समाज, सामयिक (Current Issues)

उबर पर युनाइटेड किंगडम के फ़ैसले के भारत में गिग इकोनॉमी के लिए मायने

यूनाइटेड किंगडम के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में टैक्सी एग्रीगेटर एप उबर के ख़िलाफ़ फैसला दिया है कि उसकी टैक्सी चलाने वाले सभी चालक अब उसके कर्मचारी माने जाएंगे और वे सभी सेवानिवृत्ति और सामाजिक सुरक्षा के लाभों के हक़दार होंगे।

इस फैसले के भारत सहित पूरे विश्व में दूरगामी परिणाम होंगे। बाकी देशों की अदलातों के सामने इस फ़ैसले का संदर्भ निश्चित ही महत्वपूर्ण होगा।

फैसले के बारे में:

1. सात वर्ष चली इस न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उबर ने यह दलील रखी कि वह सिर्फ ग्राहकों और चालकों को प्लैटफॉर्म की सुविधा देती है। और चूँकि, चालक अपनी मर्ज़ी के अनुसार जब चाहे और जितनी देर चाहे काम कर सकते हैं, उन्हें उबर का कर्मचारी नहीं मना जा सकता।
2. उबर की इस दलील को रद्द करते हुए अदालत ने जिन बातों को आधार माना उनमें प्रमुख यह है कि भले ही उबर और चालकों के बीच का क़रार एक नियोक्ता और कर्मचारी के बीच होने वाला क़रार नहीं है, फिर भी, उबर इस पूरे व्यापार की शर्तों को पूरी तरह नियंत्रित करती है और इन्हें निर्धारित करने में चालकों की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं है। अर्थात, यह सम्बन्ध व्यापारिक संबंधों की तरह दोतरफ़ा न होकर नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों की तरह एकतरफा है।
3. अदालत के अनुसार ग्राहकों द्वारा दिए गए रेटिंग सिस्टम के आधार पर उबर चालकों की सेवा रद्द करने का अधिकार रखती है। अदालत ने माना कि उबर यह भी तय करती है कि किसी भी फेरे में अधिकतम किराया कितना होगा, इस प्रकार उबर चालकों की अधिकतम आय पर नियंत्रण रखती है। साथ ही, एक बार लॉगिन करने के बाद उबर के चालक के पास आने वाले फेरों में से चुनने का अधिकार नहीं होता है। यदि चालक बार-बार राइड कैंसल करें, तो उबर उन पर जुर्माना भी लगाती है, यह भी उबर द्वारा नियंत्रित है। एक और बात जो अदालत ने मानी वह यह कि फेरों के तय होने तक यात्री और चालक के बीच सीधे संवाद असम्भव है। अतः इस दृष्टि से भी इस प्रक्रिया में उबर का ही नियंत्रण है। इन सभी कारणों से उबर और चालकों के बीच के सम्बन्ध को एक नियोक्ता और कर्मचारी के बीच का सम्बन्ध ही माना जा सकता है।
4. गिग इकोनॉमी प्रायः ऐसे व्यापारों की व्यवस्था को कहते हैं जिनमें कोई ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म ग्राहकों को पार्टटाइम या फ्रीलांस पेशेवरों या कामगारों को जोड़ता है। स्विगी,जोमैटो, बिग-बास्केट, ओला व उबर इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
5. भारत में हाल ही के केंद्रीय बजट में गिग इकोनॉमी के कामगारों को सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों से जोड़ने की बात की गई है। नए लेबर कोड में भी इसका कुछ उल्लेख है। यह अच्छी संकेत हैं। लेकिन बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

भारत में इस फैसले का यहाँ की गिग इकोनॉमी प्रभाव और अन्य प्रश्न
6. उम्मीद की जानी चाहिए कि ब्रिटेन के फैसले के आधार पर भारत में भी अदालतें गिग इकोनॉमी के कामगारों के अधिकारों को मान्यता देते हुए उन्हें राहत पहुंचाएंगी।
7. इस प्रकरण से एक सवाल यह उठता है आखिर यह गिग इकोनॉमी क्या वाकई समाज एवँ बाज़ार के लिए उपयोगी हैं? हममें से अनेक लोग प्रायः यह कहते हैं कि ओला-उबर की वजह से रिक्शे वालों की मनमानी से हमें मुक्ति मिली है। यह बात ठीक भी है। लेकिन रिक्शे वालों की मनमानी का प्रमुख कारण क्या यह नहीं कि भारत के अधिकांश शहरों में पुलिस एवँ आरटीओ रिक्शे वालों से क़ानून का पालन करवाने में अक्षम रहे हैं? मुम्बई एवँ कुछ गिने-चुने शहरों के अतिरिक्त भारत में चलती-फिरती टैक्सी को मान्यता ही नहीं है। इसलिए ओला-उबर ने यदि कोई कमी पूरी की भी है, तो क्या ऐसा नहीं है कि वो अन्य तरीकों से पूरी नहीं हो सकती थी?
8. नए रिक्शों के लाइसेन्स प्रायः या तो निकलते नहीं या उनके हासिल करने की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार है। रिक्शों या टैक्सी के लिए लोन पाना कितना आसान है यह भी एक सवाल है।
9. ओला-उबर ने हालाँकि ग्राहकों को कुछ राहत पहुँचाई है, लेकिन उनके द्वारा चालकों का जो शोषण किया जाता है वह अब एक निर्विवाद तथ्य है। ग्राहकों के संदर्भ में भी शुरुआती सालों की सस्ताई के दिन अब लद गए हैं। दिन के महत्वपूर्ण घंटों, छुट्टी के दिनों और एयरपोर्ट जैसी महत्वपूर्ण जगहों पर “सर्ज प्राइसिंग” के जरिए ये कम्पनियाँ ग्राहकों को भी लूट ही रही हैं।
10. सिर्फ़ कामगारों का सवाल नहीं है। स्विगी और जोमैटो जैसी कंपनियों से रेस्त्रां मालिक परेशान हैं,वहीं ओयो एप की वजह से होटल मालिक त्रस्त हैं। गूगल न्यूज़ ने समाचार माध्यमों का हक छीना है। यानी नुक़सान सभी वर्गों का है।
11. प्रत्येक बात को ग्राहकों या उपभोक्ताओं की सुविधा या हित से जोड़ने की सोच भी समाज विरोधी है। “ग्राहक सबसे ऊपर” का अर्थ यह नहीं कि समाज के एक वर्ग का शोषण होने दिया जाए।
12. हमारे घरों तक पिज़्ज़ा पहुँचाने वाले, या दूध-सब्ज़ी लाने वाले लड़कों को भी सम्मानजनक वेतन एवँ सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता है। यदि इसका अर्थ सेवाओं का महँगा होना है तो वही सही! क्या इन सेवाओं के पहले हम दूध, सब्ज़ी या पिज़्ज़ा का सेवन नहीं करते थे?
13. एक प्रश्न तकनीकी पर नियंत्रण के ज़रिए अनावश्यक लाभ उठाना भी है। ओला-उबर-जोमैटो जैसी कम्पनियाँ जिन सेवाओं या उत्पादों को ग्राहकों तक पहुँचा रही हैं, उस प्रक्रिया में तकनीकी प्लेटफ़ॉर्म बनाने के अतिरिक्त उनका कोई योगदान नहीं है। लेकिन पूरे व्यापार में कमाई पर उनका हिस्सा एकतरफ़ा है। यह सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तकनीकी तक उनकी पहुँच है और एक बड़े वर्ग की नहीं। क्या यह एक नए क़िस्म की पुरोहिताई नहीं है जिसमें धर्म के तरीकों और धर्म की भाषा पर वर्ग विशेष के नियंत्रण की वजह से हमारे देश को आज तक ग़ैरबराबरी को झेलना पड़ रहा है?
14. तकनीकी के असीम विकास का अर्थ क्या यह है कि हम हर नई ईजाद को अपनाएँ भले ही उससे हमें नुक़सान हो? पिछली सदी की अनेक ईजादों को अंधा होकर अपनाने के नुक़सान क्या हमारे सामने नहीं हैं?
15. सब कुछ बाज़ार की शर्तों पर छोड़ देना क्या उचित है? सामाजिक सुरक्षा, सभी वर्गों तक न्यूनतम जीवन-स्तर के साधन जुटाना क्या समाज की और राज्य की जिम्मेदारी नहीं है?

