कहानी (Story), व्यंग्य (Satire)

दुर्गा-शक्ति-नागपाल (लघुकथा)

सुबह आठ बजे का समय। मुख्यमंत्री निवास के बाग में खद्दर का कुर्ता-पायजामा पहने मुख्यमंत्री दुर्गाप्रसाद चाय पी रहे थे। सामने टेबल पर कुछ बिस्किट और भुने हुए नमकीन काजू रखे हुए थे। इतने में सिलेटी रंग की सफ़ारी पहने हुए उनकेनिजी सचिव अखिलेश और पैंतीस वर्षीय एक गोरा-चिट्टा युवक जिसने सफ़ेद कमीज, गहरी नीली पतलून और टाई लगा रखी थी, मुख्यमंत्री के निकट आए। अखिलेश ने तत्काल झुककर दुर्गाप्रसाद के चरण स्पर्श किये। युवक ने “गुडमॉर्निंग सर” किया। सफ़ेद कमीज और पतलून पहने एक भृत्य ने टेबल पर चाय के दो कप और रखे। बात आगे बढ़ी।

दुर्गा: “हाँ क्या है पिछले महीने का डाटा भाई?” “क्या प्रगति है?”

अखिलेश: “जी भैया, ये शक्ति हैं। वो पीआर फर्म का सोशल मीडिया प्रभाग है न  भैया, यही संभालते हैं आजकल”।

शक्ति: “सर यदि आदेश हो तो ये फाईल लाया हूँ, कृपया एक नजर आप देख लें।”

दुर्गा: “देखा है, कल आपके सीईओ हैं ना उनका ईमेल आया था हमें, वही फाईल है ना ये?”

अखिलेश: “जी भैया! वही फाईल है। वो हमने सोचा बाबूजी भी होंगे यहाँ तो प्रिंट करके ले आये”

दुर्गा: “बाबूजी तो बैंगलोर हैं। वो नवीन का प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र है ना! बहुत दिनों से कह रहा था वो, भेज दो बाबूजी को!”

अखिलेश: “जी भैया!”

शक्ति: “सर पिछले मंथ में अपनी प्रोग्रेस टेन परसेंट डाउन है सर! ट्वीटर तो बैडली हिट है। फेसबुक पे लाइक्स में ग्रोथ भी स्लो है सर।”

दुर्गा: “हूँ। फिर क्या बोलते हैं आपके सीईओ?”

शक्ति: “सर! वो पाणिग्रहि सर बोल रहे थे कि इस महीने एक कॅम्यूनल कंट्रोवर्सी होनी चाहिये। इश्यू अभी ऐसा चाहिये सर कि अपनी कोर कन्सट्वीट्वेंसी जो है सर, उसको टारगेट करना होगा सर। अभी ना सर हम अपनी स्ट्रेंथ पर ही फोकस करें तो ठीक रहेगा सर।  साथ में इसमें थोड़ा मिडिल क्लास टच भी होना चाहिये सर”

दुर्गा: “हूँ।”

अखिलेश: “जी भैया!”

शक्ति: “सर तो जो गाजियाबाद का इश्यू चल रहा है न सर, वो डिमोलिशन वाला, उसी का प्लान भेजा है सर ये!”

दुर्गा: “अखिलेश!”

अखिलेश: “जी भैया!”

दुर्गा: “नागपाल से कहो कि देखे उस मॉस्क का। वो बात हो गयी है। बाहर की जो कंपाउंड वाल है ना, उसपे बस थोड़ा सा कार्यवाही करनी है एक-दो घंटे की। खान अंकल से भी बात कर लो।”

अखिलेश: “जी भैया वो ऐसा है कि, खान साब से तो बात हो गयी है। वो तो मैनेज कर लेंगे मस्जिद का। लेकिन वो नागपाल अभी सर नया आईएएस है। वो थोड़ा सा, मतलब तैयार तो है, पर थोड़ा सा संकोच में लग रहा था सर!”

दुर्गा: “कहाँ जाना है उसको?”

अखिलेश: “जी भैया, वो बोल रहा था भैया, कि उसको एक महीने से ज्यादा का निलंबन नहीं चाहिये, और उसके बाद लखनऊ माँग रहा है वो भैया!”

दुर्गा: “ठीक है कर दो! कार्मिक विभाग में कह दो आप कि ये ऐसा करना है। लेकिन उससे कहो नागपाल से कि केवल बाहर की दीवार को छुए, जोश में कहीं अंदर न चला जाए हीरो बनने के चक्कर में!”

