विविध (General)

आपको किस क़िस्म का संगीत पसंद है?

आपको किस क़िस्म का संगीत पसंद है? यह सवाल अक्सर मुझसे पूछा जाता है, और मैं भी दूसरों से यह सवाल पूछा करता हूँ। हालाँकि भारत में यह सवाल ऐसे भी पूछा जाता है कि आपको कैसे गाने पसंद हैं? इस लेख में मैं इसी सवाल का जवाब अपनी ओर से ढूंढना चाहता हूँ। क्या यह सम्भव है कि इस सवाल का जवाब एक वाक्य में दिया जाए?

बात तो संगीत की ही करनी है, लेकिन शुरुआत भोजन से करते हैं। बड़े-बड़े शेफ़, मिशलीन स्टार वगैरह वाले हों या कोई और, जब खाने की विधियाँ बताते हैं तो उन विधियों में परिमाण (मेजरमेंट), समय और तापमान के कड़े नियम हुआ करते हैं। मसलन इतने ही ग्राम आटा लेना है, इतने डिग्री पर चूल्हा या अवन रखना है और इतने ही मिनट पकाना है। इसमें कोई शक नहीं कि इन नियमों का पालन करने पर ही आपको सही परिणाम मिलेंगे, स्वाद, रंग आदि जैसा चाहिए वैसा आएगा। लेकिन जब यह व्यंजन पहली बार बने तब, या जिन इलाकों में यह व्यंजन वहाँ की परम्परा का हिस्सा हैं, क्या वहाँ भी इन्हें ऐसे ही बनाया गया होगा? ज़ाहिर है, व्यंजन पहले बने, और परिमाण के ये कठोर नियम बाद में आए। ख़ैर, मुझे इस तरह से खाना बनाने में आनंद नहीं आता।

संगीत के विषय में भी यह लागू होता है। उदाहरण के लिए किसने तय किया होगा कि शास्त्रीय (क्लासिकल) संगीत किसे कहा जाएगा और लोक संगीत किसे? संगीत के पनपने की प्रक्रिया एक बड़े समय तक नैसर्गिक ही रही होगी। दक्षिण के अग्रणी शास्त्रीय संगीत गायक टी एम कृष्णा के विचार इस सम्बन्ध में रोचक हैं। टी एम कृष्णा साहब का कहना है कि संगीत की सभी शैलियाँ हमेशा से ही शास्त्रीय तो रही नहीं होंगी, लेकिन उनमें से कौन सी शास्त्रीय बनेंगी इसके निर्धारण के पीछे यह बात महत्वपूर्ण है कि समाज के किस तबके के द्वारा इस संगीत को बनाया और पसंद किया जाता है। उदाहरण के लिए जैज़ संगीत की एक लोकप्रिय शैली है, लेकिन अमेरिका में आज भी “क्लासिकल” संगीत की श्रेणी में उसे गिना नहीं जाता, और यह वहाँ एक विवाद का विषय है। ध्यान रहे कि जैज़ संगीत की परम्परा मूलतः अमेरिका के अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय की परम्परा है। भारत में भी संगीत की शास्त्रीय परम्परा में जाति विशेष के कलाकारों का ही लगभग एकाधिकार है। भारत में संगीत (और नृत्य भी) की अन्य परम्पराओं को या तो लोक संगीत कहा जाता है, या उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जो मिलना चाहिए।

संगीत को अनेक जॉनर्स में वर्गीकृत (क्लासिफाइड) किया गया है। क्लासिकल, कंट्री, रॉक, साइकेडेलिक रॉक, आर एन्ड बी, हिप-हॉप, हिन्दुस्तानी शास्त्रीय, कर्नाटिक आदि न जाने कितनी ही शैलियाँ हैं। लेकिन जब ये वर्गीकरण नहीं हुए तो थे तब भी क्या संगीत नहीं था? क्या रोजर वॉटर्स और पिंक फ्लॉयड बैंड के उनके साथियों ने किसी दिन यह सोचा होगा कि चलो साइकाडेलिक रॉक बनाते हैं?

