सामयिक (Current Issues)

एक और बर्बर हत्या, एक और काला दिन

सिंघु में बर्बरता से हत्या की गई है। ऐसा बताया जा रहा है कि निहंगों ने यह हत्या की है। इससे पहले भी कोरोना लॉक डाउन में रोके जाने पर निहंगों के एक समूह ने पंजाब पुलिस के एक अधिकारी के हाथ काट दिए थे।

किसी भी फ़िरक़े को यह हक नहीं दिया जा सकता कि वह हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे। ऐसी बर्बरता सिख पंथ के गुरुओं का संदेश नहीं है। पाकिस्तान में ऐसी लिंचिंग अक्सर सुनाई देती है जिसमें मज़हब के अपमान के नाम पर सरेआम किसी की हत्या की जाए। लेकिन भारत में ऐसा प्रायः नहीं होता था।

लेकिन जब धर्मिक नफरत फैलाने और धर्म के नाम पर हिंसा को देश का शीर्ष नेतृत्व ही बढ़ावा दे तो यही माहौल बनेगा और आग फैलेगी। आखिर धर्म के नाम पर हुई इस हिंसा का विरोध मुखर होकर कोई भी दल क्यों नहीं कर पा रहा है? क्यों वोटों की प्यास इतनी हावी हो गई है कि एक ग़लत को ग़लत न कहा जा सके?

गांधी जी के नाम पर वोट लेने वाली पार्टी इस मामले पर खासतौर से चुप है। उसे शर्म आनी चाहिए। नेतृत्व वह होता है जिसमें अनुयायियों को उनके मुँह पर वे ग़लत हैं यह बोलने की ताक़त हो। बाकी आज जो हो रहा है वह नेतृत्व नहीं है। वह एक झूठ के बहाने वोट बटोरकर सत्ता और संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने की कवायद भर है। इसलिए, भाजपा तो देश को बुरी तरह बर्बाद कर ही चुकी है, कांग्रेस या कोई अन्य दल उसे फिर से ठीक करने की कोई सच्ची मंशा नहीं रखता है।

सत्ता के केंद्र में वोट, और वोटों के केंद्र में जाति-धर्म-भाषा के समीकरणों ने भारत के समाज को धर्मांधों और हिंसक भीड़ का समाज बना दिया है। ऐसा कोई धर्म नहीं जिसको पालन करने वाले नफ़रतों को दिलों में न पालते हों। धार्मिक और जातीय कट्टरता की एक होड़ चल पड़ी है। ऐसा लगता है 1947 में देश को जोड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह इतनी अधिक असफल हुई है कि अब कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।

– हितेन्द्र अनंत

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मानक
सामयिक (Current Issues)

भैया-दीदी कांग्रेस

यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नहीं, भैया-दीदी कांग्रेस है।

महज़ भाजपा से दुश्मनी की वजह से इस कांग्रेस को लोकतांत्रिक दल मानने की भूल न की जाए।

जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार का मुखिया, यदि एक व्यक्ति की “कड़े फ़ैसले” लेने की सनक के कारण बदला जाए, अर्थात पूरी सरकार गिरा दी जाए तो यह संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध है। “जनता का जनता के द्वारा”।

फ़िलहाल कांग्रेस में लोकतंत्र होने का तर्क यूँ दिया जा रहा है कि वहाँ जो चाहे पार्टी हाईकमान के ख़िलाफ़ बोल सकता है! हालाँकि ऐसा भी उंगलियो पर गिना जा सके उतनी ही बार हुआ है, लोकतंत्र है यह तब माना जाएगा जब फ़ैसले दल ले परिवार नहीं। प्रियंका गांधी महज़ एक महासचिव हैं, वो पंजाब की प्रभारी नहीं हैं, राहुल भी नहीं, लेकिन वो दोनों फ़ैसले ले रहे हैं इसे क्या कोई लोकतंत्र कह सकता है?

कांग्रेस में लोकतंत्र था, जब कांग्रेस की केंद्रीय कार्यसमिति में गांधी जी के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ भी खुलकर बोला जाता था। असहयोग आंदोलन वापस लेना है या नहीं, भारत छोड़ो करना है या नहीं, इस पर चर्चा होता था। अब क्या होता है?

इसलिए, सहानुभूति इतनी न हो जाए कि अकड़ और मूर्खता से मिश्रित अधिनायकवादी फ़ैसलों का बचाव करना पड़े। यह सलाह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए भी है।

गांधी आज कांग्रेस के मुखिया होते, तो कहते कि कांग्रेस सत्ता में आने से पहले दस साल समाज सेवा कर अपने पुराने पापों का प्रायश्चित करे।

संस्थानों के कमज़ोर होने पर चिंतित हैं तो संसद और प्रधानमंत्री कार्यालय के राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) के सामने कमज़ोर होने को ही याद कर लीजिएगा। फेहरिस्त लम्बी है, यह सबसे छोटा उदाहरण है।

कांग्रेस के ज़माने में संस्थान मज़बूत थे, कितने मज़बूत? आज के मुक़ाबले थोड़े ज़्यादा मज़बूत। सत्ता तब भी उनसे जो चाहे करवा सकती थी।

हम सभी को अन्ना आन्दोलन में मूर्ख बनाया गया, जिसकी परिणति हुई दिल्ली राज्य में एक और अधिनायकवादी दल का सत्ता में आना। लेकिन, अन्ना आंदोलन से बड़ा भरम होगा भैया-दीदी कांग्रेस, अर्थात गांधी परिवार से इस देश में विपक्ष की राजनीति को बचाने की उम्मीद करना।

