दर्शन (Philosophy)

बुद्ध और शिव

अगर मैं सोचूँ कि एक औसत भारतीय के लिए आदर्श व्यक्तित्व कौन है, तो उत्तर में दो नाम आते हैं। इनका आस्तिक – नास्तिक, या धार्मिक – तार्किक होने से कोई लेना देना नहीं है। ये दो नाम हैं बुद्ध और शिव। एक जिनके पास जीवन जीने का समग्र उपाय है, उनकी शिक्षा और उनका मार्ग पूरे विश्व के कल्याण का रास्ता है। दूसरे वह हैं जिनसे प्यार से और हक़ से कोई भी कुछ भी मांग लेता है। शिव का नाम ही इस विशाल भूभाग की जनता के लिए जीने की प्रेरणा है। बुद्ध का मार्ग प्रत्येक प्रश्न का उत्तर है। शिव का दयालु स्वभाव प्रत्येक दुर्बल के लिए सहारा है, शिव का वेश, उनका निवास, उनके आभूषण सभी प्रकृति से एकाकार जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।

बुद्ध का धम्म, जैसा आंबेडकर ने समझा और समझाया, मनुष्य को धर्मों और आडंबरों की गुलामी से मुक्त करता है। धम्म मनुष्य को संगठित करता है लेकिन एक दूसरे के कल्याण के लिए, किसी से लड़ने या किसी की संख्या कम-ज़्यादा करने के लिए नहीं। वहीं शिव की छवि मात्र ही आदिकाल से इस देश के मनुष्यों के प्रकृति से रिश्ते को परिभाषित करती है, वह एक विशेष जीवनशैली का संदेश देती है जहाँ मनुष्य संग्रह नहीं करता, हमेशा देने को तत्पर है लेकिन वह कमज़ोर नहीं है, आवश्यकता पड़ने पर दंड भी दे सकता है। शिव आदि योगी हैं। बुद्ध आदि गुरु हैं।

इस बात पर वाद या विवाद की आवश्यकता नहीं है। किसी बाइनरी या द्वैत में फँसने से कुछ हासिल होगा नहीं। जो इसे समझ सकें अच्छा है। जो न समझें वो जाने दें। यह केवल उनके लिए लिखा है जिन तक यह बात पहुँचनी चाहिए।

– हितेन्द्र अनंत

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दर्शन (Philosophy), विविध (General)

नफ़रत का मोहब्बत में बदल जाना

एक रोचक क़िस्सा सुनाता हूँ।

संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन जी की मृत्यु के करीब एक महीने पहले ईद के दिन उन्होंने भोपाल के कोह-ए-फ़िज़ा इलाके में मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की इच्छा व्यक्त्त की। मप्र के तब के गृह मंत्री बाबूलाल गौर ने इसकी मालूमात होते ही तुरन्त वहाँ जाकर उन्हें मस्जिद जाने से रोका। एक पूर्व सरससंघचालक का मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ना वाकई संघ और भाजपा के लिए घातक हो सकता था। हालांकि बाद में संघ ने बयान दिया था कि सुदर्शन जी वहाँ नमाज़ पढ़ने नहीं बल्कि केवल ईद की बधाइयां देने के लिए जाना चाहते थे।

इसके करीब एक महीने बाद सितंबर 2012 में, रायपुर में सुदर्शन जी का निधन हुआ। उनकी अंतिम यात्रा नागपुर में निकली जिसमें बड़ी संख्या में शहर के मुसलमान शामिल हुए। नमाज़ पढ़ने की सुदर्शन जी की इच्छा अधूरी रह गयी और वह किस्सा भुला दिया गया। हालांकि कुछ मुस्लिम संगठनों ने इन घटना को इस तरह देखा कि जीवन के अंतिम समय में सुदर्शन जी सत्य के क़रीब जा रहे थे। मुझे वह बात सही नहीं लगती।

