विविध (General), सामयिक (Current Issues)

कृषि का कॉरपोरेटाइजेशन

समझिए क्यों कृषि को कॉरपोरेट के हाथों में देना ख़तरनाक होगा

मैं लाइसेंस-परमिट राज का समर्थक नहीं हूँ। लेकिन बात जब विश्व की चन्द बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की हो तो मुक्त बाज़ार या मुक्त व्यापार सिर्फ़ छलावा साबित हुए हैं।

  1. अमेज़न और फ्लिपकार्ट का असर अपने पड़ोस की मोबाइल बेचने वाली दुकान के मालिक से पूछिए।
  2. ओयो की वजह से होटल वालों को वाकई कितना व्यापार मिला और असल में वो किस तरह ओयो और उस जैसी वेबसाइटों पर आश्रित रहने को मजबूर हो गए यह उनसे पूछिए।
  3. जोमैटो और स्विगी के ख़िलाफ़ तो बहुत सारे रेस्त्रां (बड़े-बड़े भी) हड़ताल कर चुके हैं। जिन्होंने एक तरफ़ अंतिम ग्राहकों पर कब्ज़ा कर मांग पर एकाधिकार बना लिया है, दूसरी तरफ़ रेस्त्रां मालिकों पर कमीशन बढ़ा-बढ़ाकर उन्हें लूटा है।
  4. रिलायंस रीटेल, डीमार्ट, मोर, स्टार बाज़ार आदि के कारण मोहल्ले की किराना दुकानों का अस्तित्व केवल दूध, ब्रेड, अंडे जैसी चीज़ें बेचने तक सीमित हो गया है। इनसे वह काम छीनने का काम अब बिग बास्केट डेली जैसी ऍप्लिकेशन बनाने वाली कम्पनियाँ कर रही हैं।
  5. इन सबका सबसे बड़ा असर यह है कि आम आदमी जिन आसान और कम पूंजी से खुल जाने वाले व्यापारों के सहारे आत्मनिर्भर हो जाया करता था, उन व्यापारों को शुरू करना और चलाए रखना अब बेहद मुश्किल होता जा रहा है।
  6. इस आम आदमी के लिए तर्क दिया जाता है कि वह इन्हीं बड़ी कंपनियों में नौकरी कर सकता है! कोई यह नहीं सोचता कि स्वरोजगार, व्यापार और बमुश्किल राशन दे पाने वाली नौकरी, इन सबमें फर्क होता है। कोई महीने का पचास हजार देने वाली दुकान छोड़कर महीने का दस हजार देने वाली नौकरी कर तो क्या यह विकास है?
  7. आम व्यापारी से उसके व्यापार का स्वामित्व छीन लेना क्या विकास है?
  8. यदि कृषि में भी कॉरपोरेट की पूंजी आई (आने ही लगी है) तो किसान अपनी ही ज़मीन पर मज़दूरी करने को बाध्य हो जाएंगे।
  9. कांट्रेक्ट फार्मिंग बंधुआ मजदूरी का ही दूसरा नाम है।
  10. ग्राहक यह सोचकर खुश न हों कि उन्हें जब विकल्प मिल रहे हैं, सस्ता सामान मिल रहा है तो उन्हें क्या लेना-देना? आप भी इसी समाज का हिस्सा हैं। ये दुकानदार, ये किसान, ये दिनभर मोटरसाइकिल पर डिलीवरी देने वाले आपके ही भाई-बंधु हैं। कल आपकी नौकरी छूट जाए तो आपके पास भी स्वरोजगार के वही रास्ते होंगे जो इन लोगों के पास हैं।
  11. एक न एक दिन ये सस्ता सामान मिलना भी बंद हो जाएगा। याद कीजिए इस देश में कभी दस के आसपास टेलिकॉम कम्पनियाँ थीं, अब तीन बची हैं। चौथी बीएसएनएल वैसे भी गिनती में नहीं आती। आपको क्या लगता है? यह सस्ताई का ज़माना आखिर कब तक टिकेगा? एक न एक दिन ये कम्पनियाँ या तो आपस में समझौता कर दाम बढ़ा लेंगी या इनमें भी एक और ख़त्म हो जाएगी। फिर आपका क्या होगा?
  12. मुक्त बाज़ारों का अर्थ होता है न्यूनतम सरकारी नियंत्रण और सभी को व्यापार में भागीदारी का मौका। मुट्ठीभर कंपनियों के हाथ पूरा बाज़ार सौंप देना दरअसल ग़ुलामी के सिवा और कुछ नहीं है।
  13. जूते से लेकर ज्वेलरी बेचने वाली कंपनियों ने आपका बहुत कुछ छीन लिया है। उसे समझिए।
  14. अपनी सरकारों से मुक्त बाज़ारों की मांग कीजिए। मांग कीजिए कि लोन पाना और किश्तें चुकाना आपके लिए भी उतना ही आसान हो जितना इन कंपनियों के लिए है।
  15. मांग कीजिए कि क़ानून ऐसे बनें कि किसी भी व्यापार में गिनी-चुनी कंपनियों का गिरोह क़ब्ज़ा न कर पाए।
  • हितेन्द्र अनंत
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अंकल की समस्या – महाराष्ट्र में लोग मराठी क्यों बोलते हैं?

