विविध (General)

यह जो हमारा ध्यान भटक जाता है

हमारे सामने इस समय सबसे बड़ी समस्याएँ कौन सी हैं?


१. पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन का संकट

२. आर्थिक असमानता

३. सुपोषक भोजन, शिक्षा, पेयजल और स्वास्थ्य का बड़ी आबादी की पहुँच से बाहर होना

४. तकनीकी विकास के बाद मशीनों द्वारा रोज़गारों छिनने का ख़तरा

लेकिन हमारा ध्यान किन बातों पर है?
१. हिन्दू बनाम मुस्लिम

२. हिन्दू बनाम हिंदुत्ववादी

३. गांधी बनाम गोडसे

४. “लव जिहाद” सहित अन्य सभी प्रकार के “जिहाद”

५. धर्मांतरण बनाम घर वापसी

असल समस्याओं से हटकर हमारा ध्यान चाहे-अनचाहे इन फ़िज़ूल के मुद्दों पर क्यों अटका है या अटक जाता है?
क्योकि सबसे पहले जो चार असल समस्याएँ लिखी हैं, उनमें एक और समस्या जोड़ी जानी चाहिए:
५. तकनीकी, मीडिया एवँ सोशल मीडिया पर नियंत्रण के ज़रिए समाज में झूठी सूचनाओं का फैलाया जाना।

दुनिया की बड़ी आबादी, बहुसंख्य देश, किसी न किसी प्रकार की आधी-अधूरी ही सही, लोकतांत्रिक व्यवस्था से संचालित हैं। इसलिए दुनिया में बड़े फैसले, अच्छे या बुरे, लागू करवाने के लिए, और बुरे फ़ैसलों का संभावित विरोध टालने के लिए, जनमत (पब्लिक ओपिनियन) को प्रभावित करने की सभी शक्तियों की आवश्यकता है। पूंजी की पहुँच रखने वाली ताकतों के लिए सोशल मीडिया एवँ मुख्यधारा के मीडिया पर नियंत्रण से यह सम्भव भी हो गया है।

सच की और हक की कोई भी लड़ाई अब तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि जनहित की बात करने वाली ताकतें भी जनमत को प्रभावित करने की उचित क्षमता विकसित न कर लें। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक उनके द्वारा कही गई किसी भी अच्छी बात का कोई असर नहीं होगा। अच्छी बातें हैं, उन्हें अच्छी तरह लोगों के सामने रखने वाले भी हैं, लेकिन उनका असर लगभग शून्य के बराबर है।

पुराने तरीकों से अब काम नहीं होगा। जिस प्रकार हथियारों का मुकाबला उतने ही अच्छे हथियारों से हो सकता यही , उसी प्रकार सूचना तंत्र पर बेज़ा इस्तेमाल की काट भी स्पष्ट होनी चाहिए। अन्यथा होगा यह कि प्रतिरोध के स्वर मौजूद तो रहेंगे, लेकिन उनकी मौजूदगी का भी इस्तेमाल जनविरोधी ताकतों के द्वारा किया जाएगा।
यह सब कैसे संभव होगा? यही वह बात है जो समझदार और सही मंशा रखने वालों को मिलजुलकर सोचना चाहिए।


– हितेन्द्र अनंत

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मानक
विविध (General)

रट्टा मारने पर ज़ोर देनेवालों का दिवस

प्राथमिक स्कूल – शिक्षक पढ़ाने में मेहनत करते थे। बच्चे पढ़ जाएँ यह उनकी दिलचस्पी थी। लेकिन वही रटाने वाली शिक्षा, मारना पीटना। गाँव का सरकारी स्कूल। कुछ शिक्षक स्कूल से ज़्यादा खेत में वक्त बिताते थे। एक दारू पीकर आते थे।

मिडिल स्कूल – बेहद अच्छा। शिक्षक दिलचस्पी लेकर पढ़ाते थे। कहानियों के ज़रिए रुचि जगाते थे। तमाम गतिविधियों पर ज़ोर था। कोई ठीक से न पढ़े तो उसके घर चले जाते थे। गाँव का ही सरकारी स्कूल। जातिगत दुराग्रह शिक्षकों में था। जातिसूचक विशेषणों और उपमाओं का उलाहना देना आम बात थी। यह सब पिछड़े वर्ग के शिक्षक भी किया करते थे। बच्चों से मारपीट यहाँ भी आम थी।

