ज़ी वाले हिन्दी नामों को ही लेते थे। शायद जब गाँव के ग्राहक सब्ज़ी खरीदते होंगे तब वे सब्ज़ियों के नाम अपनी भाषा में लेते होंगे। छत्तीसगढ़ी में प्याज़ को गोंधली, भिन्डी को रमकलिया, और सहजन की फली को मुनगा कहते हैं। बरबट्टी, खेखसी, जरी आदि वे सब्ज़ियाँ हैं जिनके हिन्दी नाम मुझे नहीं मालूम।  

कभी-कभी इसी दिन शहर से राशन लिए एक सरकारी गाड़ी आती थी। इस गाड़ी में “नागरिक आपूर्ति निगम” लिखा होता था। यह नीले रंग की एक मेटाडोर थी। हालाँकि गाँव में कंट्रोल के सामान की एक दुकान थी, पर कभी-कभी शहर से आने वाली इस गाड़ी में राशन कार्ड दिखाकर शक़्कर, चांवल, और गेहूँ आदि खरीदे जा सकते थे। हम इस गाड़ी और गाँव की कंट्रोल की दुकान से केवल शक़्कर और मिट्टी का तेल खरीदते थे।

महिलाओं की ज़रूरत के सामानों की दुकानें अलग हुआ करती थीं। इनमें कंघी, काजल, फीता, बक्कल, पिन, पाउडर, क्रीम, और आईना जैसी चीज़ें मिलती थीं। चूड़ी की दुकानें अलग थीं और इनका हम बच्चों से एक अलग रिश्ता था। 

नंदकुमार के पिता सब्ज़ी बेचते थे, इस कारण स्कूल के दोस्त उसे “सरहा भाँटा” या “किरहा भाँटा” कहकर चिढ़ाते थे।  भाँटा का अर्थ बैंगन होता है, सरहा यानी सड़ा हुआ और किरहा यानी कीड़ेदार। नंदकुमार ने अपने गाँव में पाँचवी तक स्कूल किया था। छठवीं से वह हमारे साथ छुरा के मिडिल स्कूल में आ गया था। शुरू में उसने स्कूल के सर से शिकायत की थी कि ये लोग मुझे इस तरह चिढ़ाते हैं। हालाँकि शिकायत के बावजूद चिढ़ाना बंद नहीं हुआ। छठवीं की परीक्षा में एक बार नंदकुमार ने पैरों में बहुत कुछ लिखकर नकल मारने की कोशिश की। मैंने यह देखकर उसकी शिकायत कर दी। सर ने उसकी पिटाई की और परीक्षा से बाहर कर दिया। परीक्षा खत्म होने के बाद मैंने घर जाकर मम्मी को बताया कि किस तरह मैंने एक नकल मारने वाले लड़के की शिकायत की। यह सुनकर मम्मी ने मुझे डाँटा। मम्मी को डर था कि कहीं ऐसा न हो कि मेरी शिकायत के कारण बाद में कभी वह लड़का मुझे मारे या कोई नुकसान पहुँचाए। मम्मी मुझे यह समझा ही रही थी कि घर की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो नंदकुमार खड़ा था। मम्मी की बात सुनकर मुझे लगा कि शायद नंदकुमार मुझे मारने के लिए आया है। लेकिन उसने मुझसे बस इतना पूछा कि उसे आज के विषय में फेल कर दिया जाएगा या कि सभी विषयों में? मैंने उससे कहा कि वह चिंता न करे, उसे बाकी विषयों की परीक्षा में बैठने दिया जाएगा।  

आज सोचता हूँ कि नंदकुमार के नकल मारने में आखिर ग़लत क्या था? वह खेतों में अपने पिता की मदद करता था, न जाने कितने किलोमीटर दूर गाँव से साइकिल चलाकर स्कूल आता था, और फिर बाज़ार के दिन दुकान पर भी बैठता था। आखिर उसे पढ़ने का समय ही कब मिलता होगा। मेरे पापा और मम्मी दोनों मुझे पढ़ाते थे। नंदकुमार को घर में पढ़ाने वाला शायद ही कोई होगा।

बाज़ार के दिन कभी-कभी कुछ खेल दिखाने वाले आते थे। इनमें कभी कुछ नट होते थे, मदारी होते थे, कुछ जादूगर और कुछ सपेरे भी आया करते थे। एक बार एक बायोस्कोप वाला भी आया था। सपेरे कभी-कभी कई फ़ीट लम्बे साँप लाते थे। जादूगर के खेल में सबसे अधिक भीड़ जुटती थी।  मदारी के साथ भालू कम ही होता था, हालाँकि बंदर हमेशा होता था।  एक बार साँप और नेवले की लड़ाई भी देखी थी। खेल के बाद लोग पैसे देते थे। कुछ लोग पैसे दिए बिना वापस चले जाते थे।  