अखिलेश: “जी भैया!”

दुर्गा (शक्ति से): “आगे का आप देख लेंगे, पाणिग्रहि साहब से बात कर लीजिये।”

शक्ति: “जी सर, बस न्यूज चाहिये सर इश्यू की, अच्छा कवरेज, बाकी तो सोशल मीडिया पर पब्लिक तो अपने आप पुल कर लेगी सर! ट्वीटर पर हेवीली ट्रेंड भी हो जाएगा! फेसबुक का हम लोग देख लेंगे सर। दस हजार तो हमारे अकाउंट है सर, ऑल टाईम एक्टिव!”

अखिलेश: “रिजल्ट दिखना चाहिये!”

शक्ति: “जी सर!”

दुर्गा: “अखिलेश, बात कराओ नागपाल से”

अखिलेश: “जी भैया!”

प्लेट पर रखे भुने काजू उठा लिये गये। मुख्यमंत्री का काफ़िला मंत्रालय की ओर रवाना हुआ। अगले दिन सुबह प्लेट पर वही भुने हुए काजू थे, साथ में रखे अनेक अखबारों में से एक पर समाचार  था: “युवा आईएएस अफसर नागपाल निलंबित! धर्म विशेष के पूजा स्थल पर अतिक्रमण की कार्यवाही से मुख्यमंत्री सख़्त नाराज। जिले की जनता में रोष। विपक्ष का आरोप, तुष्टिकरण के लिये की गई ईमानदार अफसर पर कार्यवाही”

दुर्गाप्रसाद अपने टैबलेट पर फेसबुक की हलचल देख रहे थे। हर जगह नागपाल के चर्चे थे। मस्जिद की बाहरी  दीवार मस्जिद है या नहीं इस पर बहसें जारी थीं।  ट्वीटर पर भी हिंदू-मुस्लिम युद्ध जारी था। नागपाल हर जगह हीरो बन चुका था। दुर्गाप्रसाद ने टैबलेट रखा और बाबूजी को फोन लगाया।

“प्रणाम बाबूजी! हाँ वो ठीक रहा कल का नागपाल वाला! आप तो बस आराम कीजिये…अच्छा बाबूजी चलता हूँ। आज झाँसी में लैपटॉप और टैबलेट वितरण का कार्यक्रम है।”

अचानक हल्की बारिश शुरू हुई, अखिलेश ने फौरन दुर्गाप्रसाद के लिये छतरी तान दी। दोनों झांसी की ओर रवाना हुए। प्लेट पर रखे भुने नमकीन काजू भीग गये थे। नमक भीगकर अब सफ़ेद प्लेट पर फैल चुका था। फिर धूप आई तो काजू का सारा नमक वाष्प बनकर उड़ गया। फेसबुक और ट्वीटर फिर और भी नमकीन हो गये।

-हितेन्द्र अनंत

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मानक
कहानी (Story)

पानी के किस्से

इन दिनों हवा में गर्मी है, और प्यास भी ज़्यादा लगा करती है। ऐसे में पानी ज़्यादा पीना पड़ता है। पर गर्मियों में पानी की कमी होती है। इसीलिए पानी के मूल्य का बोध मनुष्य को गर्मियों में ही होता है, तब वह साल भर पानी बचाने का संकल्प लेता है और हर साल वर्षा के मौसम में भूल भी जाता है कि कोइ संकल्प लिया था। ठीक वैसे ही जैसे हर परीक्षा परिणाम के बाद एक औसत दर्जे का विद्यार्थी साल भर पढ़ने का संकल्प लेता है किंतु जुलाई का महीना आते ही भूल जाता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ऊपर जिन दो संकल्पों का उल्लेख हुआ है, दोनों ही संकल्प गर्मी के मौसम में लिये जाते हैं और बारिश के मौसम में भुला दिये जाते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि पढ़ाई वाला संकल्प जो भूल जाते हैं वे विद्यार्थी औसत दर्जे के होते हैं, औसत से निचले दर्जे के विद्यार्थियों को संकल्प की चिंता नहीं होती और औसत दर्जे से ऊपर के विद्यार्थियों को संकल्प की आवश्यकता नहीं होती। तो क्या पानी बचाने के मामले में भी यही बात सत्य है? क्या हम कह सकते हैं कि दुनिया में ज़्यादातर आबादी ऐसे लोगों की है जो औसत दर्जे के हैं इसीलिये संकल्प लेकर भूल जाते हैं । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि संकल्प लेकर भूल जाना एक बात है और संकल्प तोड़ देना दूसरी बात। लेकिन इससे पहले कि मनुष्यों में दर्जे की चर्चा करते हुए हम किसी गंभीर समाजशास्त्रीय बहस में पड़ें, मैं आपको बता दूँ कि इस चिट्ठे का उद्देश्य जल संकट पर या संकल्पों के टूटने पर चर्चा करना नहीं है। मुझे तो बस याद आ रहा है कि कैसे पानी पीने के तरीके बदल चले हैं मेरे आसपास के संसार में। 