खैर, इस लेख का मकसद यह चर्चा करना है कि किस क़िस्म के संगीत को मैं अपना संगीत मान सकता हूँ? इस बात को अंग्रेज़ी में “माय काइंड ऑफ़ म्यूज़िक” कहा जाता है। लेकिन कैसा संगीत है जो मेरी तरह का है? यदि यह सवाल मुझसे पूछा जाए तो क्या मैं उसका जवाब एक वाक्य में दे सकता हूँ?

मेरी ही तरह भारत में लगभग हर संगीत प्रेमी, संगीत को लेकर एक मुकम्मल राय रखता होगा। मेरा अपनी जानकारी का संसार चूँकि उत्तर भारत तक सीमित है, तो मैं लगभग उसी तक सीमित बातें कर सकता हूँ। पिछले अनेक दशकों से हिंदी फ़िल्मी संगीत, उत्तर भारत में संगीत का पर्याय बन चुका है। निहायत ही सम्भ्रान्त किस्म के लोगों को छोड़ दें तो एक औसत उत्तर भारतीय प्रायः फ़िल्मी संगीत को ही संगीत मानकर चलता है। यह उस देश में है जहाँ संगीत की हज़ारों सालों की विशाल परम्परा है, और भारत के एक धर्म के सबसे महत्वपूर्ण धर्मग्रंथों में से एक सामवेद संगीत पर ही आधारित है। जैसा कि मैंने शुरआत में लिखा, दुनियाभर में लोग यह सवाल एक दूसरे से पूछते होंगे कि “आपको कैसा संगीत पसंद है?” लेकिन भारत में उससे अधिक यह पूछा जाता है कि “आपको कैसे गाने सुनना पसंद है?”, और यहाँ गानों से अभिप्राय फ़िल्मी गानों से होता है।

आप कैसा संगीत सुनना पसंद करते हैं? यह सवाल आमतौर पर एक औसत भारतीय जिसकी उम्र सन 2020 में कम से कम 25 या उससे ज़्यादा हो, तो सबसे अधिक जवाब जो मिलते हैं उनके उदाहरण कुछ इस प्रकार हैं:

(सबसे अधिक सुनाई दिए जाने वाले जवाबों के क्रम में। नामों का क्रम कोई रेटिंग नहीं है।)

1. लोग गायकों के नाम लेते हैं, मुख्यतः – किशोर कुमार, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, आशा भोंसले
2. कुछ लोग फिल्मों के दशकों के नाम गिनाते हैं – साठ और सत्तर के दशक का संगीत। एक बड़ा वर्ग वह भी है जो नब्बे के दशक में जवान हुआ और उस दशक के संगीत को पसंद करता है। फिर ऐसे बहादुर लोग भी हैं (ख़ाकसार शामिल है) जो अस्सी के दशक के आमतौर पर “ख़राब” माने जाने वाले फ़िल्मी संगीत को भी खुलेआम पसंद करने से नहीं हिचकते।
3. ऐसे भी लोग हैं जो फिल्म में संगीत बनाने वाले संगीत निर्देशकों का नाम लेते हैं – आर डी बर्मन, एस डी बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, शंकर-जयकिशन या बप्पी लाहिड़ी आदि।
4. एक बड़ा वर्ग है जो ग़ज़लों को पसंद करता है। इनमें भी सबसे ऊपर नाम आता है जगजीत सिंह का, फिर मेहदी हसन, ग़ुलाम अली, नुसरत फ़तेह अली खान एवँ पंकज उधास आदि हैं।
5. इसके बाद आता है उनका नंबर जो संगीत की शैलियों (जॉनर्स) का नाम लेते हैं लेकिन उन्हें सुनते हैं फ़िल्मी संगीत के भीतर ही। इनमें हैं – “सैड सॉन्ग” या “दर्द भरे नग़्मे“, कव्वाली, सूफ़ी, मेलोडी, क्लासिल (फ़िल्मी), डिस्को, डांस, आदि। शैलियों के ये नाम आवश्यक नहीं कि संगीत के विशेषज्ञों में स्वीकार्य हों।