– हितेन्द्र अनंत

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विविध (General), सामयिक (Current Issues)

कृषि का कॉरपोरेटाइजेशन

समझिए क्यों कृषि को कॉरपोरेट के हाथों में देना ख़तरनाक होगा

मैं लाइसेंस-परमिट राज का समर्थक नहीं हूँ। लेकिन बात जब विश्व की चन्द बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की हो तो मुक्त बाज़ार या मुक्त व्यापार सिर्फ़ छलावा साबित हुए हैं।

  1. अमेज़न और फ्लिपकार्ट का असर अपने पड़ोस की मोबाइल बेचने वाली दुकान के मालिक से पूछिए।
  2. ओयो की वजह से होटल वालों को वाकई कितना व्यापार मिला और असल में वो किस तरह ओयो और उस जैसी वेबसाइटों पर आश्रित रहने को मजबूर हो गए यह उनसे पूछिए।
  3. जोमैटो और स्विगी के ख़िलाफ़ तो बहुत सारे रेस्त्रां (बड़े-बड़े भी) हड़ताल कर चुके हैं। जिन्होंने एक तरफ़ अंतिम ग्राहकों पर कब्ज़ा कर मांग पर एकाधिकार बना लिया है, दूसरी तरफ़ रेस्त्रां मालिकों पर कमीशन बढ़ा-बढ़ाकर उन्हें लूटा है।
  4. रिलायंस रीटेल, डीमार्ट, मोर, स्टार बाज़ार आदि के कारण मोहल्ले की किराना दुकानों का अस्तित्व केवल दूध, ब्रेड, अंडे जैसी चीज़ें बेचने तक सीमित हो गया है। इनसे वह काम छीनने का काम अब बिग बास्केट डेली जैसी ऍप्लिकेशन बनाने वाली कम्पनियाँ कर रही हैं।
  5. इन सबका सबसे बड़ा असर यह है कि आम आदमी जिन आसान और कम पूंजी से खुल जाने वाले व्यापारों के सहारे आत्मनिर्भर हो जाया करता था, उन व्यापारों को शुरू करना और चलाए रखना अब बेहद मुश्किल होता जा रहा है।
  6. इस आम आदमी के लिए तर्क दिया जाता है कि वह इन्हीं बड़ी कंपनियों में नौकरी कर सकता है! कोई यह नहीं सोचता कि स्वरोजगार, व्यापार और बमुश्किल राशन दे पाने वाली नौकरी, इन सबमें फर्क होता है। कोई महीने का पचास हजार देने वाली दुकान छोड़कर महीने का दस हजार देने वाली नौकरी कर तो क्या यह विकास है?
  7. आम व्यापारी से उसके व्यापार का स्वामित्व छीन लेना क्या विकास है?
  8. यदि कृषि में भी कॉरपोरेट की पूंजी आई (आने ही लगी है) तो किसान अपनी ही ज़मीन पर मज़दूरी करने को बाध्य हो जाएंगे।
  9. कांट्रेक्ट फार्मिंग बंधुआ मजदूरी का ही दूसरा नाम है।
  10. ग्राहक यह सोचकर खुश न हों कि उन्हें जब विकल्प मिल रहे हैं, सस्ता सामान मिल रहा है तो उन्हें क्या लेना-देना? आप भी इसी समाज का हिस्सा हैं। ये दुकानदार, ये किसान, ये दिनभर मोटरसाइकिल पर डिलीवरी देने वाले आपके ही भाई-बंधु हैं। कल आपकी नौकरी छूट जाए तो आपके पास भी स्वरोजगार के वही रास्ते होंगे जो इन लोगों के पास हैं।
  11. एक न एक दिन ये सस्ता सामान मिलना भी बंद हो जाएगा। याद कीजिए इस देश में कभी दस के आसपास टेलिकॉम कम्पनियाँ थीं, अब तीन बची हैं। चौथी बीएसएनएल वैसे भी गिनती में नहीं आती। आपको क्या लगता है? यह सस्ताई का ज़माना आखिर कब तक टिकेगा? एक न एक दिन ये कम्पनियाँ या तो आपस में समझौता कर दाम बढ़ा लेंगी या इनमें भी एक और ख़त्म हो जाएगी। फिर आपका क्या होगा?
  12. मुक्त बाज़ारों का अर्थ होता है न्यूनतम सरकारी नियंत्रण और सभी को व्यापार में भागीदारी का मौका। मुट्ठीभर कंपनियों के हाथ पूरा बाज़ार सौंप देना दरअसल ग़ुलामी के सिवा और कुछ नहीं है।
  13. जूते से लेकर ज्वेलरी बेचने वाली कंपनियों ने आपका बहुत कुछ छीन लिया है। उसे समझिए।
  14. अपनी सरकारों से मुक्त बाज़ारों की मांग कीजिए। मांग कीजिए कि लोन पाना और किश्तें चुकाना आपके लिए भी उतना ही आसान हो जितना इन कंपनियों के लिए है।
  15. मांग कीजिए कि क़ानून ऐसे बनें कि किसी भी व्यापार में गिनी-चुनी कंपनियों का गिरोह क़ब्ज़ा न कर पाए।
  • हितेन्द्र अनंत
मानक
सामयिक (Current Issues)

भारत में उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष राजनीति का भाषा-संकट