ईद के बहाने वह क़िस्सा मुझे फिर याद आया। मुझे ऐसा लगता है कि सुदर्शन जी नमाज़ इसलिए नहीं पढ़ना चाहते थे कि वे इस्लाम के तरफ़ झुकने लगे थे। न ही इसलिए कि उम्र के साथ उनकी बुद्धि थोड़ी फ़िर गयी थी। मुझे लगता है कि नफ़रत की सीमाएं जब ख़त्म होने लगती हैं तो भावनाओं का चक्र मनुष्य को मोहब्बत की तरफ़ ले जाता है। यानी नफ़रत की इंतेहा में आप किसी विषय पर इतना सोच लेते हैं कि अंततः उससे आपको मोहब्बत हो जाती है। मुझे लगता है कि सुदर्शन जी की नफ़रत मोहब्बत में तब्दील हो गयी थी। वे इस्लाम या मुसलमानों से नफरत करते-करते थक गए थे, बोर हो गए थे और आजिज़ आ चुके थे। इसलिए अब वे मुसलमानों के क़रीब आकर उनसे दोस्ती करना चाहते थे। यह ठीक है कि सामजिक जीवन में और पेशेवर मजबूरियों के चलते उनके अनेक मुस्लिम मित्र रहे होंगे, लेकिन यह भोपाल वाला क़िस्सा अंदर से आए बदलाव का नतीजा था।

काश ऐसा कुछ दुनिया के सभी मजहबों-ख्यालों के सभी कट्टर नेताओं के साथ हो, और उम्र के अंतिम पड़ाव में न होकर जल्द से जल्द हो, ताकि उनकी नफ़रत जल्द से जल्द मोहब्बत में तब्दील हो जाए और इस दुनिया की बहुत से मुश्किलें आसान हो जाएं। मैं जानता हूँ कि यह चाह बस एक ख़्याली पुलाव बनकर रह जाएगी। लेकिन यह पक्के तौर पर सत्य है कि नफ़रत की इंतेहा हो जाए तो उसे मोहब्बत में परिवर्तित कर देना असम्भव नहीं।

यदि आप किसी से बहुत ज़्यादा नफ़रत करते हैं, तो एक बार इस तरह से सोचकर देखिए। नहीं करते तो जान लीजिए कि जब अंत में मोहब्बत करनी ही है, तो नफ़रत की ही क्यों जाए?

– हितेन्द्र अनंत

 

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दर्शन (Philosophy), विविध (General), सामयिक (Current Issues)

हिन्दू धर्म में बहुत कुछ है जो संघ-भाजपा छोड़ चुके

संघ और भाजपा जिस तरह का हिन्दू धर्म भारत में थोपना चाहते हैं उसके कुछ ख़ास लक्षण इस प्रकार हैं:
१. इसमें वैष्णव धारा से केवल शाकाहारी मूल्यों को लिया गया है। उसमें जो सात्विकता, सत्यवादिता, परहित एवं अहिंसा जैसे मूल्य हैं, उन्हें छोड़ दिया।
२. शैव-शाक्त धाराओं से केवल हिंसक भाव लिए हैं। उनमें जो राजसी गुणों की स्वीकृति है, जिसके तहत मांस-मदिरा भी आते हैं, उनसे किनारा कर लिया है।
३. दोनों धाराओं में प्रेम को उच्च स्थान पर रखा जाता है। किंतु संघ परिवार को प्रेम नापसंद है।
४. संघ धार्मिक-आध्यात्मिक प्रेरणा के लिए विवेकानंद की ओर देखता है। किंतु उनके द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता पर प्रबल जोर दिए जाने, इस्लाम की प्रशंसा एवं ब्राह्मणवाद की आलोचना सहित वैश्विक बंधुत्व के उनके संदेश से संघ को कोई लेना-देना नहीं है।
५. गौभक्ति के बीज भारत में हनुमान प्रसाद पोद्दार के नेतृत्व नें गीताप्रेस गोरखपुर ने बोए थे। महिलाओं की सीमित भूमिका व गौभक्ति जैसे सिद्धांत संघ में इसी मंडली से आए हैं।
६. हिन्दू (शब्द प्रयोग प्रचलित अर्थों में लिया जाए) दर्शन में जो वेद-विरोधी परंपराएं हैं, जैसे कि उपनिषद, उनके सिद्धांतों का संघ-विहिप प्रचारित हिंदुत्व में कोई स्थान नहीं है। उपनिषद मोटे तौर पर कर्मकांड विरोधी, यज्ञ विरोधी, एकेश्वरवादी (ब्रह्मवादी) हैं।
७. संघ दयानंद सरस्वती (आर्य समाज) का भक्त है। लेकिन दयानन्द द्वारा शैव, वैष्णव, तुलसी, कृष्णमार्गी, राममार्गी व सभी पौराणिक धाराओं की कठोर आलोचना को वह सिरे से भुला देता है।