आदमी दिल का अच्छा है। स्पिनर वेंकपति राजू भी दिल का अच्छा था लेकिन कप्तान अजहरुद्दीन को बनाया गया था, राजू को नहीं।

  • हितेन्द्र अनंत
मानक
पुस्तकें

पुस्तक – मर्डर एट मुशायरा

रज़ा मीर साहब का उपन्यास “मर्डर एट मुशायरा” पढ़ा।

यह एक हिस्टॉरिकल फिक्शन है (हिन्दी में क्या कहेंगे?)। साथ ही फिक्शन के भीतर मर्डर मिस्ट्री भी है। सबसे मज़ेदार बात है कि इस उपन्यास के केन्द्र में चचा ग़ालिब मर्डर की गुत्थी सुलझाने के लिए जासूस नियुक्त किए जाते हैं।

ग़ालिब, फ्रेज़र, मेटक्लेफ, ज़फ़र ये सारे ऐतिहासिक पात्र हैं लेकिन रज़ा मीर के इस उपन्यास में कहानी में अतिरिक्त भूमिका भी निभा रहे हैं। कहानी की पृष्ठभूमि में 1857 का भारतीय सैन्य विद्रोह है।

मीर साहब 1857 के समय की दिल्ली को एकदम आपके सामने ला खड़ा करते हैं। पूरा शाहजहाँनाबाद ऐसा चित्रित है कि आपको लगता है कि आप उस समय में जी रहे हैं। मीर साहब ने दिल्ली का नक्शा बख़ूबी कहानी में खींचा है।

एक और बात जो अच्छी लगी वह है उस वक़्त के भोजन का बारीकियों के साथ विवरण। अवधी, मुग़ल भोजन, साथ में अंग्रेज़ी भोजन का तड़का। अक्सर उपन्यासों में भोजन पर इतनी अच्छी तरह ध्यान नहीं दिया जाता है।

उस वक्त की तहज़ीब, मिलीजुली भाषा, हिन्दू-मुस्लिम सहजीवन का एकदम सजीव चित्रण मीर साहब ने किया है। अंग्रेज़ों के भीतर उस वक्त जो विरोधाभास था, कि कुछ भारतीयों को हीन दृष्टि से देखते थे और कुछ यहाँ के भव्य सांस्कृतिक परिवेश से पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे, वह भी उपन्यास का अहम हिस्सा है।

कहीं यह उपन्यास उतना अच्छा जान नहीं पड़ता तो वह है प्लॉट। मर्डर मिस्ट्री में वह बात नहीं जो शीर्षक पढ़कर किसी भी पाठक को अपेक्षा होगी।

भाषा सपाट और सरल है।

सबसे सुन्दर बात है उपन्यास में चचा ग़ालिब की शायरी के सौंदर्य का बिखरा होना। मीर साहब ने शायरी के उचित उद्धरणों से उपन्यास को और भी दिलचस्प बना दिया है।

पढ़ने की वक़ालत हम भी करते हैं।

हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज

टिकटॉक और एक देश का समाज

समाजविज्ञान के लिए भारत में एक बड़ी घटना है जिसका अध्ययन होना चाहिए। यदि हुआ है या हो रहा है, तो मैं उसके बारे में जानना चाहूंगा।

यूँ पिछले तीस सालों में ऐसा बहुत कुछ है जो बड़े पैमाने पर बदला है, और जिसका अध्ययन या तो हुआ नहीं या मुझ जैसे पाठकों तक पहुँचा नहीं। फिर भी यह एक घटना है जिसके अनेक आयाम हैं।

टिकटॉक या शार्ट वीडियोज़। ये पिछले पाँच सालों से देहातों, गलियों, झोपड़ियों में बनाए जा रहे हैं। इन्हें बनाने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि वही अपने आप में एक मार्के की बात है।

अव्वल तो इससे यह पता चलता है कि देश में कितना टैलेंट है! लोग पंद्रह सेकण्ड्स में अपनी कला का क्या ख़ूब प्रदर्शन करते हैं। देश में इतनी प्रतिभा थी, जो घरों की चारदीवारी में बंद थी, अब वह सामने आ रही है तो हैरानी होती है।

दूसरा, वर्जनाएँ टूट रही हैं। जिन्हें अबतक “बहुएँ” या “भाभियाँ” समझकर चूल्हे तक सीमित माना जा रहा था, ऐसा लगता है उनमें देह के सौन्दर्य को दिखाने की एक सदियों पुरानी ललक थी जो अब पूरी हो रही है। हिन्दी के अखबार जिन्हें “सम्भ्रान्त घराने की महिलाएँ” कहते हैं, वो बारिश में हाइवे पर भीगते हुए वीडियो बना रही हैं। पानी से तरबतर इन महिलाओं की देह का सौंदर्य नृत्य के साथ जुड़कर करोड़ों “लाइक्स” जुटा रहा है। सिर्फ़ में हाइवे में भीगना नहीं है, कुछ खेतों के ट्यूबवेल के पानी में भीग रही हैं तो कुछ घर के बाथरूम में भी! इनमें हर उम्र की स्त्रियाँ हैं, लेकिन बहुमत विवाहिताओं और अधेड़ उम्र की महिलाओं का है। ऐसा लगता है सदियों की घुटन को दूर कर खुली हवा में साँस लेने का एक ज़रिया मिल गया है।

