सामयिक (Current Issues)

इंस्पायरिंग स्टोरी

एक ग़रीब का उन्नीस किलोमीटर रोज़ दौड़ना ज़रूरी है।

ताकि सबसे पहले हमें यह पता चले कि हम उतने ग़रीब नहीं हैं।

और इसलिए भी कि एक फिल्ममेकर अपना एक और वीडियो वायरल करवा सके। और फिर उस वायरल वीडियो से झटक ले कुछ और टीआरपी।

उस ग़रीब का नाम पता सब कुछ पूछकर ज़ाहिर किया जा सकता है। उसकी प्राइवेसी उसी दिन ख़त्म हो गई थी जब उसने ग़रीबी में जन्म लिया।

वायरल होने से ग़रीब को कोई फायदा हो न हो, वायरल वीडियो की गिनती में एक इज़ाफ़ा तो हो ही जाता है।

हमें ऐसी बहुत सी कहानियाँ चाहिए। ये कहानियाँ हमें “इंस्पायर” करेंगी ताकि हम यूपीएससी का चौथा प्रयास अच्छी तरह से करें, ताकि हमारे स्टार्टअप्स एक दिन यूनिकॉर्न बनें और हम किसी टेड टॉक में जाकर इनमें से कोई एक कहानी सुना सकें।

ग़रीबों शुक्र मनाओ तुम हमारी कहानियों में हो।

– हितेन्द्र अनंत

https://www.ndtv.com/india-news/videos-19-year-olds-10-km-midnight-run-story-makes-him-indias-darling-2833438#pfrom=home-ndtv_m_topscroll

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मानक
सामयिक (Current Issues)

राहुल गांधी, एक भला आदमी

राहुल गांधी वह नहीं हैं जो कांग्रेस समर्थक सोचते हैं।

राहुल गांधी जो भी हो “एक भला आदमी है”, यह बात भोले-भाले कांग्रेस समर्थकों का भ्रम है।

जो व्यक्ति बिना किसी प्रशासकीय अनुभव के खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान ले, उसके पहले बिना किसी चुनाव के पार्टी का अध्यक्ष बन जाए,वह दरअसल सत्तालोलुप है, भला आदमी नहीं।

भला आदमी क्या होता है? मैं खाली सड़क में रात को बारह बजे भी सिग्नल पर गाड़ी रोकता हूँ, ईमानदारी से टैक्स भरता हूँ। तो क्या मैं पार्टी अध्यक्ष पद के लायक हो गया? यह भला आदमी होने का बहाना दरअसल परिवार के प्रभामंडल से सम्मोहित कांग्रेसियों का हथियार है जिससे वे अपनी स्वामीभक्ति को खुद से छिपाना चाहते हैं।

2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद न केवल राहुल ने नैतिकता के आधार पद से इस्तीफा दिया, बल्कि यह भी कहा मेरे परिवार से बाहर जिसको चाहो अध्यक्ष बनाओ। लेकिन ऐसा कहने के बाद अपनी बहन के साथ मिलकर खुलेआम पार्टी के निर्णय लेना यह दर्शाता है कि राहुल को सत्ता के बिना राहत नहीं मिलती। इस्तीफा दिया था तो निर्णय नहीं लेने चाहिए। दूर रहो। आपकी बहन केवल एक राज्य की महासचिव है, वह पूरे देश में पार्टी के फैसले क्यों ले रही है?

दरअसल यह राहुल गांधी की घोर परिवारवादी मानसिकता को दर्शाता है। अब इसके आगे की बात करते हैं।

2014 में कांग्रेस के 9 मुख्यमंत्री थे। अभी केवल 2 हैं। 2014 के बाद से जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं, इनमें कांग्रेस ने भाजपा से सीधी टक्कर की स्थिती में केवल 3 चुनाव जीते, और उनसे बनी सरकारों में भी एक गिरवा दी।

सीधे मुकाबलों में भाजपा के ख़िलाफ़ कांग्रेस का जीत प्रतिशत करीब 4 प्रतिशत है। यह सब तब हुआ है तब कांग्रेस के सारे फैसलों पर राहुल गांधी की मोहर है।

संगठन क्षमता की बात करें तो उनके महान फैसलों का महान तमाशा पंजाब में पिछले छह महीनों में हम देख चुके हैं। पार्टी की अंदर के लड़ाई को यूँ सरेआम होने देने में न केवल नेतृत्व की असफलता थी बल्कि उसकी (अर्थात भाई-बहन की) सक्रिय भागीदारी भी थी। और नहीं तो अपने मातहत लोगों पर भी आपका नियंत्रण नहीं जिनकी नियुक्ति आपने खुद की है!

कांग्रेस खुद को विपक्ष का सबसे बड़ा और आवश्यक अंग मानती है। लेकिन उसके शासक परिवार के मुखिया का व्यवहार देखिए। राहुल गांधी ने आज तक मुम्बई जाकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं की है। पार्टी टूटने के डर से बचने के लिए आप महाराष्ट्र सरकार में शामिल हुए। यदि महान नैतिकतावादी हो तो शामिल नहीं होना था , यदि हुए तो फैसले को स्वीकार करो। यह फूफा की तरह चलती बारात से दूरी बनाना क्या एक अच्छे नेता को शोभा देता है? यूपीए के विस्तार के लिए खुद आगे होकर राहुल विपक्ष के किस नेता के घर जाकर उससे मिले? क्यों विपक्ष के नेता (पवार, ममता सहित) आज भी सोनिया गांधी से मिलते हैं, राहुल से नहीं?

