पाँच अगस्त २०२० का दिन मेरे लिए यूँ उसी तरह बीता जैसा हर दिन पिछले कुछ महीनों से बीत रहा है। लेकिन उस दिन चूँकि अयोध्या में रामलला के मंदिर का भूमिपूजन था, तो यह सोचने विचरने का दिन तो था ही।
मेरी निजी स्थिति इस विषय पर ऐसी थी कि मैं उस दिन न तो खुश था न ही दुखी। मेरे लिए यह एक ऐसे विवाद का पटाक्षेप था जिसके चलते देश में हिंसा हुई और अनेक जानें गईं। कुछ समस्याएँ इतना विकराल रूप धारण कर लेती हैं कि उनका समाधान हो जाना, समाधान किस प्रकार का है उससे अधिक महत्वपूर्ण होता है। वैसे भी अनेक वर्षों से लगभग यह आम सहमति थी की न्यायालय से जो फ़ैसला आए उसे सभी स्वीकार करें। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि विभिन्न कारणों से अनेक लोगों के लिए इस मामले का अंत दुखद है, और अनेक लोगों के लिए सुखद, इसलिए मैंने निजी तौर पर उस दिन चुप रहना बेहतर समझा।
लेकिन उस दिन मुझे अनेक मित्रों और रिश्तेदारों ने फोन किया। फोन उठाते ही वे बड़े जोश में मुझे “जय श्री राम!” के नारे से सम्बोधित कर रहे थे। उनकी आवाज़ में एक ख़ास किस्म का उत्साह था। मेरे सभी मित्र व रिश्तेदार यह जानते हैं कि मैं आस्थावान नहीं हूँ और दक्षिणपंथी राजनीति के उलट ही विचार रखता हूँ। इसलिए मैंने ग़ौर किया कि क्या वे मुझे चिढ़ाना चाह रहे थे? मैंने पाया कि ऐसा नहीं था। समाज का एक बड़ा वर्ग उस दिन वाकई खुश था। लोगों ने दिए जलाए, कुछ ने मिठाइयाँ बाँटीं तो कुछ ने किसी और प्रकार से खुशियाँ मनाईं। इनमें से कुछ खुराफ़ातियों को छोड़ दिया जाए तो प्रायः उनकी खुशी उनके आराध्य देव के मंदिर बनने को लेकर ही थी।
लेकिन समाज का एक ऐसा तबका भी है जो उस दिन खुश नहीं था। मुस्लिम समाज विवादित ढाँचे को मस्जिद मानता था। न्यायालय के फ़ैसले से उसकी अप्रसन्नता स्वाभाविक है। लेकिन यह मार्के की बात है कि मुस्लिम समाज ने भले ही न्यायालय के फैसले या भूमि पूजन को लेकर अप्रसन्नता जाहिर की हो, उन्होंने इसको लेकर कोई नया विवाद खड़ा नहीं किया। अपवादों को छोड़ दें तो मुस्लिम समाज ने काफ़ी वर्षों से इस विषय पर संयम बरता है, और यह विशेष रूप से सराहनीय है।
लेकिन एक और तबका है जिसने अलग-अलग तरह से पाँच अगस्त के दिन को लेकर प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं। इनमें उनकी गणना शामिल है जिन्हें मोटे तौर पर “उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष” या लिबरल-सेक्युलर कहा जाता है। इस तबके में आम लोगों से लेकर बड़े लेखक-चिंतक-कलाकार-बुद्धिजीवी आदि शामिल हैं। इनमें भी प्रतिक्रियाओं का एक मिश्रित रूप देखा गया। अनेक लोगों से इस दिन को “लोकतंत्र की मौत” का दिन घोषित किया। कुछ ने इसे उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष राजनीति का अंत घोषित किया। कुछ ने इसे हिंदुत्ववादी राजनीति की निर्णायक विजय कहा।
इन सबमें मार्क करने योग्य एक आवाज़ थी प्रोफेसर योगेंद्र यादव की। इनका कहना था कि “आज हमें मान लेना चाहिए कि सेक्युलरिज्म की हार हुई तो इसलिए कि इसके मुहाफिजों ने सेक्युलरिज्म के विचार को लोगों तक ले जाने में आनाकानी की. सेक्युलरिज्म परास्त हुआ क्योंकि सेक्युलर अभिजन सेक्युलरवाद के आलोचकों के आगे अंग्रेजी छांटते थे. सेक्युलरिज्म हार गया क्योंकि उसने कभी हमारी भाषा में बात ना की, उसने अपने को कभी परंपरा की भाषा से ना जोड़ा, उसने कभी ना सोचा कि धर्म की भाषा के भीतर पैठकर बोलने, सोचने और सीखने की जरूरत है.”