तीसरे, एक वर्ग है जो सोलह से बाइस की उम्र के लड़के लड़कियों का है। इनके वीडियो जो आते हैं, उनकी अलग ही शैली है। इनमें अक्सर तीन-चार लड़के-लड़कियों के समूह पर कुछ फिल्माया जाता है। इनकी भाषा और इनकी दुनिया एकदम अलग है।

चौथे, ऐसे वीडियोज़ हैं जिनमें पति-पत्नी दोनों हैं। प्रायः इनमें पति की उपस्थिति मेहमान कलाकार की सी होती है, लेकिन कुछ हैं जो दोनों के दोनों समान रूप से प्रतिभावान हैं।

पाँचवी बात यह है, कि एक गाना आता है और उसपर पूरा देश नाचने लगता है। कुछ दिनों तक किसी एक गाने का चलन  रहता है फिर कोई दूसरा आ जाता है।

इन सभी वीडियोज़ से एक बात तो साफ़ है कि देश का बड़ा वर्ग खुलकर नाचना चाहता है। बड़े वर्ग को परिधानों में, ओढ़ने-ढँकने या बांधने वाले कपड़ों से परहेज़ है। 

लेकिन फिर ऐसे लोग हैं जो इन वीडियोज़ को देखते तो चाव से हैं लेकिन उनके घर में ऐसा हो जाए तो बखेड़ा खड़ा कर दें।

आखिर भारत को इतना नाचना क्यों है? लोग जो मोटे तौर पर एक पाबंदी पसंद करने वाले, मध्य युगीन सोच रखने वाले निज़ाम को बढ़ चढ़कर वोट देते हैं, वो उसी निज़ाम से इतने अलग क्यों हैं? क्या दोनों बातों में कोई रिश्ता है? घरों के भीतर, खेतों में, खलिहानों में, सोसायटी की छत पर रोज़ अलग अलग फ़िल्मी गीतों पर नाचने वाली महिलाओं का सोचना क्या है? उनके घरवालों पर इसका क्या प्रभाव है? उनके वीडियोज़ देखने वाले जो उनके मोहल्ले या गाँव के लोग हैं वो उनसे किस तरह पेश  आ रहे हैं? यदि कोई सेलेब्रिटी स्टेटस इससे बन रहा है तो ये लोग उससे कैसे डील कर पा रहे हैं? कोई है जो इन पर सोचेगा?

इन बातों पर शोध होना चाहिए। पेपर पढ़े जाएँ, क़िताबें लिखी जाएँ। इसे समझा जाए और समझाया जाए। पीएचडी हो तो कुछ इस विषय पर भी हो!

हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General)

रट्टा मारने पर ज़ोर देनेवालों का दिवस

प्राथमिक स्कूल – शिक्षक पढ़ाने में मेहनत करते थे। बच्चे पढ़ जाएँ यह उनकी दिलचस्पी थी। लेकिन वही रटाने वाली शिक्षा, मारना पीटना। गाँव का सरकारी स्कूल। कुछ शिक्षक स्कूल से ज़्यादा खेत में वक्त बिताते थे। एक दारू पीकर आते थे।

मिडिल स्कूल – बेहद अच्छा। शिक्षक दिलचस्पी लेकर पढ़ाते थे। कहानियों के ज़रिए रुचि जगाते थे। तमाम गतिविधियों पर ज़ोर था। कोई ठीक से न पढ़े तो उसके घर चले जाते थे। गाँव का ही सरकारी स्कूल। जातिगत दुराग्रह शिक्षकों में था। जातिसूचक विशेषणों और उपमाओं का उलाहना देना आम बात थी। यह सब पिछड़े वर्ग के शिक्षक भी किया करते थे। बच्चों से मारपीट यहाँ भी आम थी।

हाईस्कूल – शिक्षकों को घण्टा मतलब नहीं था कि कौन क्या कर रहा है। जो ट्यूशन जाए उसकी इज़्ज़त थी। बाकी जो रटकर लाए वो अच्छा था। कोई पीछे है तो क्यों है इनको कोई लेना देना नहीं था। सिलेबस पूरा करने के अलावा शिक्षकों को कुछ नहीं आता था। बेहद घटिया अनुभव। शहर का सबसे प्रतिष्ठित हिंदी माध्यम का निजी स्कूल। हम यहाँ अवसाद का शिकार हो गए थे लेकिन न शिक्षकों ने न घरवालों ने कोई नोटिस लिया। अवसाद की वजह पढ़ाई ही थी।

सरकारी पॉलिटेक्निक – ढाई साल के कोर्स में छः महीने से अधिक कक्षाएँ नहीं लगीं। प्रयोगशालाएँ बन्द। परीक्षा दो, डिप्लोमा लो। सीखा कुछ नहीं शिक्षकों से।

निजी इंजीनियरिंग कॉलेज – बेहद घटिया। सिलेबस को किताबों से पढ़कर लिखवाने का नाम ही लेक्चर था। कुछ को छोड़कर ज़्यादातर अभी-अभी ग्रेज्युएट हुए लड़के-लड़कियाँ पढ़ा दिया करते थे। पूरे तीन साल एक शिक्षक नहीं मिला जो मुझसे बेहतर अंग्रेज़ी बोलता हो या किसी विषय को रुचिकर बनाकर समझा सके। प्रयोगशाला में सूचीबद्ध प्रयोग थे, करो या नकल मारो। रट्टा मार डिग्री हासिल की वह भी अच्छे दर्जे से। मैंने अधिकांश पर्चों में मोदी जी से बढ़कर फेंका। विश्वविद्यालय डिग्री की एजेंसी था, कॉलेज उसका एजेंट।