कहानी आपबीती है। सच्ची है।

एक अंकल और आंटी काफ़ी महीनों से, वो क्या कहते हैं, खाए हुए हैं।

इंदौर का परिवार है। अंकल हमारे अब्बा हुज़ूर के सहपाठी हैं। पुणे में उनके बच्चे काम करते हैं। मेरे पास तब आए जब उनको मेरे इलाके में किराए का मकान चाहिए था। बोले मकान दिलवा दो। ऐसी सोसायटी हो जहाँ मराठी न रहते हों।

उनको अच्छी तरह मालूम है कि मेरी बीवी मराठी है। मैं खुद यहाँ 14 सालों से रह रहा हूँ इसलिए कोई माने या न माने मैं भी मराठी हूँ। फिर भी, बीवी के सामने कहते हैं कि हमको ऐसी सोसायटी चाहिए जहाँ मराठी न रहते हों। मैंने पूछा क्यों? तो आंटी बोली, “ये लोग” आखिर अपना रंग दिखा ही देते हैं। मैंने पूछा क्या रंग दिखा देते हैं? बोली अरे लैंग्वेज का बहुत प्रॉब्लम है। अगर दो मराठी मिल जाएँ तो आपस में मराठी में बात करते हैं, फिर ये आपस में एक हो जाते हैं।

मैंने पूछा आपके इंदौर में कोई दो हिन्दी वाले किसी मराठी के सामने मिलें तो क्या हिन्दी में बात नहीं करते? जवाब नहीं था। मैंने पूछा आपसे पुणे में किसने हिन्दी में बात नहीं की? आप जिस मराठीभाषी से मिलिए वो आपसे हिन्दी में बात कर ही लेगा। फिर आपको दिक्कत क्या है? बोली, नहीं लेकिन ये लोग हमको अपने में शामिल नहीं करते।

मैंने कहा, लड़के आपके यहाँ पढ़ने आए, नौकरी करने आए, अगर ये लड़के अमेरिका जाएंगे तो क्या अमरीकी हिन्दी में उनसे बोलेंगे या ये अंग्रेज़ी में बोलेंगे? आप यहाँ की भाषा सीखो। उनसे बात करो।

तो अंकल बोले लेकिन यहाँ त्यौहारों का वो मज़ा नहीं जो “अपने उधर” है। मैंने पूछा, क्या आप इंदौर में गुड़ी पड़वा मनाते हैं? बोले नहीं लेकिन इंदौर में बहुत से मराठी रहते हैं वो तो मनाते हैं। तो मैंने कहा, लेकिन इंदौर में गुड़ी पड़वा का वो मज़ा नहीं हो सकता जो पुणे में है। आप यहाँ रहकर यहाँ के लोगों से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि ये न केवल अपनी भाषा आपके लिए छोड़ दें, बल्कि अपने त्यौहार भी छोड़कर आपके त्यौहार मनाएँ?

ये वो अंकल हैं जो अपने फेसबुक पर अखण्ड भारत बनाना चाहते हैं। जिन्होंने ये भी लिखा कि इतिहास में केवल हिन्दू राजाओं की कहानी पढ़ानी चाहिए। मुसलामानों और मुगलों की सब बातें डिलीट करवा दो। इनके अखण्ड भारत में लोग केवल हिन्दी बोलेंगे।

अंकल को मटन खाने का विशेष शौक है। खाते हैं तो साथ में ब्लेंडर्स प्राइड भी पीते हैं। अंकल को ये नहीं मालूम कि जो लोग उनके लिए अखण्ड भारत बनाने का ठेका लेकर बैठे हैं वो जिस दिन अखण्ड भारत बना देंगे उस दिन सबसे पहले दारू और मटन बन्द करा देंगे। हिन्दी भी शायद बन्द करवा दें! क्योंकि अखण्ड भारत के ठेकेदारों के भी ठेकेदार तो प्रायः मराठी ही बोलते हैं। अंकल को ये बात समझ नहीं आती।

मुझे तो लगता है एक न एक दिन अखण्ड भारत बन ही जाएगा। मैंने तो मराठी सीख ली है। उस दिन तक ज़िंदा बच गए तो अंकल का क्या होगा?

– हितेन्द्र अनंत

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धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन बनाम बुराई

धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन एक बात है और धर्मों की बुराई दूसरी। दूसरी बात से समाज में वैमनस्य बढ़ता है। धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन अवश्य किया जाना चाहिए। लेकिन इस बारे में लिखने में हर प्रकार की सावधानी बरतनी चाहिए। तुलनात्मक अध्ययन में आलोचना होगी ही। लेकिन उसे अकादमिक ईमानदारी से और सावधानीपूर्ण भाषा में ही प्रस्तुत करना चाहिए।

इसके अतिरिक्त, एक धर्म के व्यक्ति को दूसरे धर्म की आलोचना से बचना चाहिए। कट्टरता, कुरीतियों और हिंसा की आलोचना कोई भी किसी की भी करे वह अलग बात है। लेकिन किसी अन्य के धर्म के मूल तत्वों की आलोचना केवल और केवल अकादमिक होनी चाहिए। उसमें भी यथासंभव पक्षपातपूर्ण खंडन-मंडन से बचना चाहिए।

किसी भी धर्म या परंपरा से शोषित या पीड़ित वर्ग को यह अधिकार है कि वह अपने शोषक धर्म या परंपरा की आलोचना करे। हालाँकि उन्हें भी कम से कम इतना ध्यान रखना चाहिए कि उनकी बातों से हिंसा न फैले।

जो स्वयं को नास्तिक, रहस्यवादी आदि समझते हैं, उन पर यह विशेष ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी बात संयमित ढंग से रखें। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रायः यह वर्ग धर्मों की सबसे प्रमुख बुराई धार्मिकों के बीच हिंसा को बताता है। ऐसे में स्वयं इसी वर्ग को ऐसे हालात नहीं बनने देने चाहिए जिससे कि सामाजिक शांति को नुक़सान पहुँचे।

अकादमिक आलोचना अथवा तुलनात्मक अध्ययन को प्रकाशित करते समय भी यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी बातों का पाठक या श्रोता कम से कम इस योग्य हो कि आलोचना को समझ सके। ऐसी बातें बिना ध्यान दिए हर किसी के बीच बाँटने की नहीं होतीं।

  • हितेन्द्र अनंत
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नशा

एक नज़ारा देखा।

दस शराबी नशे में धुत्त थे। खुद को संभाल न पाएँ इतना अधिक नशा कर रखा था। सड़क पर वे शोर मचा रहे थे और आपस में लड़ रहे थे। एक आदमी जिसने कभी शराब नहीं पी या किसी मादक पदार्थ का सेवन नहीं किया, उनके बीच गया और उन्हें नशा करने के नुकसानों के बारे में प्रवचन देने लगा।

मैंने फिर से गिनती की। अब पाया कि वहाँ कुल ग्यारह आदमी नशे से प्रभावित थे।

  • हितेन्द्र अनंत
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हिंदी फिल्मों में दक्षिण के दो प्रसिद्ध गायक

