सब बोले 500 करोड़ किया है, सेक्युलरिज़्म भी बचाना है, तो हम कल रात हो आए।
आठ बजे के शो में हॉल 40 प्रतिशत भरा था।
सिनेमा में अभी तक यह नहीं ढूंढ पाया हूँ कि अच्छा क्या था?
शाहरुख के एक्शन में दम नहीं। एक सीन में सलमान उनसे बेहतर कर गए। शाहरुख सलमान जितना तो नहीं शायद देवानंद से बेहतर एक्शन कर पाए इस फ़िल्म में।
जॉन अब्राहम चड्डी पहने अच्छे लगते हैं, बॉडी में दम है, लेकिन अभिनय उनको नहीं आता।
दीपिका को अभिनय आता है, एक्शन भी अच्छा कर रही थीं, लेकिन उनका चरित्र लिखने वाले ने घिसा पिटा बना दिया।
डिम्पल और आशुतोष राणा में डिम्पल बेहतर अभिनय करती हैं। आवाज़ अच्छी है लेकिन आशुतोष बड़बोले हैं – स्क्रीन पर भी।
दरअसल सबसे कमज़ोर कड़ी है कहानी और संवाद। संवाद इतने घटिया हैं कि मीम के ज़माने में एक ढंग की पंचलाइन नहीं मिलेगी मीमस्टर्स को।
कहानी लगता है इसलिए लिखी गई कि विदेशों से तकनीशियन बुलाकर बढ़िया एक्शन दिखाना था, तो कुछ कहानी भी तो चाहिए थी, सो डाल दी। लॉजिक यानी तर्क का बॉलीवुड से यूँ भी रिश्ता नहीं है, लेकिन थोड़ी बहुत मर्यादा तो रखनी थी।
मर्यादा से याद आया, बेशर्म रंग गाना सिर्फ़ स्किन दिखाने के लिए बनाया है। अपन को उससे कोई समस्या नहीं है, लेकिन दुनिया में कुछ जगहों पर ये सब कहानी के आधार पर किया जाता है। अपने यहाँ ये करियर चमकाने का अस्त्र है।
मुझे वाकई लग रहा है कि 26 जनवरी वाला लंबा वीकेन्ड न होता और राइट विंग का साथ न होता तो फ़िल्म शायद ही इतना चल पाती।
पीआर चाहे जो बात मनवा दे। यह फ़िल्म शाहरुख की प्रतिष्ठा बढ़ाने या बचाने में असफल हुई है।
पठान फ़िल्म पैसा बर्बाद है। तय है कि मोदी जी 2029 का चुनाव भी जीतेंगे।
यह पुस्तक रिपोर्ताज संकलन भी है साथ ही यात्रा ससंमरण भी। शिरीष ने नर्मदा की यात्रा (परिक्रमा नहीं) की है। एक पत्रकार होने के नाते उन्होंने अनेक राज्यों के अनेक क्षेत्रों यात्राएँ की हैं, वहाँ से रिपोर्टें भेजी हैं। लेकिन इस दौरान एक पत्रकार बहुत कुछ देखता-समझता है जिसे अख़बारों में या तो छापा नहीं जाता या छापा जाना सम्भव नहीं। गनीमत है कि शिरीष जैसे कुछ लोग इन संस्मरणों को डायरी में लिख लेते हैं।
“एक देश बारह दुनिया”, शिरीष के उन्हीं संस्मरणों के ज़रिए एक भुला दी गयी लेकिन विशाल और त्रासदीग्रस्त दुनिया में पाठक को ले जाती है। जिन रास्तों से गुज़रते हुए हम-आप तस्वीरें खींचकर “ब्यूटीफुल कंट्रीसाइड” का स्टेटस सोशल मीडिया पर लगा देते हैं, उन जगहों पर ठहरकर एक पत्रकार देख पाता है कि यही “ब्यूटीफुल कंट्रीसाइड” दरअसल अन्यायों, तकलीफों, बीमारियों, लूट, चोरी, दोहन, शोषण की एक ऐसी दुनिया है जिससे निजात पाना वहाँ के निवासियों के लिए लगभग असम्भव है। शिरीष के ही शब्दों का उपयोग किया जाए तो “टूसी या थ्रीसी – दो कॉलम या तीन कॉलम” की छोटी सी जगह में इन जगहों की जो ख़बरें छपती हैं, जिन्हें यह विज्ञापनों से दबे हुए पृष्ठ में या तो देख नहीं पाते या देखकर भी “टू डिप्रेसिंग” मानकर पढ़ते नहीं, दरअसल उन ख़बरों से अखबार पटा होना चाहिए और हर रात की प्राइम टाइम बहस का यही एक मुद्दा होना चाहिए।