बी-स्कूल – ढाँचा अच्छा था। प्रोफेसर खुद सिलेबस बनाते, अपनी मर्ज़ी से परीक्षा लेते, चाहे न लेते। कॉलेज 24 घण्टे खुला रहता था। प्रोफेसरों में इस अच्छी व्यवस्था का फ़ायदा लेने की योग्यता नहीं थी। किया उन्होंने वही, रट्टा मार। फर्क के नाम पर यह था कि रटकर लिखना नहीं है, प्रेजेंटेशन देना है। यहाँ प्रोफेसरों से ज़्यादा जो इंडस्ट्री में काम करने वालों के लेक्चर होते थे उनसे सीखा। लाइब्रेरी 24 घंटे खुली थी। जो चाहे खुद उठाकर पढ़ लो। बाकी का वहाँ से सीखा। एक बात थी कि यहाँ प्रोफेसरान से बहस की। एक दो को बुरा लगा, बाकी ने बुरा नहीं माना। दर्ज़े में अपन यहाँ काफ़ी ऊपर रहे।

कुलमिलाकर, एक दो को छोड़कर कोई शिक्षक नहीं जिसके लिए दिल में इज़्ज़त हो। शिक्षक दिवस फालतू का दिन है। इसे रट्टामार विशेषज्ञ दिवस कहना चाहिए।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General)

Remembering Fakharuddin

We studied together in the Kalibadi school in Raipur. In the Kalibadi locality in Raipur, there are many schools and once, there used to be a heavy traffic of schoolchildren riding their bicycles.

One day, Fakharuddin informed me that there’s a Paan shop (the Indian mouth freshener wrapped in a betel leaf) whose owner is an ardent devotee of lord Shiva (also called Bhole baba). The paan shop owner had a big brass bell hanging in the shop. He told me that if anyone passes by this shop chanting ‘Jai Bhole!’, the owner dutifully rings the bell!! Still at an adolescent age, I was very excited to hear this. What fun when you chant “Jai Bhole” and a stranger rings a bell!

So, as it had to be done, in the lunch break, Fakharuddin guided me to the shop. On our bicycles, we went past the shop and as if to train me to the custom, Fakharuddin chanted “Jai Bhole!”, loud and clear. And we saw the paan shop owner without even caring to see our faces, rang the bell!

Oh boy! what fun it was, we went a few hundred meters away, stopped our bicycles and laughed to our core. And we repeated this many times for days to come until we were fully satisfied that this thing actually works.

Then, we didn’t know that Fakharuddin was a Muslim and I was born a Hindu. It never occurred to us that him chanting praise of a Hindu god was anything worth noticing. Those were the times. The society was not divided into binaries, facts were facts, and no one thought that one day they would coin the phrase “post truth”. At least our world was different.

After the school, I was a few years late to enter the Engineering graduation course and he was my senior there. We had lost touch but never the warmth.

Again a few years later, we met in Raipur railway station. On his insistence I travelled with him in his coach which was one grade higher, and paid the fine to the ticket collector. He had by then become an officer in a government run company. By these times every pocket had a cellphone, but we were happy to find that we remembered the fixed phone numbers of each other’s houses. Shared food and some memories. I left the train at Nagpur. He was going to New Delhi.

That was the last time I saw him.

Fakharuddin never liked the name his parents gave him. To girls and strangers he would introduce himself as “Farookh”. To us, he was always Fakhroo, pronounced as “Phakhroo” in a real desi way.

  • Hitendra
मानक
संस्मरण

जय भोले!

आज फखरुद्दीन की याद आ गई।

हम दोनों कालीबाड़ी स्कूल में पढ़ते थे। रायपुर शहर में कालीबाड़ी (काली माँ का मंदिर) के आसपास के इलाके को इसी नाम से जाना जाता है।

एक दिन फखरुद्दीन ने मुझे बताया कि कालीबाड़ी में एक पान की दुकान है। वह पानवाला शंकर जी का भक्त है उसने अपनी दुकान में एक बड़ा सा घण्टा लटका रखा है। जब भी कोई उसकी दुकान के सामने से गुज़रते हुए “जय भोले” की आवाज़ लगा दे तो पानवाला श्रद्धापूर्वक घण्टा बजा देता है।

उस उम्र में यह बात मुझे इतनी दिलचस्प जान पड़ी कि मैंने फखरुद्दीन से कहा कि मुझे वह दुकान दिखाए। आधी छुट्टी के वक्त हम सायकल से वहाँ गए। दुकान के पास आते ही फखरुद्दीन ने ज़ोर से आवाज़ लगाई “जय भोले!” और पान वाले ने घण्टा बजा दिया।

यह देखकर हम इतना हँसे कि थोड़ी दूर आगे जाकर हँसते ही रहे। बाद में अनेक बार हमने यह प्रयोग आज़माया और सफ़ल भी रहे।

फखरुद्दीन एक ख़ास अदा से “जय भोले!” कहता और फिर ज़ोरों से पैडल मारकर भाग जाता। कालीबाड़ी इलाका चारों ओर स्कूलों से घिरा है। इसलिए शायद पानवाले भैया को बच्चों की इस हरकत से कभी दिक्कत नहीं हुई होगी। भक्ति की बात तो खैर है ही।