      हम रायपुर जिले की गरियाबंद तहसील के ग्राम छुरा के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते थे। हम यानी ग्राम छुरा की सिंचाई विभाग की कॉलोनी में रहने वाले हम-उम्र बच्चे। हमारे माता-पिता शहरी थे जिन्हें नौकरी के चलते गाँव में रहना पड़ रहा था। हम घर के अंदर शहरी और घर से बाहर देहाती थे। हमारी स्कूल सन् 1907 में बनी थी जिसमें मैंने सन् 1987 से 1991 तक पढाई की । हमारे स्कूल में पीने के पानी की कोइ व्यवस्था नहीं थी। स्कूल में पढ़ाई के बीच तीन छुट्टियाँ दी जाती थी। इनमें से एक खाने की छुट्टी थोड़ी लंबी होती थी जिसमें हम सब घर जाकर खाना खाकर वापस आते थे। वहाँ टिफ़िन लेकर जाने का कोइ रिवाज़ नहीं था। तो जब ये छुट्टियाँ होती थीं, तो हम आसपास के घरों में जाकर पानी माँगकर पीते थे। इन घरों की गृहणियाँ बड़े प्रेम से हमें पानी पिलाया करतीं। स्कूल में कोइ दो सौ से तीन सौ लड़के पढ़ते थे। सभी एक ही घर से पाने नहीं पी सकते थे, इसलिये सब अलग अलग घरों में पानी पीते, इनमें वे घर भी शामिल थे जिनके बच्चे हमारे ही स्कूल में पढ़ते थे। हम घरों के आँगन में सीधे घुस जाते और वहाँ काम कर रही महिलाओं से कहते, दाई-ओ पानी दे तो। इस पीने के पानी में और भी किस्से शामिल थे। जैसे मेरे एक दोस्त ने मुझसे एक बार कहा ओ नेहरू घर के पानी झन पिये कर, ओकर डौकी टोनही हे, तोला पानी पिया के टोनहा दिहीयानी तुम नेहरू के घर से पाने मत पिया करो, क्योंकि उसकी पत्नी टोनही है और तुमपर जादू टोना कर सकती है। लेकिन मैं नेहरू के घर से ही पानी पीना चाहता था क्योंकि उसके घर के कुँए का पानी मीठा होता था। इस समस्या का समाधान बताते हुए एक मित्र ने कहा कि जब भी उसके यहाँ पानी पियो, तो पहले थोड़ा सा पानी ज़मीन पर गिरा दो, ऐसा करने से उसका जादू टोना काम नहीं करेगा। बाद में मैंने ध्यान दिया कि अनेक बड़े बुजुर्ग लोग जहाँ भी जाते हैं, पीने से पहले थोड़ा सा पानी गिरा देते हैं।  

पानी पीना तो प्याऊ का  भी बड़ा मज़ेदार होता है। हमें गर्मियों में अक्सर बाज़ार भेजा जाता था। अब चूँकि बाज़ार एक गाँव का था, अतः छोटा था, अतः हम पैदल ही जाते। जाने से पहले ही हम यह फ़ैसला कर लेते थे कि आज कौन से प्याऊ का पानी पीना है। गर्मी के शुरूआती कुछ दिनों तक अलग अलग प्याऊ में भटकने के बाद हम उस एक प्याऊ की पहचान कर लेते जहाँ पानी अच्छा होता था। अच्छा पानी यानी ठंडा- मीठा पानी और प्याऊ में साफ़ सफ़ाई। प्याऊ में प्लास्टिक के अलग अलग रंगों के गिलास होते थे। अपने मनपसंद रंग के गिलास में पाने पीने के लिये हम दूर से ही दौड़ लगा देते। ज़्यादातर प्याऊ ऐसे थे जहाँ पानी पीने के पहले और बाद पीने वाले को ही गिलास पानी से साफ़ करना होता था। कुछ प्याऊ ऐसे भी थे जहाँ पानी पिलाने वाली महिला गिलास साफ़ कर देती और पाने पीने के बाद जूठा गिलास भी स्वयं साफ करती। ऐसे प्याऊ की इस अतिरिक्त सेवा से हम खासे खुश हो जाते थे।  