हाईस्कूल – शिक्षकों को घण्टा मतलब नहीं था कि कौन क्या कर रहा है। जो ट्यूशन जाए उसकी इज़्ज़त थी। बाकी जो रटकर लाए वो अच्छा था। कोई पीछे है तो क्यों है इनको कोई लेना देना नहीं था। सिलेबस पूरा करने के अलावा शिक्षकों को कुछ नहीं आता था। बेहद घटिया अनुभव। शहर का सबसे प्रतिष्ठित हिंदी माध्यम का निजी स्कूल। हम यहाँ अवसाद का शिकार हो गए थे लेकिन न शिक्षकों ने न घरवालों ने कोई नोटिस लिया। अवसाद की वजह पढ़ाई ही थी।

सरकारी पॉलिटेक्निक – ढाई साल के कोर्स में छः महीने से अधिक कक्षाएँ नहीं लगीं। प्रयोगशालाएँ बन्द। परीक्षा दो, डिप्लोमा लो। सीखा कुछ नहीं शिक्षकों से।

निजी इंजीनियरिंग कॉलेज – बेहद घटिया। सिलेबस को किताबों से पढ़कर लिखवाने का नाम ही लेक्चर था। कुछ को छोड़कर ज़्यादातर अभी-अभी ग्रेज्युएट हुए लड़के-लड़कियाँ पढ़ा दिया करते थे। पूरे तीन साल एक शिक्षक नहीं मिला जो मुझसे बेहतर अंग्रेज़ी बोलता हो या किसी विषय को रुचिकर बनाकर समझा सके। प्रयोगशाला में सूचीबद्ध प्रयोग थे, करो या नकल मारो। रट्टा मार डिग्री हासिल की वह भी अच्छे दर्जे से। मैंने अधिकांश पर्चों में मोदी जी से बढ़कर फेंका। विश्वविद्यालय डिग्री की एजेंसी था, कॉलेज उसका एजेंट।

बी-स्कूल – ढाँचा अच्छा था। प्रोफेसर खुद सिलेबस बनाते, अपनी मर्ज़ी से परीक्षा लेते, चाहे न लेते। कॉलेज 24 घण्टे खुला रहता था। प्रोफेसरों में इस अच्छी व्यवस्था का फ़ायदा लेने की योग्यता नहीं थी। किया उन्होंने वही, रट्टा मार। फर्क के नाम पर यह था कि रटकर लिखना नहीं है, प्रेजेंटेशन देना है। यहाँ प्रोफेसरों से ज़्यादा जो इंडस्ट्री में काम करने वालों के लेक्चर होते थे उनसे सीखा। लाइब्रेरी 24 घंटे खुली थी। जो चाहे खुद उठाकर पढ़ लो। बाकी का वहाँ से सीखा। एक बात थी कि यहाँ प्रोफेसरान से बहस की। एक दो को बुरा लगा, बाकी ने बुरा नहीं माना। दर्ज़े में अपन यहाँ काफ़ी ऊपर रहे।

कुलमिलाकर, एक दो को छोड़कर कोई शिक्षक नहीं जिसके लिए दिल में इज़्ज़त हो। शिक्षक दिवस फालतू का दिन है। इसे रट्टामार विशेषज्ञ दिवस कहना चाहिए।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General)

Remembering Fakharuddin

We studied together in the Kalibadi school in Raipur. In the Kalibadi locality in Raipur, there are many schools and once, there used to be a heavy traffic of schoolchildren riding their bicycles.

One day, Fakharuddin informed me that there’s a Paan shop (the Indian mouth freshener wrapped in a betel leaf) whose owner is an ardent devotee of lord Shiva (also called Bhole baba). The paan shop owner had a big brass bell hanging in the shop. He told me that if anyone passes by this shop chanting ‘Jai Bhole!’, the owner dutifully rings the bell!! Still at an adolescent age, I was very excited to hear this. What fun when you chant “Jai Bhole” and a stranger rings a bell!

So, as it had to be done, in the lunch break, Fakharuddin guided me to the shop. On our bicycles, we went past the shop and as if to train me to the custom, Fakharuddin chanted “Jai Bhole!”, loud and clear. And we saw the paan shop owner without even caring to see our faces, rang the bell!