फ़िल्मी संगीत से बाहर भी लोग संगीत पसंद करते हैं। हम उसकी भी बात करेंगे। लेकिन उसके पहले कुछ और बातें फ़िल्मी संगीत के भीतर से ही।

दरअसल हम जिन दशकों में अपनी जवानी के दिन बिताते हैं, उस दशक का संगीत हमें विशेष रूप से पसदं आता है। लेकिन भारत में, खासतौर से हिंदी फ़िल्मी संगीत के परिप्रेक्ष्य में, साठ और सत्तर के दशक का फ़िल्मी संगीत लोकप्रियता के लिए उम्र पर निर्भर नहीं है। लगभग हर आयु वर्ग के लोगों को इन दो दशकों का संगीत पसंद आता ही है। शैलेन्द्र, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, शकील बदायूनी, हसरत जयपुरी, नीरज, इंदीवर, आनंद बख्शी आदि महान गीतकारों के गीतों और आर डी बर्मन, खय्याम, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी आदि संगीत निर्देशकों के संगीत की वजह से इस दौर का संगीत लोकप्रियता के लिहाज़ से अमरत्व को प्राप्त कर चुका है। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि इस लोकप्रियता के केंद्र में रफ़ी, किशोर, लता, मुकेश, मन्ना डे एवँ आशा जैसे महान गायक हैं। इस दशक में गाने के लगभग हर पहलू में नए प्रयोग हुए, लेकिन प्रत्येक प्रयोग की गुणवत्ता उच्च थी। गानों में हर किस्म के भावों, संगीत, और शैलियों को अपनाया गया।
(“सुनिए- “गाता रहे मेरा दिल”, “आओ हुज़ूर तुमको”, “रिमझिम गिरे सावन”)

अस्सी का दशक हिंदी सिनेमा के लिए सिनेमा की दृष्टि से भी अच्छा नहीं माना जाता। फिल्मों की गुणवत्ता में जो गिरावट इस दशक में आई, उसका असर मोटे तौर पर संगीत पर भी पड़ा। इस दौर के प्रमुख गायकों में मोहम्मद अज़ीज़, शब्बीर कुमार, अमित कुमार , साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति रहे। संगीतकारों में कुछ पुराने निर्देशक तो थे ही, उनके अतिरिक्त विशेष रूप से प्रभावी रहने वालों वाले संगीत निर्देशकों में नदीम श्रवण एवं बप्पी लाहिड़ी का नाम आता है। इस दशक के संगीत की एक और विशेषता यह है कि समाज के एक ख़ास वर्ग में इसकी लोकप्रियता बेहद अधिक है, इतनी अधिक कि इस वर्ग में यही संगीत लगभग तीन दशकों बाद भी सुना जाता है और उसकी लोकप्रियता साठ व सत्तर के दशकों के संगीत की तरह ही बरकरार है। यह वर्ग है पान ठेले वालों, बस या रिक्शे चलाने वालों और फेरी वालों या रेहड़ी पर अनेक प्रकार के सामान बेचने वालों का। ऐसा नहीं है कि इस वर्ग के लोगों के अतिरक्त किसी और को अस्सी के दशक का संगीत पसंद नहीं, (इस सूची में अपना नाम होने की स्वीकारोक्ति यह लेखक पहले ही कर चुका है) लेकिन इस वर्ग के लिए यदि यह प्रतिनिधि संगीत कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
(“सुनिए- “चाहे लाख तूफाँ आएँ”, “प्यार से भी ज़्यादा”, “फूल ग़ुलाब का”)