अब पुनः स्कूल का रूख़ करते हैं। प्राथमिक शाला के बाद हमने माध्यमिक शाला यानी मिडिल स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ पीने के पानी का एक ड्रम था जिसे स्कूल खुलने के वक्त एक दाई पास के हाई स्कूल के हैंडपंप से भरकर रख जाती थी। दाई स्कूल की साफ़सफ़ाई भी करती थी। प्राथमिक शाला में झाड़ू लगाने का काम विद्यार्थी अपनी अपनी कक्षा में बारी बारी से करते थे। मिडिल स्कूल में हमने गुरूजी को सर कहना सीखा। यहीं हमने पहली बार देखा कि हर विषय को अलग अलग सर पढ़ाते हैं, तो हमारा पहली बार पीरियड और डेली टाईम टेबल जैसे शब्दों से परिचय हुआ। वर्ना टाईम टेबल तो सिर्फ परीक्षा के लिये हुआ करता था। मिडिल स्कूल में एक और सुविधा थी जो प्राथमिक स्कूल से बढ़कर थी। यहाँ प्रधानपाठकजी की कुर्सी से लगा एक बटन था जिसे दबाने पर एक विद्युत घंटी बजती थी। यूँ पीरियड बदलने या छुट्टी की सूचना देने के लिये एक घंटा अलग से था। जब कभी पीरियड बदलता तो प्रधानपाठक या उनकी गैरमौजूदगी में कोइ अन्य शिक्षक बटन दबाते और पास ही जो कक्षा छठवीं(अ) का कमरा था वहाँ के विद्यार्थी दौड़ लगाते कि सर क्या काम है? कभी कभी सरजी घंटा इसलिये बजाते कि उन्हें पानी पीना होता था। ऐसे में जो बच्चा कार्यालय तक पहले पहुँचता, उसे सभी शिक्षकों को पानी पिलाने का गौरव प्राप्त होता था। इस काम में सभी को अतीव आनंद प्राप्त होता था। मिडिल स्कूल के पास स्वयं का कोइ हैडपंप नहीं था। आगे चलकर हमारे गाँव के सरपंच जो हमारे ही स्कूल से पढ़े थे, जब विधायक बन गये तो हमारे प्रधानपाठक के अनुरोध पर उन्होंने एक हैंडपंप हमारे स्कूल के पास ही लगवा दिया था। कुछ साल बाद मुझे पता चला कि प्राथमिक शाला के सामने भी एक हैंडपंप लग चुका था। 

मिडिल स्कूल की पढाई के बाद हमारा परिवार शहर आ गया। यहाँ के स्कूल में मैंने देखा कि पीने के पानी का एक अलग ही कमरा था जिसमें अनेक नल एक कतार में लगे हुए थे। ये नल एक बड़े से वाटर फ़िल्टर से जुड़े थे। पानी के कमरे की दीवार पर किसी ने कोयले से लिख रखा था यहाँ ज़ीरो-बी का पानी मुफ़्त मिलता है 

पानी तो मिनरल वाटर की बोतल से भी पिया जाता है। मैंने पहली बार मिनरल वाटर का पानी तब पिया जब हमारे मिडिल स्कूल की स्काउट टीम के साथ मैं कलकत्ता गया था। तब मैंने और मेरे मित्र ने कौतुहलवश एक बोतल खरीदी थी। हमारे साथ गये प्रधानपाठक ने हमें हिदायत दी थी कि हम इसे किसी और को न दें, और रोज़ इसे थोड़ा-थोड़ा पियें क्योंकि इसमें सेहत के लिये लाभकारी खनिज-लवण (मिनरल्स) होते हैं। और हमने उनकी बात मानी। अब तो लोग सफ़र में वज़नी थर्मस नहीं ले जाते और मिनरल वाटर की बोतल पर ही भरोसा करते हैं। मिनरल वाटर अब बोतल के अलावा पाऊच में भी मिला करता है। पानी-पाऊच का विशेष इस्तेमाल मैंने राजनेताओं की रैलियों और संतों के प्रवचनों में देखा जहाँ आई या लायी गयी भीड़ में इसे निःशुल्क वितरित किया जाता है। 

तो ये वो अनेक बाते हैं जो पानी पीने से जुड़ी हैं। पानी पीने का तरीका चाहे जो हो, जो प्यासा है उसके लिये तो पानी अमृत है। तो जो प्यासा है और जिसके लिये पानी अमृत है, उससे यह अपेक्षा अवश्य की जानी चाहिये कि वह पानी बचाने का संकल्प ले। किंतु जो प्यासा है और पानी बचाने का संकल्प लेता है वह इस संकल्प को भूल न जाए इस बात की कितनी संभावनाएँ हैं? खैर यह इस पर भी निर्भर करता है कि संकल्प लेने वाला औसत दर्जे का मनुष्य है या किसी और दर्जे का। तो आपका दर्जा क्या है? और आपका संकल्प क्या है?