इस क़िताब में नर्मदा की धीमी मौत की सच्चाई है, विस्थापन की कहानियाँ हैं, अफसरों, ठेकेदारों और नेताओं के ज़ुल्मों की दास्तानें हैं। राजस्थान की उन दो महिलाओं की कहानियाँ हैं जिन्होंने से ज़ुल्मों ने लड़ने के दो अलग रास्ते चुने, न्याय अलबत्ता दोनों को अबतक नहीं मिला। इस क़िताब में ग़ायब होते जंगल, मालिकों से प्रवासी मजदूरों में जबरन बदले जा रहे किसान और बंदूकों के साये में जी रहे आदिवासी भी हैं जिनका पुलिस न जाने कब फर्जी एनकाउंटर कर दे या कब मुखबिरी के आरोप में नक्सली उन्हें मार डालें।
“पत्रिका” के पत्रकार के रूप में शिरीष ने रायपुर-बस्तर में करीब तीन वर्ष बिताए, उनके इस दौरान के संस्मरणों का मेरे लिए और भी अधिक महत्त्व है क्योंकि छत्तीसगढ़ मेरा गृह राज्य है, और जिन वर्षों की कहानी शिरीष इस पुस्तक में लिखते हैं, तब मैं मेरे ही राज्य के लाखों युवाओं की तरह कहीं बाहर नौकरी कर रहा था। जब इक्कीस साल पहले हमारा राज्य अस्तित्व में आया था तब मैं कॉलेज में था, मेरे जैसे नौजवानों की आँखों में तब खुशहाली के जो सपने थे वो जल्द ही बर्बाद हो गए, उनकी बर्बादी का एक बड़ा कारण वह है जो “एक देश बारह दुनिया” के छत्तीसगढ़ के हिस्से में बेहद मार्मिक विवरण के साथ लिखा है।
शिरीष की पुस्तक को पढ़ना एक ऐसा पीड़ादायक अनुभव है जिससे हर पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय, शहरी भारतीय को गुजरना ही चाहिए। वह जो इस जैसी क़िताबों में छपा है, जब हर ड्राइंग रूम की बहसों का हिस्सा बनेगा तब शायद हम जान पाएंगे कि भारत का शासन तंत्र किस कदर अपने नागरिकों का शोषण करता है, विकास के असली मायने क्या हैं, और यह कि क्यों सदियों पुरानी दमन की व्यवस्थाएँ आज भी वैसी की वैसी जारी हैं।
विवेक गोम्बर और तिलोत्तमा शोमे की अतुलनीय अदाकारी है। रोहिना गेरा का बेजोड़ लेखन और क़ाबिले तारीफ निर्देशन है।
सिनेमेटोग्राफी उत्तम है। एक-एक फ्रेम शानदार है। संवाद बहुत सोच-समझकर लिखे गए हैं। प्रेम के पनपने और उसके बिखरने को फ़िल्मी नाटकीयता से बचाकर वास्तविकता के क़रीब लाया गया है। इसके पहले भी ऐसी फिल्में बनी हैं जिनमें ग़रीब-अमीर का प्रेम दिखाया गया है, लेकिन “सर” इन विषय को अधिक गंभीरता से कहानी में ढाल पाई है।
विवेक गोम्बर को “कोर्ट” में देखा था और तभी उन्होंने खूब प्रभावित किया था।इस फ़िल्म में तो उन्होंने जादू छिड़क दिया है। तिलोत्तमा शोमे का अभिनय भी बहुत मज़बूत है। इतने अच्छे अभिनय में एक कमी यह खली कि एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की मराठी स्त्री जिस प्रकार से हिन्दी बोल सकती है उस पर ध्यान देना चाहिए था।
बाकी पात्रों का काम भी अच्छा है। भाषा और संवादों में जो ईमानदारी है वह इससे पहले कोर्ट, मसान और नागराज मंजुळे की मराठी फ़िल्मों में दिखी है। हिन्दी सिनेमा में ऐसी ईमानदारी छः दशक पहले से होती तो आज हमारी फ़िल्मों की बात ही कुछ और है। जो “बड़े-बड़े” कलाकार इन दशकों में बड़बोले संवाद बोलते आए, उन्हें देखकर अब कोफ़्त होती है।