पाँच अगस्त २०२० का दिन मेरे लिए यूँ उसी तरह बीता जैसा हर दिन पिछले कुछ महीनों से बीत रहा है। लेकिन उस दिन चूँकि अयोध्या में रामलला के मंदिर का भूमिपूजन था, तो यह सोचने विचरने का दिन तो था ही।

मेरी निजी स्थिति इस विषय पर ऐसी थी कि मैं उस दिन न तो खुश था न ही दुखी। मेरे लिए यह एक ऐसे विवाद का पटाक्षेप था जिसके चलते देश में हिंसा हुई और अनेक जानें गईं। कुछ समस्याएँ इतना विकराल रूप धारण कर लेती हैं कि उनका समाधान हो जाना, समाधान किस प्रकार का है उससे अधिक महत्वपूर्ण होता है। वैसे भी अनेक वर्षों से लगभग यह आम सहमति थी की न्यायालय से जो फ़ैसला आए उसे सभी स्वीकार करें। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि विभिन्न कारणों से अनेक लोगों के लिए इस मामले का अंत दुखद है, और अनेक लोगों के लिए सुखद, इसलिए मैंने निजी तौर पर उस दिन चुप रहना बेहतर समझा।

लेकिन उस दिन मुझे अनेक मित्रों और रिश्तेदारों ने फोन किया। फोन उठाते ही वे बड़े जोश में मुझे “जय श्री राम!” के नारे से सम्बोधित कर रहे थे। उनकी आवाज़ में एक ख़ास किस्म का उत्साह था। मेरे सभी मित्र व रिश्तेदार यह जानते हैं कि मैं आस्थावान नहीं हूँ और दक्षिणपंथी राजनीति के उलट ही विचार रखता हूँ। इसलिए मैंने ग़ौर किया कि क्या वे मुझे चिढ़ाना चाह रहे थे? मैंने पाया कि ऐसा नहीं था। समाज का एक बड़ा वर्ग उस दिन वाकई खुश था। लोगों ने दिए जलाए, कुछ ने मिठाइयाँ बाँटीं तो कुछ ने किसी और प्रकार से खुशियाँ मनाईं। इनमें से कुछ खुराफ़ातियों को छोड़ दिया जाए तो प्रायः उनकी खुशी उनके आराध्य देव के मंदिर बनने को लेकर ही थी।

लेकिन समाज का एक ऐसा तबका भी है जो उस दिन खुश नहीं था। मुस्लिम समाज विवादित ढाँचे को मस्जिद मानता था। न्यायालय के फ़ैसले से उसकी अप्रसन्नता स्वाभाविक है। लेकिन यह मार्के की बात है कि मुस्लिम समाज ने भले ही न्यायालय के फैसले या भूमि पूजन को लेकर अप्रसन्नता जाहिर की हो, उन्होंने इसको लेकर कोई नया विवाद खड़ा नहीं किया। अपवादों को छोड़ दें तो मुस्लिम समाज ने काफ़ी वर्षों से इस विषय पर संयम बरता है, और यह विशेष रूप से सराहनीय है।

लेकिन एक और तबका है जिसने अलग-अलग तरह से पाँच अगस्त के दिन को लेकर प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं। इनमें उनकी गणना शामिल है जिन्हें मोटे तौर पर “उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष” या लिबरल-सेक्युलर कहा जाता है। इस तबके में आम लोगों से लेकर बड़े लेखक-चिंतक-कलाकार-बुद्धिजीवी आदि शामिल हैं। इनमें भी प्रतिक्रियाओं का एक मिश्रित रूप देखा गया। अनेक लोगों से इस दिन को “लोकतंत्र की मौत” का दिन घोषित किया। कुछ ने इसे उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष राजनीति का अंत घोषित किया। कुछ ने इसे हिंदुत्ववादी राजनीति की निर्णायक विजय कहा।

इन सबमें मार्क करने योग्य एक आवाज़ थी प्रोफेसर योगेंद्र यादव की। इनका कहना था कि “आज हमें मान लेना चाहिए कि सेक्युलरिज्म की हार हुई तो इसलिए कि इसके मुहाफिजों ने सेक्युलरिज्म के विचार को लोगों तक ले जाने में आनाकानी की. सेक्युलरिज्म परास्त हुआ क्योंकि सेक्युलर अभिजन सेक्युलरवाद के आलोचकों के आगे अंग्रेजी छांटते थे. सेक्युलरिज्म हार गया क्योंकि उसने कभी हमारी भाषा में बात ना की, उसने अपने को कभी परंपरा की भाषा से ना जोड़ा, उसने कभी ना सोचा कि धर्म की भाषा के भीतर पैठकर बोलने, सोचने और सीखने की जरूरत है.”

इसके साथ ही योगेंद्र यह भी कहते हैं: “सेक्युलरिज्म की हार की एक बड़ी वजह रही कि उसने हिन्दू-धर्म को मजाक का विषय बनाया, ये ना सोचा कि हमारे अपने वक्त की जरूरत के हिसाब से हिन्दू-धर्म की एक नई व्याख्या करने की जरूरत है. भारत में सेक्युलरिज्म हारा क्योंकि यह अपने को एक लचर किस्म के अल्पसंख्यकवाद की हिमायती होने के लकब से छुटकारा ना दिला पाया और अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता से बिल्कुल ही मुंह मोड़े रहा. सेक्युलर राजनीति ने अपनी साख गंवायी क्योंकि उसके लिए प्रतिबद्धता का सवाल पहले सुविधा के सवाल में बदला फिर सुविधा का सवाल एक साजिश में तब्दील हो गया, अल्पसंख्यक तबके के मतदाताओं को अपने पाले में बंधक बनाये रखने की साजिश में.”

भारत सहित अंतराष्ट्रीय मुद्दों पर राय रखने वाले लेखक पंकज मिश्रा का कहना है कि भारत में कभी सच्चे तौर पर उदारवादी राजनीती का अस्तित्व था ही नहीं, उन्हें लगता है कि जिसे सवर्ण, उच्चवर्गीय भारतीय “उदारवादी राजनीति” मानकर चल रहे थे वह दरअसल एक छलावा थी, और हिंदुत्ववादी राजनीति ने केवल इस छलावे के आवरण के हटा दिया है।

मैं प्रोफेसर योगेंद्र यादव के लेख पर वापस आता हूँ। उनके लेख पर पर्याप्त चर्चा हुई। लोगों ने यह प्रश्न किया है कि आखिर “यह लिबरल-सेक्युलर” तबका है कौन जिससे हर किसी को शिकायत है। उन लोगों यह भी ध्यान दिलाया कि शिकायत करने वाले ये सभी लोग भी आखिर “लिबरल-सेक्युलर” के रूप में ही पहचाने जाते हैं। यूँ उनके लेख की इसलिए भी आलोचना हुई कि उन्होंने उदारवादी राजनीति की असफलता सारा ज़िम्मा “अंग्रेज़ी” बोलने वाले बुद्धिजीवियों पर डाल दिया, मानो हिंदी भाषी उदारवादी बुद्दिजीवियों का कोई उत्तरदायित्व ही न हो।