नब्बे के दशक के बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि इस दौरान पिछले दशक की तुलना में फिल्मों और उनके संगीत में सुधार देखा गया। जतिन-ललित, नदीम-श्रवण, ए आर रहमान, आदि इस दशक के बड़े संगीत निर्देशक, तो गायकों में सबसे ऊपर कुमार सानू, एवं अलका याग्निक गिने जाएंगे। इनके अतिरिक्त इस दशक को उदित नारायण, सोनू निगम, विनोद राठौड़, अनुराधा पौड़वाल, अभिजीत, आदि के लिए भी गिना जाएगा। कुमार सानू एवँ अलका याग्निक का तो जैसे इस दशक के फ़िल्मी गीतों पर एकक्षत्र राज था।
(“सुनिए- “बस एक सनम चाहिए”, “एक लड़की को देखा तो”, “गली में आज चांद निकला”)

अस्सी और नब्बे के दशक में एक और ख़ास बात रही संगीत रिलीज़ करने वाली कंपनियों टी-सीरीज़ और टिप्स की प्रतिद्वंदिता। इन दोनों कंपनियों की आपसी लड़ाई का एक रक्तरंजित इतिहास भी है, किन्तु वह कहानी फिर कभी। खासतौर से गुलशन कुमार की टी-सीरीज कम्पनी ने अपनी कैसेट्स और सीडीज़ के जरिये संगीत को सस्ता और सुलभ करने में ख़ास भूमिका निभाई। इस श्रृंखला में गुलशन कुमार ने कुछ फिल्मों का भी निर्माण किया जिनमें संगीत उन्हीं का था। इन फिल्मों का संगीत तो लोकप्रिय हुआ, लेकिन फ़िल्में बिलकुल न चलीं।
(सुनिए फिल्म “लाल दुपट्टा मलमल का” से गीत “क्या करते थे साजना“)

ख़ैर, इस लम्बे लेकिन संक्षिप्त विवरण के बाद मुद्दे पर वापस आते हैं। अगर मुझसे सवाल पूछा जाए कि आपको किस क़िस्म का संगीत पसंद है, तो मैं क्या जवाब दूंगा? इस सवाल का जवाब एक वाक्य में देना वाकई कठिन मालूम हो रहा है।

वह जुमला आपने अक्सर सुना होगा कि “लव मैरिज” शब्द केवल भारत (या दक्षिणपूर्व एशिया) में ही इस्तेमाल किया जाता है। पश्चिमी समाज में तो सिर्फ़ मैरिज होती है क्योंकि वहाँ लोग शादियाँ प्रायः उन्हीं से करते हैं जिनसे वो प्रेम करते हैं। इसी तरह भारत में संगीत के क्षेत्र में “इंडिपेंडेंट म्यूज़िक” या “स्वतंत्र संगीत” शब्द युग्म का चलन है। क्योंकि भारत में फ़िल्मी संगीत ही संगीत का पर्याय बन गया है। फ़िल्मी संगीत से इतर संगीत की वैसे तो भारत में हज़ारों सालों की परम्परा है , किन्तु वर्तमान में लोकप्रिय, अर्थात पॉप्युलर अर्थात पॉप संगीत का एक ख़ास और सुनहरा दौर आया नब्बे के दशक में। एक लहर या कहें कि एक तूफ़ान आया और अनेकों गायकों और बैंड्स ने खुद के “इंडिपेंडेंट” म्यूज़िक एल्बम बनाए। इनमें आलिशा चिनॉय, सुनीता राव, सोनू निगम, फाल्गुनी पाठक, रागेश्वरी, लकी अली, शान, आदि हैं।
(सुनिए – “अनजानी राहों में तू क्या ढूंढता फिरे“, “चूड़ी जो खनकी“, “एक दिल चाहिए बस मेड इन इंडिया“)