हिंदी फिल्मी संगीत में पार्श्व गायन सबसे महत्वपूर्ण है। हिंदी पट्टी से बाहर के पार्श्व गायकों में बड़ा हिस्सा बंगाल (किशोर कुमार, मन्ना डे), पंजाब (मोहम्मद रफ़ी) और महाराष्ट्र (लता, आशा मंगेशकर) से आता है। लेकिन दक्षिण भारत के भी ऐसे अनेक गायक-गायिकाएँ हैं जिन्होंने हिंदी फ़िल्म जगत में खूब नाम कमाया।

के. जे. येसुदास, एस. पी. बालासुब्रमण्यम, के. एस. चित्रा, शंकर महादेवन, हरिहरण, कविता कृष्णमूर्ति, सुचित्रा आदि ऐसे अनेक गायक हैं जो दक्षिण से आकर हिंदी फ़िल्म जगत में प्रसिद्ध हुए। इनमें से दो सबसे प्रमुख गायकों की चर्चा हम यहाँ करेंगे:

1. के जे येसुदास:

मूलतः केरल के रहने वाले येसुदास के नाम यह उपलब्धि है कि उन्होंने देश में सबसे अधिक बार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कार जीता है। अब तक आठ बार इस पुरुस्कार को जीतने वाले येसुदास ने सन 1972 में पहली और 2017 में आठवीं बार यह यश प्राप्त किया। अनेक अन्य पुरूस्कारों के अतिरिक्त येसुदास ने केरल राज्य का प्रादेशिक फ़िल्म पुरुस्कार गायन हेतु रिकॉर्ड 25 बार जीता है।

हिंदी फ़िल्मों में येसुदास ने अनेक प्रसिद्ध गीत गाए हैं। फ़िल्म “चितचोर” में गाए उनके गीत ख़ासतौर से याद किए जाते हैं।

येसुदास के द्वारा गाए गए हिंदी गीतों में प्रमुख हैं:

1. गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा
2. कहाँ से आए बदरा
3. जानेमन जानेमन
4. जब दीप जले आना
5. सुरमई अँखियों में
6. दिल के टुकड़े टुकड़े कर के
7. चांद जैसे मुखड़े पे
8. आपकी महकी हुई ज़ुल्फ़ को कहते हैं घटा
9. का करूँ सजनी आए न बालम

2. एस. पी. बालासुब्रमण्यम

दक्षिण में एस. पी. बी. या बालू नाम से मशहूर। गायन के अतिरिक्त संगीत निर्देशन व अभिनय भी किया है। दक्षिण की चारों प्रमुख भाषाओं के अतिरिक्त इन्होंने हिंदी में अनेक गीत गाए हैं। इन्हें गायन हेतु अब तक छः राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कार मिले जिनमें से 1981 में फ़िल्म “एक दूजे के लिए” का प्रसिद्ध गीत “तेरे मेरे बीच में, कैसा है ये बंधन अनजाना”शामिल है।कहा जाता है कि किशोर कुमार की ही तरह बालासुब्रमण्यम ने संगीत की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली थी।

एस. पी. ने सलमान खान के लिए खासतौर से अनेक गीत गाए। सलमान की पहली फ़िल्म “मैंने प्यार किया” और शायद सबसे अधिक चलने वाली फ़िल्म “हम आपके हैं कौन” के लिए उन्होंने सलमान पर फिल्माए गए सभी गीतों में आवाज़ दी। इसके अलावा सलमान के लिए उन्होंने “साजन” और “पत्थर के फूल” जैसी फिल्मों में भी गीत गाए। सलमान के अतिरिक्त हिंदी फिल्मों में एस. पी. ने कमल हासन को भी अपनी आवाज़ दी। संगीतकार ए. आर. रहमान (संगीत निर्देशक होने के अतिरिक्त स्वयं एक गायक) के लिए इन्होंने रोज़ा फ़िल्म के गीत गाए।

एस. पी. बालासुब्रमण्यम के गाए प्रमुख हिंदी गीत हैं:

1. तेरे मेरे बीच में
2. पहला-पहला प्यार है
3. बहुत प्यार करते हैं
4. जिएँ तो जिएँ कैसे
5. ये हसीं वादियाँ ये ख़ुला आसमां
6. साथिया तूने क्या किया
7. मेरे जीवन साथी
8. रूप सुहाना लगता है
9. सच मेरे यार है

– हितेन्द्र अनंत

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आपको किस क़िस्म का संगीत पसंद है?

आपको किस क़िस्म का संगीत पसंद है? यह सवाल अक्सर मुझसे पूछा जाता है, और मैं भी दूसरों से यह सवाल पूछा करता हूँ। हालाँकि भारत में यह सवाल ऐसे भी पूछा जाता है कि आपको कैसे गाने पसंद हैं? इस लेख में मैं इसी सवाल का जवाब अपनी ओर से ढूंढना चाहता हूँ। क्या यह सम्भव है कि इस सवाल का जवाब एक वाक्य में दिया जाए?

बात तो संगीत की ही करनी है, लेकिन शुरुआत भोजन से करते हैं। बड़े-बड़े शेफ़, मिशलीन स्टार वगैरह वाले हों या कोई और, जब खाने की विधियाँ बताते हैं तो उन विधियों में परिमाण (मेजरमेंट), समय और तापमान के कड़े नियम हुआ करते हैं। मसलन इतने ही ग्राम आटा लेना है, इतने डिग्री पर चूल्हा या अवन रखना है और इतने ही मिनट पकाना है। इसमें कोई शक नहीं कि इन नियमों का पालन करने पर ही आपको सही परिणाम मिलेंगे, स्वाद, रंग आदि जैसा चाहिए वैसा आएगा। लेकिन जब यह व्यंजन पहली बार बने तब, या जिन इलाकों में यह व्यंजन वहाँ की परम्परा का हिस्सा हैं, क्या वहाँ भी इन्हें ऐसे ही बनाया गया होगा? ज़ाहिर है, व्यंजन पहले बने, और परिमाण के ये कठोर नियम बाद में आए। ख़ैर, मुझे इस तरह से खाना बनाने में आनंद नहीं आता।