मेरे गृहराज्य छत्तीसगढ़ में भी उनके दौरे के लिए हमारे मुख्यमंत्री को महीनों मिन्नतें करनी पड़ीं। अंततः वे तब आए जब हमारे मुख्यमंत्री ने असम के बाद उत्तर प्रदेश चुनावों का जिम्मा उठाया (अर्थात क्या किया यह बताने की आवश्यकता नहीं है)।

संगठन क्षमता की एक और बानगी। अपने अनेक साक्षात्कारों में राहुल ने यह स्वीकार किया है कि उनकी पार्टी का प्रचार तंत्र कमज़ोर है। लेकिन यदि ऐसा है तो अमरिंदर सिंह जैसे को पार्टी से निकालने का दम रखने वाले राहुल एक अदद रणदीप सिंह सुरजेवाला को प्रवक्ता पद से हटाने का दम क्यों नहीं रखते? यह तो कोई भी एक कांफ्रेंस देखकर बता देगा कि सूरजेवाला एक फिसड्डी प्रवक्ता है। जो अध्यक्ष वही ठीक नहीं कर सकता वह पार्टी और देश में क्या खाक ठीक कर देगा?

बाद इन सबके, जब चारों ओर से कांग्रेस की यह आलोचना हो रही है कि वह परिवारवादी पार्टी है तो नैतिकता का दूसरा नाम राहुल गांधी, क्यों नहीं यह घोषणा कर देते कि चूँकि यह चर्चा है, आरोप है, इसलिए मेरा परिवार इस पद से दूर रहेगा। इन बातों से आहत कांग्रेसी यही सोचे कि यदि महात्मा गांधी पर इस आरोप का दसवाँ हिस्सा भी लगता तो वो क्या करते? इसलिए, नैतिकता के ये दावे झूठे हैं।

चुभेगी बात लेकिन सच यही है कि राहुल गांधी सत्ता के आदी हो चुके हैं, उन्हें पार्टी पर नियंत्रण की सनक है, और उनकी सँगठन क्षमता दोयम दर्जे से भी गई बीती है। उनके और उनकी बहन के नेतृत्व को देश की जनता नकारते-नकारते थक गई है। इसलिए पुरखों का दिया कुछ संस्कार बाकी हो तो तत्काल पार्टी के निर्णय तंत्र से सौ कोस दूर चले जाएँ। ऐसा करके वे और उनकी बहन देश की सबसे बड़ी सेवा करेंगे। एक अप्रैल से अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाएँ पूरी क्षमता से बहाल भी हो रही हैं। इसका फ़ायदा फ्रीक्वेंट फ्लायर राहुल को अवश्य ही उठाना चाहिए।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

On the Karnataka Hijab Controversy

1. The boys wearing saffron scarves in Karnataka and protesting against women wearing Hijab in colleges are doing the wrong thing, more than that, this will lead them to an almost permanent fundamentalist frame of mind where the “other” must be abhorred, or negated.

2. The women who have a legitimate right to enter educational institutions while wearing a Hijab or a Burqa, and who are now trending #ILoveHijab are also gullible. Most likely, this whole thing will lead them to an almost permanent fundamentalist frame of mind where the “other” must be abhorred, or negated.

Ultimately, religion and competitive politics combined, are ruining an entire generation. If you only look beyond the basic issue of the fundamental right to dress by choice, you can see the danger is bigger and the issue is far more complex than it appears.

At the first place, a piece of cloth (origins of it cultural or religious) which is definitely a symbol of oppression and misogyny, is now becoming symbol of “freedom of choice”, thereby, those willing to wear it forget the original reason of this necessity imposed on them. That imposition is real, it also has other manifestations. It hurts the emancipation of women suffering because of living life under that particular religious structure. (Needless to say, almost all religions oppress women, but women from each one need to fight their own battles).

On the other hand, those protesting against it, are undoubtedly not protesting against any symbol of oppression, they are protesting against a religious identity. By protesting against display of identity by people of only one particular religion, they are clearly sending a message that in their society, they do not accept people of that religion. They are not protesting against display of religious symbols of other religions, they are also not concerned about the sorry state of women under their own religious structure, which means they are clearly targeting women of one and only one community this time. This will leave serious and long lasting divisions in the society.

One wrong gives birth to another and a vicious cycle starts. The post-truth world cannot think objectively.

No, this is not a “balancing post”. If you think so, you need to balance your own outlook first.

– Hitendra Anant

मानक
सामयिक (Current Issues)

राहुल गांधी के भाषण पर

  1. कुछ लोग इसे महान भाषण बता रहे हैं।
  2. कुछ का कहना है कि भाषण जैसा भी हो, राहुल ने साहस के साथ सही बातें की हैं।

मेरा अपना आकलन यह है:

  1. वक्तृत्व कला के पैमाने पर, अंग्रेज़ी में भी, यह औसत प्रदर्शन था। जो ठहराव लिए गए वो कम से कम ऐसे आदमी को नहीं लेने चाहिए जिसका करियर खराब करने का आधा श्रेय मीम बनाने वालों को जाता है।
  2. खरी बात कहने पर लोग सही बोल रहे हैं कि उन्होंने बहुत सी खरी बातें की। लेकिन इस देश में कौन नहीं है जो ऐसी बातें कर रहा है। इनसे भी अधिक ईमानदारी से खरी बातें करने वाले हैं, उनमें से कुछ जेल में हैं कुछ बाहर और कुछ संसद में भी।
  3. राहुल ने परनाना, दादी और पिता का ज़िक्र इस तरह से किया कि वो उनके उत्तराधिकारी हैं। उनका हक है कि वो उनकी विरासत पर दावा करें। लेकिन ऐसा करेंगे तो यह दावा छोड़ना पड़ेगा कि पूर्वजों की नाकामियों का मैं भागी नहीं हूँ।
  4. विदेश नीति में वर्तमान सरकार असफल है। इसमें कोई शक नहीं। नेपाल से लेकर श्रीलंका तक हर पड़ोसी हमने खोया है। चीन से लेकर पाकिस्तान तक हर तरफ़ हमने समस्याएँ बढ़ाई हैं। लेकिन एक “ईमानदार” और “निर्भीक” वक्ता को मालूम होना चाहिए कि इस किस्म की भूलें और असफलताएँ उन तीनों महान हस्तियों के खाते में भी हैं जिनकी महान विरासत और छाती की गोलियों का ज़िक्र राहुल ने संसद में किया।
  5. चीन के साथ 1962 में जो हुआ वह तत्कालीन सरकार की विदेश नीति और सैन्य मोर्चों पर विफलता ही थी। पंजाब संकट को पैदा करने में तत्कालीन सरकार के फैसले भी जिम्मेदार हैं। श्रीलंका में शांति सेना भेजने का प्राणघातक फैसला भी भयंकर भूल था। और भी बातें हैं जो गिनाई जा सकती हैं।
  6. तमिलनाडु में द्रविड़ दलों की बहुत सी बातें सही हैं। लेकिन यह भी सही है कि यही द्रविड़ दल एक समय तक अलगाववादी विचारों को खुलेआम हवा दे रहे थे। उसके बीज वहाँ के समाज में आज भी हैं। इस सबकी शुरुआत कांग्रेस के नेतृत्व द्वारा तमिलनाडु पर हिन्दी थोपने के प्रयासों से शुरू हुई थी।
  7. लोकतंत्र को मजबूती देने वाले संस्थानों को क्या कांग्रेस ने कमज़ोर नहीं किया? टी एन शेषन से पहले चुनाव आयोग की क्या दशा थी यह कम से कम तब की पीढ़ी को याद होगा। बूथ कैप्चरिंग शब्द आजकल अखबारों से ग़ायब है। पता कीजिए कि किनके राज में यह आए दिन छपा करता था? 356 का सबसे अधिक बेज़ा इस्तेमाल किसने किया? दंगों में क्या कांग्रेस के हाथ काले नहीं हैं?
  8. भ्रष्टाचार और एक लचर प्रशासनिक तंत्र कांग्रेस की पैदाइश हैं। ट्रांसफर उद्योग, पोस्टिंग के नाम पर वसूली, नौकरी देने में धांधली यह सब 2014 के बाद शुरू नहीं हुआ। आए दिन आलाकमान के द्वारा चुने हुए लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों को हटाकर कौन सरकारें पलटता रहा क्या यह किसी से छिपा है? अधिकारियों से इस्तीफे दिलवाकर उन्हें चुनाव लड़वाने का काम क्या कांग्रेस ने नहीं किया?
  9. देश के विश्वविद्यालयों का माहौल भाजपा ने खराब किया है। लेकिन 2014 के पहले क्या वहाँ शोध और पैटेंट की आंधी चल रही थी? छात्रसंघ के पुराने तरीके से चुनावों के दौर की हिंसाएँ और उनमें एनएसयूआई की गुंडागर्दी (बाकियों की भी) क्या लोग भूल गए हैं? गांधी परिवार की सुविधा के हिसाब से स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास पाठ्यक्रमों में जुड़वाकर विश्वविद्यालयों में चमचागिरी करने वाले प्रोफेसरों की फौज किसने खड़ी की, क्या कोई राहुल गांधी को यह भी बताएगा? वैसे यह उसी पाठ्यक्रम का नतीजा है कि परिवार के बाहर के महान कांग्रेसी नेताओं को भाजपा अपने खाते में जोड़ पा रही है।
  10. ग़रीब, युवा, बेरोज़गार की बातें भाजपा नहीं करती। वह उन्हें गुमराह कर रही है। लेकिन राहुल के परिवार के लोग जब देश के प्रधान थे तब बेरोज़गारी की दर क्या थी? अच्छा-बुरा बाद में, लेकिन देश में नौकरियों में वृद्धि तब हुई जब नरसिंह राव की सरकार ने लाइसेंस कोटा राज खत्म किया। पटेल, शास्त्री और सुभाष छोड़ दीजिए, गांधी परिवार नीत कांग्रेस को नरसिंह राव का नाम तक लेने में शर्म आती है।
  11. पर्यावरण से खिलवाड़, आदिवासियों की ज़मीनें हड़पना, किसानों की दुर्दशा यह सब 2014 के बाद शुरू नहीं हुआ है।
  12. क्या कांग्रेस की वर्तमान राज्य सरकारें जिनके मुख्यमंत्री राहुल के नाम की कसमें आए दिन खाते रहते हैं, राहुल के भाषणों के अनुसार काम कर रही हैं? क्या अडानी को कोयला देने के लिए एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री दूसरे कांग्रेसी मुख्यमंत्री से नहीं लड़ रहा? क्या इन राज्यों में धर्म के नाम पर जनता को नहीं लुभाया जा रहा? क्या यहाँ ट्रांसफ़र-पोस्टिंग, रेत माफ़िया, आरटीओ आदि हर किस्म का भ्रष्टाचार खत्म हो गया है? राहुल महान नेता हैं तो अपने इन्हीं राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर उनका कितना असर है?
  13. यह सब इसलिए गिनाया है कि जिन भले लोगों के राहुल गांधी में मसीहा इत्यादि दिखाई देता है, वो सपनों की दुनिया से बाहर आएँ।
  14. एक “ईमानदार” और सत्यवादी वक्ता और नेता को किसी दिन इन ग़लतियों को स्वीकार करना चाहिए। आप पुरखों के नाम का गुणगान करने के हक़दार हैं बशर्ते आपमें उनकी नाकामियों का बोझा ढोने की भी ईमानदारी हो।
  15. अंत में, आप वह मत ढूंढिए जो आप देखना चाहते हैं लेकिन है नहीं। उस भाषण में अच्छा बहुत कुछ था, विलक्षण कुछ नहीं था।

हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज, सामयिक (Current Issues)

गुडगाँव

गुडगाँव में वह हो रहा है जो हम पाकिस्तान में होता देख चुके हैं।

गुडगाँव के कुछ हिन्दू रहवासियों को मुसलमानों का किसी खुले मैदान में नमाज़ पढ़ना पसन्द नहीं आ रहा। इस दौर में एक बड़े अपवाद के तौर पर गुडगाँव का प्रशासन मुस्लिमों को सुरक्षा दे रहा है और नमाज़ पढ़ने में उनकी मदद कर रहा है।

मुझे नमाज़ की जानकारी नहीं लेकिन यह कोई डीजे बजाकर शोर मचाने वाला उपक्रम नहीं है। सार्वजनिक नमाज़ प्रायः शुक्रवार की दोपहर को पढ़ी जाती है। अधिकतम पन्द्रह मिनट का शांत कार्यक्रम होता है। चूँकि फ़िलहाल मस्जिदों में कोरोना के चलते भीड़ बढ़ाना स्वीकृत नहीं है, इसलिए कहा जा रहा है कि उस क्षेत्र के कामगार मुसलमान एक मैदान में अपना धार्मिक कर्तव्य अदा कर रहे हैं।

जब हिंदुओं के कुछ उत्सवों में दस-दस दिन लगभग पूरे दिन-रात डीजे बजाया जाता है, सड़कें घेरी जाती हैं, और जुलूसों के दौरान ट्रैफिक को बाधित जिया जाता है, तब पूरी आबादी इसे त्यौहारों की आवश्यकता समझकर साथ देती है। क्या दो मिनट की अज़ान सुन लेना या घर के सामने किसी को नमाज़ पढ़ते देख लेना इतना पीड़ादायक अनुभव है?

सुना है कि गुडगाँव के वही उपद्रवप्रेमी लोग अब ठीक नमाज़ के वक्त भजनों को लाउडस्पीकर पर बजा रहे हैं। ज़ाहिर है कि भजन को ठीक नमाज़ के वक्त गाने का हिन्दू धर्म में कोई आदेश या नियम नहीं है। बल्कि हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती ही यह है, और अन्य धर्मों के मुकाबले यह गुण उसमें बेहतर है, कि इसका कोई भी नियम स्वैच्छिक है। हिन्दू धर्म में उपासना का कोई एक नियमबाध्य तरीका नहीं है। अनेक तरीके हैं और अनेक मीमांसाएँ हैं जो उन तरीकों के पालन न हो पाने की स्थिति में विकल्प बताती हैं, और कोई हिन्दू चाहे इन्हें माने, चाहे न माने, वह फिर भी उतना ही हिन्दू रह सकता है। ऐसे में ऐन नमाज़ के वक्त भजन गाना सिवाय एक अन्य धर्म से नफ़रत के प्रदर्शन के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।

दरअसल हिन्दुओं का इतना भयादोहन किया गया है कि उन्हें दाढ़ी-टोपी वाले मुसलमान देखते ही डर लगने लगता है। दूसरी और अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज के सत्तालोलुप वर्ग को यह समझ आने लगा है कि हिन्दुओं के नाम पर कट्टरता का प्रदर्शन करने से उन्हें सत्ता की मलाई का एक छोटा सा टुकड़ा मिल सकता है। अतः समाज में कट्टरता दिखाने की होड़ लग रही है।

यही सब पाकिस्तान में हुआ। वहाँ जब सभी अल्पसंख्यकों का लगभग सफाया कर दिया गया, और आबादी को एक कट्टर इस्लाम की झूठी पहचान में ढाल दिया गया तो अब सत्ता पाने और प्रभाव जमाने के लिए एकमात्र विकल्प बचा है कि खुद को दूसरों से बेहतर मुसलमान साबित किया जाए। यही कारण है कि वहाँ इस्लाम के एक फ़िरक़े का दूसरे पर बम फेंकना अब आम बात हो गई है।

गुडगाँव के ये लोग उन्हीं हिन्दुओं की प्रारंभिक प्रजाति हैं जो एक दिन आपस में लड़ेंगे और यह साबित करने के लिए कि वही असली हिन्दू हैं, एक-दूसरे का ख़ून करने से भी न हिचकेंगे।

गुडगाँव का समझदार पुलिस प्रशासन हिंसा रोक रहा है। लेकिन देश के बहुसंख्यक समाज के दिलों में, उन्हीं के धर्म के संतों-महापुरुषों की शिक्षाओं की जो प्रतिदिन हत्या हो रही है, उसे कौन रोकेगा?

– हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

एक और बर्बर हत्या, एक और काला दिन

सिंघु में बर्बरता से हत्या की गई है। ऐसा बताया जा रहा है कि निहंगों ने यह हत्या की है। इससे पहले भी कोरोना लॉक डाउन में रोके जाने पर निहंगों के एक समूह ने पंजाब पुलिस के एक अधिकारी के हाथ काट दिए थे।

किसी भी फ़िरक़े को यह हक नहीं दिया जा सकता कि वह हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे। ऐसी बर्बरता सिख पंथ के गुरुओं का संदेश नहीं है। पाकिस्तान में ऐसी लिंचिंग अक्सर सुनाई देती है जिसमें मज़हब के अपमान के नाम पर सरेआम किसी की हत्या की जाए। लेकिन भारत में ऐसा प्रायः नहीं होता था।

लेकिन जब धर्मिक नफरत फैलाने और धर्म के नाम पर हिंसा को देश का शीर्ष नेतृत्व ही बढ़ावा दे तो यही माहौल बनेगा और आग फैलेगी। आखिर धर्म के नाम पर हुई इस हिंसा का विरोध मुखर होकर कोई भी दल क्यों नहीं कर पा रहा है? क्यों वोटों की प्यास इतनी हावी हो गई है कि एक ग़लत को ग़लत न कहा जा सके?