आज घर में किसी कारणवश यह क़िस्सा सुनाया और फखरुद्दीन की याद आ गई। तब न उसे मालूम था कि मैं हिन्दू हूँ न मुझे मालूम था कि वह मुसलमान है।

फिर पढ़ाई में कमज़ोर होने के कारण मैं कुछ देर से इंजीनियरिंग कॉलेज पहुँचा जहाँ वह मेरा सीनियर था।

उसके कुछ साल बाद अचानक रायपुर रेल स्टेशन में मिल गया। मैंने जुर्माना अदा कर, उसके साथ नागपुर तक सफ़र तय किया। इस समय तक सबके पास मोबाइल फोन आ गए थे। लेकिन हम दोनों ने एक दूसरे को उसके घर के लैंडलाइन नम्बर बता दिए और अपनी याददाश्त और दोस्ती की दाद दी। उसके बाद से उससे सम्पर्क नहीं है। बीएसएनएल में अफ़सर हो गया था तब।

फखरुद्दीन को अपना नाम पसंद नहीं था। लड़कियों और नए लोगों को अपना नाम फ़ारुख बताया करता था। हमारे लिए हमेशा ही वह फखरू था (फ में बिना किसी नुक्ते के)।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
संगीत

एक ख़ूबसूरत गीत जिसका फिल्मांकन भी उतना ही ख़ूबसूरत है

हिन्दी फ़िल्मी गीतों के समृद्ध संसार में, ऐसे कुछ ही गीत हुए हैं जिनकी हर एक बात ख़ास है। यानी गीत अच्छा, गायकी अच्छी, अच्छा संगीत और फिल्मांकन भी उतना ही अच्छा। इनमें से एक गीत जो मुझे बेहद पसंद है वह है फिल्म मासूम (१९८३) का “हुज़ूर इस क़दर भी न इतरा के चलिए“।

गीत को लिखा है गुलज़ार ने, संगीत दिया है राहुल देव बर्मन ने और इसे गाया है दो महान गायकों भूपेन्द्र और सुरेश वाडकर की जोड़ी ने। यह गीत मुख्य रूप से दो महान अभिनेताओं सईद जाफ़री और नसीरुद्दीन शाह पर फिल्माया गया है।

गुलज़ार ने यह जो गीत लिखा है, वह उनके सबसे अच्छे गीतों में से एक है। इसका यूँ तो एक-एक अंतरा सुंदर है, लेकिन मुखड़े के अतिरिक्त आख़िरी अंतरा “बहुत ख़ूबसूरत है हर बात लेकिन, अगर दिल भी होता तो क्या बात होती” इस गीत को अलग ही स्तर पर ले जाता है।

आर डी बर्मन का संगीत भी बेहद अच्छा बन पड़ा है। एक ख़ास महफ़िल के माहौल में यह संगीत एकदम सटीक बैठता है।

सुरेश वाडकर और भूपेन्द्र दोनों ने ही जो गया है वह यादगार है। मैं इस गीत को सुनते हुए दोनों की आवाज़ पर ग़ौर करता हूँ और दोनों को एक दूसरे से बेहतर पाता हूँ। भूपेन्द्र की आवाज़ में विशेष गम्भीरता है जो ग़ज़लों-नज़्मों पर फिट बैठती है। सुरेश वाडकर की सुरीली आवाज़ इस गीत की गहराई बढ़ा देती है।

अब इन सबसे बढ़कर जो बात है, वह है इस गीत का फिल्मांकन। सत्तर-अस्सी के दशक की एक महफ़िल का दृश्य है। सईद जाफ़री और नसीरुद्दीन शाह दोनों ने थोड़ी शराब पी रखी है। सईद जाफ़री की अपेक्षा नसीर साहब कुछ अधिक ही मस्तमौला मूड में दिखाए दे रहे हैं। कभी वो सिर पर जाम रखकर नाचते हैं, तो कभी फर्श पर पसर जाते हैं। उनकी पत्नी की भूमिका निभा रही शबाना आज़मी हल्की सी शंकित तो हैं, लेकिन अपने पति के इन मस्ती वाले पलों को मुस्कुराते हुए निहार भी रही हैं। सईद साहब और नसीर साहब, दोनों दोस्त महफ़िल में आई सुंदरियों के साथ हल्का मज़ाक करते हैं , तो कभी नृत्य कर लेते हैं। इस पूरे दौर में नसीर साहब की आंखें एकदम वैसी गोल हो गई हैं जैसी किसी नशे में मस्त शराबी की होती हैं। और दोनों का नृत्य यूँ है कि बस संगीत और नशे की लय में जो अच्छा लगा कर लिया। एक जगह तो दोनों ज़रा सा भरनाट्यम भी करते देखे जाते हैं। अब नसीर साहब जैसे महान अभिनेता को इस तरह नाचते देखना, भला हिंदी फिल्मों का कौन रसिक है जो कभी भूल पाएगा।

महफ़िल के इस दृश्य को देखकर सोचता हूँ, वो दौर कहाँ गया जब शामों का और महफ़िलों का ऐसा आयोजन हुआ करता था। मन करता है ऐसी किसी महफ़िल में जाकर दोस्तों के साथ कोई गीत गाऊँ। शराब पी जा रही है, लेकिन शराब है, वह “दारू” नहीं जो जिसे पीना आजकल के गानों में मर्दानगी या बहादुरी का प्रतीक बना दिया गया है। शराब मस्त माहौल का एक ज़रिया है। संगीत महफ़िल की जान है। दोस्तों की चुहलबाज़ी नयनाभिराम है।