संगीत के विषय में भी यह लागू होता है। उदाहरण के लिए किसने तय किया होगा कि शास्त्रीय (क्लासिकल) संगीत किसे कहा जाएगा और लोक संगीत किसे? संगीत के पनपने की प्रक्रिया एक बड़े समय तक नैसर्गिक ही रही होगी। दक्षिण के अग्रणी शास्त्रीय संगीत गायक टी एम कृष्णा के विचार इस सम्बन्ध में रोचक हैं। टी एम कृष्णा साहब का कहना है कि संगीत की सभी शैलियाँ हमेशा से ही शास्त्रीय तो रही नहीं होंगी, लेकिन उनमें से कौन सी शास्त्रीय बनेंगी इसके निर्धारण के पीछे यह बात महत्वपूर्ण है कि समाज के किस तबके के द्वारा इस संगीत को बनाया और पसंद किया जाता है। उदाहरण के लिए जैज़ संगीत की एक लोकप्रिय शैली है, लेकिन अमेरिका में आज भी “क्लासिकल” संगीत की श्रेणी में उसे गिना नहीं जाता, और यह वहाँ एक विवाद का विषय है। ध्यान रहे कि जैज़ संगीत की परम्परा मूलतः अमेरिका के अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय की परम्परा है। भारत में भी संगीत की शास्त्रीय परम्परा में जाति विशेष के कलाकारों का ही लगभग एकाधिकार है। भारत में संगीत (और नृत्य भी) की अन्य परम्पराओं को या तो लोक संगीत कहा जाता है, या उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जो मिलना चाहिए।

संगीत को अनेक जॉनर्स में वर्गीकृत (क्लासिफाइड) किया गया है। क्लासिकल, कंट्री, रॉक, साइकेडेलिक रॉक, आर एन्ड बी, हिप-हॉप, हिन्दुस्तानी शास्त्रीय, कर्नाटिक आदि न जाने कितनी ही शैलियाँ हैं। लेकिन जब ये वर्गीकरण नहीं हुए तो थे तब भी क्या संगीत नहीं था? क्या रोजर वॉटर्स और पिंक फ्लॉयड बैंड के उनके साथियों ने किसी दिन यह सोचा होगा कि चलो साइकाडेलिक रॉक बनाते हैं?

खैर, इस लेख का मकसद यह चर्चा करना है कि किस क़िस्म के संगीत को मैं अपना संगीत मान सकता हूँ? इस बात को अंग्रेज़ी में “माय काइंड ऑफ़ म्यूज़िक” कहा जाता है। लेकिन कैसा संगीत है जो मेरी तरह का है? यदि यह सवाल मुझसे पूछा जाए तो क्या मैं उसका जवाब एक वाक्य में दे सकता हूँ?

मेरी ही तरह भारत में लगभग हर संगीत प्रेमी, संगीत को लेकर एक मुकम्मल राय रखता होगा। मेरा अपनी जानकारी का संसार चूँकि उत्तर भारत तक सीमित है, तो मैं लगभग उसी तक सीमित बातें कर सकता हूँ। पिछले अनेक दशकों से हिंदी फ़िल्मी संगीत, उत्तर भारत में संगीत का पर्याय बन चुका है। निहायत ही सम्भ्रान्त किस्म के लोगों को छोड़ दें तो एक औसत उत्तर भारतीय प्रायः फ़िल्मी संगीत को ही संगीत मानकर चलता है। यह उस देश में है जहाँ संगीत की हज़ारों सालों की विशाल परम्परा है, और भारत के एक धर्म के सबसे महत्वपूर्ण धर्मग्रंथों में से एक सामवेद संगीत पर ही आधारित है। जैसा कि मैंने शुरआत में लिखा, दुनियाभर में लोग यह सवाल एक दूसरे से पूछते होंगे कि “आपको कैसा संगीत पसंद है?” लेकिन भारत में उससे अधिक यह पूछा जाता है कि “आपको कैसे गाने सुनना पसंद है?”, और यहाँ गानों से अभिप्राय फ़िल्मी गानों से होता है।

आप कैसा संगीत सुनना पसंद करते हैं? यह सवाल आमतौर पर एक औसत भारतीय जिसकी उम्र सन 2020 में कम से कम 25 या उससे ज़्यादा हो, तो सबसे अधिक जवाब जो मिलते हैं उनके उदाहरण कुछ इस प्रकार हैं:

(सबसे अधिक सुनाई दिए जाने वाले जवाबों के क्रम में। नामों का क्रम कोई रेटिंग नहीं है।)

1. लोग गायकों के नाम लेते हैं, मुख्यतः – किशोर कुमार, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, आशा भोंसले
2. कुछ लोग फिल्मों के दशकों के नाम गिनाते हैं – साठ और सत्तर के दशक का संगीत। एक बड़ा वर्ग वह भी है जो नब्बे के दशक में जवान हुआ और उस दशक के संगीत को पसंद करता है। फिर ऐसे बहादुर लोग भी हैं (ख़ाकसार शामिल है) जो अस्सी के दशक के आमतौर पर “ख़राब” माने जाने वाले फ़िल्मी संगीत को भी खुलेआम पसंद करने से नहीं हिचकते।
3. ऐसे भी लोग हैं जो फिल्म में संगीत बनाने वाले संगीत निर्देशकों का नाम लेते हैं – आर डी बर्मन, एस डी बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, शंकर-जयकिशन या बप्पी लाहिड़ी आदि।
4. एक बड़ा वर्ग है जो ग़ज़लों को पसंद करता है। इनमें भी सबसे ऊपर नाम आता है जगजीत सिंह का, फिर मेहदी हसन, ग़ुलाम अली, नुसरत फ़तेह अली खान एवँ पंकज उधास आदि हैं।
5. इसके बाद आता है उनका नंबर जो संगीत की शैलियों (जॉनर्स) का नाम लेते हैं लेकिन उन्हें सुनते हैं फ़िल्मी संगीत के भीतर ही। इनमें हैं – “सैड सॉन्ग” या “दर्द भरे नग़्मे“, कव्वाली, सूफ़ी, मेलोडी, क्लासिल (फ़िल्मी), डिस्को, डांस, आदि। शैलियों के ये नाम आवश्यक नहीं कि संगीत के विशेषज्ञों में स्वीकार्य हों।