“मैं कौन हूँ?”, “जीवन का उद्देश्य क्या है?” आदि ऐसे प्रश्न हैं जिन पर न जाने कितना कहा और लिखा गया है। अनेक फ़िल्में भी बनी होंगी, लेकिन ऐसी फ़िल्म, वह भी एक एनिमेशन फ़िल्म शायद पहली बार बनी है। पिक्सार स्टूडियो की एनिमेशन फ़िल्म “सोल” (=आत्मा), एक बेहद अलग प्रयोग है। पिक्सार स्टूडियो अपनी शानदार एनिमेशन फ़िल्मों के लिए जाना जाता है। इनकी फ़िल्में हर बात में आम फ़िल्मों के जैसी ही मज़बूत, गंभीर और रोचक हुआ करती हैं। तकनीकी और कला मिलकर, फ़िल्मों को किस स्तर तक पहुँचा सकते हैं, वह ऐसी एनिमेशन फ़िल्मों से पता चलता है।
“सोल” की कहानी जीवन और जीवन तथा मृत्यु के बीच की एक दुनिया में आना-जाना करती है। मृत्यु के बाद, पुनर्जन्म और निर्वाण (इसे फ़िल्म में “द ग्रेट बियॉन्ड” कहा गया है) के बीच आत्माओं की व्यवस्थाएँ संभालने वाली एक दुनिया है। कहानी का नायक “जो गार्डनर” जैज़ संगीत में बड़ा नाम कमाना चाहता है, वह उस बीच की दुनिया में फँस जाता है। उसके पास निर्वाण का विकल्प है, लेकिन संगीत के क्षेत्र में बड़ा नाम करने की तमन्ना उसे वापस धरती की और खींचती है। उसकी इसी उधेड़बुन में कहानी अपना विस्तार पाती है।
बीच की उस दुनिया से वापस धरती पर आकर, एक दिन अपने सपने को पूरा होते देखकर भी, जो गार्डनर जीवन में अधूरापन महसूस करता है। इसी जीवन, जीवन के अर्थ, उद्देश्य और निर्वाण के प्रश्नों के बीच कहानी अपना आकार लेती है।
इन प्रश्नों को शायद अन्य फिल्मों ने भी लेने का प्रयास किया होगा। लेकिन फिल्म के निर्देशकों और लेखकों की कल्पनाशीलता की दाद देनी होगी कि वे बीच की उस दुनिया एक परिपूर्ण खाका प्रस्तुत करते हैं। यह सब करते हुए फ़िल्म अनेक सवाल खड़े करती है, जिनमें सबसे बड़ा यह है कि क्या वाकई जीवन का कोई उद्देश्य होता है? हम सभी को बचपन से यही सिखाया जाता है कि जीवन का एक उद्देश्य होना चाहिए, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या यह आवश्यक है कि जीवन कहीं किसी ख़ास मंज़िल तक पहुँचे? यह एक गंभीर विषय है, जिससे काफी मनोरंजक तरीके से फिल्म दिखाती है।
जिस प्रकार की कल्पनाशीलता फ़िल्म में देखने को मिली, उसके बाद यही कहना होगा कि इस विषय पर इतना गहरे उतरना शायद किसी एनिमेशन फ़िल्म के लिए ही सम्भव था।
फ़िल्म अंत तक बांधे रखती है। भारत में डिज्नी-हॉटस्टार पर देखी जा सकती है।
जीवन के उद्देश्य की चर्चा चल ही पड़ी तो महान नाटककार हबीब तनवीर साहब के एक कविता याद आ गई।
अमेज़न प्राइम पर आई “अनपॉज़्ड” निहायत ही घटिया दर्जे की फ़िल्म है।
इसकी पहली कहानी जो निखिल आडवाणी की है वही झेली नहीं गई। अव्वल तो यह समझना चाहिए कि करेंट अफेयर्स पर फ़िल्म बनाना बेवकूफ़ी है। जो इतना सामयिक विषय है, उस पर जनता आपसे अधिक जानती है। बनाना है तो बीस साल बाद बनाइए।
लेकिन भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स समेत, भेड़चाल यह है कि अच्छी कहानी लिखने से पहले यह सोचा जाता है कि क्या बिकेगा? बेचने का सोचकर बनाई गई हर कहानी बिक नहीं सकती। सोचा होगा कि हर किसी का ध्यान कोरोना महामारी पर है तो चलो उसी पर फ़िल्म बना लेते हैं, अटेंशन सबका यूँ ही मिल जाएगा। यही **यापा हो गया।
इस कहानी में जिसमें कोविड-30 दिखाया गया है, नायक समाचार चैनलों में कोरोना की ख़बरों से ऊब चुका है। अमां आडवाणी जी, तो भाई यह क्यों नहीं सोचा कि हर जगह कोरोना की ख़बरों और बातों से हम भी परेशान हैं। क्यों फ़िल्म में वही सब घसीट रहे हो?
