व्यंग्य (Satire), समाज

“वेडिंग” में अंकल- आंटी लोग

वेडिंग होती चाहे जिसकी हो उसकी शान रिटायर्ड अंकल-आंटी लोग हैं।

वेडिंग के मेहमानों का अस्सी प्रतिशत यही लोग होते हैं। चूँकि इनके पास फुल फ्री का समय है, तो ये हर रस्म को कुर्सी पर बैठकर आराम से देखते हैं।

इनमें से जो अंकल लोग दारू वाली खातिरदारी में शामिल होते हैं उनका जलवा सबसे अलग होता है। मैंने गौर किया है कि अंकल लोग चखना में उतना ध्यान नहीं देते, सीधे बोतल निबटा देते हैं। वेटर को “बेटे” कहकर बुलाते हैं। बातचीत के दौरान “मैं तब तक दफ़्तर नहीं छोड़ता था जब तक मेरी टेबल की सारी फाइलें न निबटा दूँ”, और “काम ईमानदारी से किया हमने, तो दिल में एक सैटिस्फैक्शन रहता है” ज़रूर बोलते हैं।

हमको सबसे सैड लगते हैं वो अंकल जो न पीते हैं, न खाते हैं, न नाचते हैं। ये चुपचाप हर जगह मौजूद होते हैं। ये अगर लहसुन-प्याज़ न खाएँ तो मेज़बान को अलग टेंशन लेना पड़ता है। इनको मंदिर वगैरह दिखाने के लिए एक्सट्रा गाड़ियों का इंतज़ाम भी करना पड़ता है।

वेडिंग में फोटोशूट के लिए दस लड़के अलग से लगे हों, लेकिन अपने फोन से अंकल को हर रस्म का फोटो लेना होता है।ये अंकल लोग शादी में जितने नए अंकल-आंटी से मिलें, उन सबका तुरन्त ही एक व्हाट्सऐप ग्रुप बना लेते हैं। उसमें “चाय शुरू हो गई है”, से लेकर “दुल्हन अभी तक स्टेज पर नहीं आई” जैसी महत्वपूर्ण सूचनाएँ भी होती हैं, मोदी जी तो ख़ैर होते ही हैं।

आंटी लोग आजकल रस्मों पर कमेंट नहीं करतीं। ना ही वो रिश्ता ढूंढती हैं। क्योंकि उनको मालूम है कि आजकल वो भाव उनको मिलेगा नहीं। आजकल आंटियाँ ड्रेस कोड के हिसाब से तैयार होने और स्टेटस लगाने में अपना समय अधिक व्यतीत करती हैं।सब मेहमान चला जाता है, लेकिन अंकल-आंटी शादी के बाद भी कुछ दिन रुक जाते हैं।

हमको मालूम है कि एक दिन हम भी अंकल बनूंगा, लेकिन इसको पढ़कर कुढ़ने वाले अंकल जान लें कि तब हम खाली बैठकर रस्में देखने की बजाए, बाकी के अंकल पर यूँ ही पोस्ट बनाकर हँसता रहूंगा।

– हितेन्द्र अनंत

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मानक
समाज

धर्मों के नाम पर हिंसाएँ क्यों होती हैं?

धर्मों के दो स्वरूप होते हैं। पहले एक आंतरिक स्वरूप होता है, जिसमें धर्म की अवधारणाएँ होती हैं, उसकी शिक्षा होती है और उसका दर्शन होता है।

लेकिन इस आंतरिक स्वरूप को जनसुलभ बनाने के लिए धीरे-धीरे उसका बाह्य स्वरूप आकार लेता है। इसमें अनेक बाते होती हैं, हलाल-हराम, शुभ-अशुभ, पवित्र-अपवित्र आदि। बाह्य स्वरूप में वेशभूषा, खानपान, केश व्यवस्था – बाल, दाढ़ी, चोटी इत्यादि आते हैं, साथ ही इनमें आंतरिक स्वरूप का ज्ञान देने वाली क़िताबें भी आती हैं जो खुद बाह्य स्वरूपों का एक हिस्सा बन जाती हैं।

समय के साथ प्रत्येक धर्म के बाह्य स्वरूप इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उस धर्म के आंतरिक स्वरूप को जानने समझने की चेष्टा कोई नहीं करता।

बाह्य स्वरूपों का पालन कट्टरपंथी विचारों को बढ़ावा देता है क्योंकि यही बाह्य स्वरूप उस धर्म के अनुयायियों को अन्य धर्मों के अनुयायियों से अलग दिखाता है। मसलन, बाल कभी न कटाना, दाढ़ी रखना, मूँछ न रखना, गंजे हो जाना, चोटी रखना, या कि खास रंग के कपड़े पहनना आदि।

धर्मो की असली शिक्षाओं का बाह्य दिखावे के सामने गौण हो जाना ही धर्मों के मॉडल का असफल हो जाना है। सभी धर्म इस मामले में एक बराबर हैं कि वे सभी असफल हो चुके हैं। क्यों असफल हैं? क्योंकि उनके मानने वाले उनकी शिक्षाओं को ताक पर रखकर केवल दिखावटी अंतरों को ही धर्म समझ बैठते हैं। ऐसी असफलता केवल धर्मो की हो ऐसा नहीं है, राजनीतिक विचारधाराओं के साथ भी ऐसा ही होता है।