गांधी जी के नाम पर वोट लेने वाली पार्टी इस मामले पर खासतौर से चुप है। उसे शर्म आनी चाहिए। नेतृत्व वह होता है जिसमें अनुयायियों को उनके मुँह पर वे ग़लत हैं यह बोलने की ताक़त हो। बाकी आज जो हो रहा है वह नेतृत्व नहीं है। वह एक झूठ के बहाने वोट बटोरकर सत्ता और संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने की कवायद भर है। इसलिए, भाजपा तो देश को बुरी तरह बर्बाद कर ही चुकी है, कांग्रेस या कोई अन्य दल उसे फिर से ठीक करने की कोई सच्ची मंशा नहीं रखता है।

सत्ता के केंद्र में वोट, और वोटों के केंद्र में जाति-धर्म-भाषा के समीकरणों ने भारत के समाज को धर्मांधों और हिंसक भीड़ का समाज बना दिया है। ऐसा कोई धर्म नहीं जिसको पालन करने वाले नफ़रतों को दिलों में न पालते हों। धार्मिक और जातीय कट्टरता की एक होड़ चल पड़ी है। ऐसा लगता है 1947 में देश को जोड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह इतनी अधिक असफल हुई है कि अब कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

भैया-दीदी कांग्रेस

यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नहीं, भैया-दीदी कांग्रेस है।

महज़ भाजपा से दुश्मनी की वजह से इस कांग्रेस को लोकतांत्रिक दल मानने की भूल न की जाए।

जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार का मुखिया, यदि एक व्यक्ति की “कड़े फ़ैसले” लेने की सनक के कारण बदला जाए, अर्थात पूरी सरकार गिरा दी जाए तो यह संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध है। “जनता का जनता के द्वारा”।

फ़िलहाल कांग्रेस में लोकतंत्र होने का तर्क यूँ दिया जा रहा है कि वहाँ जो चाहे पार्टी हाईकमान के ख़िलाफ़ बोल सकता है! हालाँकि ऐसा भी उंगलियो पर गिना जा सके उतनी ही बार हुआ है, लोकतंत्र है यह तब माना जाएगा जब फ़ैसले दल ले परिवार नहीं। प्रियंका गांधी महज़ एक महासचिव हैं, वो पंजाब की प्रभारी नहीं हैं, राहुल भी नहीं, लेकिन वो दोनों फ़ैसले ले रहे हैं इसे क्या कोई लोकतंत्र कह सकता है?

कांग्रेस में लोकतंत्र था, जब कांग्रेस की केंद्रीय कार्यसमिति में गांधी जी के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ भी खुलकर बोला जाता था। असहयोग आंदोलन वापस लेना है या नहीं, भारत छोड़ो करना है या नहीं, इस पर चर्चा होता था। अब क्या होता है?

इसलिए, सहानुभूति इतनी न हो जाए कि अकड़ और मूर्खता से मिश्रित अधिनायकवादी फ़ैसलों का बचाव करना पड़े। यह सलाह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए भी है।

गांधी आज कांग्रेस के मुखिया होते, तो कहते कि कांग्रेस सत्ता में आने से पहले दस साल समाज सेवा कर अपने पुराने पापों का प्रायश्चित करे।

संस्थानों के कमज़ोर होने पर चिंतित हैं तो संसद और प्रधानमंत्री कार्यालय के राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) के सामने कमज़ोर होने को ही याद कर लीजिएगा। फेहरिस्त लम्बी है, यह सबसे छोटा उदाहरण है।

कांग्रेस के ज़माने में संस्थान मज़बूत थे, कितने मज़बूत? आज के मुक़ाबले थोड़े ज़्यादा मज़बूत। सत्ता तब भी उनसे जो चाहे करवा सकती थी।

हम सभी को अन्ना आन्दोलन में मूर्ख बनाया गया, जिसकी परिणति हुई दिल्ली राज्य में एक और अधिनायकवादी दल का सत्ता में आना। लेकिन, अन्ना आंदोलन से बड़ा भरम होगा भैया-दीदी कांग्रेस, अर्थात गांधी परिवार से इस देश में विपक्ष की राजनीति को बचाने की उम्मीद करना।

आदमी दिल का अच्छा है। स्पिनर वेंकपति राजू भी दिल का अच्छा था लेकिन कप्तान अजहरुद्दीन को बनाया गया था, राजू को नहीं।

  • हितेन्द्र अनंत
मानक
सामयिक (Current Issues)

अफ़ग़ानिस्तान के बदले हालातऔर भारत

भारत की विदेश नीति के समक्ष इस समय एक बड़ी चुनौती है अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात।  करीब बीस वर्षों के बाद अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फौजों की पूर्णतः वापसी प्रारम्भ हो गई है। सितंबर ग्यारह २००१ के आतंकी हमलों के बाद अमेरिका ने अल क़ायदा से लड़ने और आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध के नाम पर अफ़ग़ानिस्तान में तत्कालीन तालिबानी शासन पर हमले शुरू किए थे।  ज़मीन पर तब के तालिबान विरोधी और भारत समर्थक “नॉर्दन अलायंस” ने भी अमेरिका के वायुसैनिक समर्थन से तालिबान पर हमले किए । अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका समेत उसके सहयोगी मुल्क़ों, जिन्हें नैटो सेनाएँ कहा जाता है, ने धीरे-धीरे अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा जमाया और एक समर्थक सरकार की स्थापना कर देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत की। 