इसके साथ ही योगेंद्र यह भी कहते हैं: “सेक्युलरिज्म की हार की एक बड़ी वजह रही कि उसने हिन्दू-धर्म को मजाक का विषय बनाया, ये ना सोचा कि हमारे अपने वक्त की जरूरत के हिसाब से हिन्दू-धर्म की एक नई व्याख्या करने की जरूरत है. भारत में सेक्युलरिज्म हारा क्योंकि यह अपने को एक लचर किस्म के अल्पसंख्यकवाद की हिमायती होने के लकब से छुटकारा ना दिला पाया और अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता से बिल्कुल ही मुंह मोड़े रहा. सेक्युलर राजनीति ने अपनी साख गंवायी क्योंकि उसके लिए प्रतिबद्धता का सवाल पहले सुविधा के सवाल में बदला फिर सुविधा का सवाल एक साजिश में तब्दील हो गया, अल्पसंख्यक तबके के मतदाताओं को अपने पाले में बंधक बनाये रखने की साजिश में.”
भारत सहित अंतराष्ट्रीय मुद्दों पर राय रखने वाले लेखक पंकज मिश्रा का कहना है कि भारत में कभी सच्चे तौर पर उदारवादी राजनीती का अस्तित्व था ही नहीं, उन्हें लगता है कि जिसे सवर्ण, उच्चवर्गीय भारतीय “उदारवादी राजनीति” मानकर चल रहे थे वह दरअसल एक छलावा थी, और हिंदुत्ववादी राजनीति ने केवल इस छलावे के आवरण के हटा दिया है।
मैं प्रोफेसर योगेंद्र यादव के लेख पर वापस आता हूँ। उनके लेख पर पर्याप्त चर्चा हुई। लोगों ने यह प्रश्न किया है कि आखिर “यह लिबरल-सेक्युलर” तबका है कौन जिससे हर किसी को शिकायत है। उन लोगों यह भी ध्यान दिलाया कि शिकायत करने वाले ये सभी लोग भी आखिर “लिबरल-सेक्युलर” के रूप में ही पहचाने जाते हैं। यूँ उनके लेख की इसलिए भी आलोचना हुई कि उन्होंने उदारवादी राजनीति की असफलता सारा ज़िम्मा “अंग्रेज़ी” बोलने वाले बुद्धिजीवियों पर डाल दिया, मानो हिंदी भाषी उदारवादी बुद्दिजीवियों का कोई उत्तरदायित्व ही न हो।
फिर भी, मैं प्रोफेसर यादव की इस बात पर विचार करना चाहता हूँ कि (अंग्रेज़ी हो या हिंदी) भारत का बुद्धिजीवी वर्ग अर्थात उदारवादी तबका, आम जनता से संवाद की कोई उपयुक्त भाषा विकसित नहीं कर पाया। मेरा मानना है कि प्रोफेसर यादव अपनी जगह सही हैं। राम मंदिर आंदोलन के दौरान उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष तबके की ओर से जितने भी तर्क दिए गए वे देश की बहुसंख्य जनता का मानस बदलने में असफल रहे। प्रोफेसर यादव की दूसरी बात भी सही है कि उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष तबके ने अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया।
शाहबानो प्रकरण इस मामले में सबसे बड़ा उदाहरण है। एक महिला के कानूनी हक़ के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय के उग्र आंदोलन से डरकर तब की सरकार ने घुटने टेक दिए। इसमें कोई शक नहीं कि यह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का एक निंदनीय कार्य था जिसने हिन्दू जनमानस में व्यापक असंतोष को जन्म दिया। एक सन्देश गया कि जहाँ एक ओर हिन्दू समाज से जुड़े मसलों पर अनेक आधुनिक क़ानून बना दिए गए, वहीं मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक होकर भी इस देश में अपने धर्म के अनुसार क़ानून बदलवाने में सक्षम है। इसका नतीजा