रहा सवाल जो कुछ फ्यूचरिस्टिक यानी भविषय के लिहाज़ से दिखाया गया है, वह भी निहायत ही टुच्चा प्रयोग है। बिना गहरे रिसर्च किए आनन-फानन में कुछ भी बनाएंगे तो यही होगा। भविष्य का अर्थ केवल वॉइस असिस्टेंट पर चलने वाले घर नहीं होते। वह भी बनाना हो तो पहले वॉइस असिस्टेंट क्या है यह सीख लेना था।
कला और बाज़ार का गहरा रिश्ता है। लेकिन इस रिश्ते में कला का पलड़ा भारी न हुआ तो बाज़ार कला को खा जाता है। ओटीटी यानी इंटरनेट आधारित फिल्म माध्यमों के साथ यही हो रहा है। अस्सी के दशक की तरह फिर से मसला फार्मूला की तरफ़ चला गया है। दो चार सीमित फ़ार्मूले हैं जिन पर काम हो रहा है। गाली-हिंसा-राजनीति एक है, जासूस-आतंकवाद-देशभक्ति दूसरा। इसी तरह एक है छोटे शहरों की पृष्ठभूमि में कुछ भी कचरा परोस देना।
एंथोलॉजी ऐसी फिल्म होती है जिसमें किसी एक थीम (आवश्यक नहीं कि थीम का कहानी से कोई सीधा रिश्ता हो) के इर्द गिर्द एक से अधिक अलग-अलग कहानियाँ होती हैं। अनपॉज़्ड ऐसी एंथोलॉजी है जिसे न ही देखा जाए।
मनु जोसेफ़ के उपन्यास “सीरियस मेन” पर इसी नाम से बनी फ़िल्म आई है जिसे सुधीर मिश्रा ने बनाया है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी मुख्य भूमिका में हैं।
जितना अच्छा उपन्यास है, फ़िल्म उतनी अच्छी नहीं बन पाई है। बल्कि कहना होगा कि ख़राब फ़िल्म बनी है। सुधीर मिश्रा मुझे ओवररेटेड निर्देशक लगते थे पहले भी। अब यह धारणा और मज़बूत हो गई है। फ़िल्म की पटकथा उपन्यास की मूल भावना को समझाने में विफल रही है।
उपन्यास जैसा विस्तार फ़िल्म में नहीं हो सकता यह तो समझ आता है, लेकिन कुछ मुख्य पात्रों के साथ पटकथा में अन्याय किया गया है। मीडिया के सर्कस को फ़िल्म में उपन्यास से अधिक महत्व दिया गया है। वैज्ञानिकों (जिन पर फ़िल्म का शीर्षक है) की दुनिया और उसके विरोधाभासों को उपन्यास उजागर करता है, फ़िल्म ने पूरी तरह उसकी उपेक्षा की है। दलित-ग़रीब के प्रश्न को भी उपन्यास के जैसी गंभीरता से नहीं लिया गया है फ़िल्म में।
अरविन्द आचार्य की भूमिका में नसर अप्रभावी हैं। अक्षत दास बाल कलाकार की भूमिका में अच्छे लगे। इन्दिरा तिवारी ने ओज़ा मणि की भूमिका में बेहद अच्छा काम किया है। संजय नार्वेकर भी मंजे हुए कलाकार हैं और उन्होंने हमेशा की तरह प्रभावित किया। नवाज़ुद्दीन के लिए ऐसी भूमिकाएँ करना शायद नींद में भी इतना ही आसान हो गया होगा।
सुधीर मिश्रा की एक फ़िल्म है “इस रात की सुबह नहीं” उसमें उन्होंने पात्रों की वो खिचड़ी बनाई थी कि पूरी फ़िल्म दिशाहीन हो गई। इस फ़िल्म में भी वैसी ही ख़ामियाँ हैं।
इसलिए सलाह यही है कि “सीरियस मेन” उपन्यास पढ़ें। मनु जोसेफ़ का पहला उपन्यास है और बहुत अच्छा है। उनका दूसरा “इल्लिसिट हैप्पीनेस ऑफ़ अदर पीपुल” तो यादगार माना जाना चाहिए। उनका तीसरा उपन्यास “मिस लैला आर्म्ड एन्ड डेंजरस” बेकार है।
मनु जोसेफ़ लाइव मिन्ट अखबार के लिए नियमित लिखते हैं। एक बार उन्होंने लिखा था कि “बद्रीनाथ की दुल्हनिया” बहुत ही वाहियात फ़िल्म है। उन्हें एक दर्शक के रूप में अपनी इस फ़िल्म के बारे में भी वैसा ही कुछ ईमानदारी से लिखना चाहिए। वैसे तुलना करनी ही पड़े तो “बद्रीनाथ….” का निर्देशन बेहतर ही था।
“पेस्तनजी” भारत के पारसी समुदाय पर केंद्रित गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है। एक समुदाय जिसका भारत के स्वतंत्रता संग्राम, उद्योग जगत, विज्ञान और कानून की दुनिया और साथ ही कलाजगत में योगदान उसकी जनसंख्या में हिस्से के ठीक उलट है, उसकी संस्कृति पर शायद और भी बहुत सी फ़िल्में बननी चाहिए थीं। मुख्यधारा के सिनेमा में पारसियों के किरदार या तो हंसोड़ होते हैं, या एक तंग सी गढ़ी गयी छवि के भीतर ही रहते हैं।