तालिबान एक ऐसी ताकत है जो महिला-विरोधी, उग्र-इस्लामिक मान्यताओं के तहत मध्ययुगीन बर्बर तरीकों से पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान में हुक़ूमत कर रही थी। इनके तथाकथित शरीया प्रेरित न्याय के दिल दहला देने वाले दृश्य पूरे विश्व ने देखे हैं।  उनके बर्बर रवैये और उनकी मानवाधिकार विरोधी शासन प्रणाली का समर्थक शायद हुए कोई मुल्क या व्यक्ति हो सकता है।

जब अमेरिका ने तालिबान को सत्ताच्युत किया तो पाकिस्तान ने उन्हें अपने देश में पनाह दी।  पाकिस्तान एक तरफ़ अमेरिका से आर्थिक सहायता लेता रहा, दूसरी तरफ उसने तालिबान और ओसामा बिन लादेन को पनाह दी। आगे जो कुछ हुआ वह इतिहास है। 

ख़ैर, अफगानिस्तान में इन बीते २० वर्षों में भारत ने वहाँ की स्थानीय सरकार से अच्छे सम्बन्ध बनाए, वहाँ सडकों, अस्पतालों, बांधों और वहाँ की संसद सहित अनेक सुविधापरक इमारतों का निर्माण किया। इन सबसे ऐसा महसून होने लगा था मानों अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय प्रभाव अब स्थायी होने जा रहा है।  लेकिन, भारत की सरकार के वहाँ की अमेरिका द्वारा स्थापित सरकार के साथ चाहे जैसे सम्बन्ध रहे हों, अमेरिका कभी भी अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और वहाँ की नयी राष्ट्रीय सेना को पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं बना पाया।  नतीजा यह है कि इधर अमेरिकी फौजों की वापसी शुरू हुई है, उधर अफगानिस्तान के बड़े शहरों को छोड़कर लगभग अस्सी प्रतिशत भूमि पर तालिबान का फिर से क़ब्ज़ा हो चुका है।  अब यह केवल समय की बात है कि कब तालिबान वहाँ पूरी तरह क़ब्ज़ा कर होनी सरकार पुनः स्थापित करे। 

फौजों की इस वापसी के पहले, पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका ने तालिबान से बातचीत शुरू की थी।  अफ़ग़ानिस्तान का भविष्य निर्धारित करने के लिए होने वाली इन मुलाक़ातों में भारत का कोई स्थान नहीं था।  ये सारी मुलाक़ातें पकिस्तान के सहयोग से हो रही थीं, जिनमें रूस और चीन भी मुख्य रूप से शामिल थे। आज भी जब अफ़ग़ानिस्तान में पूरी तरह नया बदलाव आने वाला है , तब भारत को आधिकारिक रूप से इन चर्चाओं में कोई स्थान नहीं दिया गया है।  अलबत्ता इस मामले में भारत की भूमिका को लेकर कुछ ज़बानी खर्च ज़रूर अमेरिका और रूस के द्वारा किया गया है , लेकिन उसे नाम भर का ही माना जाना चाहिए। 

अफ़ग़ानिस्तान में बदलते हालातों की पृष्ठभूमि में इन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है:

१. अमेरिका भले ही यह जानता है कि पाकिस्तान ने तालिबान का साथ देकर उसकी पीठ में छुरा भौंका है, फिलहाल २० वर्षों बाद हारकर एक सम्मानजनक वापसी हेतु उसे पाकिस्तान पर निर्भर रहने के सिवा और कोई रास्ता नज़र नहीं आता है।  इसमें सबसे बड़ा कारण पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति है , साथ ही यह भी कि इस क्षेत्र में पाकिस्तान एक बड़ी सैन्य ताकत है और उसके तालिबान के साथ प्रगाढ़ समबन्ध हैं।  भविष्य में इस क्षेत्र में अमेरिकी हितों की गारण्टी हेतु पाकिस्तान का सहयोग अमेरिका के लिए आवश्यक है। 

२. अमेरिका के समबन्ध ईरान से कभी भी बहुत अच्छे नहीं रहे, इसलिए पाकिस्तान एवँ तालिबान को किसी तरह अपने पक्ष में रखकर वह ईरान के विरुद्ध इस क्षेत्र में संतुलन साधना चाहेगा। 

३. रूस ने बीते पाँच-सात वर्षों में पकिस्तान से बेहद अच्छे सम्बन्ध बना लिए हैं। रूस के भारत के साथ भी अच्छे सम्बन्ध हैं, किन्तु अफ़ग़ानिस्तान के प्रश्न पर उसे पाकिस्तान अधिक भरोसेमंद और उपयोगी मुल्क़ दिखाई पड़ता है।  बीते सात वर्षों में भारत ने जिस प्रकार खुद को अमेरिकी पाले में अधिक धकेला है, वह भी इसका एक कारण है। 

४. चीन के पूरी दुनिया में रेल एवँ सड़क मार्ग बिछाकर वैश्विक प्रभुत्व जमाने के अभियान, जिसे वह “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” कहता है, में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा सहयोगी है।  यदि अफ़ग़ानिस्तान जैसे भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण मुल्क़ में चीन को सुविधानुसार सड़कों और रेलमार्ग बिछाने की आज़ादी मिलती है, तो यह उसके व्यापारिक और सामरिक हितों के लिए अति आवश्यक होगा।  अतः चीन भी तालिबान के नेतृत्व में बनने वाली अगली सरकार में पाकिस्तान के माध्यम से अपने हितों की गारण्टी की व्यवस्था सुनिश्चित करना चाहता है। 