हिंदुत्ववादी राजनीति के जिस उभार में सामने आया वह सबके सामने है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज तक बुद्धिजीवियों में शाहबानो प्रकरण की खुलेआम आलोचना नहीं की जाती। अकादमिक बहसों और अपवादों को छोड़ दें, तो बुद्धिजीवी वर्ग साप्रदायिकता की आलोचना के संदर्भ में बौद्धिक बेईमानी की हद तक अल्पसंख्यकों का पक्षपाती रहा है। यह बात केवल एक शाहबानो प्रकरण तक सीमित नहीं है। यही वह वर्ग है जिसका प्रभुत्व लम्बे समय तक देश के विश्विद्यालयों, जनसंचार माध्यमों, अख़बारों, फ़िल्मों और साहित्य की दुनिया पर रहा है। इन सभी क्षेत्रों में यह देखा गया है कि साम्प्रदायिकता की आलोचना हो या कुरीतियों की बात, सबकुछ प्रायः एकतरफा रहा है। यदि अल्पसंख्यकों के खिलाफ कभी कुछ कहा भी गया तो वह रस्मी ही था।
हिंदी फ़िल्म जगत में समानांतर सिनेमा (पैरलल सिनेमा) के आंदोलन को याद कीजिए। श्याम, बेनेगल, गोविन्द निहलानी, सईद मिर्ज़ा आदि फ़िल्मकारों की अधिकांश फ़िल्में ऐसी हैं जो सरकारी फंडिंग से बनीं। फिर भी (या कि इसीलिए) इनमें, देखा जाता है कि जहाँ एक पंडित या तो शोषक है या हँसी का पात्र, वहीं एक मौलवी के कठमुल्लेपन की निशानी भी मुश्किल से ही दिखाई देती है। समानांतर सिनेमा को छोड़ भी दें, तो लम्बे समय तक मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा में भी स्टीरियोटाइप बनाने की यह बीमारी साफ़ दिखाई देती है। उनमें हिंदी का प्रोफेसर प्रायः हँसी का पात्र है, लेकिन अंग्रेज़ी या उर्दू का प्रोफेसर एक रोमांटिक शख्स आज तक मुख्यधारा की किसी भी फिल्म में शुद्ध हिंदी (चाहें तो संस्कृतनिष्ठ हिंदी कह लें) बोलने वाला कोई भी पात्र गंभीर नहीं पाया गया है। वहीं ख़ालिस उर्दू बोलने वाले पात्रों को अभिजात्य एवँ ज्ञानी दिखाया गया है। क्या यह भाषायी पक्षपात नहीं है? इसके अलावा भी, एक ठाकुर (क्षत्रिय) को हमेशा अत्याचारी, रास्ते से औरतों को उठा लेने वाला चित्रित किया गया, वहीं मुसलामानों को ईमान का पक्का, अपने वचन पर मर मिटने वाला दिखाया गया। एक लम्बे समय तक हिंदी फ़िल्मों में यदि कोई मुसलमान मर जाए तो वह कलमा पढ़े बिना नहीं मरता था, और उसके मरते वक्त पार्श्व में अज़ान की आवाज आना एक नियम सा बन गया था। (यह भी सही है कि सितबर २०११ के बाद से मुसलामानों का चित्रण प्रायः आतंकवादियों के रूप में होने लगा, लेकिन वह बाद की बात है। यह लेख अयोध्या आंदोलन और उसके पहले के समय के बारे में है। ) ईसाई लोगों को अनाथों का पालनहार बताया गया, तो पारसियों की हँसी उड़ाई गयी। सिखों की हँसोड़ छवि बनाई गई जो कि अब स्थायी रूप ले चुकी है। इंदिरा गांधी के समय की फिल्मों को याद कीजिए, बनिया जाति के लोगों को खासतौर से निशाना बनाकर उन्हें मिलावटी, सूदखोर बताकर पूरी जाति को बदनाम किया गया। भारत की अति नियंत्रित और बंद आर्थिक नीतियों के कारण बाज़ार की जो हालत हुई, उसका सारा दोष एक जाति विशेष पर मढ़ दिया गया।