इसलिए एक समय के बाद धर्मो में क़िताब का अपमान, कार्टून, चित्र, मांस भक्षण, लहसुन-प्याज़, जैसी बातें इंसानों की हत्याएँ करवा देती हैं, जबकि उनकी शिक्षाओं जिनमें, भलाई, मदद, सेवा, अहिंसा, भाईचारा आदि बातें (जितनी भी हों या जैसी भी हों) गौण हो जाती हैं।

आम लोगों को समझाने की गरज से या स्थानीय संस्कृति के तत्वों को अंगीकार करने की आवश्यकता से, धर्म जिन बाह्य स्वरूपों को अपनाते हैं, वही उनकी असल शिखाओं को कहीं अंदर दफ़ना देते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि धर्मो के नाम पर स्वाभाविक हिंसाएँ नहीं रुकेंगी।

फिर क्या है जो इस क़िस्म की हिंसाओं को रोक सकता है? एक ऐसा तंत्र जो धर्मों से भी अधिक कट्टर तौर पर सेक्युलर हो , लिखे हुए क़ानून पर चले, उसका सख़्ती से पालन कराए, न्याय करे और सबके लिए समान हो।

दुःख की बात यह है कि कम से कम भारत में ऐसा तंत्र भी उसी चक्र का शिकार है, ऐसा तंत्र कागज़ों में छपा तो है लेकिन उस पर अम्ल कितना होता है यह लिखने की आवश्यकता नहीं।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज, सामयिक (Current Issues)

गुडगाँव

गुडगाँव में वह हो रहा है जो हम पाकिस्तान में होता देख चुके हैं।

गुडगाँव के कुछ हिन्दू रहवासियों को मुसलमानों का किसी खुले मैदान में नमाज़ पढ़ना पसन्द नहीं आ रहा। इस दौर में एक बड़े अपवाद के तौर पर गुडगाँव का प्रशासन मुस्लिमों को सुरक्षा दे रहा है और नमाज़ पढ़ने में उनकी मदद कर रहा है।

मुझे नमाज़ की जानकारी नहीं लेकिन यह कोई डीजे बजाकर शोर मचाने वाला उपक्रम नहीं है। सार्वजनिक नमाज़ प्रायः शुक्रवार की दोपहर को पढ़ी जाती है। अधिकतम पन्द्रह मिनट का शांत कार्यक्रम होता है। चूँकि फ़िलहाल मस्जिदों में कोरोना के चलते भीड़ बढ़ाना स्वीकृत नहीं है, इसलिए कहा जा रहा है कि उस क्षेत्र के कामगार मुसलमान एक मैदान में अपना धार्मिक कर्तव्य अदा कर रहे हैं।

जब हिंदुओं के कुछ उत्सवों में दस-दस दिन लगभग पूरे दिन-रात डीजे बजाया जाता है, सड़कें घेरी जाती हैं, और जुलूसों के दौरान ट्रैफिक को बाधित जिया जाता है, तब पूरी आबादी इसे त्यौहारों की आवश्यकता समझकर साथ देती है। क्या दो मिनट की अज़ान सुन लेना या घर के सामने किसी को नमाज़ पढ़ते देख लेना इतना पीड़ादायक अनुभव है?

सुना है कि गुडगाँव के वही उपद्रवप्रेमी लोग अब ठीक नमाज़ के वक्त भजनों को लाउडस्पीकर पर बजा रहे हैं। ज़ाहिर है कि भजन को ठीक नमाज़ के वक्त गाने का हिन्दू धर्म में कोई आदेश या नियम नहीं है। बल्कि हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती ही यह है, और अन्य धर्मों के मुकाबले यह गुण उसमें बेहतर है, कि इसका कोई भी नियम स्वैच्छिक है। हिन्दू धर्म में उपासना का कोई एक नियमबाध्य तरीका नहीं है। अनेक तरीके हैं और अनेक मीमांसाएँ हैं जो उन तरीकों के पालन न हो पाने की स्थिति में विकल्प बताती हैं, और कोई हिन्दू चाहे इन्हें माने, चाहे न माने, वह फिर भी उतना ही हिन्दू रह सकता है। ऐसे में ऐन नमाज़ के वक्त भजन गाना सिवाय एक अन्य धर्म से नफ़रत के प्रदर्शन के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।

दरअसल हिन्दुओं का इतना भयादोहन किया गया है कि उन्हें दाढ़ी-टोपी वाले मुसलमान देखते ही डर लगने लगता है। दूसरी और अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज के सत्तालोलुप वर्ग को यह समझ आने लगा है कि हिन्दुओं के नाम पर कट्टरता का प्रदर्शन करने से उन्हें सत्ता की मलाई का एक छोटा सा टुकड़ा मिल सकता है। अतः समाज में कट्टरता दिखाने की होड़ लग रही है।