बहरहाल। पारसी समुदाय पर फिल्मों की बात करें तो लोग शायद अशोक कुमार अभिनीत बासु चटर्जी की “खट्टा-मीठा” (1978) को ज़रूर याद करते हैं। “पेस्तनजी” कम से कम एक मामले में “खट्टा-मीठा” से कहीं बेहतर है, वह है भारतीय “बॉम्बे पारसी” समुदाय की संस्कृति को बारीकियों से चित्रित करने में। इसके कलाकारों की भाषा और उच्चारण तुलनात्मक रूप में बेहतर हैं।
यह दो जिगरी दोस्तों पेस्तनजी (अनुपम खेर) और पिरोजशाह (नसीरुद्दीन शाह) की कहानी है। शीर्षक से तो लगता है कि इसकी मुख्य भूमिका में अनुपम खेर हैं, शायद निर्देशक ने यह सोचा भी हो, लेकिन फिल्म देखकर ऐसा लगता नहीं। यह फिल्म नसीर साहब पर ही केंद्रित है। इन दोनों के अलावा शबाना आज़मी ने “जेरू” की भूमिका निभाई है और किरण खेर ने सूना मिस्त्री की।
पारसी लहजा और हावभाव अभिनय में उतार लेना इस फ़िल्म के कलाकारों के लिए शायद सबसे बड़ी चुनौती रही होगी। नसीरुद्दीन शाह ने इस काम को यूँ किया है कि उन्हें पहली बार इस फिल्म में देखने वाले श्याद सोच लें कि वे असल ज़िंदगी में भी पारसी ही हैं। नसीर ने न केवल पात्र की भाषा और लहजे को बल्कि पात्र के स्वभाव और उसके गुणों को पूरी तरह अपनी चाल-ढाल में उतारा है। शबाना ने भी पात्र को पूरी दक्षता के साथ उतारा है। लेकिन अनुपम एवं किरण निराश करते हैं। अनुपम का उत्तर भारतीय लहज़ा जाता नहीं। उनका अभिनय बस ठीक ही है। यह खासतौर से तब अखरता है जब वे नसीर के सामने पर्दे पर हों। तब दर्शक के लिए स्वाभाविक है कि वह दोनों की तुलना करे। किरण की भूमिका छोटी है, फिर भी अंतिम कुछ दृश्यों के अतिरिक्त वे विशेष प्रभाव नहीं छोड़तीं।
एक और उल्लेखनीय भूमिका है पिरोज़ शाह के नौकर छगन की जो अभिनेता चंदू पारखी ने निभाई है। उन्हें टीवी पर देखने वाले उनके ख़ास अंदाज़ के परिचित होंगे। उनके और नसीर के बीच के संवाद भी इस फिल्म का आकर्षण हैं।
कहानी कुछ यूँ है कि पेसी (पेस्तनजी) और पिरोज़शाह (पिरोज़) दोनों बचपन के दोस्त हैं। पेसी थोड़े लापरवाह क़िस्म का मस्तमौला व्यक्ति है और पिरोज़ गंभीर है। पिरोज़ के लिए जेरु (शबाना) का रिश्ता आता है, लेकिन फैसला लेने में पिरोज़ इतनी देर लगा देता है कि जेरु की शादी पेसी से हो जाती है। पिरोज़ को यह अखरता तो है लेकिन वह दोनों से दोस्ती और स्नेह बनाए रखता है। आगे चलकर पेसी और जेरु के रिश्तों में ठहराव आ जाता है और पेसी का सूना मिस्त्री (किरण) से विवाह से बाहर का रिश्ता हो जाता है। यह सब देखकर पिरोज़ अपने जिगरी दोस्त से नाराज़ हो जाता है। पिरोज़ पैसों और कारोबार के मामले में तो निपुण है लेकिन बेहद भावुक किस्म का इंसान है। रिश्तों की जटिलता को वह समझ नहीं पाता है। फिल्म दोनों दोस्तों के बिगड़ते-सुधरते संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती है।
कहानी अपने आप में बहुत अनोखी नहीं है, लेकिन पटकथा अच्छी है। विजया मेहता का निर्देशन भी अच्छा है।
भारतीय हिंदी सिनेमा में अस्सी और नब्बे का दशक समानांतर सिनेमा आंदोलन के लिए भी जाना जाता है। पेस्तनजी उस आंदोलन की एक यादगार फिल्म रहेगी।
जब परदेस में हम एक ठिकाना बना लेते हैं, एक संसार खड़ा कर लेते हैं, तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि अपना देस कौन सा है? वह जिसे हम छोड़ आए हैं या वह जो हमसे अब आसानी से नहीं छूटेगा? इंसानों के अलावा क्या किसी जगह के भूगोल से एक रिश्ता नहीं बन जाता? बाहर की दुनिया से हमारा रिश्ता हमारे अस्तित्व को भीतर से भी प्रभावित करता है। यह कहना सही नहीं कि अस्तित्व केवल भीतर की बात है, बाहर का संसार भी उसे ढालता है।
रिश्तों की बात करें तो क्या रिश्ते सिर्फ़ उन बने-बनाए ढाँचों में समाने ही चाहिए जो समाज ने बनाए हैं? या फिर हमें ये आज़ादी है कि ये ढाँचे कुछ इस तरह बदले जाएँ ताकि रिश्ते कोई क़ैदख़ाने न बन जाएँ? प्रेम, विवाह, दोस्ती, ये सब आख़िर क़ैद में क्यों बदल जाते हैं?