हिंदी साहित्य में संस्कृति की गहरी समझ की एक महान परम्परा रही है। प्रेमचंद से लेकर राही मासूम राजा, भीष्म साहनी या धर्मवीर भारती जैसे साहित्यकारों ने हर प्रकार की साम्प्रदायिकता को अपने लेखन में चिह्नित किया है। लेकिन उनके बाद का हिंदी साहित्य या तो इन सब बातों को भुला बैठा, या अपनी पोषक सत्ता (कांग्रेस) के चुनावी समीकरणों में मुसलामानों के गणित को ध्यान में रखते हुए प्रायः एकतरफा रहा।
ज़ाहिर है कि अपनी राजनीति के प्रसार के लिए इंदिरा गांधी के समय से कांग्रेस वामपंथी बुद्धिजीवियों पर निर्भर हो गयी थी। सत्ता से प्राप्त होने वाले लाभों के बदले इस बुद्धिजीवी वर्ग ने ऐसा सांस्कृतिक-साहित्यिक परिदृश्य खड़ा किया जिसमें बहुसंख्य समुदाय अर्थात हिन्दू धर्म से जुड़े सारे प्रतीकों को हीन समझा गया, इतना कि आमतौर पर उपयोगी योग और आयुर्वेद की भी आलोचना और उपहास एक आम बात हो गई।
यह सभी उदाहरण यह इशारा करते हैं, कि ऐसा नहीं है कि देश के बहुसंख्य वर्ग से संवाद के लिए इस देश में भाषा कभी थी ही नहीं। आखिर महात्मा गांधी के पास वह भाषा थी, जवाहरलाल नेहरू के पास भी वह भाषा थी। लेकिन बाद के वर्षों में वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवियों ने अपने कर्मों से उस भाषा और संवाद की स्थिति को स्वयं नष्ट-विनष्ट कर दिया।
किसी भी वर्ग से संवाद करना हो तो भाषा के पहले मंशा की आवश्यकता होती है। आज जब उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष राजनीति लगभग मृतप्राय है, तब ऐसी भाषा की ज़रूरत महसूस किए जाने पर प्रश्न उठता है कि ऐसा चाहने वालों की मंशा क्या है? क्या उनकी नीयत साफ़ है? क्योंकि न केवल अयोध्या आंदोलन के समय या उसके पहले बल्कि उस वर्ग का हालिया आचरण भी आश्वस्ति जगाने वाला नहीं है।
पाँच अगस्त के कार्यक्रम को ही लें, तो जब सब कुछ न्यायालय के द्वारा अंतिम फ़ैसला दिए जाने के बाद हो रहा है, तब इस वर्ग ने उस दिन मातम क्यों मनाया? मुसलामानों का दुखी होना समझ आता है। लेकिन सालों से उदारवादी बुद्धिजीवी वर्ग ही देश को यह समझाइश नहीं दे रहा था कि न्यायालय के फ़ैसले का सम्मान होना चाहिए? शायद देश की बहुसंख्य जनता से संवाद क़ायम करने के लिए ही मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने उस दिन धार्मिक अनुष्ठान किया या छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य में कौशल्या का भव्य मंदिर बनाने की बात की। इन बातों का बुद्धिजीवियों ने घनघोर विरोध किया। इसे कांग्रेस के असली चेहरा उजागर होने से लेकर सेक्युलरवादी राजनीति के अंत की बात की गयी। लेकिन यही वर्ग क्या इसे एक सकारात्मक दृष्टी से नहीं देख सकता था? क्या यह नहीं सोचा जा सकता कि जब न्यायाल के आदेशानुसार मंदिर बन ही रहा है, तो एक धार्मिक कार्य में देश की हिन्दू जनता के साथ शरीक न होने से क्या अयोध्या में विवादित ढाँचा फिर से खड़ा होकर मस्जिद के रूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा? आखिर यदि दक्षिणपंथी ताकतों को सत्ता से बाहर करना है तो क्या वह बहुसंख्य हिन्दू जनता के सहयोग के बगैर सम्भव है? और जिस जनता की दृष्टी में जो दिन धार्मिक महत्त्व का है, उस दिन मातम मचाने के बाद भी आप उससे संवाद कायम कर पाएंगे?