बाज़ार का दिन ख़त्म हो जाने के बाद अगले दिन यानी रविवार को हम फिर से बाज़ार स्थल का मुआयना करते थे। इसके दो कारण थे। एक तो हमें मालूम था कि इतनी भीड़ होने के कारण हो न हो कुछ लोगों के गिरे हुए सिक्के या रुपयों के नोट हमें मिल जाएंगे। कुछेक बार ऐसा हुआ भी था इसलिए हर रविवार को हमें यह उम्मीद रहती थी। कोई सिक्का या रुपया जिसे मिल जाए वह “पैसा पा गेन रे!” ऐसा बार-बार कहता हुआ सब दोस्तों को बताता था। इसके अलावा हम उस जगह जाते थे जहाँ चूड़ियों की दुकानें लगती थीं। यहाँ से हम काँच की, अलग-अलग रंगों की फूटी हुई चूड़ियाँ इकट्ठी करते थें। हम चूड़ियों के संग्रह का एक खेल खेलते थे जिसके लिए यहाँ से चूड़ियाँ इकट्ठा करना हमारे लिए बेहद ज़रूरी था।

छत्तीसगढ़ में सब्ज़ी या कुछ और सामान खरीदने के साथ एक परम्परा जुड़ी हुई है। बेचने वाला जब सब्ज़ी तौल लेता है, या दर्ज़न के भाव देने वाली चीज़ें गिन लेता है, तो वह साथ में थोड़ी सी सब्ज़ी या चीज़ें और देता है जिसे पुरौनी कहते हैं। यह शायद इसलिए होता होगा कि यदि ग्राहक को दुकानवाले के तौलने पर थोड़ा शक हो तो वह अतिरिक्त सामान मिलने से खुश हो जाए। कुछ दुकानदार खुशी से पुरौनी दे देते थे, कुछ मांगने पर देते थे। एक बार मेरे कोई रिश्तेदार बहुत दूर से हमारे घर आए। उन्हें पुरौनी की यह परम्परा मालूम हुई तो उन्होंने खुद इसका परीक्षण करना चाहा। वो बाज़ार गए और लौटकर आए तो खुशी से हमें बताया कि एक सब्ज़ी वाले की दुकान पर बहुत भीड़ थी। सब्ज़ी वाला सभी ग्राहकों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहा था। रिश्तेदार ने एक दर्ज़न नीम्बू खरीदे और उससे पूछा एक और पुरौनी में ले लूँ? सब्ज़ी वाले ने उनकी ओर बिना देखे कह दिया कि हाँ ले लो।  रिश्तेदार ने उसके ध्यान न देने के कारण पाँच बार और वही सवाल पूछा और इस तरह आधा दर्ज़न नीम्बू मुफ़्त में ले लिए। यह किस्सा हमारे परिवार में काफ़ी समय बाद तक सुनाया जाता रहा।  

गाँव छोड़ने के करीब पच्चीस साल बाद मैं वहाँ दुबारा लौटा। बरगद का वह विशाल पेड़ नहीं था। उस पेड़ की लटकती जड़ों में हम झूला झूलते थे। पेड़ की कमी मुझे इस तरह महसूस हुई मानों मेरे बचपन का कोई दोस्त अब नहीं रहा। उसी यात्रा में मुझे यह भी मालूम हुआ कि नंदकुमार का भी अल्प आयु में निधन हो गया था। बाज़ार अब भी उसी जगह भरता है। लेकिन बाज़ार को छत देने वाला बर रुख अब नहीं है। सब्ज़ी वालों के शोर में एक आवाज़ नंदकुमार की थी जो कम हो गई है।

– हितेन्द्र अनंत 

मानक
अपनी बात

इन दिनों मैं क्यों कम लिखता और बोलता हूँ?

आजकल यूँ तो मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूँ, लेकिन जितना अधिक चाहता हूँ, उतना ही कम कहता हूँ। ऐसा बहुत कुछ मेरी दुनिया में घटित हो रहा है जो मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है। लेकिन हर बार जब मन करता है कि किसी बात पर मेरी अपनी भी कोई बात होनी चाहिए, तब मैं चुप हो जाता हूँ।  

कभी-कभी मैं यह सोचकर चुप हो जाता हूँ कि जो मैं कहने जा रहा हूँ, वैसा ही जब पहले कहा था तो उसका कोई असर नहीं हुआ। कभी इसलिए कुछ नहीं कहता कि मुझे लगता है कि इस विषय में मेरे लिए फ़िलहाल कोई भी मुकम्मल राय बना पाना संभव नहीं है, या कि मुझे कुछ भी कहने से पहले और अधिक जानने की आवश्यकता है।  