फ़िल्मी संगीत से बाहर भी लोग संगीत पसंद करते हैं। हम उसकी भी बात करेंगे। लेकिन उसके पहले कुछ और बातें फ़िल्मी संगीत के भीतर से ही।

दरअसल हम जिन दशकों में अपनी जवानी के दिन बिताते हैं, उस दशक का संगीत हमें विशेष रूप से पसदं आता है। लेकिन भारत में, खासतौर से हिंदी फ़िल्मी संगीत के परिप्रेक्ष्य में, साठ और सत्तर के दशक का फ़िल्मी संगीत लोकप्रियता के लिए उम्र पर निर्भर नहीं है। लगभग हर आयु वर्ग के लोगों को इन दो दशकों का संगीत पसंद आता ही है। शैलेन्द्र, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, शकील बदायूनी, हसरत जयपुरी, नीरज, इंदीवर, आनंद बख्शी आदि महान गीतकारों के गीतों और आर डी बर्मन, खय्याम, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी आदि संगीत निर्देशकों के संगीत की वजह से इस दौर का संगीत लोकप्रियता के लिहाज़ से अमरत्व को प्राप्त कर चुका है। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि इस लोकप्रियता के केंद्र में रफ़ी, किशोर, लता, मुकेश, मन्ना डे एवँ आशा जैसे महान गायक हैं। इस दशक में गाने के लगभग हर पहलू में नए प्रयोग हुए, लेकिन प्रत्येक प्रयोग की गुणवत्ता उच्च थी। गानों में हर किस्म के भावों, संगीत, और शैलियों को अपनाया गया।
(“सुनिए- “गाता रहे मेरा दिल”, “आओ हुज़ूर तुमको”, “रिमझिम गिरे सावन”)

अस्सी का दशक हिंदी सिनेमा के लिए सिनेमा की दृष्टि से भी अच्छा नहीं माना जाता। फिल्मों की गुणवत्ता में जो गिरावट इस दशक में आई, उसका असर मोटे तौर पर संगीत पर भी पड़ा। इस दौर के प्रमुख गायकों में मोहम्मद अज़ीज़, शब्बीर कुमार, अमित कुमार , साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति रहे। संगीतकारों में कुछ पुराने निर्देशक तो थे ही, उनके अतिरिक्त विशेष रूप से प्रभावी रहने वालों वाले संगीत निर्देशकों में नदीम श्रवण एवं बप्पी लाहिड़ी का नाम आता है। इस दशक के संगीत की एक और विशेषता यह है कि समाज के एक ख़ास वर्ग में इसकी लोकप्रियता बेहद अधिक है, इतनी अधिक कि इस वर्ग में यही संगीत लगभग तीन दशकों बाद भी सुना जाता है और उसकी लोकप्रियता साठ व सत्तर के दशकों के संगीत की तरह ही बरकरार है। यह वर्ग है पान ठेले वालों, बस या रिक्शे चलाने वालों और फेरी वालों या रेहड़ी पर अनेक प्रकार के सामान बेचने वालों का। ऐसा नहीं है कि इस वर्ग के लोगों के अतिरक्त किसी और को अस्सी के दशक का संगीत पसंद नहीं, (इस सूची में अपना नाम होने की स्वीकारोक्ति यह लेखक पहले ही कर चुका है) लेकिन इस वर्ग के लिए यदि यह प्रतिनिधि संगीत कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
(“सुनिए- “चाहे लाख तूफाँ आएँ”, “प्यार से भी ज़्यादा”, “फूल ग़ुलाब का”)

नब्बे के दशक के बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि इस दौरान पिछले दशक की तुलना में फिल्मों और उनके संगीत में सुधार देखा गया। जतिन-ललित, नदीम-श्रवण, ए आर रहमान, आदि इस दशक के बड़े संगीत निर्देशक, तो गायकों में सबसे ऊपर कुमार सानू, एवं अलका याग्निक गिने जाएंगे। इनके अतिरिक्त इस दशक को उदित नारायण, सोनू निगम, विनोद राठौड़, अनुराधा पौड़वाल, अभिजीत, आदि के लिए भी गिना जाएगा। कुमार सानू एवँ अलका याग्निक का तो जैसे इस दशक के फ़िल्मी गीतों पर एकक्षत्र राज था।
(“सुनिए- “बस एक सनम चाहिए”, “एक लड़की को देखा तो”, “गली में आज चांद निकला”)

अस्सी और नब्बे के दशक में एक और ख़ास बात रही संगीत रिलीज़ करने वाली कंपनियों टी-सीरीज़ और टिप्स की प्रतिद्वंदिता। इन दोनों कंपनियों की आपसी लड़ाई का एक रक्तरंजित इतिहास भी है, किन्तु वह कहानी फिर कभी। खासतौर से गुलशन कुमार की टी-सीरीज कम्पनी ने अपनी कैसेट्स और सीडीज़ के जरिये संगीत को सस्ता और सुलभ करने में ख़ास भूमिका निभाई। इस श्रृंखला में गुलशन कुमार ने कुछ फिल्मों का भी निर्माण किया जिनमें संगीत उन्हीं का था। इन फिल्मों का संगीत तो लोकप्रिय हुआ, लेकिन फ़िल्में बिलकुल न चलीं।
(सुनिए फिल्म “लाल दुपट्टा मलमल का” से गीत “क्या करते थे साजना“)

ख़ैर, इस लम्बे लेकिन संक्षिप्त विवरण के बाद मुद्दे पर वापस आते हैं। अगर मुझसे सवाल पूछा जाए कि आपको किस क़िस्म का संगीत पसंद है, तो मैं क्या जवाब दूंगा? इस सवाल का जवाब एक वाक्य में देना वाकई कठिन मालूम हो रहा है।