फिर भी, मैं प्रोफेसर यादव की इस बात पर विचार करना चाहता हूँ कि (अंग्रेज़ी हो या हिंदी) भारत का बुद्धिजीवी वर्ग अर्थात उदारवादी तबका, आम जनता से संवाद की कोई उपयुक्त भाषा विकसित नहीं कर पाया। मेरा मानना है कि प्रोफेसर यादव अपनी जगह सही हैं। राम मंदिर आंदोलन के दौरान उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष तबके की ओर से जितने भी तर्क दिए गए वे देश की बहुसंख्य जनता का मानस बदलने में असफल रहे। प्रोफेसर यादव की दूसरी बात भी सही है कि उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष तबके ने अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया।

शाहबानो प्रकरण इस मामले में सबसे बड़ा उदाहरण है। एक महिला के कानूनी हक़ के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय के उग्र आंदोलन से डरकर तब की सरकार ने घुटने टेक दिए। इसमें कोई शक नहीं कि यह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का एक निंदनीय कार्य था जिसने हिन्दू जनमानस में व्यापक असंतोष को जन्म दिया। एक सन्देश गया कि जहाँ एक ओर हिन्दू समाज से जुड़े मसलों पर अनेक आधुनिक क़ानून बना दिए गए, वहीं मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक होकर भी इस देश में अपने धर्म के अनुसार क़ानून बदलवाने में सक्षम है। इसका नतीजा हिंदुत्ववादी राजनीति के जिस उभार में सामने आया वह सबके सामने है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज तक बुद्धिजीवियों में शाहबानो प्रकरण की खुलेआम आलोचना नहीं की जाती। अकादमिक बहसों और अपवादों को छोड़ दें, तो बुद्धिजीवी वर्ग साप्रदायिकता की आलोचना के संदर्भ में बौद्धिक बेईमानी की हद तक अल्पसंख्यकों का पक्षपाती रहा है। यह बात केवल एक शाहबानो प्रकरण तक सीमित नहीं है। यही वह वर्ग है जिसका प्रभुत्व लम्बे समय तक देश के विश्विद्यालयों, जनसंचार माध्यमों, अख़बारों, फ़िल्मों और साहित्य की दुनिया पर रहा है। इन सभी क्षेत्रों में यह देखा गया है कि साम्प्रदायिकता की आलोचना हो या कुरीतियों की बात, सबकुछ प्रायः एकतरफा रहा है। यदि अल्पसंख्यकों के खिलाफ कभी कुछ कहा भी गया तो वह रस्मी ही था।

हिंदी फ़िल्म जगत में समानांतर सिनेमा (पैरलल सिनेमा) के आंदोलन को याद कीजिए। श्याम, बेनेगल, गोविन्द निहलानी, सईद मिर्ज़ा आदि फ़िल्मकारों की अधिकांश फ़िल्में ऐसी हैं जो सरकारी फंडिंग से बनीं। फिर भी (या कि इसीलिए) इनमें, देखा जाता है कि जहाँ एक पंडित या तो शोषक है या हँसी का पात्र, वहीं एक मौलवी के कठमुल्लेपन की निशानी भी मुश्किल से ही दिखाई देती है। समानांतर सिनेमा को छोड़ भी दें, तो लम्बे समय तक मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा में भी स्टीरियोटाइप बनाने की यह बीमारी साफ़ दिखाई देती है। उनमें हिंदी का प्रोफेसर प्रायः हँसी का पात्र है, लेकिन अंग्रेज़ी या उर्दू का प्रोफेसर एक रोमांटिक शख्स आज तक मुख्यधारा की किसी भी फिल्म में शुद्ध हिंदी (चाहें तो संस्कृतनिष्ठ हिंदी कह लें) बोलने वाला कोई भी पात्र गंभीर नहीं पाया गया है। वहीं ख़ालिस उर्दू बोलने वाले पात्रों को अभिजात्य एवँ ज्ञानी दिखाया गया है। क्या यह भाषायी पक्षपात नहीं है? इसके अलावा भी, एक ठाकुर (क्षत्रिय) को हमेशा अत्याचारी, रास्ते से औरतों को उठा लेने वाला चित्रित किया गया, वहीं मुसलामानों को ईमान का पक्का, अपने वचन पर मर मिटने वाला दिखाया गया। एक लम्बे समय तक हिंदी फ़िल्मों में यदि कोई मुसलमान मर जाए तो वह कलमा पढ़े बिना नहीं मरता था, और उसके मरते वक्त पार्श्व में अज़ान की आवाज आना एक नियम सा बन गया था। (यह भी सही है कि सितबर २०११ के बाद से मुसलामानों का चित्रण प्रायः आतंकवादियों के रूप में होने लगा, लेकिन वह बाद की बात है। यह लेख अयोध्या आंदोलन और उसके पहले के समय के बारे में है। ) ईसाई लोगों को अनाथों का पालनहार बताया गया, तो पारसियों की हँसी उड़ाई गयी। सिखों की हँसोड़ छवि बनाई गई जो कि अब स्थायी रूप ले चुकी है। इंदिरा गांधी के समय की फिल्मों को याद कीजिए, बनिया जाति के लोगों को खासतौर से निशाना बनाकर उन्हें मिलावटी, सूदखोर बताकर पूरी जाति को बदनाम किया गया। भारत की अति नियंत्रित और बंद आर्थिक नीतियों के कारण बाज़ार की जो हालत हुई, उसका सारा दोष एक जाति विशेष पर मढ़ दिया गया।

हिंदी साहित्य में संस्कृति की गहरी समझ की एक महान परम्परा रही है। प्रेमचंद से लेकर राही मासूम राजा, भीष्म साहनी या धर्मवीर भारती जैसे साहित्यकारों ने हर प्रकार की साम्प्रदायिकता को अपने लेखन में चिह्नित किया है। लेकिन उनके बाद का हिंदी साहित्य या तो इन सब बातों को भुला बैठा, या अपनी पोषक सत्ता (कांग्रेस) के चुनावी समीकरणों में मुसलामानों के गणित को ध्यान में रखते हुए प्रायः एकतरफा रहा।

ज़ाहिर है कि अपनी राजनीति के प्रसार के लिए इंदिरा गांधी के समय से कांग्रेस वामपंथी बुद्धिजीवियों पर निर्भर हो गयी थी। सत्ता से प्राप्त होने वाले लाभों के बदले इस बुद्धिजीवी वर्ग ने ऐसा सांस्कृतिक-साहित्यिक परिदृश्य खड़ा किया जिसमें बहुसंख्य समुदाय अर्थात हिन्दू धर्म से जुड़े सारे प्रतीकों को हीन समझा गया, इतना कि आमतौर पर उपयोगी योग और आयुर्वेद की भी आलोचना और उपहास एक आम बात हो गई।