इन पंक्तियों का लेखक नास्तिक है, किन्तु यह मानता है कि संघ प्रचारित हिंदुत्व से असली लेकिन भुला दिया गया हिन्दू धर्म कहीं बेहतर है।
– हितेन्द्र अनंत

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दर्शन (Philosophy), विविध (General)

प्यार और सभ्यता

प्यार क्या होता है? थोड़ा बहुत जो जैविक कारणों से होता है, उसे छोड़ दें, तो प्यार दरअसल सभ्यता की पैदाइश है। अपवादों को छोड़ दें तो जानवर प्यार नहीं करते। आदिमानव भी नहीं करता था। प्यार सभ्यता के साथ विकसित हुआ है। वफ़ादारी, साथ जीने और ख़्याल रखने जैसी बातें उसके घटक हैं। ये घटक सभ्यता के बग़ैर जीने के लिए आवश्यक नहीं थे। इसीलिए प्यार करने की ताक़त “सभ्य” इंसानों में होती है। यह अपवाद स्वरूप दिखी भी तो केवल उन जानवरों में दिखाई देती है जो इंसानों के आसपास रहते हैं। इसलिए जो इंसान प्यार नहीं कर सकते उन्हें असभ्य कहना चाहिए। इंसानों के बीच किन्हीं भी कारणों से प्यार का विरोध करने वाले असभ्य और बर्बर कहे जाने चाहिए। यह रोचक है कि सभ्यता का हिस्सा होकर भी ज़्यादातर इंसान असभ्य हैं। इस असभ्यता का औपचारिक शिक्षा या धन से कोई संबंध नहीं है।

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क्या हिन्दू सहिष्णु होते हैं? क्या सेकुलरिज़्म हमारे डीएनए में है?‏

क्या हिन्दू सहिष्णु होते हैं? क्या सेकुलरिज़्म हमारे डीएनए में है?
(संदर्भ – प्रधानमंत्री का हालिया भाषण)

यह कहना कि सेकुलरिज़्म हमारे डीएनए में है, यह पहले अधिक चर्चित तरीके से यों कहा जाता था कि हिंदू सहिष्णु होते हैं। यह हिंदुओं की प्रकृति मानी जाती है। मेरा मत है कि यह एक प्रकार का अर्धसत्य है। हिन्दू अवश्य ही सहिष्णु होते हैं लेकिन ईश्वर की अवधारणा एवं उपासना के संदर्भ में। हिन्दू परंपरा में ईश्वर को लेकर कोई स्पष्ट मत नहीं है। वेदों से लेकर पुराणों तक और शंकराचार्य से लेकर रामानुजाचार्य तक अनेक मत हैं। सम्भवतः यह मताधिक्य ही कारण है कि किसी ऋषि को यह लिखना पड़ा – “एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति”। हिन्दू मत पर इसी देश में चलने वाली अन्य अनीश्वरवादी धाराओं का भी गहरा प्रभाव रहा है। यही कारण है कि हिन्दू अन्य मतावलंबियों के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। वे आसानी से जीसस को भगवान मान लेते हैं। वे मस्जिदों और मज़ारों के सामने सर भी झुकाते हैं। अन्य धर्मों की ईश्वर को लेकर एक स्पष्ट और अपरिवर्तनीय राय है। हिंदू परम्परा की अनेक धाराओं में ऐसा एकमत नहीं है। अतः हिंदुओं को ईश्वर के एक नहीं बल्कि करोड़ों रूप स्वीकार हैं। ईश्वर की अवधारणा पर बहसों से सारा हिन्दू वाङ्गमय भरा पड़ा है। आप आसानी से ऐसे हिन्दू देख सकते हैं जो मूर्ति पूजा भी करते हैं लेकिन पूछने पर कहते हैं कि ईश्वर निराकार है। इसलिए अन्य धर्मों में वर्णित ईश्वर की अवधारणा से हिंदुओं की भावनाएं आहत नहीं होती। लेकिन हिंदुओं की सहिष्णुता यहाँ आकर ख़त्म हो जाती है।