वह जुमला आपने अक्सर सुना होगा कि “लव मैरिज” शब्द केवल भारत (या दक्षिणपूर्व एशिया) में ही इस्तेमाल किया जाता है। पश्चिमी समाज में तो सिर्फ़ मैरिज होती है क्योंकि वहाँ लोग शादियाँ प्रायः उन्हीं से करते हैं जिनसे वो प्रेम करते हैं। इसी तरह भारत में संगीत के क्षेत्र में “इंडिपेंडेंट म्यूज़िक” या “स्वतंत्र संगीत” शब्द युग्म का चलन है। क्योंकि भारत में फ़िल्मी संगीत ही संगीत का पर्याय बन गया है। फ़िल्मी संगीत से इतर संगीत की वैसे तो भारत में हज़ारों सालों की परम्परा है , किन्तु वर्तमान में लोकप्रिय, अर्थात पॉप्युलर अर्थात पॉप संगीत का एक ख़ास और सुनहरा दौर आया नब्बे के दशक में। एक लहर या कहें कि एक तूफ़ान आया और अनेकों गायकों और बैंड्स ने खुद के “इंडिपेंडेंट” म्यूज़िक एल्बम बनाए। इनमें आलिशा चिनॉय, सुनीता राव, सोनू निगम, फाल्गुनी पाठक, रागेश्वरी, लकी अली, शान, आदि हैं।
(सुनिए – “अनजानी राहों में तू क्या ढूंढता फिरे“, “चूड़ी जो खनकी“, “एक दिल चाहिए बस मेड इन इंडिया“)

इसी दौर में पंजाबी संगीत के थोड़े हिन्दीनुमा गानों की भी धूम मची। इनके गायकों में दलेर मेहंदी और जसबीर जस्सी प्रमुख थे। दलेर मेहंदी के पहले लोकप्रिय पंजाबी गायकों में गुरदास मान का नाम प्रमुख था, किन्तु नब्बे के दशक की चकाचौंध में न जाने क्यों उनका नाम कहीं खो गया। उन्होंने हालाँकि बाद में कुछ एलबम्स फिर से बनाए, लेकिन तब तक वक्त बदल चुका था। हंसराज हंस भी लोकप्रिय थे, किन्तु पंजाब से बाहर, हिंदी की दुनिया में दलेर मेहंदी ने धूम मचा दी थी।
(सुनिए – “बोलो तारा रारा“, “दिल ले गयी कुड़ी गुजरात दी“)

इंडिपेंडेंट म्यूज़िक एलबम्स का दौर चला तो भारतीय रॉक बैंड्स कहाँ पीछे रहते। इस दौर में इंडियन ओशन (राहुल राम एवँ अन्य), यूफोरिया (पलाश सेन और साथी), बॉम्बे वाइकिंग्स (ये थोड़ा देर से आए) आदि बैंड्स काफ़ी लोकप्रिय हुए। इस दैरान पाकिस्तानी बैंड जूनून ने भी भारत में खासी लोकप्रियता हासिल की।
(सुनिए – “धूम पिचक“, “सय्योनी“)

नब्बे के दशक के जाने के बाद हिंदी संगीत में इंडिपेंडेंट एलबम्स का दौर धीरे-धीरे चलन से बाहर हो गया। अब भी ऐसे एलबम्स आते हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता नब्बे के दशक के समय से तुलना करें तो शून्यप्राय ही मानी जाएगी।

एक और ख़ास किस्म का संगीत है जो भारत में दशकों से सुना जा रहा है। इस शैली का संगीत पहले हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की “उच्च” तथा नियमों के प्रति एक किस्म की कट्टर परम्परा का हिस्सा था, लेकिन बीते कई दशकों में अनेक ख्यातिलब्ध गायकों ने इसमें इतने प्रयोग किए कि इस शैली के दीवाने भारत और पाकिस्तान में बढ़ते ही गए। जहाँ एक ओर शास्त्रीय परम्परा को पसंद करने वाले स्वाभाविक रूप से समाज के अभिजात्य वर्ग से तआल्लुक रखते हैं, इन गायकों के प्रयोगों के कारण इस शैली के दीवाने अब हर आयु और समाज के वर्ग में हैं। आप समझ गए, ग़ज़ल। गज़लें और ग़ज़लों का संसार भारत में इतना विराट है कि उसकी महिमा अनेक क़िताबों में न सिमटे। मेहदी हसन, जगजीत सिंह, ग़ुलाम अली, नुसरत फतेह अली खान, तलत अज़ीज़, अनूप जलोटा, बेगम अख़्तर, आबिदा परवीन, राहत फ़तेह अली खान, चित्रा सिंह,रूप कुमार एवं सोनाली राठौड़, लोकप्रिय ग़ज़ल गायकों की यह सूची बहुत लम्बी है। ग़ज़ल का एक ख़ास समय से एक ख़ास रिश्ता है, वह है मदिरापान का समय। पब्स और डीजे के इस ज़माने में भी एक बड़ा वर्ग है जिसके लिए आज भी शराब पीना तब तक असम्भव है जब तक महफ़िल में ग़ज़लें न हों। शायद ग़ज़ल और शराब के इस अनोखे और संजीदा रिश्ते को समझना उतना मुश्किल भी नहीं हैं, जो दोनों में से एक के भी शौक़ीन हैं, वो समझ सकते हैं।
(सुनिए – “चुपके चुपके रात दिन“, “तुम्हारे ख़त में“, “तुमको देखा तो ये ख़याल आया“)