यही सब पाकिस्तान में हुआ। वहाँ जब सभी अल्पसंख्यकों का लगभग सफाया कर दिया गया, और आबादी को एक कट्टर इस्लाम की झूठी पहचान में ढाल दिया गया तो अब सत्ता पाने और प्रभाव जमाने के लिए एकमात्र विकल्प बचा है कि खुद को दूसरों से बेहतर मुसलमान साबित किया जाए। यही कारण है कि वहाँ इस्लाम के एक फ़िरक़े का दूसरे पर बम फेंकना अब आम बात हो गई है।

गुडगाँव के ये लोग उन्हीं हिन्दुओं की प्रारंभिक प्रजाति हैं जो एक दिन आपस में लड़ेंगे और यह साबित करने के लिए कि वही असली हिन्दू हैं, एक-दूसरे का ख़ून करने से भी न हिचकेंगे।

गुडगाँव का समझदार पुलिस प्रशासन हिंसा रोक रहा है। लेकिन देश के बहुसंख्यक समाज के दिलों में, उन्हीं के धर्म के संतों-महापुरुषों की शिक्षाओं की जो प्रतिदिन हत्या हो रही है, उसे कौन रोकेगा?

– हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज

टिकटॉक और एक देश का समाज

समाजविज्ञान के लिए भारत में एक बड़ी घटना है जिसका अध्ययन होना चाहिए। यदि हुआ है या हो रहा है, तो मैं उसके बारे में जानना चाहूंगा।

यूँ पिछले तीस सालों में ऐसा बहुत कुछ है जो बड़े पैमाने पर बदला है, और जिसका अध्ययन या तो हुआ नहीं या मुझ जैसे पाठकों तक पहुँचा नहीं। फिर भी यह एक घटना है जिसके अनेक आयाम हैं।

टिकटॉक या शार्ट वीडियोज़। ये पिछले पाँच सालों से देहातों, गलियों, झोपड़ियों में बनाए जा रहे हैं। इन्हें बनाने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि वही अपने आप में एक मार्के की बात है।

अव्वल तो इससे यह पता चलता है कि देश में कितना टैलेंट है! लोग पंद्रह सेकण्ड्स में अपनी कला का क्या ख़ूब प्रदर्शन करते हैं। देश में इतनी प्रतिभा थी, जो घरों की चारदीवारी में बंद थी, अब वह सामने आ रही है तो हैरानी होती है।

दूसरा, वर्जनाएँ टूट रही हैं। जिन्हें अबतक “बहुएँ” या “भाभियाँ” समझकर चूल्हे तक सीमित माना जा रहा था, ऐसा लगता है उनमें देह के सौन्दर्य को दिखाने की एक सदियों पुरानी ललक थी जो अब पूरी हो रही है। हिन्दी के अखबार जिन्हें “सम्भ्रान्त घराने की महिलाएँ” कहते हैं, वो बारिश में हाइवे पर भीगते हुए वीडियो बना रही हैं। पानी से तरबतर इन महिलाओं की देह का सौंदर्य नृत्य के साथ जुड़कर करोड़ों “लाइक्स” जुटा रहा है। सिर्फ़ में हाइवे में भीगना नहीं है, कुछ खेतों के ट्यूबवेल के पानी में भीग रही हैं तो कुछ घर के बाथरूम में भी! इनमें हर उम्र की स्त्रियाँ हैं, लेकिन बहुमत विवाहिताओं और अधेड़ उम्र की महिलाओं का है। ऐसा लगता है सदियों की घुटन को दूर कर खुली हवा में साँस लेने का एक ज़रिया मिल गया है।

तीसरे, एक वर्ग है जो सोलह से बाइस की उम्र के लड़के लड़कियों का है। इनके वीडियो जो आते हैं, उनकी अलग ही शैली है। इनमें अक्सर तीन-चार लड़के-लड़कियों के समूह पर कुछ फिल्माया जाता है। इनकी भाषा और इनकी दुनिया एकदम अलग है।

चौथे, ऐसे वीडियोज़ हैं जिनमें पति-पत्नी दोनों हैं। प्रायः इनमें पति की उपस्थिति मेहमान कलाकार की सी होती है, लेकिन कुछ हैं जो दोनों के दोनों समान रूप से प्रतिभावान हैं।

पाँचवी बात यह है, कि एक गाना आता है और उसपर पूरा देश नाचने लगता है। कुछ दिनों तक किसी एक गाने का चलन  रहता है फिर कोई दूसरा आ जाता है।

इन सभी वीडियोज़ से एक बात तो साफ़ है कि देश का बड़ा वर्ग खुलकर नाचना चाहता है। बड़े वर्ग को परिधानों में, ओढ़ने-ढँकने या बांधने वाले कपड़ों से परहेज़ है। 

लेकिन फिर ऐसे लोग हैं जो इन वीडियोज़ को देखते तो चाव से हैं लेकिन उनके घर में ऐसा हो जाए तो बखेड़ा खड़ा कर दें।