Oh boy! what fun it was, we went a few hundred meters away, stopped our bicycles and laughed to our core. And we repeated this many times for days to come until we were fully satisfied that this thing actually works.

Then, we didn’t know that Fakharuddin was a Muslim and I was born a Hindu. It never occurred to us that him chanting praise of a Hindu god was anything worth noticing. Those were the times. The society was not divided into binaries, facts were facts, and no one thought that one day they would coin the phrase “post truth”. At least our world was different.

After the school, I was a few years late to enter the Engineering graduation course and he was my senior there. We had lost touch but never the warmth.

Again a few years later, we met in Raipur railway station. On his insistence I travelled with him in his coach which was one grade higher, and paid the fine to the ticket collector. He had by then become an officer in a government run company. By these times every pocket had a cellphone, but we were happy to find that we remembered the fixed phone numbers of each other’s houses. Shared food and some memories. I left the train at Nagpur. He was going to New Delhi.

That was the last time I saw him.

Fakharuddin never liked the name his parents gave him. To girls and strangers he would introduce himself as “Farookh”. To us, he was always Fakhroo, pronounced as “Phakhroo” in a real desi way.

  • Hitendra
मानक
विविध (General)

What is home?

Locked inside a home, do you really feel “at home”?

What is this thing that you call home? Is it people? Or culture, or geography, or even a period in time that would never return?

Life is a friction between two desires – seeing the world, and coming home. The former takes precedence most of the times because seeing the world is not just a choice, it is a necessity in a world where survival is mostly linked to migration.

The other desire, coming home, doesn’t leave one so easily. We want to come home, come home to our family, our comfort, sleep, television, books, a cup of tea, friends and many such things. We also want to come home to escape the work life. After all, we are the children of hunter-gatherers who always came home in the evening. We are engineered that way.

But again, what is a home? For an “NRI” who is “settled” in one of the countries in the “English world”, is her home in a county or a condominium really her home? What if she longs to come home to her childhood street in Pune, and dance to the noisy “tasha” during the Ganapati festival? Can she call her home, home? Does she?

Or, for a man in his middle age, who lives in the same street he was born and raised, is the home still home when most friends have “settled” elsewhere and the rest who couldn’t barely meet every evening like they used to earlier, is the home still home?

Or for a teenager feeling “stuck” in her sleepy small town, waiting to break free and migrate to one of the “happening” cities, what is the idea of a home?

Or even a Desi who lives in England and is confused about his laoyalty in the game of cricket, what is home?

Or the man who yearns to scream expletives in a country where no one would ever know their meanings. (Read “O Haramzade” a great story in Hindi by Bhishm Sahani).

Well, why leave an old lady who was married to a traditional family in a distant city, doesn’t she reconstruct the map of the streets of her home town in her dreams every night?

We’re all “in our homes”, yet many of us aren’t “at home”.

Home is culture, to some it is a language. Home is religion, cuisine, people, fashion, fights and brawls, chaos and peace too. Home also is the weather, the terrain, the comforts and difficulties that become part of our existence.

Home is different to different people. But there’s one truth that’s stable. A home does exist and one must find it.

If you feel that way, you have only two choices, make a home of your home wherever it is, or, go back to your home, it’s never late.

Hitendra Anant

मानक
विविध (General), सामयिक (Current Issues)

ग़लत-ग़लत

दो पक्षों के बीच जब किसी विवाद की शुरुआत हो, तब उस बिंदु पर जाकर सही-ग़लत की व्याख्या की जा सकती है।

लेकिन लम्बे चलने वाले हिसंक संघर्षों में अव्वल तो दो नहीं अनेक पक्ष बन जाते हैं, दूसरे इतनी हिंसा के बाद स्वाभाविक रूप से प्रत्येक पक्ष अनेक ग़लतियाँ या अपराध कर चुका होता है। इसके बाद यदि समस्या का समाधान ढूंढना है तो उसकी जड़ में जाकर सही-ग़लत बताना किसी काम का नहीं होता।