5. भारत की एक उम्मीद है ईरान।  जहाँ चीन ने पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर कब्ज़े के ज़रिए इस पूरे क्षेत्र में अपनी सामरिक-व्यापरिक उपस्थिति मज़बूत की है , वहीं ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास में भारत का प्रदर्शन सुस्त और फिसड्डी ही रहा है।  अतः ईरान के पास अफ़ग़ानिस्तान में बनने वाली नई सरकार से सहयोग करने के अतिरिक्त और कोई चारा हो ऐसा लगता नहीं है। 

६. वैश्विक परिदृश्य में भारत हमेशा ही एक उदासीन ताकत रहा है। श्रीलंका और बांगलादेश के सीमित उदाहरणों को छोड़ दें तो भारत ने कभी भी अपने सीमाओं के बाहर सीधे सैन्य दखल में अरुचि दर्शायी है जो कि अनेक कारणों से उचित ही है। लेकिन इससे यह भी स्पष्ट है की भारत चाहे जो कर ले, वह अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार को ऐसी कोई मदद प्रदान करने के हालत में नहीं है जिससे कि वह तालिबान को वहाँ क़ब्ज़ा ज़माने से रोक सके। 

ऐसे में, भारत के पास क्या विकल्प हैं? अफ़ग़ानिस्तान में एक दुश्मन सरकार के होने का अर्थ है भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं का पूरी तरह असुरक्षित हो जाना। साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में सहयोगी सरकार होने का अर्थ यह भी हो सकता है कि पाकिस्तान की सेना और वहाँ का जिहादी तंत्र अब कश्मीर की ओर अपना ध्यान केंद्रित करे। इन सबके ऊपर यह कि अपनी पूर्वी सीमाओं पर भारत पहले ही चीन के साथ संघर्ष की स्थिति में है। ऐसे में पश्चिम की ओर भी यदि सैन्य तनाव बढ़ा तो उसके प्रतिकूल परिणाम हो सकते हैं।

हाल ही में, जब चीन ने लद्दाख क्षेत्र में भारत के विरुद्ध सैन्य-तनाव को बढ़ावा दिया, तब भारत ने उचित क़दम उठाते हुए पाकिस्तान से गुप्त रूप से बातचीत प्रारम्भ की थी।  यह बातचीत संयुक्त अरब अमीरात के सहयोग से प्रारम्भ हुए थी।  इस बातचीत का एक नतीजा यह था कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर दोनों देशों की और से होने वाली गोलाबारी कुछ माह पूर्व लगभग रुक गयी थी। जब पूर्वी सीमा पर चीन के साथ तनाव हों, तब पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान के साथ हालात थोड़े सामान्य करना एक उचित नीति है।  इसी नीति का एक यह भी परिणाम निकला कि भारत की केन्द्र सरकार ने कश्मीर में स्थानीय राजनैतिक ताकतों को बातचीत के  बुलाया। 

अब अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में भारत के पास निम्न विकल्प हैं:

१. भारत यह उम्मीद करे कि किसी प्रकार अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार व उसके समर्थकों का क़ब्ज़ा बरकरार रहे एवँ तालिबान के पकड़ वहाँ ढीली हो।  वर्तमान हालातों और अमेरिका की सैन्य अनुपस्थिति के चलते ऐसा होना लगभग असम्भव है। 

२. भारत ईरान के साथ मिलकर किसी ऐसे गठजोड़ को खड़ा करे जो वहाँ अमेरिका-रूस-चीन के तालिबान और पाकिस्तान के साथ सहकर के विरुद्ध एक क्षेत्रीय ताकत बने।  भारत के रूस और विशेषकर अमेरिका से सम्बन्धों के चलते ऐसा कुछ होगा यह लगभग अकल्पनीय है। 

३. भारत तालिबान से बातचीत करे। यूँ सच तो यही है कि किसी न किसी रुप में भारत ने तालिबान से बातचीत प्रारम्भ कर ही दी है।  हालाँकि इसे आगे बढ़ाया जा सकता है और एक औपचारिक रिश्ते की ओर भी बढ़ना सम्भव है। तालिबान के अपने चाहे जो विचार हों, भारत फ़िलहाल खुद के हितों को प्राथमिकता दे तो उसके पास यही सही चारा नज़र आता है।  तालिबान से सहयोग के बदले में भारत उसे अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान विरोधी ताक़तों के साथ मध्यस्थता की पेशकश तो कर ही सकता है , साथ ही तालिबान के लिए भारत से व्यापारिक संबंधों का होना अति आवश्यक होगा क्योंकि यदि उसे अफ़ग़ानिस्तान को स्थाई रूप से चलाना है तो आर्थिक सम्बन्ध हमेशा काम आएँगे।  

तीसरे विकल्प का सबसे बड़ा फ़ायदा यह हो सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत विरोधी तत्वों को उनकी गतिविधियों से रोका जाए। साथ ही उस क्षेत्र से होकर जाने वाले रास्तों पर भारत के व्यापरिक हित सुरक्षित रहें।  

इस विकल्प का सबसे बड़ा विरोधी पक्ष है तालिबान की विचारधारा। लेकिन कूटनीति समझौतों का नाम है।  इसमें वैचारिक शुद्धता के लिए विशेष स्थान नहीं है। भारत के अनेक ऐसे मुल्कों से प्रगाढ़ सम्बन्ध हैं जिनका मानवाधिकारों के मामले में कोई ख़ास स्थान नहीं रहा है। 