आखिर भारत को इतना नाचना क्यों है? लोग जो मोटे तौर पर एक पाबंदी पसंद करने वाले, मध्य युगीन सोच रखने वाले निज़ाम को बढ़ चढ़कर वोट देते हैं, वो उसी निज़ाम से इतने अलग क्यों हैं? क्या दोनों बातों में कोई रिश्ता है? घरों के भीतर, खेतों में, खलिहानों में, सोसायटी की छत पर रोज़ अलग अलग फ़िल्मी गीतों पर नाचने वाली महिलाओं का सोचना क्या है? उनके घरवालों पर इसका क्या प्रभाव है? उनके वीडियोज़ देखने वाले जो उनके मोहल्ले या गाँव के लोग हैं वो उनसे किस तरह पेश  आ रहे हैं? यदि कोई सेलेब्रिटी स्टेटस इससे बन रहा है तो ये लोग उससे कैसे डील कर पा रहे हैं? कोई है जो इन पर सोचेगा?

इन बातों पर शोध होना चाहिए। पेपर पढ़े जाएँ, क़िताबें लिखी जाएँ। इसे समझा जाए और समझाया जाए। पीएचडी हो तो कुछ इस विषय पर भी हो!

हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज, सामयिक (Current Issues)

उबर पर युनाइटेड किंगडम के फ़ैसले के भारत में गिग इकोनॉमी के लिए मायने

यूनाइटेड किंगडम के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में टैक्सी एग्रीगेटर एप उबर के ख़िलाफ़ फैसला दिया है कि उसकी टैक्सी चलाने वाले सभी चालक अब उसके कर्मचारी माने जाएंगे और वे सभी सेवानिवृत्ति और सामाजिक सुरक्षा के लाभों के हक़दार होंगे।

इस फैसले के भारत सहित पूरे विश्व में दूरगामी परिणाम होंगे। बाकी देशों की अदलातों के सामने इस फ़ैसले का संदर्भ निश्चित ही महत्वपूर्ण होगा।

फैसले के बारे में:

1. सात वर्ष चली इस न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उबर ने यह दलील रखी कि वह सिर्फ ग्राहकों और चालकों को प्लैटफॉर्म की सुविधा देती है। और चूँकि, चालक अपनी मर्ज़ी के अनुसार जब चाहे और जितनी देर चाहे काम कर सकते हैं, उन्हें उबर का कर्मचारी नहीं मना जा सकता।
2. उबर की इस दलील को रद्द करते हुए अदालत ने जिन बातों को आधार माना उनमें प्रमुख यह है कि भले ही उबर और चालकों के बीच का क़रार एक नियोक्ता और कर्मचारी के बीच होने वाला क़रार नहीं है, फिर भी, उबर इस पूरे व्यापार की शर्तों को पूरी तरह नियंत्रित करती है और इन्हें निर्धारित करने में चालकों की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं है। अर्थात, यह सम्बन्ध व्यापारिक संबंधों की तरह दोतरफ़ा न होकर नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों की तरह एकतरफा है।
3. अदालत के अनुसार ग्राहकों द्वारा दिए गए रेटिंग सिस्टम के आधार पर उबर चालकों की सेवा रद्द करने का अधिकार रखती है। अदालत ने माना कि उबर यह भी तय करती है कि किसी भी फेरे में अधिकतम किराया कितना होगा, इस प्रकार उबर चालकों की अधिकतम आय पर नियंत्रण रखती है। साथ ही, एक बार लॉगिन करने के बाद उबर के चालक के पास आने वाले फेरों में से चुनने का अधिकार नहीं होता है। यदि चालक बार-बार राइड कैंसल करें, तो उबर उन पर जुर्माना भी लगाती है, यह भी उबर द्वारा नियंत्रित है। एक और बात जो अदालत ने मानी वह यह कि फेरों के तय होने तक यात्री और चालक के बीच सीधे संवाद असम्भव है। अतः इस दृष्टि से भी इस प्रक्रिया में उबर का ही नियंत्रण है। इन सभी कारणों से उबर और चालकों के बीच के सम्बन्ध को एक नियोक्ता और कर्मचारी के बीच का सम्बन्ध ही माना जा सकता है।
4. गिग इकोनॉमी प्रायः ऐसे व्यापारों की व्यवस्था को कहते हैं जिनमें कोई ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म ग्राहकों को पार्टटाइम या फ्रीलांस पेशेवरों या कामगारों को जोड़ता है। स्विगी,जोमैटो, बिग-बास्केट, ओला व उबर इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
5. भारत में हाल ही के केंद्रीय बजट में गिग इकोनॉमी के कामगारों को सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों से जोड़ने की बात की गई है। नए लेबर कोड में भी इसका कुछ उल्लेख है। यह अच्छी संकेत हैं। लेकिन बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