ऐसे विवादों में जो सबसे बड़ी ज़रूरत होती है और होनी चाहिए, वह है हिंसा का तत्काल रोका जाना। लंबे समय तक यदि हिंसा न हो तब ही स्थायी शांति के लिए प्रयास किए जा सकते हैं। लेकिन विवाद में एक की बजाए अनेक पक्षों के आ जाने के कारण प्रायः हिंसा पर नियंत्रण असम्भव हो जाता है।

इस्राइल और फिलिस्तीन के विवाद के संदर्भ में भी यही सही है। फ़िलहाल जो एक चीज़ रुकनी चाहिए वह है हिंसा। सही-ग़लत का निर्णय देने वाले फ़िलहाल इससे बचें। मामले की जड़ में बेशक सही-ग़लत है, हिंसा के जारी रहने में ग़लत-ग़लत ही है। आप चाहें तो इसे छोटा-बड़ा ग़लत कह लें।

हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General)

On Mother’s Day

[Wrote this on 9th May 2021]

I don’t want to spoil the day for you.

But, please stop stereotyping mothers and women. Not all children are lucky to have loving, compassionate mothers. Many have their childhood destroyed because they had, let me write it with all the courage, a bad mother. Yes, that thing exists.

Stereotyping mothers is also unfair to women. In our society, the mother has been forced to have qualities of a goddess, not a human being. A goddess never suffers, only gives, never expects anything in return. But humans do. The women who are mothers have a right to fail, to err, to not love children and their husbands without expectations. This hard typecasting, enforced by mass media and literature is detrimental to the natural growth of women.

Also, the super imaginary pedestal on which the society puts mothers on, results in every women being forced with that ideal and that dream of being a mother one day. Because that’s the only way she will be respected in a society which otherwise makes lives of women awfully difficult in every sense possible.

Let the women decide for themselves, they have a right to chose, to not become mothers.

Let the mother err and let the child complain. Both are natural.

If it matters for you, wish you a very happy mothers day.

-Hitendra Anant

मानक
विविध (General)

उदार-मध्यवर्ग और उसके नायक

उदारवादी मध्यवर्ग के पास नायकों का अकाल है।इसलिए ज़रा सी अच्छी बात दिखते ही यह वर्ग किसी को भी नायक बना देने पर उतारू है। और जैसे ही कोई ज़रा सी खोट मिले, उसका नव-नायक तत्काल खलनायक में बदल जाता है।एक भाषण और मोहुआ मोइत्रा नायक। एक रोना और राकेश टिकैत नायक। कभी अन्ना हज़ारे तो कभी अरविंद केजरिवाल नायक। यहाँ तक कि बीते दिनों में जिनके लिए खलनायक थे वो शरद पवार और उद्धव ठाकरे भी आज नायक हैं। इसी तरह कभी नायक और उम्मीद माने जाने वाले नीतीश कुमार और ज्योतिरादित्य सिंधिया आज खलनायक हैं। दक्षिणपंथी लोगों के लिए इसका ठीक उल्टा सत्य है।

इसमें उदारवादी-मध्यवर्ग की कोई ग़लती भी नहीं है। पोस्ट ट्रुथ वर्ल्ड में उदार-मध्य वर्ग के लिए झंडा बुलन्द करने वाले कोई नहीं बचे हैं। जो थे वो बार-बार हार रहे हैं। जीतता हुआ नायक दिखाई नहीं देता। फासीवादी उभार ने आवाज़ों को दबाने का जो काम किया है, उसके चलते आवाज़ उठाने वाला हर शख़्स नायक लगने लगता है।कम से कम भारत के बारे में यह सत्य है कि यहाँ सत्ता का केंद्र व्यक्ति है न कि संस्थान। इसलिए व्यक्ति के बदलते ही संस्थान धवस्त हो जाते हैं। आज जो संस्थानों के कमज़ोर होने का ग़म ज़ाहिर कर रहे हैं, वो यह नहीं समझते कि बीते कल में भी इन संस्थानों पर व्यक्तियों की ही छाप थी। नेहरूवियन कंसेंसस (जो कि अनेक मायनों में देश के लिए शुभ था) को यूँ ही वह नाम नहीं मिल गया था।इसलिए जब संस्थानों पर भरोसा न हो, तब नायकों की तलाश स्वाभाविक है।