जाति, वर्ण, खान-पान और वैवाहिक संबधों के मामले में हिन्दू बड़े कट्टर होते हैं। खासतौर पर जाति और खान-पान सम्बंधी मामलों में। हिंदुओं में पगड़ी पहनने न पहनने, पगड़ी के रंग से लेकर जूतों के उपयोग या तिलक लगाने की शैली तक के कठोर नियम रहे हैं। भोजन में पथ्य-अपथ्य को लेकर जो कट्टरता थी वह लगभग आज भी उतनी ही कठोर है। जातियों में भी उपजातियां और क्षेत्रीय विभिन्नताएं इतनी भयंकर हैं कि उनको लेकर आज भी प्रत्येक समाज में संघर्ष जारी है। इन सभी प्रश्नों में हिंदुओं में कट्टरता का वही स्तर देखा जा सकता है जो ईश्वर को लेकर अन्य धर्मों के अनुयायियों में है। यहां ध्यान देने योग्य यह है कि खान-पान और छुआछूत को लेकर मुस्लिम या ईसाई समाजों में जरा भी कट्टरता नहीं है। किसी ईसाई के लिए हिन्दू के घर या हिन्दू दलित के घर भोजन करना या उससे हाथ मिलाना जरा भी कठिन नहीं। आज से साठ साल पहले तक हिंदुओं के जाति आधारित तालाब हुआ करते थे। गाँवों में आज भी मिल जाएंगे। पीने के पानी के स्रोत को विभिन्न जातियों से वंचित रखने वाला समाज कट्टर न कहा जाए यह आश्चर्यजनक होगा। यह वही समाज है जहां कुछ दशकों पूर्व तक यदि भोजन करते समय शूद्र को देख भी लिया तो भोजन अपथ्य हो जाया करता था। यह वही समाज है जहाँ अनेक गाँवों में कुछ जातियों को आज भी अधिकार नहीं कि वे अपनी बरात में दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ाएं, ऐसा होने पर हिंसा की घटनाओं के अनेक उदाहरण आज भी मौजूद हैं। सुबह-सुबह घर से बाहर निकलते वक्त किन-किन जातियों के लोगों का दिख जाना अशुभ होता है यह ज्ञान आज भी गाँवों में बांटा जाता है। कुछ ही दिन पहले एक दलित की नाक काट दी गयी क्योंकि उसने किसी शादी में उच्च जाति के लोगों के साथ बैठकर भोजन करने की हिमाकत की। कट्टरता का यह वर्णन और भी वीभत्स है लेकिन यहां केवल संकेत किया गया है। सिर्फ़ जाति विभेद नहीं बल्कि पूजा पद्धति, शुद्ध-अशुद्ध संबंधी नियम, विभिन्न रीति-रिवाजों और विधियों के सम्बन्ध में भी घोर कट्टरता पायी जाती है।

इसलिए हिंदुओं के डीएनए में सहिष्णुता जैसा कुछ नहीं है। वे कहीं सहिष्णु हैं तो कहीं कट्टर, ठीक वैसे ही जैसे कि अन्य धर्मों के लोग कहीं सहिष्णु हैं तो कहीं घोर कट्टर।

भारत में विभिन्न धर्मों का हज़ारो वर्षों का शांतिपूर्ण सहअस्तित्व रहा है। यह गर्व का विषय है। लेकिन इसका कारण बहुसंख्यकों की नस्ली खूबी (डीएनए) नहीं है।