भारत में इस फैसले का यहाँ की गिग इकोनॉमी प्रभाव और अन्य प्रश्न
6. उम्मीद की जानी चाहिए कि ब्रिटेन के फैसले के आधार पर भारत में भी अदालतें गिग इकोनॉमी के कामगारों के अधिकारों को मान्यता देते हुए उन्हें राहत पहुंचाएंगी।
7. इस प्रकरण से एक सवाल यह उठता है आखिर यह गिग इकोनॉमी क्या वाकई समाज एवँ बाज़ार के लिए उपयोगी हैं? हममें से अनेक लोग प्रायः यह कहते हैं कि ओला-उबर की वजह से रिक्शे वालों की मनमानी से हमें मुक्ति मिली है। यह बात ठीक भी है। लेकिन रिक्शे वालों की मनमानी का प्रमुख कारण क्या यह नहीं कि भारत के अधिकांश शहरों में पुलिस एवँ आरटीओ रिक्शे वालों से क़ानून का पालन करवाने में अक्षम रहे हैं? मुम्बई एवँ कुछ गिने-चुने शहरों के अतिरिक्त भारत में चलती-फिरती टैक्सी को मान्यता ही नहीं है। इसलिए ओला-उबर ने यदि कोई कमी पूरी की भी है, तो क्या ऐसा नहीं है कि वो अन्य तरीकों से पूरी नहीं हो सकती थी?
8. नए रिक्शों के लाइसेन्स प्रायः या तो निकलते नहीं या उनके हासिल करने की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार है। रिक्शों या टैक्सी के लिए लोन पाना कितना आसान है यह भी एक सवाल है।
9. ओला-उबर ने हालाँकि ग्राहकों को कुछ राहत पहुँचाई है, लेकिन उनके द्वारा चालकों का जो शोषण किया जाता है वह अब एक निर्विवाद तथ्य है। ग्राहकों के संदर्भ में भी शुरुआती सालों की सस्ताई के दिन अब लद गए हैं। दिन के महत्वपूर्ण घंटों, छुट्टी के दिनों और एयरपोर्ट जैसी महत्वपूर्ण जगहों पर “सर्ज प्राइसिंग” के जरिए ये कम्पनियाँ ग्राहकों को भी लूट ही रही हैं।
10. सिर्फ़ कामगारों का सवाल नहीं है। स्विगी और जोमैटो जैसी कंपनियों से रेस्त्रां मालिक परेशान हैं,वहीं ओयो एप की वजह से होटल मालिक त्रस्त हैं। गूगल न्यूज़ ने समाचार माध्यमों का हक छीना है। यानी नुक़सान सभी वर्गों का है।
11. प्रत्येक बात को ग्राहकों या उपभोक्ताओं की सुविधा या हित से जोड़ने की सोच भी समाज विरोधी है। “ग्राहक सबसे ऊपर” का अर्थ यह नहीं कि समाज के एक वर्ग का शोषण होने दिया जाए।
12. हमारे घरों तक पिज़्ज़ा पहुँचाने वाले, या दूध-सब्ज़ी लाने वाले लड़कों को भी सम्मानजनक वेतन एवँ सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता है। यदि इसका अर्थ सेवाओं का महँगा होना है तो वही सही! क्या इन सेवाओं के पहले हम दूध, सब्ज़ी या पिज़्ज़ा का सेवन नहीं करते थे?
13. एक प्रश्न तकनीकी पर नियंत्रण के ज़रिए अनावश्यक लाभ उठाना भी है। ओला-उबर-जोमैटो जैसी कम्पनियाँ जिन सेवाओं या उत्पादों को ग्राहकों तक पहुँचा रही हैं, उस प्रक्रिया में तकनीकी प्लेटफ़ॉर्म बनाने के अतिरिक्त उनका कोई योगदान नहीं है। लेकिन पूरे व्यापार में कमाई पर उनका हिस्सा एकतरफ़ा है। यह सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तकनीकी तक उनकी पहुँच है और एक बड़े वर्ग की नहीं। क्या यह एक नए क़िस्म की पुरोहिताई नहीं है जिसमें धर्म के तरीकों और धर्म की भाषा पर वर्ग विशेष के नियंत्रण की वजह से हमारे देश को आज तक ग़ैरबराबरी को झेलना पड़ रहा है?
14. तकनीकी के असीम विकास का अर्थ क्या यह है कि हम हर नई ईजाद को अपनाएँ भले ही उससे हमें नुक़सान हो? पिछली सदी की अनेक ईजादों को अंधा होकर अपनाने के नुक़सान क्या हमारे सामने नहीं हैं?
15. सब कुछ बाज़ार की शर्तों पर छोड़ देना क्या उचित है? सामाजिक सुरक्षा, सभी वर्गों तक न्यूनतम जीवन-स्तर के साधन जुटाना क्या समाज की और राज्य की जिम्मेदारी नहीं है?

– हितेन्द्र अनंत

मानक
संगीत, समाज

“कमल की वखत तो केवल कमल जानता है। सागौन जो यहाँ लगे हैं, इनको क्या मालूम कमल की वखत?