लेकिन इन दोनों कारणों से बढ़कर एक कारण और है। बीते दस सालों में दुनिया में बात करना बहुत ही मुश्किल हो गया है। किसी भी बात को कहना चाहो तो यह सोचना पड़ता है कि सुनने या पढ़ने वालों की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। ऐसे विषय जिन पर पहले कभी कोई बहस नहीं हुआ करती थी, लोग अब उन पर घंटों उलझे रहते हैं। यदि किसी बात का केवल एक पक्ष भी हो, तो भी लोग उस बात के दो पक्ष या अनेक पक्ष बना लेते हैं। शायद इसीलिए बना लेते हैं ताकि कहने वाले के जवाब में वे भी कुछ कह पाएँ। इससे किसी भी बात के कहे जाने पर एक शोर-शराबे का माहौल बन जाता है। केवल दो लोग एक बंद कमरे में बात कर रहे हों, वे ज़ोरों से भले ही बात न करें, लेकिन उनकी बातों से बाहर नहीं तो उनके अपने भीतर ही शोर हो जाता है। 

लोग पहले जब चौपालों में या बैठकों में आपस में बातें करते थे, तो कुछ लोग कहने वाले होते थे, और बहुत से सुनने वाले।  बहसें तब भी होती होंगी, लेकिन उन बहसों से किसी को पीड़ा नहीं पहुँचती थी। अब लोग शायद यह देखने लगे हैं कि कैसे हम बात करें कि किसी न किसी को पीड़ा हो। बात चाहे साहित्य की हो, राजनीति की, या किसी बीमारी के इलाज की ही क्यों न हो , लोगों से किसी भी विषय पर बात करना एक पीड़ादायक अनुभव बनता जा रहा है।  

ईमानदारी से यह स्वीकार करता हूँ कि कुछ साल पहले जब इस किस्म की चर्चाओं की शुरुआत हुई, तो मैं खुद बातों को उलझाने में या बात करते हुए एक क़िस्म की वाचिक हिंसा फैलाने में सुख पाया करता था। किसी से अपनी बात मनवा ली, या किसी को बहस में हरा दिया, या किसी को इतना परेशान कर दिया कि उसने बहस ही छोड़ दी, मैं इन सबमें आनंद महसूस किया करता था। लेकिन बीते करीब एक साल से मुझे ऐसा लगने लगा है कि इससे एक तो मेरे भीतर की शांति भंग हो रही है, दूसरे, मुझे या इन चर्चाओं में भाग वाले किसी और को भी, इन सब बातों से कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। कई बार बेहद उद्वेलित कर देने वाली घटनाओं पर भी मैं इसीलिए चुप रहने लगा हूँ।

मैं किसी से यह नहीं कहना चाहता कि वे चुप रहें, न ही मैं मौन रहने की कोई वक़ालत कर रहा हूँ। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि हम एक ऐसे अभूतपूर्व समय में जी रहे हैं जहाँ किसी भी प्रकार की अर्थपूर्ण चर्चा की शायद कोई भी संभावना नहीं बची है। ऐसी अवस्था में क्या किया जाना चाहिए यह मैं नहीं कह सकता। न ही मैं उन्हें ग़लत कह सकता हूँ जो तमाम बाधाओं के बावजूद अपनी बात अभी भी रख रहे हैं। लेकिन निजी तौर पर कुछ भी कहना मुझे अब निरर्थक ही लगने लगा है। यहाँ मैं जानबूझकर ऐसी चर्चाओं के उदाहरण नहीं लिख रहा, क्योंकि उन उदाहरणों के उल्लेख मात्र से इसे पढ़ने वाले का ध्यान उन घटनाओं पर चला जाएगा और इस लिखे हुए का भी वही परिणाम होगा जिसकी मुझे शिकायत है। 

चुप रहकर क्या मुझे अधिक शांति का अनुभव होता है? नहीं। मेरे भीतर बहुत सी बातें हैं, बहुत से विषयों पर मेरी एक राय है, इसलिए मैं भीतर बहुत शांत हूँ ऐसा भी नहीं है। लेकिन किसी बात को कहने के बाद आजकल जो वाचिक हिंसा का माहौल बनता है, मैं फिलहाल उस अतिरिक्त वेदना से तो बचना ही चाहता हूँ। 

– हितेन्द्र अनंत 

मानक
व्यंग्य (Satire)