अब आते हैं उस सवाल पर जिसका जवाब ढूंढते-ढूंढते यह लेख लिखना पड़ा। मैं पश्चिमी और भारतीय दोनों क़िस्म के संगीत सुनता हूँ। छत्तीसगढ़, जहाँ मैं बड़ा हुआ, उसके लोकसंगीत को मैं बहुत पसंद करता हूँ। महाराष्ट्र जहाँ मैं ,रहता हूँ, वहाँ के फ़िल्मी संगीत को भी पसंद करता हूँ और अक्सर सुनता हूँ। पश्चिमी संगीत में मुझे सबसे अधिक बीटल्स का संगीत पसंद है। बहुत से लोग द बीटल्स के संगीत को सुनना आजकल “ओल्ड फैशन्ड” समझते हैं। हालाँकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि पूरी दुनिया में द बीटल्स जैसी लोकप्रियता और किसी बैंड के लिए ऐसा दीवानापन किसी दूसरे के लिए न कभी हुआ न ही होने की संभावना है। द बीटल्स के अलावा मुझे बॉब डिलन पसंद हैं। मैं कंट्री म्यूज़िक में हैंक विलियम्स, जॉन डेनवर आदि भी सुनता हूँ। ब्रायन एडम्स से शायद हर भारतीय रॉक म्यूज़िक सुनने वाला परिचित हो, उस तरह से मैं भी हूँ। किन्तु मैं पश्चिमी संगीत में इतने ही और इसी तरह के चुनींदा संगीत को ही सुनता हूँ। पश्चिमी संगीत के अलावा मैं थोड़ा-बहुत हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत सुन लेता हूँ। मुझे रागों की कोई विशेष समझ नहीं। लेकिन ठुमरी मुझे विशेष रूप से प्रिय है। शास्त्रीय संगीत में भजन सुनने के लिए मैं अक्सर पंडित कुमार गंधर्व के कबीर के भजन को सुनता हूँ, जैसे कि – “उड़ जाएगा हंस अकेला“, “निर्भय-निर्गुण“, “कौन ठगवा नगरिया लूटल हो” आदि। मुझे पंडित भीमसेन जोशी के प्रायः सभी भजन पसंद हैं। अनूप जलोटा तो भजन सम्राट ही कहे जाते हैं, वे मुझे बेहद प्रिय हैं। मुझे सूफ़ी संगीत भी बहुत पसंद है। आबिदा परवीन की आवाज़ में अमीर खुसरो के भजन सुनना एक अलग ही अनुभव होता है। साबरी बंधुओं की कव्वाली “भर दो झोली” सुनना मुझे अपार आनंद देता है। मुझे क्लबों में बजने वाला पश्चिमी और भारतीय संगीत जिस पर थिरका जाए वह भी पसंद है। लेकिन वह ख़ास मौकों पर ही।

लेकिन इन सबसे अधिक मुझे प्रिय है हिंदी फिल्मों का संगीत। साठ-सत्तर-अस्सी-नब्बे इन सभी दशकों का। शायद अन्य दशकों के मुकाबले अस्सी के दशक का बसों, पान ठेलों और रिक्शों में आज भी बजाया जाने वाला संगीत थोड़ा अधिक पसंद है। लेकिन क्या इतने सब को एक वाक्य में कह पाना सम्भव है? यदि संगीत की पसंद से से किसी की पहचान निर्धारित की जा सकती है, या किसी के व्यक्तित्व को परिभाषित किया जा सकता है, तो ऐसा करना क्या एक वाक्य में सम्भव है? शायद नहीं। तो फिर मुझसे पूछे गए सवाल का उत्तर क्या है? शायद यह सवाल ही सिरे से ग़लत है। संगीत जीवन के हर पहलू में है। उसका किसी एक वाक्य के उत्तर में सिमट जाना सम्भव होता तो उसकी विशालता वह नहीं होती जिसका वर्णन लगभग असम्भव है। लेकिन उत्तर से अधिक महत्वपूर्ण है उत्तर ढूंढे जाने की प्रक्रिया। अपने लिए जब आप यही उत्तर ढूंढना शुरू करेंगे, हो सकता है इस लेख से कई गुना लंबा जवाब लिखना पड़े।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General), सामयिक (Current Issues)

प्यारे विश्व, एक ब्रेक लो प्लीज़!

बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि पूरा विश्व भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद ने भी यही कहा था। यानी करीब 130 सालों से तो यह चल ही रहा है, हर नेता, बाबा, लेखक और विचारक कहता आया है तो बात सत्य ही होगी। इसलिए मुझे विश्व की चिंता हो रही है। विश्व इसी तरह एकटक देखता रहा तो उसकी आँखें पथरा जाएंगी। विश्व कहीं अंधा हो गया तो भारत की ओर कौन देखेगा फिर?


विश्व को एक ब्रेक की ज़रूरत है। और हमको विश्व के ताकने की चिंता छोड़ अपना काम करने की।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General), My Poems (कविताएँ)

भुला देना चाहता हूँ

आपके लिए आसान होगा यह कहना
कि सब कुछ याद रखा जाएगा
मेरे लिए नहीं है
अब तक जो याद रखा है
और रोज़ जो जुड़ता जा रहा है
वह मुझे बहुत बीमार बना रहा है

क्या करूंगा मैं याद रखकर?
क्या कोई जंग जीत जाने के बाद
सज़ाएँ लिखूंगा और बख़्शीशें बाटूंगा?
या स्वर्ग और नर्क के दरवाज़े पर
कहूँगा कि आप बाएँ मुड़िए और आप दाएँ?

इससे पहले भी बहुत कुछ याद रखा
क्या हुआ?

यह जो यादें भरी हैं
वो अंदर हैं
तकलीफ़ें बनकर रहती हैं
यादें हैं तो बार-बार आती हैं
बार-बार, वही सब
अब और नहीं

लोग कहते हैं यह दुनिया बहुत छोटी हो गई है
पर इस छोटी सी दुनिया में भी
किसी कोने में एक छोटी सी और दुनिया होगी
मैं वहाँ छिपकर रहना चाहता हूँ
जो है वह भुला दूँ
और नया कुछ न जोड़ूँ

आप मुझे कायर, भगौड़ा और डरपोक कहिए
कहिए मेरा भी यह सब याद रखा जाएगा
मैं आपके इस याद रखने को भी
भुला देना चाहता हूँ

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General)

मन में फाग गाओ

दशहरे का चंदा मांगने गए तो आंटी बोली चंदा नहीं देंगे तुम मन का रावण जलाओ।

होली का चंदा मांगने गए तो आंटी ने चंदा दे दिया। क्योंकि आंटी के घर का गेट लकड़ी का था।