यह सभी उदाहरण यह इशारा करते हैं, कि ऐसा नहीं है कि देश के बहुसंख्य वर्ग से संवाद के लिए इस देश में भाषा कभी थी ही नहीं। आखिर महात्मा गांधी के पास वह भाषा थी, जवाहरलाल नेहरू के पास भी वह भाषा थी। लेकिन बाद के वर्षों में वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवियों ने अपने कर्मों से उस भाषा और संवाद की स्थिति को स्वयं नष्ट-विनष्ट कर दिया।

किसी भी वर्ग से संवाद करना हो तो भाषा के पहले मंशा की आवश्यकता होती है। आज जब उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष राजनीति लगभग मृतप्राय है, तब ऐसी भाषा की ज़रूरत महसूस किए जाने पर प्रश्न उठता है कि ऐसा चाहने वालों की मंशा क्या है? क्या उनकी नीयत साफ़ है? क्योंकि न केवल अयोध्या आंदोलन के समय या उसके पहले बल्कि उस वर्ग का हालिया आचरण भी आश्वस्ति जगाने वाला नहीं है।

पाँच अगस्त के कार्यक्रम को ही लें, तो जब सब कुछ न्यायालय के द्वारा अंतिम फ़ैसला दिए जाने के बाद हो रहा है, तब इस वर्ग ने उस दिन मातम क्यों मनाया? मुसलामानों का दुखी होना समझ आता है। लेकिन सालों से उदारवादी बुद्धिजीवी वर्ग ही देश को यह समझाइश नहीं दे रहा था कि न्यायालय के फ़ैसले का सम्मान होना चाहिए? शायद देश की बहुसंख्य जनता से संवाद क़ायम करने के लिए ही मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने उस दिन धार्मिक अनुष्ठान किया या छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य में कौशल्या का भव्य मंदिर बनाने की बात की। इन बातों का बुद्धिजीवियों ने घनघोर विरोध किया। इसे कांग्रेस के असली चेहरा उजागर होने से लेकर सेक्युलरवादी राजनीति के अंत की बात की गयी। लेकिन यही वर्ग क्या इसे एक सकारात्मक दृष्टी से नहीं देख सकता था? क्या यह नहीं सोचा जा सकता कि जब न्यायाल के आदेशानुसार मंदिर बन ही रहा है, तो एक धार्मिक कार्य में देश की हिन्दू जनता के साथ शरीक न होने से क्या अयोध्या में विवादित ढाँचा फिर से खड़ा होकर मस्जिद के रूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा? आखिर यदि दक्षिणपंथी ताकतों को सत्ता से बाहर करना है तो क्या वह बहुसंख्य हिन्दू जनता के सहयोग के बगैर सम्भव है? और जिस जनता की दृष्टी में जो दिन धार्मिक महत्त्व का है, उस दिन मातम मचाने के बाद भी आप उससे संवाद कायम कर पाएंगे?

संवाद कायम करने के लिए निस्संदेह उपयुक्त भाषा की आवश्यकता है। लेकिन उसके पहले क्या कम से कम स्वयं को अधिक पढ़ा-लिखा और समझदार मानने वाले वर्ग से ही यह अपेक्षा नहीं की जाएगी कि वह लचीला रुख अपनाए? एक और उदाहरण लेते हैं। सन २०१४ में भाजपा की सरकार के आने के बाद से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” को ज़ोर शोर से मनाया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि योग सभी बीमारियों का इलाज नहीं है, लेकिन क्या इसमें कोई शक है कि योग स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है? एक नितांत समान्य कार्यक्रम के दिन देखा गया है कि तमाम लोग इस दिन योग दिवस का मज़ाक उड़ाया करते हैं। ये वही लोग हैं जो बकरीद के दिन लोगों को समझाइश देते हैं कि आज के दिन चूँकि त्यौहार है, इसलिए पशुबलि या शाकाहर की बातें न की जाएँ। लेकिन फिर यही लोग दीवाली के समय पर्यावरण के प्रेमी और होली से समय जल संरक्षण के महादूत बन जाते हैं? जब उनमें इस प्रकार का लचीलापन मौजूद है, तो उनसे दूसरे प्रकार के लचीलेपन की अपेक्षा क्यों न की जाए?

भाषा को ही लीजिए। इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी वर्ग के मानने वालों की भाषा प्रायः गाली-गलौज से भरी होती है, उन्होंने “लिब्रान्डु”, “शेखुलर”, “खान्ग्रेसी” आदि अपमानजनक शब्दों को गढ़ा है। लेकिन क्या यह भी सही नहीं कि दूसरे वर्ग ने “भक्त” शब्द को भी गाली बना दिया है? “चड्डी”, “भक्तान्डु” आदि शब्द हों या (घोर विडंबना) कि आरएसएस के लोगों को कथित रूप समलैंगिक होने को लेकर मज़ाक उड़ाने की बात हो, ये सभी आचरण किस प्रकार “उदारवाद ” की श्रेणी में आते हैं?

दक्षिणपंथी राजनीति समाज को बाँटती है। लेकिन क्या उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष राजनीति की भाषा ऐसी है जो समाज को जोड़े? ज़ाहिर है कि इस बुरी तरह विभाजित हो चुके समाज को फिर से जोड़ने के लिए एक पहल की आवश्यकता है। यह पहल मेरी नज़र में उन्ही के द्वारा की जा सकती है जो स्वयं को उदारवादी समझते हैं। यह भी आवश्यक है कि ऐसी कोई भी पहल सिर्फ़ चुनावी राजनीति के उद्देश्यों के लिए नहीं बल्कि समाज के विभिन वर्गों को क़रीब लाने के सच्चे उद्देश्य से की जाए। ऐसी किसी भी पहल के लिए ईमानदार नीयत का होना पहली शर्त है।

नीयत में ईमानदारी हो तो इस उदारवादी वर्ग दक्षिणपंथी राजनीति के प्रतिनिधियों की आलोचना में पूरा समय खपाने से बचते हए अधिक समय उस राजनीति की कटटर समर्थक बन चुकी जनता से संवाद में लगाया जाए। केवल विरोध के लिए विरोध करना बंद किया जाए। सरकार की हर बुरी बात का विरोध हो, लेकिन अच्छी पहल का समर्थन भी हो। साम्प्रदायिकता और कुरीतियों की आलोचना एकतरफ़ा न हो। हिन्दू धर्म और हिंदुत्ववादी राजनीती के फ़र्क को सामने लाने के लिए आवश्यक है कि शुरुआत हिन्दू धर्म की अच्छाइयों को रेखांकित करने से शुरू हो और फिर यह समझाया जाए कि किस प्रकार दक्षिणपंथ नेहिन्दू धर्म की ग़लत व्याख्या की है।