आजकल की अनेक महफ़िलों में जहाँ डीजे का कानफोड़ू संगीत है , और नृत्य का मतलब फ़िल्मी नृत्य की नकल बन गया है, इस गीत को देख लेना और सुन लेना ठण्डक प्रदान करता है।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

अफ़ग़ानिस्तान के बदले हालातऔर भारत

भारत की विदेश नीति के समक्ष इस समय एक बड़ी चुनौती है अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात।  करीब बीस वर्षों के बाद अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फौजों की पूर्णतः वापसी प्रारम्भ हो गई है। सितंबर ग्यारह २००१ के आतंकी हमलों के बाद अमेरिका ने अल क़ायदा से लड़ने और आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध के नाम पर अफ़ग़ानिस्तान में तत्कालीन तालिबानी शासन पर हमले शुरू किए थे।  ज़मीन पर तब के तालिबान विरोधी और भारत समर्थक “नॉर्दन अलायंस” ने भी अमेरिका के वायुसैनिक समर्थन से तालिबान पर हमले किए । अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका समेत उसके सहयोगी मुल्क़ों, जिन्हें नैटो सेनाएँ कहा जाता है, ने धीरे-धीरे अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा जमाया और एक समर्थक सरकार की स्थापना कर देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत की। 

तालिबान एक ऐसी ताकत है जो महिला-विरोधी, उग्र-इस्लामिक मान्यताओं के तहत मध्ययुगीन बर्बर तरीकों से पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान में हुक़ूमत कर रही थी। इनके तथाकथित शरीया प्रेरित न्याय के दिल दहला देने वाले दृश्य पूरे विश्व ने देखे हैं।  उनके बर्बर रवैये और उनकी मानवाधिकार विरोधी शासन प्रणाली का समर्थक शायद हुए कोई मुल्क या व्यक्ति हो सकता है।

जब अमेरिका ने तालिबान को सत्ताच्युत किया तो पाकिस्तान ने उन्हें अपने देश में पनाह दी।  पाकिस्तान एक तरफ़ अमेरिका से आर्थिक सहायता लेता रहा, दूसरी तरफ उसने तालिबान और ओसामा बिन लादेन को पनाह दी। आगे जो कुछ हुआ वह इतिहास है। 

ख़ैर, अफगानिस्तान में इन बीते २० वर्षों में भारत ने वहाँ की स्थानीय सरकार से अच्छे सम्बन्ध बनाए, वहाँ सडकों, अस्पतालों, बांधों और वहाँ की संसद सहित अनेक सुविधापरक इमारतों का निर्माण किया। इन सबसे ऐसा महसून होने लगा था मानों अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय प्रभाव अब स्थायी होने जा रहा है।  लेकिन, भारत की सरकार के वहाँ की अमेरिका द्वारा स्थापित सरकार के साथ चाहे जैसे सम्बन्ध रहे हों, अमेरिका कभी भी अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और वहाँ की नयी राष्ट्रीय सेना को पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं बना पाया।  नतीजा यह है कि इधर अमेरिकी फौजों की वापसी शुरू हुई है, उधर अफगानिस्तान के बड़े शहरों को छोड़कर लगभग अस्सी प्रतिशत भूमि पर तालिबान का फिर से क़ब्ज़ा हो चुका है।  अब यह केवल समय की बात है कि कब तालिबान वहाँ पूरी तरह क़ब्ज़ा कर होनी सरकार पुनः स्थापित करे। 

फौजों की इस वापसी के पहले, पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका ने तालिबान से बातचीत शुरू की थी।  अफ़ग़ानिस्तान का भविष्य निर्धारित करने के लिए होने वाली इन मुलाक़ातों में भारत का कोई स्थान नहीं था।  ये सारी मुलाक़ातें पकिस्तान के सहयोग से हो रही थीं, जिनमें रूस और चीन भी मुख्य रूप से शामिल थे। आज भी जब अफ़ग़ानिस्तान में पूरी तरह नया बदलाव आने वाला है , तब भारत को आधिकारिक रूप से इन चर्चाओं में कोई स्थान नहीं दिया गया है।  अलबत्ता इस मामले में भारत की भूमिका को लेकर कुछ ज़बानी खर्च ज़रूर अमेरिका और रूस के द्वारा किया गया है , लेकिन उसे नाम भर का ही माना जाना चाहिए। 

अफ़ग़ानिस्तान में बदलते हालातों की पृष्ठभूमि में इन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है:

१. अमेरिका भले ही यह जानता है कि पाकिस्तान ने तालिबान का साथ देकर उसकी पीठ में छुरा भौंका है, फिलहाल २० वर्षों बाद हारकर एक सम्मानजनक वापसी हेतु उसे पाकिस्तान पर निर्भर रहने के सिवा और कोई रास्ता नज़र नहीं आता है।  इसमें सबसे बड़ा कारण पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति है , साथ ही यह भी कि इस क्षेत्र में पाकिस्तान एक बड़ी सैन्य ताकत है और उसके तालिबान के साथ प्रगाढ़ समबन्ध हैं।  भविष्य में इस क्षेत्र में अमेरिकी हितों की गारण्टी हेतु पाकिस्तान का सहयोग अमेरिका के लिए आवश्यक है। 

२. अमेरिका के समबन्ध ईरान से कभी भी बहुत अच्छे नहीं रहे, इसलिए पाकिस्तान एवँ तालिबान को किसी तरह अपने पक्ष में रखकर वह ईरान के विरुद्ध इस क्षेत्र में संतुलन साधना चाहेगा। 

