दर्शन (Philosophy)

नास्तिकता पर स्फुट विचार

(मैंने फेसबुक पर नास्तिकता के संबंध समय-समय पर जो लिखा है उसे यहाँ संग्रहित किया जा रहा है – हितेन्द्र अनंत)
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नास्तिकता पर कुछ निजी विचार:
1. नास्तिक होने का अर्थ तर्कशील, स्वतन्त्र-चिंतक एवं विज्ञानवादी होना है। इसके तहत ईश्वर को नकारना स्वाभाविक रूप से आता है।
2. नास्तिक होने का नैतिकता एवं मूल्यों (कथित अच्छे या बुरे) से कोई लेना-देना नहीं है। एक नास्तिक नियमों का पालन करने वाला आदर्श सामाजिक प्राणी भी हो सकता है या एक अपराधी भी। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आस्तिकों के विषय में भी यह सत्य है। यद्यपि एक नास्तिक के तर्कशील होने के कारण उसके द्वारा नैतिक मूल्यों के पालन की संभावना अपेक्षाकृत अधिक है।
3. नास्तिक की राजनैतिक विचारधारा वाम/दक्षिण या कुछ और हो सकती है। राजनैतिक विचारों का नास्तिकता से कोई लेना-देना नहीं है। सुना है कि वि दा सावरकर भी नास्तिक ही था।
4. यह कतई आवश्यक नहीं कि नास्तिकों की कोई सार्वभौमिक आचार-संहिता हो या उन्हें किसी भी प्रकार की साझा पहचान या झण्डे तले आना पड़े। यदि ऐसा हुआ तो स्वतन्त्र-चिंतन का आधारभूत गुण ही नष्ट हो जाएगा।
5. किसी नास्तिक का यह कर्तव्य नहीं कि वह नास्तिकता का प्रचार करे ही। यद्यपि ऐसा करना मानवता के हित में है, इसे ऐच्छिक ही होना चाहिए।
6. नास्तिक होने के बाद कोई यदि आस्तिकों व धार्मिकों को तुच्छ समझे या उनका उपहास करे तो यह अनुचित है। वह भले ही वह आस्तिकों से विमर्श करे, उनका उपहास कभी न करे।
7. नास्तिक हो जाना स्वतन्त्र हो जाने की घटना है। इस पर नास्तिक गर्व भले ही करें किन्तु यह अहंकार का कारण न बने।
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नायाब “रत्नों” की कमी नहीं है यहां।मेरा पिछ्ला स्टेटस था उनके लिए जो स्वयं को नास्तिक मानते हों। उसमें लिखा था कि नास्तिक पहचान के मेरी नजर में क्या मायने हैं। अनेक “आहत” हृदयों ने आव न देखा ताव, देखा तो बस “नास्तिक” शब्द लिखा देखा और ब्रह्मास्त्रों की वर्षा शुरू कर दी! (खैर जब आस्था की कमजोर नींव पर प्रहार होता दिखे तो मन बांवरा हो ही जाता है!) एक साहब के द्वारा हाल ही में बांटे गए ज्ञान के मोती:

1. “नास्तिकता आस्था का विषय है”
2. “बिना स्वानुभूति के कोई कैसे ‪#‎मान सकता है कि वह नास्तिक है?”
3. “आस्तिक और नास्तिक दोनों मूर्ख‬ हैं”

“स्वानुभूति” जैसी आध्यात्मिक बातें करने वाले संशयवादी (agnostic) का एक सांस में 80% या उससे अधिक आबादी (नास्तिक+आस्तिक) को “मूर्ख” कह देना वाकई “स्वानुभूति” से ही उपजा आध्यात्मिक गुण है। नास्तिकता को “आस्था” का विषय कहने वाली बात पर टिप्पणी करना तर्क और आस्था के साथ ही साथ बुद्धि का भी अपमान होगा सो उसे रहने देते हैं।