-हितेन्द्र अनंत

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नास्तिकता पर स्फुट विचार

(मैंने फेसबुक पर नास्तिकता के संबंध समय-समय पर जो लिखा है उसे यहाँ संग्रहित किया जा रहा है – हितेन्द्र अनंत)
1‌‌‌‌…
नास्तिकता पर कुछ निजी विचार:
1. नास्तिक होने का अर्थ तर्कशील, स्वतन्त्र-चिंतक एवं विज्ञानवादी होना है। इसके तहत ईश्वर को नकारना स्वाभाविक रूप से आता है।
2. नास्तिक होने का नैतिकता एवं मूल्यों (कथित अच्छे या बुरे) से कोई लेना-देना नहीं है। एक नास्तिक नियमों का पालन करने वाला आदर्श सामाजिक प्राणी भी हो सकता है या एक अपराधी भी। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आस्तिकों के विषय में भी यह सत्य है। यद्यपि एक नास्तिक के तर्कशील होने के कारण उसके द्वारा नैतिक मूल्यों के पालन की संभावना अपेक्षाकृत अधिक है।
3. नास्तिक की राजनैतिक विचारधारा वाम/दक्षिण या कुछ और हो सकती है। राजनैतिक विचारों का नास्तिकता से कोई लेना-देना नहीं है। सुना है कि वि दा सावरकर भी नास्तिक ही था।
4. यह कतई आवश्यक नहीं कि नास्तिकों की कोई सार्वभौमिक आचार-संहिता हो या उन्हें किसी भी प्रकार की साझा पहचान या झण्डे तले आना पड़े। यदि ऐसा हुआ तो स्वतन्त्र-चिंतन का आधारभूत गुण ही नष्ट हो जाएगा।
5. किसी नास्तिक का यह कर्तव्य नहीं कि वह नास्तिकता का प्रचार करे ही। यद्यपि ऐसा करना मानवता के हित में है, इसे ऐच्छिक ही होना चाहिए।
6. नास्तिक होने के बाद कोई यदि आस्तिकों व धार्मिकों को तुच्छ समझे या उनका उपहास करे तो यह अनुचित है। वह भले ही वह आस्तिकों से विमर्श करे, उनका उपहास कभी न करे।
7. नास्तिक हो जाना स्वतन्त्र हो जाने की घटना है। इस पर नास्तिक गर्व भले ही करें किन्तु यह अहंकार का कारण न बने।
2…

नायाब “रत्नों” की कमी नहीं है यहां।मेरा पिछ्ला स्टेटस था उनके लिए जो स्वयं को नास्तिक मानते हों। उसमें लिखा था कि नास्तिक पहचान के मेरी नजर में क्या मायने हैं। अनेक “आहत” हृदयों ने आव न देखा ताव, देखा तो बस “नास्तिक” शब्द लिखा देखा और ब्रह्मास्त्रों की वर्षा शुरू कर दी! (खैर जब आस्था की कमजोर नींव पर प्रहार होता दिखे तो मन बांवरा हो ही जाता है!) एक साहब के द्वारा हाल ही में बांटे गए ज्ञान के मोती:

1. “नास्तिकता आस्था का विषय है”
2. “बिना स्वानुभूति के कोई कैसे ‪#‎मान सकता है कि वह नास्तिक है?”
3. “आस्तिक और नास्तिक दोनों मूर्ख‬ हैं”

“स्वानुभूति” जैसी आध्यात्मिक बातें करने वाले संशयवादी (agnostic) का एक सांस में 80% या उससे अधिक आबादी (नास्तिक+आस्तिक) को “मूर्ख” कह देना वाकई “स्वानुभूति” से ही उपजा आध्यात्मिक गुण है। नास्तिकता को “आस्था” का विषय कहने वाली बात पर टिप्पणी करना तर्क और आस्था के साथ ही साथ बुद्धि का भी अपमान होगा सो उसे रहने देते हैं।