संवाद कायम करने के लिए निस्संदेह उपयुक्त भाषा की आवश्यकता है। लेकिन उसके पहले क्या कम से कम स्वयं को अधिक पढ़ा-लिखा और समझदार मानने वाले वर्ग से ही यह अपेक्षा नहीं की जाएगी कि वह लचीला रुख अपनाए? एक और उदाहरण लेते हैं। सन २०१४ में भाजपा की सरकार के आने के बाद से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” को ज़ोर शोर से मनाया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि योग सभी बीमारियों का इलाज नहीं है, लेकिन क्या इसमें कोई शक है कि योग स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है? एक नितांत समान्य कार्यक्रम के दिन देखा गया है कि तमाम लोग इस दिन योग दिवस का मज़ाक उड़ाया करते हैं। ये वही लोग हैं जो बकरीद के दिन लोगों को समझाइश देते हैं कि आज के दिन चूँकि त्यौहार है, इसलिए पशुबलि या शाकाहर की बातें न की जाएँ। लेकिन फिर यही लोग दीवाली के समय पर्यावरण के प्रेमी और होली से समय जल संरक्षण के महादूत बन जाते हैं? जब उनमें इस प्रकार का लचीलापन मौजूद है, तो उनसे दूसरे प्रकार के लचीलेपन की अपेक्षा क्यों न की जाए?
भाषा को ही लीजिए। इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी वर्ग के मानने वालों की भाषा प्रायः गाली-गलौज से भरी होती है, उन्होंने “लिब्रान्डु”, “शेखुलर”, “खान्ग्रेसी” आदि अपमानजनक शब्दों को गढ़ा है। लेकिन क्या यह भी सही नहीं कि दूसरे वर्ग ने “भक्त” शब्द को भी गाली बना दिया है? “चड्डी”, “भक्तान्डु” आदि शब्द हों या (घोर विडंबना) कि आरएसएस के लोगों को कथित रूप समलैंगिक होने को लेकर मज़ाक उड़ाने की बात हो, ये सभी आचरण किस प्रकार “उदारवाद ” की श्रेणी में आते हैं?
दक्षिणपंथी राजनीति समाज को बाँटती है। लेकिन क्या उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष राजनीति की भाषा ऐसी है जो समाज को जोड़े? ज़ाहिर है कि इस बुरी तरह विभाजित हो चुके समाज को फिर से जोड़ने के लिए एक पहल की आवश्यकता है। यह पहल मेरी नज़र में उन्ही के द्वारा की जा सकती है जो स्वयं को उदारवादी समझते हैं। यह भी आवश्यक है कि ऐसी कोई भी पहल सिर्फ़ चुनावी राजनीति के उद्देश्यों के लिए नहीं बल्कि समाज के विभिन वर्गों को क़रीब लाने के सच्चे उद्देश्य से की जाए। ऐसी किसी भी पहल के लिए ईमानदार नीयत का होना पहली शर्त है।
नीयत में ईमानदारी हो तो इस उदारवादी वर्ग दक्षिणपंथी राजनीति के प्रतिनिधियों की आलोचना में पूरा समय खपाने से बचते हए अधिक समय उस राजनीति की कटटर समर्थक बन चुकी जनता से संवाद में लगाया जाए। केवल विरोध के लिए विरोध करना बंद किया जाए। सरकार की हर बुरी बात का विरोध हो, लेकिन अच्छी पहल का समर्थन भी हो। साम्प्रदायिकता और कुरीतियों की आलोचना एकतरफ़ा न हो। हिन्दू धर्म और हिंदुत्ववादी राजनीती के फ़र्क को सामने लाने के लिए आवश्यक है कि शुरुआत हिन्दू धर्म की अच्छाइयों को रेखांकित करने से शुरू हो और फिर यह समझाया जाए कि किस प्रकार दक्षिणपंथ नेहिन्दू धर्म की ग़लत व्याख्या की है।
इन सबसे बढ़कर, चाहे-अनचाहे चूँकि सोशल मीडिया इन दिनों आपसी संवाद का एक बड़ा माध्यम है , इसलिए उस पर कुछ भी लिखने से पहले उदारवादी-धर्मनिर्पक्ष वर्ग के लोग यह ध्यान दें कि जो भी वे लिख रहे हैं, उससे समाज में दूरियाँ बढ़ेंगी या कम होंगी? आखिरकार, “सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम” कहा ही गया है। वैसे अप्रिय सत्य अवश्य कहा जाए, लेकिन उसे कहने का तरीका ऐसा हो कि किसी प्रकार की भाषिक हिंसा न होने पाए। ऐसा करना ही जनता से संवाद हेतु उपयुक्त भाषा के विकास की प्रक्रिया होगी। संवाद दूर से नहीं निकटता से होता है। दूर से सिर्फ़ शोर मचाया जा सकता है।
– हितेन्द्र अनंत
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