इन सबसे बढ़कर, चाहे-अनचाहे चूँकि सोशल मीडिया इन दिनों आपसी संवाद का एक बड़ा माध्यम है , इसलिए उस पर कुछ भी लिखने से पहले उदारवादी-धर्मनिर्पक्ष वर्ग के लोग यह ध्यान दें कि जो भी वे लिख रहे हैं, उससे समाज में दूरियाँ बढ़ेंगी या कम होंगी? आखिरकार, “सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम” कहा ही गया है। वैसे अप्रिय सत्य अवश्य कहा जाए, लेकिन उसे कहने का तरीका ऐसा हो कि किसी प्रकार की भाषिक हिंसा न होने पाए। ऐसा करना ही जनता से संवाद हेतु उपयुक्त भाषा के विकास की प्रक्रिया होगी। संवाद दूर से नहीं निकटता से होता है। दूर से सिर्फ़ शोर मचाया जा सकता है।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

गलवान घाटी में चीन का पीछे हटना

चीन गलवान में एक से 1.5 किमी पीछे हटा है।
यह हेडलाइन में नहीं बताया गया कि दोनों पक्ष पीछे हटने के लिए राजी हुए हैं। यानी कि भारत भी।
चीन गलवान में तो पीछे हटा है लेकिन पैंगोंग त्सो में नहीं।
इसलिए यह ख़बर थोड़ी राहत देने वाली है, लेकिन अभी इसे विवाद का समाधान नहीं माना जा सकता।

सरकार प्रेमी मीडिया इसे किसी जेम्स बॉन्ड के एक फोन कॉल का नतीजा बता रहा है जो कि हास्यास्पद ही है। हालाँकि इतना अवश्य सही है कि भारत सरकार ने जो कड़े संदेश दिए उनसे चीन पर असर पड़ा है। मीडिया की परीकथाओं से परे यह सत्य है कि भारत सरकार ने कूटनीतिक मोर्चे पर सही काम किया। चीन ने भी पाया कि यदि वह और रुकता या कोई नया मोर्चा खोलता तो उसके विश्व समुदाय में घिरने की प्रक्रिया और तेज़ हो जाती।

फिर भी, जब तक सेना की ओर से यह पता नहीं चलता कि पूरी वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर अप्रैल 2020 के पूर्व की स्थिति क़ायम हुई है, तब तक इस मौजूदा सीमा विवाद का समाधान हुआ है ऐसा मानना मुश्किल है। अखबारों में सेना के सूत्रों के हवाले से भी यही कहा गया है कि फ़िलहाल सेना चौकस है और किसी अंतिम नतीजे पर नहीं पहुँची है।

चीन के पीछे हटने से यह साबित होता है कि प्रधानमंत्री का यह कहना कि भारत की सीमा में कोई नहीं घुसा वह झूठ था। प्रधानमंत्री को या सरकार को इस बात का जवाब देना चाहिए कि जब कोई हमारी ओर आया ही नहीं तो अब देसी जेम्स बॉन्ड के फोन कॉल से डरकर वापस कौन जा रहा है?

कांग्रेस ने इस विषय पर प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगा है जो कि सही रणनीति नहीं है। कांग्रेस जानती है कि पूरे देश में राजनीतिक तौर पर देश का जनमानस क्या है। ऐसे में इस गंभीर सवाल को आपने इस्तीफ़े से जोड़ दिया जिससे कि हेडलाइन कैसे बनी? पहली हेडलाइन यह कि चीन पीछे हटा, दूसरी यह कि कांग्रेस ने प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगा। अब बुद्धि के जिस औसत पर आजकल लोग समाचार पढ़ते हैं, वो इन दो हेडलाइन्स को जोड़ेंगे तो क्या निष्कर्ष निकालेंगे? लेकिन इनके बदले कांग्रेस एक दिन गुजरने देती और उसके बाद अपने बयान में केवल यह सवाल पूछती कि प्रधानमंत्री ने पहले जो कहा था क्या वह झूठ था, तो बात कुछ और होती। कांग्रेस को चाहिए कि प्रतिरक्षा के मसलों पर वह अन्य विपक्ष के साथ तालमेल मिलाते हुए अपनी मीडिया नीति को बेहतर बनाए। ऐसा संदेश न भेजे जो भाजपा के हितों की ही पूर्ति करता है।

हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

चीन का विश्व में घिरना

चीन घिर रहा है। भारत सरकार के प्रयासों से नहीं, बल्कि अपनी ही हरकतों की वजह से। यह जानने के लिए आपको फ़ॉक्स न्यूज़ या इंडिया टीवी देखने की आवश्यकता नहीं। चीनी सरकार का अपना अख़बार ग्लोबल टाइम्स पढ़ लीजिए।

इस अख़बार में बाक़ायदा कॉलम बने हैं, जिनमें चीन के साथ हाइफ़न में या तो भारत है, या योरोप, या अमेरिका या जापान या ऑस्ट्रेलिया। और खबरें या लेख सारे इन देशों और क्षेत्रों को ताने मारते हुए हैं। ग्लोबल टाइम्स के सम्पादकीय पढ़कर समझ आता है कि यदि एक ही पार्टी का शासन रहा तो किसी देश की बौद्धिक क्षमता की क्या दुर्गति होती है।

ख़ैर, योरोपियन यूनियन चीन के साथ ट्रेड वॉर में लगा है। अमेरिका चीन का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी है। उसने हुआवे और ZTE को 5G उपकरणों की खरीद से बाहर कर दिया है। ऑस्ट्रेलिया और जापान भी आए दिन चीन को लेकर या तो बयान दे रहे हैं या प्रतिरक्षा की योजनाएँ बना रहे हैं।

इन सबकी वजह से अब एशिया में चीन का दोस्त कौन है? नार्थ कोरिया, पाकिस्तान, नेपाल और एक हद तक मालदीव। बाकी छोटे देश जो चीन के साथ हैं भी वो इसलिए हैं क्योंकि वो चीन के कर्ज़ तले दबने की वजह से वे अपनी विदेश नीति की स्वतंत्रता खो चुके हैं।

भारत सरकार चाहे चीन के इस घिरने पर अपनी पीठ ठोंक ले, सत्य यही है कि दशकों से चली आ रही चीन की गैर ज़िम्मेदार हरकतें ही उसके विश्व समुदाय में घिरने का कारण हैं।

चीन की यह स्थिति और बुरी होती यदि 2015 में भारत के जेम्स बॉन्ड ने नेपाल की आर्थिक घेराबंदी न करवाई होती। साथ ही यदि भारत ने उन्मादी घरेलू राजनीति को विदेश नीति से न जोड़ा होता, और पाकिस्तान को किसी तरह एंगेज किया होता तो वह भी पूरी तरह चीन के पाले में न होता। यही बात बांग्लादेश पर लागू होती है जो भारत की उन्मादी हिंदूवादी नीति की वजह से चाहकर भी खुलकर भारत का समर्थन नहीं कर सकता।