३. रूस ने बीते पाँच-सात वर्षों में पकिस्तान से बेहद अच्छे सम्बन्ध बना लिए हैं। रूस के भारत के साथ भी अच्छे सम्बन्ध हैं, किन्तु अफ़ग़ानिस्तान के प्रश्न पर उसे पाकिस्तान अधिक भरोसेमंद और उपयोगी मुल्क़ दिखाई पड़ता है।  बीते सात वर्षों में भारत ने जिस प्रकार खुद को अमेरिकी पाले में अधिक धकेला है, वह भी इसका एक कारण है। 

४. चीन के पूरी दुनिया में रेल एवँ सड़क मार्ग बिछाकर वैश्विक प्रभुत्व जमाने के अभियान, जिसे वह “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” कहता है, में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा सहयोगी है।  यदि अफ़ग़ानिस्तान जैसे भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण मुल्क़ में चीन को सुविधानुसार सड़कों और रेलमार्ग बिछाने की आज़ादी मिलती है, तो यह उसके व्यापारिक और सामरिक हितों के लिए अति आवश्यक होगा।  अतः चीन भी तालिबान के नेतृत्व में बनने वाली अगली सरकार में पाकिस्तान के माध्यम से अपने हितों की गारण्टी की व्यवस्था सुनिश्चित करना चाहता है। 

5. भारत की एक उम्मीद है ईरान।  जहाँ चीन ने पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर कब्ज़े के ज़रिए इस पूरे क्षेत्र में अपनी सामरिक-व्यापरिक उपस्थिति मज़बूत की है , वहीं ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास में भारत का प्रदर्शन सुस्त और फिसड्डी ही रहा है।  अतः ईरान के पास अफ़ग़ानिस्तान में बनने वाली नई सरकार से सहयोग करने के अतिरिक्त और कोई चारा हो ऐसा लगता नहीं है। 

६. वैश्विक परिदृश्य में भारत हमेशा ही एक उदासीन ताकत रहा है। श्रीलंका और बांगलादेश के सीमित उदाहरणों को छोड़ दें तो भारत ने कभी भी अपने सीमाओं के बाहर सीधे सैन्य दखल में अरुचि दर्शायी है जो कि अनेक कारणों से उचित ही है। लेकिन इससे यह भी स्पष्ट है की भारत चाहे जो कर ले, वह अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार को ऐसी कोई मदद प्रदान करने के हालत में नहीं है जिससे कि वह तालिबान को वहाँ क़ब्ज़ा ज़माने से रोक सके। 

ऐसे में, भारत के पास क्या विकल्प हैं? अफ़ग़ानिस्तान में एक दुश्मन सरकार के होने का अर्थ है भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं का पूरी तरह असुरक्षित हो जाना। साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में सहयोगी सरकार होने का अर्थ यह भी हो सकता है कि पाकिस्तान की सेना और वहाँ का जिहादी तंत्र अब कश्मीर की ओर अपना ध्यान केंद्रित करे। इन सबके ऊपर यह कि अपनी पूर्वी सीमाओं पर भारत पहले ही चीन के साथ संघर्ष की स्थिति में है। ऐसे में पश्चिम की ओर भी यदि सैन्य तनाव बढ़ा तो उसके प्रतिकूल परिणाम हो सकते हैं।

हाल ही में, जब चीन ने लद्दाख क्षेत्र में भारत के विरुद्ध सैन्य-तनाव को बढ़ावा दिया, तब भारत ने उचित क़दम उठाते हुए पाकिस्तान से गुप्त रूप से बातचीत प्रारम्भ की थी।  यह बातचीत संयुक्त अरब अमीरात के सहयोग से प्रारम्भ हुए थी।  इस बातचीत का एक नतीजा यह था कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर दोनों देशों की और से होने वाली गोलाबारी कुछ माह पूर्व लगभग रुक गयी थी। जब पूर्वी सीमा पर चीन के साथ तनाव हों, तब पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान के साथ हालात थोड़े सामान्य करना एक उचित नीति है।  इसी नीति का एक यह भी परिणाम निकला कि भारत की केन्द्र सरकार ने कश्मीर में स्थानीय राजनैतिक ताकतों को बातचीत के  बुलाया। 

अब अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में भारत के पास निम्न विकल्प हैं:

१. भारत यह उम्मीद करे कि किसी प्रकार अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार व उसके समर्थकों का क़ब्ज़ा बरकरार रहे एवँ तालिबान के पकड़ वहाँ ढीली हो।  वर्तमान हालातों और अमेरिका की सैन्य अनुपस्थिति के चलते ऐसा होना लगभग असम्भव है। 

२. भारत ईरान के साथ मिलकर किसी ऐसे गठजोड़ को खड़ा करे जो वहाँ अमेरिका-रूस-चीन के तालिबान और पाकिस्तान के साथ सहकर के विरुद्ध एक क्षेत्रीय ताकत बने।  भारत के रूस और विशेषकर अमेरिका से सम्बन्धों के चलते ऐसा कुछ होगा यह लगभग अकल्पनीय है। 