रूस के लोकतंत्र की हक़ीक़त

रूस की एक खासियत है।

रूस की आम जनता औसतन कम बुद्धिमान होती है। इसलिए उस पर अधिक बुद्धिमान शासक के द्वारा राज किया जाना ही वहाँ का इतिहास है। वह अधिक बुद्धिमान शासक किसी पार्टी के पोलितब्यूरो से लेकर खास जाति या परिवार के सदस्य तक कुछ भी हो सकता है।

दरअसल रूस में विशुद्ध लोकतंत्र एक छलावा है। ऐसा कुछ बड़े स्तर पर न कभी हुआ है न हो सकता है। सत्ता का चरित्र ही ऐसा है कि वह मुट्ठीभर ताकतवर लोगों के सहकार से संभलती है। इसलिए रूस में सत्ता का अर्थ हमेशा से बंदरबांट पर टिकी व्यवस्था रहा है। इसी को सामंतवाद कहते हैं।

रूस जैसे मुल्क में जब सत्ता पर कब्ज़ा मतदान से हो, मतदान का आधार सार्वभौमिक हो, और मूर्खता का आधार भी सार्वभौमिक हो तब दो बातें होती हैं। एक, अधिक बुद्धिमान लोग, मूर्खों की बड़ी आबादी को मूर्ख बनाकर उस पर राज करते हैं। इस राज से जो अच्छा बुरा निकले वह मूर्ख जनता की किस्मत।

दो, सत्ता के लिए संघर्ष शाश्वत है। अतः, बुद्धिमान रूसी शासकों से थोड़े कम बुद्धिमान रूसी शासक, इन्हें आप मीडियॉकर भी कह सकते हैं, जनता को अधिक मूर्खतापूर्ण मुद्दों में फँसाकर सत्ता हथिया लेते हैं। इसमें खतरा यह है, कि ऐसी स्थिति में जनता की सामूहिक मूर्खता और शासकों की औसत बुद्धिमानी का अन्तर धीरे धीरे कम होता जाता है। इसका परिणाम होता है, मूर्खों का मूर्खों के लिए मूर्खों पर शासन। ऐसे शासन में होड़ यह होती है कि किस प्रकार अधिक से अधिक मूर्खता की जाए।

ऐसे शासन में प्रायः जेसीबी जैसी कंपनियों का माल बहुत बिकता है। यही कारण है कि रूस में लोकप्रिय विदेशी कंपनियों में जेसीबी का नाम प्रमुख है।

  • रूस से महाकवि निरालाई गुप्तेस्तोव का पत्र
मानक
सामयिक (Current Issues)

इंस्पायरिंग स्टोरी

एक ग़रीब का उन्नीस किलोमीटर रोज़ दौड़ना ज़रूरी है।

ताकि सबसे पहले हमें यह पता चले कि हम उतने ग़रीब नहीं हैं।

और इसलिए भी कि एक फिल्ममेकर अपना एक और वीडियो वायरल करवा सके। और फिर उस वायरल वीडियो से झटक ले कुछ और टीआरपी।

उस ग़रीब का नाम पता सब कुछ पूछकर ज़ाहिर किया जा सकता है। उसकी प्राइवेसी उसी दिन ख़त्म हो गई थी जब उसने ग़रीबी में जन्म लिया।

वायरल होने से ग़रीब को कोई फायदा हो न हो, वायरल वीडियो की गिनती में एक इज़ाफ़ा तो हो ही जाता है।

हमें ऐसी बहुत सी कहानियाँ चाहिए। ये कहानियाँ हमें “इंस्पायर” करेंगी ताकि हम यूपीएससी का चौथा प्रयास अच्छी तरह से करें, ताकि हमारे स्टार्टअप्स एक दिन यूनिकॉर्न बनें और हम किसी टेड टॉक में जाकर इनमें से कोई एक कहानी सुना सकें।

ग़रीबों शुक्र मनाओ तुम हमारी कहानियों में हो।

– हितेन्द्र अनंत

https://www.ndtv.com/india-news/videos-19-year-olds-10-km-midnight-run-story-makes-him-indias-darling-2833438#pfrom=home-ndtv_m_topscroll

मानक
सामयिक (Current Issues)

राहुल गांधी, एक भला आदमी

राहुल गांधी वह नहीं हैं जो कांग्रेस समर्थक सोचते हैं।

राहुल गांधी जो भी हो “एक भला आदमी है”, यह बात भोले-भाले कांग्रेस समर्थकों का भ्रम है।

जो व्यक्ति बिना किसी प्रशासकीय अनुभव के खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान ले, उसके पहले बिना किसी चुनाव के पार्टी का अध्यक्ष बन जाए,वह दरअसल सत्तालोलुप है, भला आदमी नहीं।