इसी दौर में पंजाबी संगीत के थोड़े हिन्दीनुमा गानों की भी धूम मची। इनके गायकों में दलेर मेहंदी और जसबीर जस्सी प्रमुख थे। दलेर मेहंदी के पहले लोकप्रिय पंजाबी गायकों में गुरदास मान का नाम प्रमुख था, किन्तु नब्बे के दशक की चकाचौंध में न जाने क्यों उनका नाम कहीं खो गया। उन्होंने हालाँकि बाद में कुछ एलबम्स फिर से बनाए, लेकिन तब तक वक्त बदल चुका था। हंसराज हंस भी लोकप्रिय थे, किन्तु पंजाब से बाहर, हिंदी की दुनिया में दलेर मेहंदी ने धूम मचा दी थी।
(सुनिए – “बोलो तारा रारा“, “दिल ले गयी कुड़ी गुजरात दी“)

इंडिपेंडेंट म्यूज़िक एलबम्स का दौर चला तो भारतीय रॉक बैंड्स कहाँ पीछे रहते। इस दौर में इंडियन ओशन (राहुल राम एवँ अन्य), यूफोरिया (पलाश सेन और साथी), बॉम्बे वाइकिंग्स (ये थोड़ा देर से आए) आदि बैंड्स काफ़ी लोकप्रिय हुए। इस दैरान पाकिस्तानी बैंड जूनून ने भी भारत में खासी लोकप्रियता हासिल की।
(सुनिए – “धूम पिचक“, “सय्योनी“)

नब्बे के दशक के जाने के बाद हिंदी संगीत में इंडिपेंडेंट एलबम्स का दौर धीरे-धीरे चलन से बाहर हो गया। अब भी ऐसे एलबम्स आते हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता नब्बे के दशक के समय से तुलना करें तो शून्यप्राय ही मानी जाएगी।

एक और ख़ास किस्म का संगीत है जो भारत में दशकों से सुना जा रहा है। इस शैली का संगीत पहले हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की “उच्च” तथा नियमों के प्रति एक किस्म की कट्टर परम्परा का हिस्सा था, लेकिन बीते कई दशकों में अनेक ख्यातिलब्ध गायकों ने इसमें इतने प्रयोग किए कि इस शैली के दीवाने भारत और पाकिस्तान में बढ़ते ही गए। जहाँ एक ओर शास्त्रीय परम्परा को पसंद करने वाले स्वाभाविक रूप से समाज के अभिजात्य वर्ग से तआल्लुक रखते हैं, इन गायकों के प्रयोगों के कारण इस शैली के दीवाने अब हर आयु और समाज के वर्ग में हैं। आप समझ गए, ग़ज़ल। गज़लें और ग़ज़लों का संसार भारत में इतना विराट है कि उसकी महिमा अनेक क़िताबों में न सिमटे। मेहदी हसन, जगजीत सिंह, ग़ुलाम अली, नुसरत फतेह अली खान, तलत अज़ीज़, अनूप जलोटा, बेगम अख़्तर, आबिदा परवीन, राहत फ़तेह अली खान, चित्रा सिंह,रूप कुमार एवं सोनाली राठौड़, लोकप्रिय ग़ज़ल गायकों की यह सूची बहुत लम्बी है। ग़ज़ल का एक ख़ास समय से एक ख़ास रिश्ता है, वह है मदिरापान का समय। पब्स और डीजे के इस ज़माने में भी एक बड़ा वर्ग है जिसके लिए आज भी शराब पीना तब तक असम्भव है जब तक महफ़िल में ग़ज़लें न हों। शायद ग़ज़ल और शराब के इस अनोखे और संजीदा रिश्ते को समझना उतना मुश्किल भी नहीं हैं, जो दोनों में से एक के भी शौक़ीन हैं, वो समझ सकते हैं।
(सुनिए – “चुपके चुपके रात दिन“, “तुम्हारे ख़त में“, “तुमको देखा तो ये ख़याल आया“)