एक और साहब ने किसी बाबाजी का नाम लिखा और उन्हें पढ़ने का आदेश दिया यह कहकर कि “बाबाजी को पढ़ो दिमाग से सारे कीड़े साफ़ हो जाएंगे”। खैर, स्वच्छता अभियान के सक्रिय कार्यकर्ता होंगे सो सफ़ाई का मौक़ा शायद खोना नहीं चाहते। उन्होंने मेरे नाम की व्याख्या “इंद्रियों का हित चाहने वाले अनंत जी” की, यह मुझे अच्छा लगा। मेरे लिए इन्द्रियों का हित स्वास्थ्य की दृष्टि से वाकई गंभीर मसला है।

-इन्द्रियों का हित चाहने वाला अनंत
3…
संशयवादी (agnostic) वह छिपा हुआ आस्तिक है जो नास्तिकों की सोहबत छोड़ना नहीं चाहता और आस्तिकों की सोहबत से शर्मिंदा है।
4…
कुछ लोग बस संतुलनवादी होते हैं। इनका काम है किसी भी अड़चन के समय सुरक्षित अपक्षवादी बन जाना। अकसर टेलीविजन की बहसों या सेमिनारों के प्रश्नोत्तर काल में ये लोग अपनी कला का प्रदर्शन करते मिल जाएँगे। “फलां मसले पर अमुक गलत है, लेकिन तमुक भी गलत है”। “फलां विधि आपकी समस्या का उपाय है, लेकिन दूसरी विधि भी अच्छी है”।

संतुलनवादियों के कारण प्रायः सही और गलत में भेद कायम नहीं हो पाता। इन लोगों की ऐसी ही कलाबाजियों का एक उदाहरण है जब कहा जाता है कि “नास्तिक और आस्तिक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों के चिंतन का केंद्र ईश्वर है आदि-इत्यादि”। आगे इस कथन का दो प्रकार के लोग विशेष उपयोग करते हैं, एक संशयवादी जो आस्तिक विचार के निकट हों न हों, निश्चय ही नास्तिकता से कोसो दूर हैं; दूसरे वे आस्तिक जो कमोबेश धर्मांध नहीं है।

मुझे यह समझ नहीं आता कि विशुद्ध नास्तिक होना भला आस्तिक होने का प्रतिलोम कैसे हो सकता है? अच्छे का प्रतिलोम बुरा है, सफ़ेद का काला है, लेकिन एक पक्ष का यह कहना कि ईश्वर का अस्तित्व है ही नहीं, भला अस्तित्व को बिना प्रमाण मानने वालों का प्रतिलोम कैसे हो सकता है? दोनों को तराजू पर रखकर तौला जाना असंभव है। एक तरफ तार्किकता है दूसरी तरफ खालिस आधारहीन आस्था।

आप कह सकते हैं कि कट्टर हिंदू और कट्टर मुसलमान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, आप यह भी कह सकते हैं कि कट्टर आस्तिक और कट्टर नास्तिक (यानी ऐसे लोग जो दूसरों को भी येन-केन-प्रकारेण नास्तिक बनाने पर उतारू हों) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

लेकिन ऐसे नास्तिक जो केवल तर्क एवं विज्ञान के आधार पर सत्य उद्धृत करें वे भला आस्तिकों के समान कैसे हो गए? यह बेकार का संतुलन रुकना चाहिए।
5…
कुंठित आस्तिकों का नास्तिकों से नफ़रत करना स्वाभाविक है। उनके बिरादर चाहे दंगे करें, बम फोड़ें या बलात्कार करें उनमें उतनी नफरत पैदा नहीं कर पाते। दवा कड़वी होती है, ज़हर भी। ज्ञान कड़वा होता है, वह आपके लिए दवा का और आपके अज्ञान के लिए ज़हर का काम करता है। फर्क है उनमें जो दवा पी सकते हैं और जो स्वाद का अंदाज लगाकर ही भयभीत हैं।

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दर्शन (Philosophy), विविध (General), सामयिक (Current Issues)

संभवामि युगे युगे?