भारत के कलियुगी अवतार ने भी चीन को पहचानने में भूल की। अठारह बार झूला झूलने के बाद भी फ़ायदा कुछ नहीं हुआ। साबरमती में जो साफ़ पानी छोड़ा गया था ताकि आप श्री के मित्र को असुविधा न हो, वह अब न जाने किस समंदर का हिस्सा है।

चीन विरुद्ध दुनिया का यह खेल लंबा चलेगा। शायद अगले कुछ वर्ष और। उम्मीद यही की जाए कि कूटनीति अपना काम करे और युद्ध की संभावनाओं को टाला जाए।

हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

भारत-चीन तनाव पर

चीन के विषय में

  1. चीन से मुकाबला आवश्यक है। उसकी विस्तारवादी नीतियों को वैश्विक तौर पर नकारा जाना चाहिए।
  2. श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और अफ्रीका में चीन ने वहाँ की सरकारों को सस्ते उधार देकर फांस रखा है। पाकिस्तान का तो जो है सो हइये है।
  3. इस प्रकार चीन ने भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान को काफ़ी हद तक घेरे रखा है।
  4. हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर में भी चीन व्यापार के इस रास्ते पर कब्ज़ा करने की मंशा रखता है।
  5. जिन देशों से चीन की कोई लड़ाई नहीं, उन्हें वह सस्ते ऋण या मुफ्त के उपकरण, सड़कें, पुल, रेल्वे आदि देकर रणनीतिक रूप से अपना गुलाम बना लेता है। नेपाल इसका एक उदाहरण है। बांग्लादेश में वह ऐसा इसलिए नहीं कर पाया है क्योंकि एक तो बांग्लादेश अर्थव्यवस्था के लिए पश्चिम पर अधिक निर्भर है, दूसरा लगभग पूरी तरह से भारत से घिरा होने का कारण वह चीन के पाले में नहीं जा सकता।
  6. जिन देशों से चीन की लड़ाई अथवा प्रतिद्वंदिता है, उनसे वह कभी खुशी, कभी ग़म के रिश्ते रखता है। यानी आर्थिक रिश्ते बनाए रखो, लेकिन राजनैतिक रिश्तों पर तनाव बनाओ। उदाहरण के लिए दुनिया भर को ताईवान या तिब्बत के नाम पर धमकाना। दलाई लामा के हर छोटे बड़े कार्यक्रम पर दुनिया भर में रूठे हुए फूफा की तरह नज़र रखना।
  7. चीन का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी अमेरिका है। उसके बाद जापान। भारत का नम्बर तीसरा है। चौथे पर आस्ट्रेलिया, पाँचवे पर सिंगापुर और इनके अतिरिक्त एक धूप-छाँव के रिश्ते की तरह रूस भी।
  8. चीन कम्युनिस्ट देश नहीं है। वह एक साम्राज्यवादी ताकत है जिस पर एक पार्टी विशेष का कब्ज़ा है। इसलिए भारत में उसके बारे में रूमानी ख़्याल रखने वालों को इस मूर्खता का तत्काल त्याग कर देना चाहिए।
  9. चीन की बढ़ती ताकत का कमज़ोर होना भारत के अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है। यदि चीन विश्व का निर्बाध सिरमौर बन गया तो उस त्रासदी का शिकार सबसे पहले भारत होगा।

भारत के पास कौन से विकल्प हैं:

  1. भारत को चीन से लड़ने के तरीके चीन से सीखने चाहिए। बातों में थोड़ी चाशनी घोलो, चाशनी में थोड़ी लौंग और काली मिर्च घोलो। यानी, कभी खुशी, कभी गम का रिश्ता अपनी ओर से भी रखो।
  2. आर्थिक बहिष्कार काफ़ी आउटडेटेड नीति है। इसके बजाय बिना ऐसी कोई घोषणा किए, चालाकी से सभी महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स से चीनी कंपनियों और सामानों को कम करो।
  3. दलाई लामा से प्रधानमंत्री खुद मुलाकात करें। इस मुलाकात को धार्मिक मुलाकात कह दिया जाए। तिब्बत की निर्वासित सरकार को मीडिया में अधिक जगह दी जाए। अगले दलाई लामा या किन्हीं भी धर्मप्रमुख का चुनाव करने में चीन की कोई भूमिका न रहने दी जाए।
  4. ताईवान को मान्यता न दी जाए, लेकिन उतनी संभावना के बने रहने का खतरा चीन को दिखाया जाए। ताईवान की यात्रा पर भारत के वाणिज्य मंत्री को भेजा जाए।
  5. ऊर्जा (बिजली, तेल), संचार (5G आदि) के उपकरणों और तकनीकी के लिए जापान सहित अन्य देशों पर निर्भरता बढ़ाई जाए।
  6. नेपाल और मालदीव कभी भारत के इशारों पर चलने वाले देश हुआ करते थे। इनसे बिगड़ चुके रिश्तों को सुधारा जाए। इनके बिगड़ने में जेम्स बॉन्ड के भारतीय अवतार का भरा-पूरा योगदान है।
  7. श्रीलंका और बांग्लादेश हाथ से न फिसलें इसके उपाय किए जाएँ।
  8. बांग्लादेश हाथ से फिसलेगा यदि भारत में मुस्लिम विरोधी ज़हर के फैलाव को न रोका गया। सीएए और एनआरसी को भुला दिया जाए। इससे मुस्लिम दुनिया में भारत की बिगड़ती स्थिति तो सुधरेगी ही, देश भी शांत रहेगा।
  9. आर्थिक वृद्धि की जो दर 2014 से पहले हुआ करती थी उसे फिर से हासिल किया जाए। इसके लिए भारत को बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश की आवश्यकता होगी। अतः राग आत्मनिर्भर या स्वदेशी का आलाप स्थगित किया जाए।
  10. सैन्य ताकत को पूर्व दिशा में और अधिक मज़बूत किया जाए। लेकिन किसी भी किस्म के चुनावी फ़ायदा पहुँचाने वाले तमाशे से बचा जाए।
  11. हिन्द महासागर में नौसेना की शक्ति को जल्द से जल्द बढ़ाया जाए।
  12. चीन के इशारे पर पाकिस्तान कोई ऊलजलूल हरकत न करे, इस हेतु उसे “एंगेज” किया जाए। यानी बातचीत शुरू हो, भले ही कोई नतीजा न निकले।

आज के युग में युद्ध कोई भी देश नहीं जीत सकता। इसलिए युद्धोन्माद से कुछ हासिल नहीं होगा। आर्थिक प्रगति, पड़ोसियों से रिश्ते और दुनिया के महत्वपूर्ण देशों से सामरिक गठबंधन यही उपाय हैं।

हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General), सामयिक (Current Issues)

प्यारे विश्व, एक ब्रेक लो प्लीज़!

बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि पूरा विश्व भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद ने भी यही कहा था। यानी करीब 130 सालों से तो यह चल ही रहा है, हर नेता, बाबा, लेखक और विचारक कहता आया है तो बात सत्य ही होगी। इसलिए मुझे विश्व की चिंता हो रही है। विश्व इसी तरह एकटक देखता रहा तो उसकी आँखें पथरा जाएंगी। विश्व कहीं अंधा हो गया तो भारत की ओर कौन देखेगा फिर?


विश्व को एक ब्रेक की ज़रूरत है। और हमको विश्व के ताकने की चिंता छोड़ अपना काम करने की।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

नारों पर आपत्ति के संदर्भ में

मुसलमान आंदोलन के दौरान केवल “ला इलाह…” कहे तो इसमें आपत्ति क्या है? एक क़ानून बना है जो उनके धर्म को निशाना बनाकर लिखा गया है। भेदभाव का आधार धार्मिक है। तो फिर आंदोलन में धार्मिक नारे लग गए तो बुराई क्या है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे नारे लगाकर मुसलमान सार्वजनिक स्थानों पर अपनी पहचान को assert कर रहे हैं (हिंदी में कहने की कोशिश करूँ तो अपनी पहचान को बिना किसी संकोच के, पूरे ज़ोर से ज़ाहिर कर रहे हैं).

पहचानों का यह assertion जब दलितों द्वारा किया जाता है तो इतना बवाल नहीं मचता। हिन्दूओं द्वारा किया जाता है तो वह राष्ट्रवाद है। फिर यह देश तो उतना ही मुसलमानों का भी है, उनके नारों पर आपत्ति का अर्थ क्या माना जाए?

रहा सवाल “जय श्री राम” का, तो यदि वह नारा किसी और से जबर्दस्ती न लगवाया जाए और किसी अन्य मत के लोगों के ख़िलाफ़ न लगाया जाए, तो उस पर भी कोई आपत्ति नहीं है, नहीं होनी चाहिए।

यह देखा गया है कि मुस्लिम पहचान के तमाम प्रतीकों की एक नकारात्मक छवि पूरी दुनिया में बनाई गई है (हाँ, इसमें बड़ा योगदान इस्लाम के नाम पर हिंसा करने वालों का भी है), लेकिन वह सही छवि नहीं है। मुस्लिम पहचान के प्रतीक – दाढ़ी, बुर्का, हिजाब, या अल्लाहो-अकबर के नारे यदि विभाजक हैं तो सिखों की पगड़ी तथा कतिपय हिंदुओं के चंदन लपेटने या भगवा धारण करने को क्या कहा जाए?

धार्मिक सौहार्द एक-दूसरे को स्वीकार करने से आता है न कि किसी एक को उसके स्वत्व में बदलाव करने के लिए मजबूर करने से।

यह माना कि मौजूदा आन्दोलन लोकतंत्र एवँ संविधान की रक्षा हेतु है। किंतु रक्षा किससे? उन ताकतों से जो लोकतंत्र और संविधान के क्षरण के लिए केवल और केवल एक समुदाय को निशाना बना रही हैं। ऐसे में निशाना बनाया गया समुदाय अपनी पहचान को सड़कों पर ज़ाहिर करने में भला संकोच क्यों करे?

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विविध (General), सामयिक (Current Issues)

त्वरित न्याय

नहीं। यह खून के प्यासे लोगों का देश और समाज नहीं है। दरअसल यह मूर्खों और अकर्मण्यों का समाज और देश बन गया है।

जस्टिस वर्मा की रिपोर्ट थी निर्भया प्रकरण के बाद। उसके कितने सुझावों को लागू किया है? पुलिस का आधुनिकीकरण नहीं किया। अदालतों की सुस्त चाल और व्यवस्था को ठीक नहीं किया। समाज और मर्दों की सोच बदलने का कोई सरकारी या गैरसरकारी अभियान नहीं चला। जाति और दलगत राजनीति के आधार पर हर बलात्कार के केस पर लोगों की राय सुविधानुसार रही। कुलमिलाकर घण्टा कुछ न बदल पाए और न ही सुधार पाए।

इसलिए अब जब ऐसे त्वरित न्याय की बात आ रही है तो साधो यह मूर्खों का देश ताली पीट रहा है। यह न समझते हुए कि ऐसे त्वरित न्याय की खामियों का शिकार जब वह खुद होगा तब उसके लिए न कोई ताली पीटने वाला होगा और न कोई छाती कूटने वाला।

समाज को शिक्षित करते यह घटना न होती, पुलिस को शिक्षित करते तफ़्तीश में देरी न होती, पुलिस को आधुनिक बनाते जाँच जल्दी और सटीक होती। अदालतों की हालत और व्यवस्था सुधारते न्याय तुरन्त मिलता। यह सब करना कठिन है? आज उनको गोली मार दो कल खुद गोली झेल लेना।

-हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General), समाज, सामयिक (Current Issues)

आप मर तो चुके ही थे अब शायद जॉम्बी बन जाएंगे

यहाँ ही नहीं पूरी दुनिया में शिक्षा के निजीकरण का अभियान सा चल रहा है। विश्व व्यापार संगठन यानी WTO चाहता है कि सभी देश शिक्षा के “बाज़ार” में खुलापन लाएँ।

दरअसल वे आपके खून की हरेक बूंद चूस लेना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे चाहते हैं कि जब आपका खून चूसा जाए तब आप खुशी-खुशी उन्हें ऐसा करने दें। इसलिए आपको कभी धर्म की नफरत में तो कभी आर्थिक उदारीकरण के नाम और पूंजीवादी नशे की आग में झोंक दिया जाता है। आप खुद के ही साथ हो रही नाइंसाफ़ी पहचान नहीं पाते हैं।

दूसरे का दर्द आपको दूसरे का लगता है। आपके अपने दर्द का आपको अहसास नहीं होता। कुलमिलाकर आप इंसान नहीं बल्कि मशीनों में बदल दिए जा रहे हैं। अफ़सोस कि आप इससे आहत भी नहीं हैं। आपको जो यह बतलाने की कोशिश करे वह आपको ग़लत से लेकर देश के दुश्मन तक सब कुछ नजऱ आता है।

मुफ्त शिक्षा और मुफ्त इलाज, यदि एक सभ्य समाज की यह निशानियाँ न हों तो वह समाज सभ्य ही कहलाने के योग्य नहीं है।

लेकिन आपको बहाने चाहिए। ताकि गलत होने पर भी किसी तरह आप खुद को दिलासा देते रहें। एक मूर्ति के साथ की गई ग़लत छेड़छाड़ को आप तराजू के एक पलड़े पर रखते हैं। उससे दूसरे पलड़े पर आप पूरी एक पीढ़ी के हक और भविष्य को रखते हैं। आपको मूर्ति का पलड़ा भारी लगता है। मूर्ति, रोबोट और आपमें अब कोई फर्क नहीं बचा है। आप मर तो चुके ही थे अब शायद जॉम्बी बन जाएंगे।

#IstandwithJNU #JNUProtests

– हितेन्द्र अनंत

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