एक अमीर और ख़ुदमुख़्तार डेनिश लड़की कैरन (मेरिल स्ट्रीप) अपने स्वीडिश प्रेमी के भाई से एक समझौते की शादी करती है। कैरन को एक आज़ाद ज़िंदगी चाहिए। उसे अनजान देशों की यात्राएँ भी पसंद हैं। उसका पति अफ्रीका में एक ब्रिटिश उपनिवेश में रहता है। उसके पति के साथ उसका सम्बन्ध एक समझौते का सम्बन्ध है। उसमें पति को सिर्फ़ उसके पैसों से मतलब है। कैरन को अफ़्रीका में एक नयी ज़िंदगी बसानी है। वह कॉफ़ी के बाग़ान लगाती है। अफ्रीका में दास बना दिए गए वहाँ के मूलनिवासियों के साथ वह यह काम शुरू करती है। पति शिकार प्रेमी है और महिलाओं के सम्बन्ध में कुछ अधिक ही मनचला है। दोनों एक दूसरे की आज़ादी में दख़ल नहीं देते।
यहाँ उसकी मुलाकात प्रकृति प्रेमी, और घुमक्क्ड स्वभाव के डेनिस (रॉबर्ट रेडफोर्ड) से होती है। डेनिस जानवरों की दुनिया को बेहतर समझता है। उसे अफ्रीका के मूलनिवासियों से भी प्रेम है। वह उन्हें बाकी गोरों की तरह जाहिल नहीं समझता। डेनिस, कैरन को अफ्रीका की सैर पर ले जाता है। कैरन की एक खासियत है, वह कहानियाँ कहती है। अनजान मुल्कों की, अनजान क़िरदारों की। उसकी कल्पनाशक्ति विशाल है। डेनिस उससे कहानियाँ सुनता है। दोनों का अफ्रीका के विशाल और सुंदर जंगलों में घूमना, रात किसी एक जगह पर डेरा डाल कर कहानियाँ सुनना बेहद रूमानी है। फिल्म अफ्रीका की अपार वनराशि को बेहद सुंदरता से परदे पर लाती है। जानवरों की दुनिया करीब से बेहद आकर्षक दिखाई देती है। सबसे सुंदर दृश्य है जब डेनिस, कैरन को एक हवाई जहाज़ से अफ्रीका की सुंदर भूमि की सैर पर ले जाता है।
इस फ़िल्म में एक नहीं दो प्रेम कहानियाँ हैं। एक है दो इंसानों के बीच की, यानी कैरन और डेनिस की प्रेम कहानी। दूसरी है कैरन के अफ़्रीका से प्रेम की कहानी। किन्हीं भी दो इंसानों की प्रेम कहानी में यह हो सकता है कि प्रेमी दूर हो जाना चाहें या झगड़ लें। लेकिन इंसान और एक देस की प्रेम कहानी में, देस न तो दग़ा करता है न शिकायत। फिर भी परिस्थितियाँ ऐसी आ सकती हैं कि देस छोड़कर जाना पड़े।
इस औपनिवेशिक अफ्रीका में अफ्रीकी हैं, भारतीय मूल के नौकर और व्यापारी भी हैं। अफ्रीकी लोगों और उनकी जीवनशैली के प्रति कैरन का मत उदार है। वह उनससे सीखती है, उनके साथ एक रिश्ता बना लेती है। मूलतः यह एक प्रेम कहानी है। लेकिन साथ ही यह जंगल, जानवर, मूलनिवासी और विदेशी शासकों के बीच के जटिल संबंधों को भी ठीक से चित्रित करती है।
रॉबर्ट रेडफोर्ड के सिवा शायद ही कोई और इस भूमिका में जँचता। उनकी आँखों की गहराइयों में आज़ाद ज़िंदगी के लिए एक ज़िद दिखाई देती है, लेकिन दूसरों के लिए अप्रार प्रेम भी। मेरिल स्ट्रीप बहुत ही खूबसूरत और निपुण अभिनेत्री हैं, इस फ़िल्म के लिए उन्हें ऑस्कर मिला, निर्देशक सिडनी पोलॉक को भी। हरेक क़िरदार का अभिनय अच्छा है। बारीकियों की ओर ध्यान दिया गया है। सबसे बढ़कर तारीफ़ की जानी चाहिए कैमरा के लिए डेविड वॉटकिन की, उन्होंने हर एक फ्रेम को लाजवाब बना दिया है। उन्हें भी इस फिल्म के लिए ऑस्कर मिला था।