३. भारत तालिबान से बातचीत करे। यूँ सच तो यही है कि किसी न किसी रुप में भारत ने तालिबान से बातचीत प्रारम्भ कर ही दी है।  हालाँकि इसे आगे बढ़ाया जा सकता है और एक औपचारिक रिश्ते की ओर भी बढ़ना सम्भव है। तालिबान के अपने चाहे जो विचार हों, भारत फ़िलहाल खुद के हितों को प्राथमिकता दे तो उसके पास यही सही चारा नज़र आता है।  तालिबान से सहयोग के बदले में भारत उसे अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान विरोधी ताक़तों के साथ मध्यस्थता की पेशकश तो कर ही सकता है , साथ ही तालिबान के लिए भारत से व्यापारिक संबंधों का होना अति आवश्यक होगा क्योंकि यदि उसे अफ़ग़ानिस्तान को स्थाई रूप से चलाना है तो आर्थिक सम्बन्ध हमेशा काम आएँगे।  

तीसरे विकल्प का सबसे बड़ा फ़ायदा यह हो सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत विरोधी तत्वों को उनकी गतिविधियों से रोका जाए। साथ ही उस क्षेत्र से होकर जाने वाले रास्तों पर भारत के व्यापरिक हित सुरक्षित रहें।  

इस विकल्प का सबसे बड़ा विरोधी पक्ष है तालिबान की विचारधारा। लेकिन कूटनीति समझौतों का नाम है।  इसमें वैचारिक शुद्धता के लिए विशेष स्थान नहीं है। भारत के अनेक ऐसे मुल्कों से प्रगाढ़ सम्बन्ध हैं जिनका मानवाधिकारों के मामले में कोई ख़ास स्थान नहीं रहा है। 

तालिबान सहित पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को कम से कम  बना लेना भारत के लिए आवश्यक है कि यदि चीन के साथ सीमा पर तनाव हो तो ये दोनों, हमारी उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर दोहरा तनाव खड़ा न करें। लेकिन ऐसा करने में सबसे बड़ी बाधा है भारत की आंतरिक राजनीति। यदि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार और उसके सहयोगी प्रदेश सरकारें और अन्य संगठन भारत में मुस्लिम विरोधी आग को हवा देते  रहे, जैसा की वे खासतौर से पिछले छः-सात वर्षों से कर रहे हैं, तब भारत के लिए इन पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान सहित सऊदी अरब तथा अन्य अरबी देशों, एवँ इंडोनेशिया तथा मलेशिया जैसे मुस्लिम देशों से सम्बन्ध बनाए रखना कठिन होता जाएगा। लेकिन दूसरी और, वर्तमान सरकार का जीतकर सत्ता में  सबसे बड़ा कारण उसकी मुस्लिम विरोधी राजनीति है। 

कूटनीति और राजनीति में यही फ़र्क़ है।  हालाँकि दोनों में व्यवहारिकता आवश्यक है, किन्तु कूटनीति जीत-हार से बढ़कर अपने हितों के संरक्षण पर ध्यान देती है, अतः कूटनीतिक सफ़लता के लिए अधिक लचीलापन आवश्यक होता है।  कूटनीति वह नहीं कि आपने पैसे देकर एक विदेशी मुल्क में हज़ारों की भीड़ को सम्बोधित कर दिया, कूटनीति वह है जहाँ आप उस एक कमरे में बैठे चंद वार्ताकारों के साथ बातचीत का मौक़ा हासिल कर पाएँ, जिस कमरे में आपके पड़ोस के सबसे अधिक महत्वपूर्ण मुल्क़ का भविष्य तय किया जा रहा हो। ज़ाहिर है, कूटनीति डंका बजाने का काम नहीं है।

– हितेन्द्र अनंत 

मानक
विविध (General)

What is home?

Locked inside a home, do you really feel “at home”?

What is this thing that you call home? Is it people? Or culture, or geography, or even a period in time that would never return?

Life is a friction between two desires – seeing the world, and coming home. The former takes precedence most of the times because seeing the world is not just a choice, it is a necessity in a world where survival is mostly linked to migration.

The other desire, coming home, doesn’t leave one so easily. We want to come home, come home to our family, our comfort, sleep, television, books, a cup of tea, friends and many such things. We also want to come home to escape the work life. After all, we are the children of hunter-gatherers who always came home in the evening. We are engineered that way.

But again, what is a home? For an “NRI” who is “settled” in one of the countries in the “English world”, is her home in a county or a condominium really her home? What if she longs to come home to her childhood street in Pune, and dance to the noisy “tasha” during the Ganapati festival? Can she call her home, home? Does she?

Or, for a man in his middle age, who lives in the same street he was born and raised, is the home still home when most friends have “settled” elsewhere and the rest who couldn’t barely meet every evening like they used to earlier, is the home still home?

Or for a teenager feeling “stuck” in her sleepy small town, waiting to break free and migrate to one of the “happening” cities, what is the idea of a home?

Or even a Desi who lives in England and is confused about his laoyalty in the game of cricket, what is home?

Or the man who yearns to scream expletives in a country where no one would ever know their meanings. (Read “O Haramzade” a great story in Hindi by Bhishm Sahani).

Well, why leave an old lady who was married to a traditional family in a distant city, doesn’t she reconstruct the map of the streets of her home town in her dreams every night?

We’re all “in our homes”, yet many of us aren’t “at home”.

Home is culture, to some it is a language. Home is religion, cuisine, people, fashion, fights and brawls, chaos and peace too. Home also is the weather, the terrain, the comforts and difficulties that become part of our existence.

Home is different to different people. But there’s one truth that’s stable. A home does exist and one must find it.

If you feel that way, you have only two choices, make a home of your home wherever it is, or, go back to your home, it’s never late.

Hitendra Anant

मानक