अब आते हैं उस सवाल पर जिसका जवाब ढूंढते-ढूंढते यह लेख लिखना पड़ा। मैं पश्चिमी और भारतीय दोनों क़िस्म के संगीत सुनता हूँ। छत्तीसगढ़, जहाँ मैं बड़ा हुआ, उसके लोकसंगीत को मैं बहुत पसंद करता हूँ। महाराष्ट्र जहाँ मैं ,रहता हूँ, वहाँ के फ़िल्मी संगीत को भी पसंद करता हूँ और अक्सर सुनता हूँ। पश्चिमी संगीत में मुझे सबसे अधिक बीटल्स का संगीत पसंद है। बहुत से लोग द बीटल्स के संगीत को सुनना आजकल “ओल्ड फैशन्ड” समझते हैं। हालाँकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि पूरी दुनिया में द बीटल्स जैसी लोकप्रियता और किसी बैंड के लिए ऐसा दीवानापन किसी दूसरे के लिए न कभी हुआ न ही होने की संभावना है। द बीटल्स के अलावा मुझे बॉब डिलन पसंद हैं। मैं कंट्री म्यूज़िक में हैंक विलियम्स, जॉन डेनवर आदि भी सुनता हूँ। ब्रायन एडम्स से शायद हर भारतीय रॉक म्यूज़िक सुनने वाला परिचित हो, उस तरह से मैं भी हूँ। किन्तु मैं पश्चिमी संगीत में इतने ही और इसी तरह के चुनींदा संगीत को ही सुनता हूँ। पश्चिमी संगीत के अलावा मैं थोड़ा-बहुत हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत सुन लेता हूँ। मुझे रागों की कोई विशेष समझ नहीं। लेकिन ठुमरी मुझे विशेष रूप से प्रिय है। शास्त्रीय संगीत में भजन सुनने के लिए मैं अक्सर पंडित कुमार गंधर्व के कबीर के भजन को सुनता हूँ, जैसे कि – “उड़ जाएगा हंस अकेला“, “निर्भय-निर्गुण“, “कौन ठगवा नगरिया लूटल हो” आदि। मुझे पंडित भीमसेन जोशी के प्रायः सभी भजन पसंद हैं। अनूप जलोटा तो भजन सम्राट ही कहे जाते हैं, वे मुझे बेहद प्रिय हैं। मुझे सूफ़ी संगीत भी बहुत पसंद है। आबिदा परवीन की आवाज़ में अमीर खुसरो के भजन सुनना एक अलग ही अनुभव होता है। साबरी बंधुओं की कव्वाली “भर दो झोली” सुनना मुझे अपार आनंद देता है। मुझे क्लबों में बजने वाला पश्चिमी और भारतीय संगीत जिस पर थिरका जाए वह भी पसंद है। लेकिन वह ख़ास मौकों पर ही।

लेकिन इन सबसे अधिक मुझे प्रिय है हिंदी फिल्मों का संगीत। साठ-सत्तर-अस्सी-नब्बे इन सभी दशकों का। शायद अन्य दशकों के मुकाबले अस्सी के दशक का बसों, पान ठेलों और रिक्शों में आज भी बजाया जाने वाला संगीत थोड़ा अधिक पसंद है। लेकिन क्या इतने सब को एक वाक्य में कह पाना सम्भव है? यदि संगीत की पसंद से से किसी की पहचान निर्धारित की जा सकती है, या किसी के व्यक्तित्व को परिभाषित किया जा सकता है, तो ऐसा करना क्या एक वाक्य में सम्भव है? शायद नहीं। तो फिर मुझसे पूछे गए सवाल का उत्तर क्या है? शायद यह सवाल ही सिरे से ग़लत है। संगीत जीवन के हर पहलू में है। उसका किसी एक वाक्य के उत्तर में सिमट जाना सम्भव होता तो उसकी विशालता वह नहीं होती जिसका वर्णन लगभग असम्भव है। लेकिन उत्तर से अधिक महत्वपूर्ण है उत्तर ढूंढे जाने की प्रक्रिया। अपने लिए जब आप यही उत्तर ढूंढना शुरू करेंगे, हो सकता है इस लेख से कई गुना लंबा जवाब लिखना पड़े।

– हितेन्द्र अनंत

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