यह दो सच्ची कहानियों और दो अलग-अलग किताबों पर आधारित फ़िल्म है। मेरा इसे देखने का सबसे बड़ा कारण यह है कि यह पाककला से जुड़ी कहानी है।
जूलिया चाइल्ड प्रसिद्ध अमेरिकन टेलीविजन कुक एवँ व्यंजनों की किताबों की लेखिका थीं। 1949 के आसपास फ्रांस में अपने पति के साथ रहीं। वहाँ फ्रेंच व्यंजन बनाना सीखा। फ्रेंच कुकिंग में एक डिप्लोमा भी हासिल किया। ध्यान रहे कि पश्चिमी दुनिया में फ्रेंच पकवान लंबे समय तक शीर्ष पर रहे हैं। इन्हें पकाना भी काफ़ी कठिन माना जाता है। जूलिया चाइल्ड ने अमेरिकन मध्यवर्ग के लिए फ्रेंच कुकिंग को आसान बनाते हुए व्यंजनों की एक क़िताब लिखी। इसके बाद अनेक दशकों तक उन्होंने अनेक टेलीविजन कार्यक्रमों के ज़रिये अमेरिकी जनता को फ्रेंच खाना पकाना सिखाया। उनकी मीठी आवाज़ और दोस्ताना अंदाज़, कार्यक्रम को और भी अधिक आकर्षक बनाया करते थे। अनेक वीडियो आज भी यूट्यूब पर मौजूद हैं। फ़िल्म जूलिया के फ्रांस जाने से लेकर किताब प्रकाशित होने तक की उनकी दिलचस्प यात्रा को एक दूसरी कहानी के साथ जोड़कर दिखाती है।
दूसरी कहानी है 21वीं सदी के पहले दशक की जब ब्लॉगिंग की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही थी। तब जूली पॉवेल एक अनोखा चैलेंज लेती हैं। वो फैसला करती हैं कि वो जूलिया की किताब से करीब 550 व्यंजन 365 दिनों में बनाएंगी और उसके बारे में रोज़ ब्लॉग पर लिखेंगी । इतने सारे फ्रेंच व्यंजन बनाना, उन पर रोज़ ब्लॉग लिखना, वह भी तब जब जूली दिन में सरकारी नौकरी करती हों, आसान नहीं था।
दोनों की कहानियाँ अलग-अलग हैं। लेकिन उनमें जो साझा है वह दोनों का खाना बनाने की कला के प्रति समर्पण और जूली का जूलिया से एक अदृश्य गुरु-शिष्य का रिश्ता। फ़िल्म इन्हीं दोनों कहानियों को मिलाकर बनी है।
मेरिल स्ट्रीप ने जूलिया का क़िरदार निभाया है। वो बेहद खूबसूरत तो हैं ही, एक महान कलाकार भी हैं। चालीस के दशक की अमेरिकन महिला की भूमिका को उन्होंने बेहद अच्छे से निभाया है। उनकी फिल्म “आउट ऑफ अफ्रीका” देखी जानी चाहिए। शानदार फ़िल्म है।
एमी एडम्स ने जूली की भूमिका निभाई है। उनका अभिनय भी जबरदस्त है।
फ़िल्म दो क़िताबों को जोड़कर बनाई गई है तो कथानक तो कठिन होना ही था। किंतु बेहद अच्छे से लिखा गया है। नोरा एफ्रन ने ही इसका कथानक लिखा है और वही इसकी निर्देशक भी हैं।
दो अलग-अलग समयों में दो बेहद अलग पृष्ठभूमियों की महिलाओं का कुछ कर गुज़रना कैसे अलग-अलग भी है और थोड़ा एक जैसा भी! देखने लायक है फ़िल्म।
यह बीसवीं सदी के ब्रिटेन की, काज़ुओ इशिगुरो (ब्रिटिश लेखक) के उपन्यास पर आधारित कहानी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले के कुछ दशकों और बाद के कुछ वर्षों के घटनाक्रमों के इर्दगिर्द दरअसल यह एक बड़े रसूखदार ब्रिटिश सांसद की विशाल हवेली के बटलर की कहानी है। बटलर यानी पूरी हवेली का कामकाज संभालने वाला एक बड़ा घरेलू मैनेजर।
बटलर मिस्टर स्टीवंस का किरदार एंथनी हॉपकिंस (साइलेन्स ऑफ़ द लैम्ब्स, टू पोप्स) ने निभाया है। उनके समक्ष उस घर की मुख्य हाउसकीपर मिस केंटन का किरदार निभाया है एमा थॉम्पसन (सेंस एंड सेंसिबिलिटी एवँ हॉवर्ड्स एन्ड) ने।