भारत का जनजीवन हजारों वर्षों से अवतारों की कहानियों के साथ विकसित होता आया है। अलग-अलग युगों में बहुत से अवतारों ने “तारणहार” की भूमिका निभायी है। एक ऐसे समाज में जहाँ बच्चा पैदा होते ही अवतारों की कहानियाँ सुनता है, उनकी पूजा करता है और उन्हीं को आदर्श मान अपने जीवन मूल्यों को गढ़ता है,  अवतार की अवधारणा एक बड़ी भूमिका निभाती है। इन अवतारों से हमें प्रेरणा मिली है। हमने इन अवतारों के गुणों को आदर्श रूप में अपनाया है, या इनके आचरण को आदर्श मापदंड मानकर हर व्यक्ति का उन्हीं मापदंडों के आधार पर आकलन किया है। अवतारों की कथाओं और उन पर जनमानस के विश्वास ने हमारा एक समाज के रूप में आत्मविश्वास बनाये रखा है।

लेकिन अवतारों को मूलतः “तारणहार” के रूप में देखने की प्रवृत्ति के नकारात्मक प्रभाव भी हैं। इनमें से कुछ पर विचार कीजिये:

1.  हम अवतारों के आगमन के प्रति सदा आश्वस्त रहते हैं। हमें समझाया गया है कि ईश्वर ने स्वयं कहा है कि:

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥”

अतः हम आकाश की ओर ताकते रहते हैं कि एक दिन ईश्वर अपना वचन पूरा करने के लिये अवश्य अवतार लेंगे।

2. हम अपने आसपास, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में नायकों की तलाश में रहते हैं। कोई भी यदि अपने क्षेत्र में थोड़ा अच्छा काम करे तो हम उससे चमत्कार की आशा लगा बैठते हैं। हम उन नायकों में एक छोटा ही सही, अवतार ढूंढने लगते हैं।

3. चूंकि हमें अवतारों की पूजा करना सिखाया गया है, हम अवतार या नायक में किसी भी दुर्बलता या अवगुण की संभावना को सिरे से नकार देते हैं। हम विश्वास ही नहीं कर सकते कि हमारा नायक कुछ गलत भी कर सकता है।

4. हम अवतारों और नायकों में इतनी अधिक आस्था और विश्वास रखते हैं, कि उन समस्याओं के समाधान के लिये स्वयं की किसी भी भूमिका की ओर विचार ही नहीं करते। हम अपनी ओर से समस्याओं के समाधान की पहल नहीं करते, बस नायक ढूंढते हैं और नायक से आशाएँ लगा बैठते हैं।

5. चूँकि हमारा नायकों पर विश्वास एक अवतार पर होने वाले विश्वास के स्तर का होता है, अपने नायक के असफल हो जाने पर हमें या तो उसकी असफलता पर ही विश्वास नहीं होता, या हमारी आस्था कुछ यों टूटती है कि हम तत्काल उस नायक को अवतार के पायदान से गिरा सीधे राक्षस बना बैठते हैं। हम कभी यह स्वीकार ही नहीं कर पाते कि जिसे हमने नायक मान लिया है, उसे असफल होने का भी अधिकार है। इसे स्पष्ट करने के लिये आइये कुछ उदाहरण लेते हैं।

6. महात्मा गांधी को इस देश में उनके जीवित रहते ही अनेक लोगों द्वारा अवतार मान लिया गया। उनके कृतित्व को देखते हुए आज भी अनेक लोग या तो उन्हें ही अवतार मानते हैं या उनके धरती पर आगमन को ईश्वर की किसी बड़ी योजना का हिस्सा मानते हैं। लेकिन जब अनेक इतिहासकारों ने उनके व्यक्तित्व की आलोचना की, उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को उजागर किया, या भारत-विभाजन को रोक पाने में उनकी तथाकथित विफलता की ओर इंगित किया, तब अनेक लोगों के लिये महात्मा गांधी अपने ही देश में घृणा के पात्र बन गये। “मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” जैसे नारे इसी देश में जन्मे हैं।

7. ऐसा ही कुछ पंडित नेहरू के साथ हुआ। एक नये देश के निर्माण में उनकी महान भूमिका रही है। लेकिन उनकी चीन-युद्ध या कश्मीर समस्या के संबंध में हुई संभावित रणनीतिक भूलों, उनके लेडी माउंटबेटन के साथ चर्चित संबंधों, या उनके वंशवाद को प्रश्रय देने की बातें कुछ लोगों को इतना आहत कर देती हैं कि वे नेहरू को देश की हर दुर्दशा के लिये उत्तरदायी ठहराते हैं।