भला आदमी क्या होता है? मैं खाली सड़क में रात को बारह बजे भी सिग्नल पर गाड़ी रोकता हूँ, ईमानदारी से टैक्स भरता हूँ। तो क्या मैं पार्टी अध्यक्ष पद के लायक हो गया? यह भला आदमी होने का बहाना दरअसल परिवार के प्रभामंडल से सम्मोहित कांग्रेसियों का हथियार है जिससे वे अपनी स्वामीभक्ति को खुद से छिपाना चाहते हैं।

2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद न केवल राहुल ने नैतिकता के आधार पद से इस्तीफा दिया, बल्कि यह भी कहा मेरे परिवार से बाहर जिसको चाहो अध्यक्ष बनाओ। लेकिन ऐसा कहने के बाद अपनी बहन के साथ मिलकर खुलेआम पार्टी के निर्णय लेना यह दर्शाता है कि राहुल को सत्ता के बिना राहत नहीं मिलती। इस्तीफा दिया था तो निर्णय नहीं लेने चाहिए। दूर रहो। आपकी बहन केवल एक राज्य की महासचिव है, वह पूरे देश में पार्टी के फैसले क्यों ले रही है?

दरअसल यह राहुल गांधी की घोर परिवारवादी मानसिकता को दर्शाता है। अब इसके आगे की बात करते हैं।

2014 में कांग्रेस के 9 मुख्यमंत्री थे। अभी केवल 2 हैं। 2014 के बाद से जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं, इनमें कांग्रेस ने भाजपा से सीधी टक्कर की स्थिती में केवल 3 चुनाव जीते, और उनसे बनी सरकारों में भी एक गिरवा दी।

सीधे मुकाबलों में भाजपा के ख़िलाफ़ कांग्रेस का जीत प्रतिशत करीब 4 प्रतिशत है। यह सब तब हुआ है तब कांग्रेस के सारे फैसलों पर राहुल गांधी की मोहर है।

संगठन क्षमता की बात करें तो उनके महान फैसलों का महान तमाशा पंजाब में पिछले छह महीनों में हम देख चुके हैं। पार्टी की अंदर के लड़ाई को यूँ सरेआम होने देने में न केवल नेतृत्व की असफलता थी बल्कि उसकी (अर्थात भाई-बहन की) सक्रिय भागीदारी भी थी। और नहीं तो अपने मातहत लोगों पर भी आपका नियंत्रण नहीं जिनकी नियुक्ति आपने खुद की है!

कांग्रेस खुद को विपक्ष का सबसे बड़ा और आवश्यक अंग मानती है। लेकिन उसके शासक परिवार के मुखिया का व्यवहार देखिए। राहुल गांधी ने आज तक मुम्बई जाकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं की है। पार्टी टूटने के डर से बचने के लिए आप महाराष्ट्र सरकार में शामिल हुए। यदि महान नैतिकतावादी हो तो शामिल नहीं होना था , यदि हुए तो फैसले को स्वीकार करो। यह फूफा की तरह चलती बारात से दूरी बनाना क्या एक अच्छे नेता को शोभा देता है? यूपीए के विस्तार के लिए खुद आगे होकर राहुल विपक्ष के किस नेता के घर जाकर उससे मिले? क्यों विपक्ष के नेता (पवार, ममता सहित) आज भी सोनिया गांधी से मिलते हैं, राहुल से नहीं?

मेरे गृहराज्य छत्तीसगढ़ में भी उनके दौरे के लिए हमारे मुख्यमंत्री को महीनों मिन्नतें करनी पड़ीं। अंततः वे तब आए जब हमारे मुख्यमंत्री ने असम के बाद उत्तर प्रदेश चुनावों का जिम्मा उठाया (अर्थात क्या किया यह बताने की आवश्यकता नहीं है)।

संगठन क्षमता की एक और बानगी। अपने अनेक साक्षात्कारों में राहुल ने यह स्वीकार किया है कि उनकी पार्टी का प्रचार तंत्र कमज़ोर है। लेकिन यदि ऐसा है तो अमरिंदर सिंह जैसे को पार्टी से निकालने का दम रखने वाले राहुल एक अदद रणदीप सिंह सुरजेवाला को प्रवक्ता पद से हटाने का दम क्यों नहीं रखते? यह तो कोई भी एक कांफ्रेंस देखकर बता देगा कि सूरजेवाला एक फिसड्डी प्रवक्ता है। जो अध्यक्ष वही ठीक नहीं कर सकता वह पार्टी और देश में क्या खाक ठीक कर देगा?