एक और साहब ने किसी बाबाजी का नाम लिखा और उन्हें पढ़ने का आदेश दिया यह कहकर कि “बाबाजी को पढ़ो दिमाग से सारे कीड़े साफ़ हो जाएंगे”। खैर, स्वच्छता अभियान के सक्रिय कार्यकर्ता होंगे सो सफ़ाई का मौक़ा शायद खोना नहीं चाहते। उन्होंने मेरे नाम की व्याख्या “इंद्रियों का हित चाहने वाले अनंत जी” की, यह मुझे अच्छा लगा। मेरे लिए इन्द्रियों का हित स्वास्थ्य की दृष्टि से वाकई गंभीर मसला है।

-इन्द्रियों का हित चाहने वाला अनंत
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संशयवादी (agnostic) वह छिपा हुआ आस्तिक है जो नास्तिकों की सोहबत छोड़ना नहीं चाहता और आस्तिकों की सोहबत से शर्मिंदा है।
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कुछ लोग बस संतुलनवादी होते हैं। इनका काम है किसी भी अड़चन के समय सुरक्षित अपक्षवादी बन जाना। अकसर टेलीविजन की बहसों या सेमिनारों के प्रश्नोत्तर काल में ये लोग अपनी कला का प्रदर्शन करते मिल जाएँगे। “फलां मसले पर अमुक गलत है, लेकिन तमुक भी गलत है”। “फलां विधि आपकी समस्या का उपाय है, लेकिन दूसरी विधि भी अच्छी है”।

संतुलनवादियों के कारण प्रायः सही और गलत में भेद कायम नहीं हो पाता। इन लोगों की ऐसी ही कलाबाजियों का एक उदाहरण है जब कहा जाता है कि “नास्तिक और आस्तिक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों के चिंतन का केंद्र ईश्वर है आदि-इत्यादि”। आगे इस कथन का दो प्रकार के लोग विशेष उपयोग करते हैं, एक संशयवादी जो आस्तिक विचार के निकट हों न हों, निश्चय ही नास्तिकता से कोसो दूर हैं; दूसरे वे आस्तिक जो कमोबेश धर्मांध नहीं है।

मुझे यह समझ नहीं आता कि विशुद्ध नास्तिक होना भला आस्तिक होने का प्रतिलोम कैसे हो सकता है? अच्छे का प्रतिलोम बुरा है, सफ़ेद का काला है, लेकिन एक पक्ष का यह कहना कि ईश्वर का अस्तित्व है ही नहीं, भला अस्तित्व को बिना प्रमाण मानने वालों का प्रतिलोम कैसे हो सकता है? दोनों को तराजू पर रखकर तौला जाना असंभव है। एक तरफ तार्किकता है दूसरी तरफ खालिस आधारहीन आस्था।

आप कह सकते हैं कि कट्टर हिंदू और कट्टर मुसलमान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, आप यह भी कह सकते हैं कि कट्टर आस्तिक और कट्टर नास्तिक (यानी ऐसे लोग जो दूसरों को भी येन-केन-प्रकारेण नास्तिक बनाने पर उतारू हों) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

लेकिन ऐसे नास्तिक जो केवल तर्क एवं विज्ञान के आधार पर सत्य उद्धृत करें वे भला आस्तिकों के समान कैसे हो गए? यह बेकार का संतुलन रुकना चाहिए।
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कुंठित आस्तिकों का नास्तिकों से नफ़रत करना स्वाभाविक है। उनके बिरादर चाहे दंगे करें, बम फोड़ें या बलात्कार करें उनमें उतनी नफरत पैदा नहीं कर पाते। दवा कड़वी होती है, ज़हर भी। ज्ञान कड़वा होता है, वह आपके लिए दवा का और आपके अज्ञान के लिए ज़हर का काम करता है। फर्क है उनमें जो दवा पी सकते हैं और जो स्वाद का अंदाज लगाकर ही भयभीत हैं।

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