8. क्रिकेट खिलाड़ियों के साथ तो प्रायः ऐसा होता आया है। यदि वे कुछ समय तक अच्छा खेलें तो उन्हें भगवान बना दिया जाता है।  फिर जब वे एक भी शृंखला हार जायें तो उनके पुतले फूंके जाते हैं।

9. अवतारवाद के मानने वालों के लिये यह संभव नहीं कि उनके अवतार या नायक में गुण और अवगुण एक साथ उपस्थित हो सकते हैं। आश्चर्यजनक रूप से यह उस समाज के बारे में है जो सत-रज-तम तीनों गुणों के सह-अस्तित्व और उपयोगिता को स्वीकार करता है।

10. अवतारवाद पर गहरे विश्वास, और वर्तमान सार्वजनिक जीवन में नायकों की घोर कमी के चलते अवतार ढूंढने की हमारी प्रवृत्ति और भी अधिक बलवती हो गयी है। कभी हम जयप्रकाश नारायण को सारी समस्याओं का समाधान मान लेते हैं, कभी अटल बिहारी वाजपेयी तो कभी अण्णा हजारे को। कभी हमें एपीजी अब्दुल कलाम में नायक नजर आता है तो कभी अरविंद केजरिवाल में। यदि कहीं किसी ईमानदार “प्रतीत” होने वाले अधिकारी पर नेता कार्यवाही करें तो जनता तुरंत उस अधिकारी का बचाव यों करने लगती है मानों पूरी मथुरा नगरी श्रीकृष्ण के बचाव में कंस से युद्ध को उद्दत हो!  लेकिन सच तो यह है कि जनता केवल उद्दत प्रतीत होती है, युद्ध लड़ती कभी नहीं। पूरी मथुरा को यही अपेक्षा है कि कोइ बालक आकर आततायी कंस से उन्हें मुक्त करायेगा।

11. नायकों पर अतिविश्वास और उनसे ही सभी समाधानों की अपेक्षाओं ने हमें व्यक्तिगत रूप से बेहद दुर्बल बना दिया है। हमने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लिया है। हम साहस से कोसों दूर हैं। अपने सीमित संसार में हम सुरक्षित जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। बाहर हो रहे अन्याय की हमें खूब जानकारी है, किंतु उस अन्याय को रोकना हम अपना काम नहीं मानते। इसलिये हम व्यक्तिगत रूप से कमजोर हैं।

12. इतना ही नहीं, हमारे बीच का हमारे ही जैसा कोइ व्यक्ति कोई पहल करे तो हम उसका विरोध करने लगते हैं। हम उसकी टांग खींचने लगते हैं, उसे हतोत्साहित करते हैं। ऐसा इसलिये है कि हमारा गहरा विश्वास है कि नायक आयेगा तो बाहर से आयेगा, या आकाश से अवतरित होगा। हमारे बीच, हमारा अपना ही कोई नायक हो सकता है, यह हमारे गले नहीं उतरता।

13.  समय आ गया है कि हम नायकों की खोज बाहर करना बंद करें। समय आ गया है कि हम यह जान लें कि नायक का अर्थ यह नहीं होता कि वह सारे संसार की समस्याओं का हल अकेला ही कर डाले। हमारे आस-पास की छोटी-छोटी समस्याओं का हल करने की पहल हम स्वयं करें। जो ऐसी पहल करें, हम उन्हें भी नायक का दर्जा दें।

14. हाँ, जिन्हें हम नायक का दर्जा दें उनसे चमत्कार की आशा न रखें। न ही उनके सर्वशक्तिमान-सर्वगुणसंपन्न होने का भ्रम पालें। जिस प्रकार हम कभी सफल और कभी असफल होते हैं, उसी प्रकार हमारे नायक भी कभी सफल और कभी असफल होंगे।

-हितेन्द्र अनंत

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