*** “कमल की वखत तो केवल कमल जानता है। सागौन जो यहाँ लगे हैं, इनको क्या मालूम कमल की वखत?” ***

“आप गाते हैं कि माला, मुद्रा, छाप, तिलक, व्रत आदि सब छोड़ने की बात #कबीर साहब करते हैं। लेकिन महंत बनकर जब आप खुद चौका-आरती करते हैं तो यह क्या है?”
स्टैंफोर्ड विश्वविद्यालय की प्रोफेसर लिंडा हेस यह सवाल खालिस हिन्दी में पूछती हैं, प्रख्यात कबीरपंथी गायक श्री प्रह्लाद टिपानिया से।

#टिपानिया जी जवाब देते हैं:

“आप उसके अंदर जाकर जब काम करेंगे तो पता चलेगा। भई जिन लोगों के अंदर चौका आरती के प्रति जो श्रद्धा बनी हुए है, उस श्रद्धा को आप ठुकराओगे तो आपको कौन मानेगा?

सवाल केवल यह है कि जो व्यवस्थाएँ हैं, उन व्यवस्थाओं के भीतर जो बुराइयाँ आ गयी हैं उन बुराइयों को आप कैसे दूर करेंगे?”

लिंडा फिर पूछती हैं – “दो रास्ते हैं, एक तो यह कि धर्म, परम्परा सब छोड़कर, ऊपर से, शिखर से, जगदर्शन का मेला देखें, या दूसरा यह कि हम परम्परा के अंदर, उस धार्मिक समाज के अंदर जाकर उसको बदलने की कोशिश करेंगे, तो वो दूसरा रास्ता आपने चुन लिया।”

टिपानिया जी कहते हैं:

“देखिए, हम इस भौतिक संसार के कीचड़ में फँसे हुए हैं, और बात हम ठेठ ऊपर की कर रहे हैं तो बहुत अच्छी बात है। वो इसलिए कि उस कीचड़ से आप ऊपर उठ गए हैं और फिर उस कीचड़ की या पानी की बूँद आप पर नहीं ठहरेगी। परन्तु कब? जब कमल बनोगे तब। और कमल हमेशा पानी के अंदर रहकर ही ऊपर आता है।

तो इसी तरह से किसी भी चीज़ के बोध के लिए आपको उसके अंदर जाना पड़ेगा। और उस कीचड़ के अंदर से जब आप ऊपर आएँगे तो तो कीचड़ वाले समझेंगे कि अरे बाप रे! ये हमारा आदमी था, हमारे बीच पैदा हुआ, लेकिन अब इसके भीतर ये ठहर क्यों नहीं रहा पानी? तो आपको उसमें रहकर तो उसके ऊपर आना पड़ेगा बाहर। पर ये कब होगा? जब आप उनके बीच में रहेंगे तब। आप सोचो कि आप तालाब के किनारे से बाहर ही रह गए तो आपको क्या मालूम पडेगा? और वो लोग क्यों मानें आपको? कमल की वखत तो केवल कमल जानता है। सागौन जो यहाँ लगे हैं, इनको क्या मालूम कमल की वखत?”
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यह और ऐसे बाकी महत्वपूर्ण संवाद इस डॉक्यूमेंट्री में हैं:

https://www.youtube.com/watch?v=K0ha9S2r-mI

लिखते समय संवादों को सुविधा हेतु बहुत थोड़ा सा बदला है।
– हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज

नर्मदा – एक नदी के इतिहास, वर्तमान और भविष्य पर चर्चा

एक नदी,केवल एक नदी अपने भीतर न जाने कितनी कहानियाँ समेट सकती है!
इस धरती पर जब महाद्वीपों में टकराव हुआ तो वह घाटी बनी जिसमें यह नदी बहती है।
स्कन्द पुराण की वह कहानी कि जिसमें दूसरों को तप का फल देने वाले भोले शंकर ने खुद तप किया।
या फिर वह बालक शंकर जो शायद 14 वर्ष की आयु में केरल से पैदल चलकर सुदूर उत्तर में इस नदी के किनारे पहुँचा अपने गुरु की तलाश में और फिर इसी नदी के किनारे मंडनमिश्र से वह शास्त्रार्थ किया जिसके बाद भारत के दर्शन को एक नया मोड़ मिला।

या फिर वह कलचुरी वंश जिसने भारत के बड़े भूभाग पर राज किया और शिल्पकला को शायद किसी भी राजवंश से अधिक प्रश्रय दिया।

और फिर संघर्ष की वह कहानी जिसमें लाखों आदिवासियों और ग्रामीणों ने कभी बांधों के बनने तो कभी उनकी ऊंचाई के बढ़ने तो कभी अपने घरों और जड़ों से उजाड़ दिए जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष किया।

उन बैगाओं, भीलों और गोंडों की कहानी जिन्होंने ने हज़ारों साल एक नदी और उसके जंगलों को बचाकर रखा।

या फिर साल के उन वृक्षों की और उन दलदलों की कहानी जिनके होने से एक महान नदी का अस्तित्व है जो इतनी विशाल है लेकिन किसी ग्लेशियर पर निर्भर नहीं।