तालिबान सहित पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को कम से कम  बना लेना भारत के लिए आवश्यक है कि यदि चीन के साथ सीमा पर तनाव हो तो ये दोनों, हमारी उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर दोहरा तनाव खड़ा न करें। लेकिन ऐसा करने में सबसे बड़ी बाधा है भारत की आंतरिक राजनीति। यदि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार और उसके सहयोगी प्रदेश सरकारें और अन्य संगठन भारत में मुस्लिम विरोधी आग को हवा देते  रहे, जैसा की वे खासतौर से पिछले छः-सात वर्षों से कर रहे हैं, तब भारत के लिए इन पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान सहित सऊदी अरब तथा अन्य अरबी देशों, एवँ इंडोनेशिया तथा मलेशिया जैसे मुस्लिम देशों से सम्बन्ध बनाए रखना कठिन होता जाएगा। लेकिन दूसरी और, वर्तमान सरकार का जीतकर सत्ता में  सबसे बड़ा कारण उसकी मुस्लिम विरोधी राजनीति है। 

कूटनीति और राजनीति में यही फ़र्क़ है।  हालाँकि दोनों में व्यवहारिकता आवश्यक है, किन्तु कूटनीति जीत-हार से बढ़कर अपने हितों के संरक्षण पर ध्यान देती है, अतः कूटनीतिक सफ़लता के लिए अधिक लचीलापन आवश्यक होता है।  कूटनीति वह नहीं कि आपने पैसे देकर एक विदेशी मुल्क में हज़ारों की भीड़ को सम्बोधित कर दिया, कूटनीति वह है जहाँ आप उस एक कमरे में बैठे चंद वार्ताकारों के साथ बातचीत का मौक़ा हासिल कर पाएँ, जिस कमरे में आपके पड़ोस के सबसे अधिक महत्वपूर्ण मुल्क़ का भविष्य तय किया जा रहा हो। ज़ाहिर है, कूटनीति डंका बजाने का काम नहीं है।

– हितेन्द्र अनंत 

मानक
विविध (General), सामयिक (Current Issues)

ग़लत-ग़लत

दो पक्षों के बीच जब किसी विवाद की शुरुआत हो, तब उस बिंदु पर जाकर सही-ग़लत की व्याख्या की जा सकती है।

लेकिन लम्बे चलने वाले हिसंक संघर्षों में अव्वल तो दो नहीं अनेक पक्ष बन जाते हैं, दूसरे इतनी हिंसा के बाद स्वाभाविक रूप से प्रत्येक पक्ष अनेक ग़लतियाँ या अपराध कर चुका होता है। इसके बाद यदि समस्या का समाधान ढूंढना है तो उसकी जड़ में जाकर सही-ग़लत बताना किसी काम का नहीं होता।

ऐसे विवादों में जो सबसे बड़ी ज़रूरत होती है और होनी चाहिए, वह है हिंसा का तत्काल रोका जाना। लंबे समय तक यदि हिंसा न हो तब ही स्थायी शांति के लिए प्रयास किए जा सकते हैं। लेकिन विवाद में एक की बजाए अनेक पक्षों के आ जाने के कारण प्रायः हिंसा पर नियंत्रण असम्भव हो जाता है।

इस्राइल और फिलिस्तीन के विवाद के संदर्भ में भी यही सही है। फ़िलहाल जो एक चीज़ रुकनी चाहिए वह है हिंसा। सही-ग़लत का निर्णय देने वाले फ़िलहाल इससे बचें। मामले की जड़ में बेशक सही-ग़लत है, हिंसा के जारी रहने में ग़लत-ग़लत ही है। आप चाहें तो इसे छोटा-बड़ा ग़लत कह लें।

हितेन्द्र अनंत

मानक
सामयिक (Current Issues)

आईने के सामने, आईने के अंदर

“कांग्रेस कल्चर” वो सच्चाई है जिसे भाजपा ने तहे दिल से अपना लिया है। पुलिस का बेज़ा इस्तेमाल किसने शुरू किया, होने दिया और उसे इंतेहा तक ले गए? इसलिए इन मामलों पर कम से कम वो दल आँसू न बहाए जो इन सबका जिम्मेदार है।

पुलिस सुधार किसने वर्षों लागू नहीं किए? किसने औपनिवेशिक न्याय व्यवस्था को बदलने में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं दिखाई? क्यों नहीं दिखाई यह भी हम जानते हैं। क्योंकि इस कमज़ोर व्यवस्था का सत्ता पर क़ाबिज़ वर्ग ने पूरा फ़ायदा उठाया।
अब जब इसी “तंत्र” (पुलिस, ईडी, सीबीआई, एनआइए) से बड़े-बड़े नहीं बच पा रहे हैं, तो याद किया जाना चाहिए कि आम आदमी के लिए इस तंत्र के मायने 2014 से पहले क्या बहुत अलग थे?

भाजपा ने संस्थानों की गिरावट की प्रक्रिया को बेहद तेज़ किया है। उसके पापों की सूची बहुत लम्बी है और होती जा रही है। लेकिन लगभग वही के वही पाप कांग्रेस ने किए हैं, बल्कि इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत उसी ने की है। दोनों के पापों में फ़र्क इतना है कि जब सत्ता की चाबी कांग्रेस के पास थी तो सब कुछ बड़ा एलिट था, संस्थानों के मुखिया बड़े नामवाले लेखक, कलाकार, प्रोफेसर, जज, अफसर आदि होते थे, ये सभी तंत्र का बेजा इस्तेमाल किया करते थे, लेकिन इनकी भाषा एलिट थी। अब तंत्र पर वो हैं जो शाखा स्तर के ज्ञान से उपजे हैं, या उसका दिखावा करते हैं।

इसलिए, दुःख अपन को है, लेकिन एब्सोल्यूट टर्म्स में, विशुद्ध रूप से, अब आईने के सामने खड़े शख़्स के ख़िलाफ़ उसके प्रतिबिम्ब का समर्थन करने को दिल गवारा नहीं।

– हितेन्द्र अनंत

मानक