होली का चंदा इकट्ठा हुआ तो अंकल लोगों ने पूरा पैसा रखवा लिया। बोले थोड़े का नगाड़ा लेंगे बाकी से लकड़ी खरीदेंगे। नगाड़ा फागुन से 15 दिन पहले आ गया। अंकल लोग रोज़ रात को नगाड़ा बजाते थे और फाग गाते थे। हमको बोलते थे तुम लोग फाग गाने मत आओ और घर में बोर्ड की परीक्षा की तैयारी करो।

अंकल लोग फाग शुरू करते थे “प्रथम चरण गणपति को” से, फिर “मुरली बजावै कन्हैया” से आगे जाकर अश्लील फाग में कूद जाते थे।

हम लोग बोलते गर्मी है हम छत पे जाकर पढ़ेंगे। छत से हम लोग अश्लील फाग सुनने तक रुकते फिर सो जाते।

एक दिन हमने अंकल लोगों से बोला हम रात को नहीं शाम को नगाड़ा बजाएंगे। हमने एक घंटे के लिए नगाड़ा लिया और नगाड़ा फूट गया। हमने आरोप मन का रावण जलाने वाली आंटी के लड़के पर लगा दिया।

फिर होलिका दहन से एक रात पहले जब अश्लील फाग गाने के बाद सब अंकल सो गए। तब हमने जाकर होली में माचिस मार दी। उसके बाद से अंकल लोगों ने हमको चंदा मांगने से मना कर दिया।

अब पुणे में फाग गाने का मन करता है। लेकिन यहाँ नगाड़ा बजाऊंगा रात को तो आंटी पुलिस बुला लेगी। आंटी बोल दे उसके पहले मैं खुद ही मन में नगाड़ा बजाता हूँ और मन में ही फाग गाता हूँ। होली में अपने छत्तीसगढ़ को बहुत मिस करता हूँ मैं।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General), समीक्षा

समीक्षा – हंटर (प्राइम वीडियोज़)

Hunters (Prime Videos)देखी।

अल पचीनो की मुख्य भूमिका में पहला सीज़न बनाया है। “हाऊ आई मेट योर मदर” के सितारे जॉश रैंडर भी हैं। देखने का फ़ैसला सिर्फ़ इसलिए किया कि इसमें अल पचीनो हैं। लेकिन यह देखी जाए इसके एक नहीं अनेक कारण हैं।

सतही तौर पर देखें तो लगता है कि यह भी अनेकों अन्य सीरीज़ या फिल्मों की तरह दुनिया को किसी बड़े हमले से बचाने की कवायद की कहानी है। लेकिन ऐसा नहीं है। अनेक परतें हैं।

हिटलर पर या यहूदियों पर हुए अत्याचारों पर अनेक फिल्में या टीवी सीरीज़ बनी हैं। उन सबमें से ज्यादातर में पीड़ित निस्संदेह यहूदी हैं लेकिन कहानी का हीरो कोई अमेरिकी सैनिक है (या ब्रिटिश या रूसी या कोई ऑस्कर शिंडलर जैसा भला जर्मन)। यहूदियों को देखेंगे तो प्रायः निरीह प्रताड़ित लोग पाएंगे। “लाइफ़ इज़ ब्यूटीफुल” में भी हीरो हालाँकि एक यहूदी है, वह अंततः प्रताड़ना का शिकार होकर मर जाता है।

“हंटर” में ऐसा नहीं है। यहूदी इसमें खुद एक्शन ले रहे हैं। वो जासूसी करते हैं, प्लॉट रचते हैं, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका में छिपे नाज़ियों को ढूंढकर उन्हें मारते हैं। हॉलीवुड के अन्य नायकों की तरह इसमें यहूदी फाइटिंग में दक्ष हैं, उनकी बंदूकों का निशाना अचूक है, और वे अपने दुश्मन को बेरहमी से खत्म कर देते हैं। अब तक सिनेमा में अच्छे लेकिन शारीरिक बल से कमज़ोर अथवा युद्ध कौशल से अछूते दिखाए गए यहूदियों को एक्शन में देखना खास संकेत है। (यहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के इजरायल की चर्चा नहीं हो रही है। अफसोस कि समय ऐसा है कि यह भी लिखकर बता देना आवश्यक हो गया है)

यहूदियों की जो टीम अमेरिका में छिपे नाज़ियों को ढूंढकर मारती है उनमें सिर्फ़ यहूदी नहीं हैं। एक अश्वेत लड़की, एक ईसाई नन, एक एशिया भी है। यह भी मार्के की बात है। कहानी में समलैंगिक पात्र भी हैं।

मुख्य कहानी के बीच हरेक पात्र की अपनी जो कहानी है उसे दिखाने में कोई खानापूर्ति नहीं की गई है। पूरे विस्तार के साथ इन पात्रों की निजी कहानी को दिखाया गया है। इनसे यहूदियों पर हुए अत्याचार के जो मानवीय पहलू हैं उन्हें बेहद संजीदगी से समझने में मदद मिलती है। जो हुआ उसमें सिर्फ़ गैस चैम्बर्स या साठ लाख हत्याओं की बात नहीं है, बल्कि साठ लाख जिंदगियों, उनके सपनों, उनके रिश्तों और उनके अलग-अलग संसार की भी है। हंटर इस ओर मज़बूती से ध्यान खींचती है।

कहानी मसालेदार है। प्लाट में जो पेंच हैं वो तो हैं ही। लेकिन ऊपरी सतह पर वही आजमाया हुआ फ़ार्मूला है।

सभी कलाकारों का अभिनय अच्छा है। अल पचीनो न होते तो शायद वह बात न होती। उनका अभिनय नयनाभिराम है।

निर्देशन बेहद सख़्त है। संवाद हॉलीवुड की परिपाटी पर हैं। उनमें कुछ प्रयोगात्मक तो नहीं है लेकिन कोई कमी भी नहीं।

फिल्मांकन अच्छा है। डिटेल्स पर भी अच्छा काम हुआ है। हॉलीवुड इस मामले में निपुण है। इसलिए सत्तर के दशक को बेहद अच्छे से दृश्यांकित किया गया है।

अगले सीज़न का इंतज़ार रहेगा।

हितेन्द्र अनंत

#Hunter

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