और उस लालची प्रजाति की कहानी जिसने कुछ कागज की मिलों के लिए साल के जंगलों की जगह नीलगिरी के जंगल लगवाना चाहा चाहे फिर एक पूरी नदी का अस्तित्व ही खत्म हो जाए।

और इन सब कहानियों के इर्दगिर्द अपनी प्यारी नदी की प्रदक्षिणा करने वालों की कहानी तो है ही।

एक ही चर्चा में इन सारी कहानियों को कहने वाले समाज और संस्कृति के मर्मज्ञ साहित्यकार अशोक जमना जी ने सुनाई नर्मदा की कहानी।

आप भी सुनिए:

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General), समाज, सामयिक (Current Issues)

आप मर तो चुके ही थे अब शायद जॉम्बी बन जाएंगे

यहाँ ही नहीं पूरी दुनिया में शिक्षा के निजीकरण का अभियान सा चल रहा है। विश्व व्यापार संगठन यानी WTO चाहता है कि सभी देश शिक्षा के “बाज़ार” में खुलापन लाएँ।

दरअसल वे आपके खून की हरेक बूंद चूस लेना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे चाहते हैं कि जब आपका खून चूसा जाए तब आप खुशी-खुशी उन्हें ऐसा करने दें। इसलिए आपको कभी धर्म की नफरत में तो कभी आर्थिक उदारीकरण के नाम और पूंजीवादी नशे की आग में झोंक दिया जाता है। आप खुद के ही साथ हो रही नाइंसाफ़ी पहचान नहीं पाते हैं।

दूसरे का दर्द आपको दूसरे का लगता है। आपके अपने दर्द का आपको अहसास नहीं होता। कुलमिलाकर आप इंसान नहीं बल्कि मशीनों में बदल दिए जा रहे हैं। अफ़सोस कि आप इससे आहत भी नहीं हैं। आपको जो यह बतलाने की कोशिश करे वह आपको ग़लत से लेकर देश के दुश्मन तक सब कुछ नजऱ आता है।

मुफ्त शिक्षा और मुफ्त इलाज, यदि एक सभ्य समाज की यह निशानियाँ न हों तो वह समाज सभ्य ही कहलाने के योग्य नहीं है।

लेकिन आपको बहाने चाहिए। ताकि गलत होने पर भी किसी तरह आप खुद को दिलासा देते रहें। एक मूर्ति के साथ की गई ग़लत छेड़छाड़ को आप तराजू के एक पलड़े पर रखते हैं। उससे दूसरे पलड़े पर आप पूरी एक पीढ़ी के हक और भविष्य को रखते हैं। आपको मूर्ति का पलड़ा भारी लगता है। मूर्ति, रोबोट और आपमें अब कोई फर्क नहीं बचा है। आप मर तो चुके ही थे अब शायद जॉम्बी बन जाएंगे।

#IstandwithJNU #JNUProtests

– हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज

रोज़ा-इफ़्तार बनाम नवरात्रि का फलाहार

गिरिराज सिंह, नवरात्रि, ईद, फलाहार और इफ़्तार

स्वामी विवेकानंद ने अनेकों बार कहा है कि हिन्दू धर्म और इस्लाम में सबसे बड़ा फ़र्क है कि इस्लाम में सामूहिकता है, हिन्दू धर्म में नहीं।

इस्लाम एक संगठित धर्म है जिसमें एक साथ मिलकर अनेक धार्मिक कार्य करने पर जोर है। हिन्दू धर्म व्यक्ति केंद्रित धर्म है जिसका सर्वोच्च भाव है व्यक्ति की सांसारिक बंधनों से मुक्ति और परमात्मा को प्राप्ति।

मैं अब नास्तिक हूँ और मुझे दोनों धर्म समान रूप से अच्छे या बुरे लगते हैं। लेकिन, मेरे परिवार में और आसपास नवरात्रि धूमधाम से मनाई जाती रही है। अष्टमी के हवन के भंडारे और कन्या भोज को छोड़ दें तो मैंने कभी नहीं देखा कि नवरात्रि का उपवास सामूहिक रूप से खोलने का कोई रिवाज़ हो। अव्वल तो उपवास का रिवाज़ है, नियम या अनिवार्यता नहीं।

ईद में रोज़ा रखना एक कर्तव्य है। हिन्दू धर्म में उपवास कर्तव्य नहीं बल्कि विधि है जिसका कोई बंधन नहीं।

और उपवास खोलना एक नितांत निजी कार्य है। परिवार के लोग शायद कभी-कभी मिलकर ऐसा करते हैं, कभी आसपड़ोस के लोग भी, लेकिन ऐसा कोई पक्का रिवाज़ नहीं है।