लेकिन इस व्यक्ति केंद्रित अपेक्षा के अपने नुकसान हैं। उदार-मध्यवर्ग हो या दक्षिणपंथी समाज, दोनों को लगता है कि उनका काम व्यक्ति ढूंढने तक सीमित है। आगे का काम व्यक्ति करे। और इस तरह समाज किसी भी प्रकार के स्थायी परिवर्तन से वंचित रह जाता है। भारत की क्रिकेट टीम का इतिहास देख लीजिए – व्यक्ति केंद्रित है। संगीत जो है वह गायक या वादक केंद्रित है। ऑर्केस्ट्रा जैसी कोई चीज़ शायद ही भारत में जन्म ले सकती थी।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General)

डेडली कॉम्बिनेशन

जिस शहर में मेरी ससुराल है, वहाँ एक दुकान है – “फलाने फोटो फ्रेम एण्ड जलेबी भण्डार”। पहली बार देखा तो बहुत हँसी आई थी।

अब सोचता हूँ, क्या हुआ होगा? एक फोटो फ्रेम बनाने वाले ने सोचा, चलो इसी दुकान में जलेबी बनाकर क्यों न बेच लें?

सीमेन्ट की फैक्ट्री वाले सेठ सीमेन्ट की और भी फैक्ट्रियाँ लगाते हैं। या फिर वो अन्य सेठों की सीमेन्ट की फैक्ट्रियाँ ख़रीद लेते हैं। ऐसा क्यों नहीं होता कि सेठजी सोचें कि चलो एक सीमेन्ट की फैक्ट्री तो हो गई, अब एक फ़ूलों की दुकान लगा लेते हैं।

सिर्फ़ सेठ क्यों? डॉक्टर्स के बच्चे ज़्यादातर डॉक्टर बनते हैं। क्योंकि उन्हें माँ-बाप का नर्सिंग होम चलाना पड़ता है। नर्सिंग होम वो बेशक चलाएँ, लेकिन ऐसा क्यों नहीं होता कि वो नर्सिंग होम के साथ ही एक साड़ी सेंटर खोल दें?

ध्यान रहे कि मैं यहाँ “अपनी मर्ज़ी के करियर” की बात नहीं कर रहा। मैं बात कर रहा हूँ एक साथ अलग-अलग रुचियों के काम करने की। पैटर्न्स में जीना आसान है, इसलिए लोग बहुत लोड नहीं लेते कि कुछ सोचें और अलग करें। जो लोग समाज में अनेक बार नौकरियाँ छोड़ते हैं, या व्यवसाय बदलते हैं, उन्हें प्रायः लापरवाह और असफल समझा जाता है।

लोग कहते हैं कि एक ही काम को बहुत अधिक बार करो, और उसपे फ़ोकस रखो तो उसमें निपुणता प्राप्त कर सकते हो। लेकिन मुझे लगता है कि उनकी ज़िंदगी अधिक ख़ूबसूरत और अनुभव-संपन्न है जो अलग-अलग घाटों का पानी पीते हैं।

काम ही क्यों, खाने और पहनने में भी ऐसा कुछ आज़माना चाहिए। जैसे कि जलेबी के साथ बैंगन का भरता खाओ, सूट के साथ गमछा ले लो। ये क़ानून क्यों मानना कि रबड़ी-जलेबी ही “डेडली कॉम्बिनेशन” है?

बाकी आजकल इतने से लिखे को भी लोग लम्बा मानते हैं। आपने पढ़ा, अच्छा किया।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General)

गिरने से बचने की क़वायद

“गाते-गाते लोग चिल्लाने लगें” तो कान बन्द करना एक उपाय है। दूसरा उपाय है गाना।

जब पड़ोस, मित्रता और रिश्ते खत्म होने लगें तो खुद को बंद कर लेना एक उपाय है। दूसरा है फिर से पड़ोसी, दोस्त और रिश्तेदारों को ढूंढना।

जब लोग हाल-चाल पूछने की बजाय दिखाने लगें, और व्हाट्सएप स्टेटस लोगों की ज़िंदगी की हक़ीक़त छिपाने लगे, तब खुद भी हक़ीक़त छिपाना एक उपाय है, दूसरा उपाय है हाल-चाल फिर से पूछना और बताना। 

चिट्ठियाँ मानवों के बीच संवाद के विकास का चरम थीं। फोन से लेकर सोशल मीडिया आदि के आने से सार्थक संवाद का पतन ही हुआ है। उस पतन से खुद मानवता का पतन हुआ है।