एक आदमी अपने काम में इतना डूबा है कि उसे अगर कुछ सूझता है तो बस काम। वह इतना अधिक पेशेवर है कि अपने काम के आगे उसे निजी दुःख-सुख कुछ दिखाई नहीं देता। हवेली में एक महत्वपूर्ण डिनर को संभालने के दौरान उसी हवेली में रहने वाले उसके पिता की मृत्यु हो जाती है। लेकिन वह मेहमानों का ख़्याल रखना मृत पिता के पास जाने से अधिक ज़रूरी समझता है। मिस केंटन उसके प्रति आकर्षित है। लेकिन वह काम और करियर के प्रति इतना गंभीर है कि किसी भी किस्म के आकर्षण और रिश्ते से खुद को दूर रखता है।
काम में डूबा यह बटलर इन बातों की ओर ध्यान नहीं देता कि बहुत से लोग उसके मालिक को जर्मनों का एजेंट बता रहे हैं। स्टीवंस का मालिक और सांसद लॉर्ड डार्लिंगटन (जेम्स फॉक्स) इस प्रयास में है कि किसी तरह जर्मनों और अंग्रेज़ों में संधि हो जाए और वे युद्ध पर न जाएँ। क्या उसका मालिक सही है? क्या हिटलर और नाज़ियों का समर्थन ग़लत नहीं? बटलर को इन बातों से कोई मतलब नहीं, अलबत्ता उसे विश्वास है कि “हिज़ लॉर्डशिप” जो कर रहे हैं उसे वो उससे अधिक जानते हैं और सही ही कर रहे होंगे।
मैं बटलर के चरित्र में दासभाव ढूंढने की कोशिश करता हूँ। लेकिन नहीं। यह दासभाव नहीं है। बटलर प्रोफेशनल है। एक बेहद समर्पित प्रोफेशनल, कह सकें तो शायद एक कट्टर प्रोफेशनल। जब युद्ध खत्म होता है, लॉर्ड डार्लिंगटन की मृत्यु होती है, तब नए मालिक के प्रति भी वह उतना ही समर्पित है। हालांकि नए अमेरिकी मालिक का दोस्ताना अंदाज़ उसे थोड़ा असहज कर देता है।
नए मालिक के द्वारा हवेली खरीदने के बाद स्टीवंस पश्चिमी ब्रिटेन की सैर पर जाता है। उस यात्रा के दौरान सारी कहानी फ़्लैश बैक में चलती है।
मिस केंटन भी एक असरदार क़िरदार है। पूरे घर का काम दक्षतापूर्वक सम्भालती है। वह स्टीवंस के पेशेवर चरित्र से प्रभावित है, उससे सीखती भी है, लेकिन वह एक खुदमुख्तार महिला है। उसका हृदय भावुक भी है। उसका सबसे बड़ा दुःख है इस दुनिया में अकेला होना। इसलिए वह शादी करना चाहती है और एक घर बसाना चाहती है। लेकिन इन सबके बीच भी पेशा उसके लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। वह काम के दौरान अपनी बात कहने से डरती नहीं, स्टीवंस से भी नहीं।
लॉर्ड डार्लिंगटन की तुलना भारत के ज़मींदारों से करता हूँ। स्टीवंस के पिता सीनियर स्टीवंस एक बार खाना परोसते वक्त ठोकर खाकर गिर जाते हैं। सीनियर स्टीवंस घबराए हुए हैं और बार-बार माफ़ी मांग रहे हैं, लेकिन लॉर्ड डार्लिंगटन उनके गिरते ही फौरन दौड़कर उनके पास जाते हैं और उन्हें सहारा देते हैं। क्या भारत में लिखी ऐसी किसी कहानी में ऐसे किसी स्पर्श मात्र की भी कल्पना सम्भव होती? सांस्कृतिक चिह्न न जाने कितनी बातें कह जाते हैं वह भी एक छोटे से दृश्य में।
ऐसे अनेक दृश्य और संवाद हैं इस फ़िल्म में जो दर्शक को गहरे प्रभावित करते हैं। ह्यू ग्रांट की भी छोटी सी भूमिका है।
कहानी का स्क्रीनप्ले रूथ प्रावर झाबवाला ने लिखा है। इस्लाइल मर्चेंट निर्माता हैं। मर्चेंट-आइवरी प्रोडक्शन की सबसे बेहतरीन फिल्मों में एक है।