हिन्दू चाहें जैसा उपवास रख सकते हैं, नौ दिन का, प्रतिदिन एक समय का, केवल फलाहार का, निर्जला, सब उनकी खुद की मर्जी है। मैंने यह कभी नहीं देखा कि इस बारे में किसी पंडित से लोगों ने पूछा हो कि उपवास के दौरान इंजेक्शन लगवाने से क्या होता है? हिंदुओं को मालूम है कि उपवास स्वैच्छिक है इसलिए ऐसे प्रश्न उन्हें आतंकित नहीं करते। ऐसे प्रश्न मुस्लिम दुनिया में आम हैं। क्योंकि वहाँ इसको एक कर्तव्य माना जाता है। कर्तव्य होने की वजह से लोगों के मन में डर या शंकाएँ अधिक होती हैं।

तो किसी भी तरह से नवरात्रि के उपवास सामूहिक रूप से खोलने की परंपरा मैंने नहीं देखी। गिरिराज सिंह बिहार से हैं, यदि बिहार में ऐसी कोई परम्परा हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं, लेकिन जो परंपरा शेष भारत में भी प्रायः नहीं ही है, उसकी बिना वजह ईद के इफ्तार से तुलना करके हिन्दू नेताओं से माने जाने की अपेक्षा रखने का क्या तुक है?

मुझे लगता है कि राजनीतिक मंसूबों और समाज में विभाजन की अपनी योजना के चलते ये लोग हिन्दू धर्म का पूरा स्वरूप बदल कर रख देंगे (काफ़ी हद तक बदला ही है). एक हिन्दू इसे सही माने या ग़लत यह उसे सोचना है।

हितेन्द्र अनंत

मानक
समाज, सामयिक (Current Issues)

सबरीमाला प्रकरण पर

#सबरीमाला की समस्या ऊपरी तौर पर भले ही ऐसी लगे कि यह दक्षिणपंथियों द्वारा भड़काई आग है, पर सच यह है कि वहाँ के (केरल के!) समाज में यह मुद्दा बेहद भीतर पैठ बना चुका है।

समाज का भीड़ में तब्दील होकर एक सर्वोच्च संवैधानिक शक्ति के फ़ैसले को धता बताना सामान्य घटना नहीं है। पहली घटना भी नहीं है। ऐसी घटनाएं बार-बार भारत के भीतर से कमज़ोर हो चुके लोकतंत्र और गणतंत्र की असहाय स्थिति की ओर इशारा करती हैं।

डॉक्टर आम्बेडकर चाहते थे कि सामाजिक सुधारों पर राजनैतिक सुधारों से पहले ध्यान दिया जाए। कांग्रेस पहले आज़ादी यानी राजनैतिक सुधार चाहती थी। अब लगता है कि सामाजिक सुधार न हो पाने का नुक़सान बड़ा हुआ है। यह गणतांत्रिक भारत की विफ़लता भी है। गणतांत्रिक व्यवस्था के चलते प्रगतिशील कानून बन भी रहे हैं तो लागू नहीं हो पा रहे। प्रतिस्पर्धी राजनीति (चुनावी मजबूरियाँ) कांग्रेस और सी.पी.एम. जैसे दलों को भी मजबूर कर रही हैं कि वो सबरीमाला के रास्ते रोककर खड़ी भीड़ को वहाँ से बलपूर्वक हटाने का समर्थन करें।

समाज यदि तंत्र को और उसके अधिकारों को पूरी तरह स्वीकार नहीं करेगा तो तंत्र कमज़ोर होगा ही। और हुआ तो एक दिन यह समाज सुरक्षित नहीं रह पाएगा और फ़िर पहले की तरह अंधकार में जीने को अभिशप्त रहेगा।

राजनैतिक विरुद्ध सामाजिक सुधारों के विषय पर भले ही डॉक्टर आम्बेडकर (और वो सही थे) के गांधीजी और कांग्रेस से मतभेद रहे हों, सच तो यही है कि व्यापक भारतीय समाज में यदि कोई एक व्यक्ति सामाजिक सुधारों को पहुँचा सकता था तो वह मोहनदास करमचंद गांधी था।

आम्बेडकर और गांधी, दोनों अपने बनाए भारत को बढ़ता हुआ नहीं देख पाए। नेहरू भी जैसे भारत को बनाना चाहते थे और बनाने का प्रयास करते रहे, उनके जाने के बाद वह सारा सपना अब मिट चुका।

ऊपरी परत को छोड़ दें तो भारत का समाज आज भी हद दर्जे का सामंतवादी, जातिवादी, अंधविश्वासी और प्रगतिविरोधी है। यह समाज राममोहन राय से लेकर विवेकानन्द तक तमाम सुधारकों के आने के बाद भी नहीं सुधर पाया है। इसे शायद फ़िर से औपनिवेशिक गुलामी सरीखे किसी बाहरी झटके का इंतज़ार है।

ख़ैर, कांग्रेस और वामपंथी दल तथा आंदोलन कम से कम इतना तो अवश्य करें कि क़ानून की आड़ न लेते हुए सामाजिक बुराइयों का खुलकर विरोध करें। यह उन्हें चुनावी ज़मीन पर शायद ध्वस्त कर दे, पर इतिहास में उनका खोया गौरव अवश्य लौटा सकता है।

हितेन्द्र अनंत

मानक