बाद इन सबके, जब चारों ओर से कांग्रेस की यह आलोचना हो रही है कि वह परिवारवादी पार्टी है तो नैतिकता का दूसरा नाम राहुल गांधी, क्यों नहीं यह घोषणा कर देते कि चूँकि यह चर्चा है, आरोप है, इसलिए मेरा परिवार इस पद से दूर रहेगा। इन बातों से आहत कांग्रेसी यही सोचे कि यदि महात्मा गांधी पर इस आरोप का दसवाँ हिस्सा भी लगता तो वो क्या करते? इसलिए, नैतिकता के ये दावे झूठे हैं।

चुभेगी बात लेकिन सच यही है कि राहुल गांधी सत्ता के आदी हो चुके हैं, उन्हें पार्टी पर नियंत्रण की सनक है, और उनकी सँगठन क्षमता दोयम दर्जे से भी गई बीती है। उनके और उनकी बहन के नेतृत्व को देश की जनता नकारते-नकारते थक गई है। इसलिए पुरखों का दिया कुछ संस्कार बाकी हो तो तत्काल पार्टी के निर्णय तंत्र से सौ कोस दूर चले जाएँ। ऐसा करके वे और उनकी बहन देश की सबसे बड़ी सेवा करेंगे। एक अप्रैल से अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाएँ पूरी क्षमता से बहाल भी हो रही हैं। इसका फ़ायदा फ्रीक्वेंट फ्लायर राहुल को अवश्य ही उठाना चाहिए।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
व्यंग्य (Satire)

ऊंचाई बनाम लम्बाई

फलाना छह फुट ऊँचा है या छह फुट लम्बा?

अंग्रेज़ी में तो हाइट ही नापी जाती है। हिन्दी में क्या सही उपयोग होगा यह जानने के लिए प्रचलित साहित्य की ओर रुख किया तो एक गीत की यह पँक्तियाँ ध्यान आईं:

एक ऊँचा-लम्बा कद
दूजा सोणी वी तू हद

अब मामला कठिन हो गया। व्याकरण की समस्या, काव्य के उदाहरण से सुलझ नहीं पाई। नहीं सुलझ पाई सो ठीक लेकिन एक और समस्या सामने आ गई।

यदि कोई स्त्री “सोणी भी तू हद’ है, जिसमें सोणी का अर्थ रूपवती से है, और हद का अर्थ सीमा होता है, तो उसका रूप सीमित हुआ या असीमित? असीमित सौन्दर्य के लिए “सोणी वी तू बेहद” कहना चाहिए था।

ख़ैर, साहित्य से मामला नहीं सुलझा तो हमने बाज़ार की ओर रुख किया। बाज़ार में भी दो तरह के इश्तेहार हैं। “लंबाई बढ़ाने की दवा” के, और “ऊँचाई बढ़ाने की दवा” के। कुछ हिंग्लिश के भी इश्तेहार हैं जो “हाइट बढ़ाने की दवा” बेचते हैं। इन इश्तेहारों पर ग़ौर किया तो समझ आया कि लम्बाई और ऊँचाई बढ़ाने की दवाओं के मक़सद अलग-अलग हो सकते हैं।

मामला अमर्यादित हो जाए, उससे अच्छा है कि कहावतों की ओर रुख किया जाए। एक कहावत याद आई:

“ऊँची दुकान, फीके पकवान”।

इससे मूल प्रश्न का उत्तर तो नहीं मिला लेकिन यह सवाल उठा कि “ऊँची दुकान” का अर्थ दुकान के भवन की ऊँचाई से है या उसके अंदर मिलने वाले पकवानों की क़ीमतों से?

एक तरफ़ “जमुना किनारे मोरी ऊँची हवेली” है, तो दूसरी तरफ़ “बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर” है। अब हवेली ऊँची भी हो सकती है और बड़ी भी, और दोनों भी। लेकिन पेड़ ऊँचा होगा, बड़ा भी होगा क्या?

“ऊँच-नीच” के फेर में भी पेंच हैं। यदि कोई ऊँचा है तो दूसरा कम ऊँचा होगा, इन्सान क्या कुँआ है जो नीचा होगा? बौना हो सकता है, नीचा कैसे?

“ऊँचे लोग, ऊँची पसन्द” वाला गुटखा किसकी पसन्द नहीं हो सकता? बौने लोगों की या कथित “नीचे” वाले लोगों की?

ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी में होने वाले सभी प्रयोग गड़बड़ ही होते हैं। यह गीत एकदम सही प्रयोग का प्रदर्शन करता है:

“ओ नीचे फूलों की दुकान
ऊपर गोरी का मकान”

बात ऊँचाई बनाम लम्बाई की थी। ऊँच-नीच की बातें अच्छी नहीं।

  • हितेन्द्र अनंत

सार_यही_है_भन्ते

मानक
सामयिक (Current Issues)

On the Karnataka Hijab Controversy

1. The boys wearing saffron scarves in Karnataka and protesting against women wearing Hijab in colleges are doing the wrong thing, more than that, this will lead them to an almost permanent fundamentalist frame of mind where the “other” must be abhorred, or negated.