इंतज़ार में खूबसूरती थी। अमेज़न का सामान दो दिन देर से आने पर शिकायत करने में ख़ूबसूरती खो जाती है।

तस्वीरों की बाढ़ की वजह से जब आपका क्लाउड स्टोरेज भी खत्म होने लगे तब बटुए में रहने वाली या क़िताब में छिपाई गई उस अकेली तस्वीर की क़ीमत का पता चलता है।

आपके घर का दरवाज़ा आज भी बिना फोन किए कोई मित्र खटखटाता है तो आप भाग्यशाली हैं।

दो दशकों में ही दुनिया यदि बदल जाए तो उसे दुनिया का बदलना नहीं खत्म हो जाना कहना चाहिए।

उस खत्म होती या हो चुकी दुनिया को पुनर्जीवित करना हमारा कर्तव्य है। ऐसा करना पीछे जाने की नहीं बल्कि गिरने से बचने की क़वायद मानी जानी चाहिए।

(“कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं, गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं ” – दुष्यंत कुमार)

– हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General)

लोकतंत्र, मतदाता और तार्किकता

लोकतंत्र में चुनावों के सम्बन्ध में यह मानकर चला जाता है कि मतदाता ईमानदार होते हैं और वे जो चुनेंगे वो सही ही होगा।

भारत सहित अन्य देशों का हमारा अनुभव बताता है कि मतदाता ईमानदार नहीं होते। न ही वे युक्तिसंगत निर्णय लेते हैं। भारत में जो संविधान उन्हें मतदान का अधिकार देता है, मतदाता उसी संविधान की सभी मूल भावनाओं के ख़िलाफ़ जाकर या उन्हें पर रखकर मत देते आए हैं। इनमें जाति-धर्म और पैसे का लालच सबसे बड़े कारण हैं। मतदाता सूचनाओं का तार्किक विश्लेषण करने में अक्षम हैं। जिन प्रसार माध्यमों का काम मतदाताओं तक यह विश्लेषण सरल भाषा में पहुँचाना है, वे या तो असफल होते हैं या बिक जाते हैं।

नतीजा यह है कि काग़ज़ पर अच्छी दिखने का बावजूद यह चुनाव आधारित लोकतांत्रिक प्रक्रिया हमें ऐसी सरकारें देने में नाकाम रही हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान के मूल्यों पर आधारित समाज और देश का निर्माण कर सकें।

भारत का समाज भावुकता प्रधान है। यह तर्क से ऊपर भावनाओं को रखता है। भारत एक व्यक्ति केन्द्रित समाज भी है, यहाँ निजी हित सर्वोपरि है। केवल एक परिप्रेक्ष्य में सामूहिक हित को निजी हित से ऊपर रखा जाता है, वह है जाति और धर्म। इसलिए जहाँ एक ओर मतदाता घोर व्यक्तिवादी है, वह अपने और अपने जाति-धर्म के अतिरिक्त और किसी समूह का हित सोचे यह हमेशा सम्भव नहीं है। भावुकता प्रधान होने के कारण भारत के मतदाताओं को भावुक मुद्दों के द्वारा बरगलाना भी आसान है।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय चूँकि देश पर विदेशियों का क़ब्ज़ा था इसलिए यह माना गया कि आज़ादी के बाद भारत के लोग भारत के सभी वर्गों हित में निर्णय लेंगे। यह अनुमान बँटवारे के समय हुए दंगों से ही ग़लत साबित हुआ।

लोकतंत्र अन्य सभी शासन व्यवस्थाओं से बेहतर है, लेकिन उसे अनुकूल वातावरण चाहिए। जिस स्तर का पागलपन हम आजकल खुलेआम देख रहे हैं, उसला दोष केवल भाजपा को देना उचित नहीं है। हममें इस पागलपन के बीज पहले से मौजूद थे। वह बीज आज वृक्ष बन गए तो हम चौंक जाएँ यह उचित नहीं।

हमारे संविधान की मूल भावनाओं पर आधारित समाज बनाने के लिए समाज को बदलना बेहद आवश्यक है। लेकिन यह काम असम्भव होने की हद तक कठिन है।

हितेन्द्र अनंत

मानक