2. The women who have a legitimate right to enter educational institutions while wearing a Hijab or a Burqa, and who are now trending #ILoveHijab are also gullible. Most likely, this whole thing will lead them to an almost permanent fundamentalist frame of mind where the “other” must be abhorred, or negated.

Ultimately, religion and competitive politics combined, are ruining an entire generation. If you only look beyond the basic issue of the fundamental right to dress by choice, you can see the danger is bigger and the issue is far more complex than it appears.

At the first place, a piece of cloth (origins of it cultural or religious) which is definitely a symbol of oppression and misogyny, is now becoming symbol of “freedom of choice”, thereby, those willing to wear it forget the original reason of this necessity imposed on them. That imposition is real, it also has other manifestations. It hurts the emancipation of women suffering because of living life under that particular religious structure. (Needless to say, almost all religions oppress women, but women from each one need to fight their own battles).

On the other hand, those protesting against it, are undoubtedly not protesting against any symbol of oppression, they are protesting against a religious identity. By protesting against display of identity by people of only one particular religion, they are clearly sending a message that in their society, they do not accept people of that religion. They are not protesting against display of religious symbols of other religions, they are also not concerned about the sorry state of women under their own religious structure, which means they are clearly targeting women of one and only one community this time. This will leave serious and long lasting divisions in the society.

One wrong gives birth to another and a vicious cycle starts. The post-truth world cannot think objectively.

No, this is not a “balancing post”. If you think so, you need to balance your own outlook first.

– Hitendra Anant

मानक
सामयिक (Current Issues)

राहुल गांधी के भाषण पर

  1. कुछ लोग इसे महान भाषण बता रहे हैं।
  2. कुछ का कहना है कि भाषण जैसा भी हो, राहुल ने साहस के साथ सही बातें की हैं।

मेरा अपना आकलन यह है:

  1. वक्तृत्व कला के पैमाने पर, अंग्रेज़ी में भी, यह औसत प्रदर्शन था। जो ठहराव लिए गए वो कम से कम ऐसे आदमी को नहीं लेने चाहिए जिसका करियर खराब करने का आधा श्रेय मीम बनाने वालों को जाता है।
  2. खरी बात कहने पर लोग सही बोल रहे हैं कि उन्होंने बहुत सी खरी बातें की। लेकिन इस देश में कौन नहीं है जो ऐसी बातें कर रहा है। इनसे भी अधिक ईमानदारी से खरी बातें करने वाले हैं, उनमें से कुछ जेल में हैं कुछ बाहर और कुछ संसद में भी।
  3. राहुल ने परनाना, दादी और पिता का ज़िक्र इस तरह से किया कि वो उनके उत्तराधिकारी हैं। उनका हक है कि वो उनकी विरासत पर दावा करें। लेकिन ऐसा करेंगे तो यह दावा छोड़ना पड़ेगा कि पूर्वजों की नाकामियों का मैं भागी नहीं हूँ।
  4. विदेश नीति में वर्तमान सरकार असफल है। इसमें कोई शक नहीं। नेपाल से लेकर श्रीलंका तक हर पड़ोसी हमने खोया है। चीन से लेकर पाकिस्तान तक हर तरफ़ हमने समस्याएँ बढ़ाई हैं। लेकिन एक “ईमानदार” और “निर्भीक” वक्ता को मालूम होना चाहिए कि इस किस्म की भूलें और असफलताएँ उन तीनों महान हस्तियों के खाते में भी हैं जिनकी महान विरासत और छाती की गोलियों का ज़िक्र राहुल ने संसद में किया।
  5. चीन के साथ 1962 में जो हुआ वह तत्कालीन सरकार की विदेश नीति और सैन्य मोर्चों पर विफलता ही थी। पंजाब संकट को पैदा करने में तत्कालीन सरकार के फैसले भी जिम्मेदार हैं। श्रीलंका में शांति सेना भेजने का प्राणघातक फैसला भी भयंकर भूल था। और भी बातें हैं जो गिनाई जा सकती हैं।
  6. तमिलनाडु में द्रविड़ दलों की बहुत सी बातें सही हैं। लेकिन यह भी सही है कि यही द्रविड़ दल एक समय तक अलगाववादी विचारों को खुलेआम हवा दे रहे थे। उसके बीज वहाँ के समाज में आज भी हैं। इस सबकी शुरुआत कांग्रेस के नेतृत्व द्वारा तमिलनाडु पर हिन्दी थोपने के प्रयासों से शुरू हुई थी।
  7. लोकतंत्र को मजबूती देने वाले संस्थानों को क्या कांग्रेस ने कमज़ोर नहीं किया? टी एन शेषन से पहले चुनाव आयोग की क्या दशा थी यह कम से कम तब की पीढ़ी को याद होगा। बूथ कैप्चरिंग शब्द आजकल अखबारों से ग़ायब है। पता कीजिए कि किनके राज में यह आए दिन छपा करता था? 356 का सबसे अधिक बेज़ा इस्तेमाल किसने किया? दंगों में क्या कांग्रेस के हाथ काले नहीं हैं?
  8. भ्रष्टाचार और एक लचर प्रशासनिक तंत्र कांग्रेस की पैदाइश हैं। ट्रांसफर उद्योग, पोस्टिंग के नाम पर वसूली, नौकरी देने में धांधली यह सब 2014 के बाद शुरू नहीं हुआ। आए दिन आलाकमान के द्वारा चुने हुए लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों को हटाकर कौन सरकारें पलटता रहा क्या यह किसी से छिपा है? अधिकारियों से इस्तीफे दिलवाकर उन्हें चुनाव लड़वाने का काम क्या कांग्रेस ने नहीं किया?
  9. देश के विश्वविद्यालयों का माहौल भाजपा ने खराब किया है। लेकिन 2014 के पहले क्या वहाँ शोध और पैटेंट की आंधी चल रही थी? छात्रसंघ के पुराने तरीके से चुनावों के दौर की हिंसाएँ और उनमें एनएसयूआई की गुंडागर्दी (बाकियों की भी) क्या लोग भूल गए हैं? गांधी परिवार की सुविधा के हिसाब से स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास पाठ्यक्रमों में जुड़वाकर विश्वविद्यालयों में चमचागिरी करने वाले प्रोफेसरों की फौज किसने खड़ी की, क्या कोई राहुल गांधी को यह भी बताएगा? वैसे यह उसी पाठ्यक्रम का नतीजा है कि परिवार के बाहर के महान कांग्रेसी नेताओं को भाजपा अपने खाते में जोड़ पा रही है।
  10. ग़रीब, युवा, बेरोज़गार की बातें भाजपा नहीं करती। वह उन्हें गुमराह कर रही है। लेकिन राहुल के परिवार के लोग जब देश के प्रधान थे तब बेरोज़गारी की दर क्या थी? अच्छा-बुरा बाद में, लेकिन देश में नौकरियों में वृद्धि तब हुई जब नरसिंह राव की सरकार ने लाइसेंस कोटा राज खत्म किया। पटेल, शास्त्री और सुभाष छोड़ दीजिए, गांधी परिवार नीत कांग्रेस को नरसिंह राव का नाम तक लेने में शर्म आती है।
  11. पर्यावरण से खिलवाड़, आदिवासियों की ज़मीनें हड़पना, किसानों की दुर्दशा यह सब 2014 के बाद शुरू नहीं हुआ है।
  12. क्या कांग्रेस की वर्तमान राज्य सरकारें जिनके मुख्यमंत्री राहुल के नाम की कसमें आए दिन खाते रहते हैं, राहुल के भाषणों के अनुसार काम कर रही हैं? क्या अडानी को कोयला देने के लिए एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री दूसरे कांग्रेसी मुख्यमंत्री से नहीं लड़ रहा? क्या इन राज्यों में धर्म के नाम पर जनता को नहीं लुभाया जा रहा? क्या यहाँ ट्रांसफ़र-पोस्टिंग, रेत माफ़िया, आरटीओ आदि हर किस्म का भ्रष्टाचार खत्म हो गया है? राहुल महान नेता हैं तो अपने इन्हीं राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर उनका कितना असर है?
  13. यह सब इसलिए गिनाया है कि जिन भले लोगों के राहुल गांधी में मसीहा इत्यादि दिखाई देता है, वो सपनों की दुनिया से बाहर आएँ।
  14. एक “ईमानदार” और सत्यवादी वक्ता और नेता को किसी दिन इन ग़लतियों को स्वीकार करना चाहिए। आप पुरखों के नाम का गुणगान करने के हक़दार हैं बशर्ते आपमें उनकी नाकामियों का बोझा ढोने की भी ईमानदारी हो।
  15. अंत में, आप वह मत ढूंढिए जो आप देखना चाहते हैं लेकिन है नहीं। उस भाषण में अच्छा बहुत कुछ था, विलक्षण कुछ नहीं था।

हितेन्द्र अनंत

मानक