मानक
हितोपदेश

हितोपदेश की संपूर्ण कथायें

भारत सरकार के सूचना और तकनीकी विभाग के भारतीय भाषाओं के लिये तकनीकी विकास प्रकल्प ने प्रशंसनीय कार्य किया है। इस प्रकल्प के साथ देश के अनेक विश्वविद्यालय जुड़े हैं। इनके जाल स्थल पर हितोपदेश की लगभग सभी कथायें हिन्दी में यूनिकोड पर दी गयी हैं। इस पोस्ट के अंत में सभी कहानियों के श्रेणीबद्ध लिंक दिये गये रहे हैं। इन लिंकों यानी कड़ियों पर जाकर आप सपूर्ण हितोपदेश पढ़ सकते हैं। अथवा यहाँ क्लिक करें। कुल मिलाकर हमारी सरकार इतनी बुरी नहीं, जितना हम उसे समझते हैं! कभी कभार अच्छे काम भी कर जाती है सरकार हमारी।

 

हितोपदेश

हितोपदेश भारतीय जन- मानस तथा परिवेश से प्रभावित उपदेशात्मक कथाएँ हैं। इसकी रचना का श्रेय पंडित नारायण जी को जाता है, जिन्होंने पंचतंत्र तथा अन्य नीति के ग्रंथों की मदद से हितोपदेश नामक इस ग्रंथ का सृजन किया।

नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान है। विभिन्न उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी के आस- पास निर्धारित की जाती है। हितोपदेश की रचना का आधार पंचतंत्र ही है। स्वयं पं. नारायण जी ने स्वीकार किया है–

पंचतंत्रान्तथाडन्यस्माद् ग्रंथादाकृष्य लिख्यते।

हितोपदेश की कथाएँ अत्यंत सरल व सुग्राह्य हैं। विभिन्न पशु- पक्षियों पर आधारित कहानियाँ इसकी खास- विशेषता हैं। रचयिता ने इन पशु- पक्षियों के माध्यम से कथाशिल्प की रचना की है। जिसकी समाप्ति किसी शिक्षापद बात से ही हुई है। पशुओं को नीति की बातें करते हुए दिखाया गया है। सभी कथाएँ एक- दूसरे से जुड़ी हुई प्रतीत होती है।

 

रचनाकार नारायण पंडित

हितोपदेश के रचयिता नारायण पंडित को नारायण भ के नाम से भी जाना जाता है। पुस्तक के अंतिम पद्यों के आधार पर इसके रचयिता का नाम””नारायण” ज्ञात होता है। 

नारायणेन प्रचरतु रचितः संग्रहोsयं कथानाम्

इसके आश्रयदाता का नाम धवलचंद्रजी है। धवलचंद्रजी बंगाल के माण्डलिक राजा थे तथा नारायण पंडित राजा धवलचंद्रजी के राजकवि थे। मंगलाचरण तथा समाप्ति श्लोक से नारायण की शिव में विशेष आस्था प्रकट होती है।

रचना काल

कथाओं से प्राप्त साक्ष्यों के विश्लेषण के आधार पर डा. फ्लीट कर मानना है कि इसकी रचना काल ११ वीं शताब्दी के आस- पास होना चाहिये। हितोपदेश का नेपाली हस्तलेख १३७३ ई. का प्राप्त है। वाचस्पति गैरोलाजी ने इसका रचनाकाल १४ वीं शती के आसपास माना है।

हितोपदेश की कथाओं में अर्बुदाचल (आबू) पाटलिपुत्र, उज्जयिनी, मालवा, हस्तिनापुर, कान्यकुब्ज (कन्नौज), वाराणसी, मगधदेश, कलिंगदेश आदि स्थानों का उल्लेख है, जिसमें रचयिता तथा रचना की उद्गमभूमि इन्हीं स्थानों से प्रभावित है।

हितोपदेश की कथाओं को इन चार भागों में विभक्त किया जाता है —

मित्रलाभ

सुहृद्भेद

विग्रह

संधि

मित्रलाभ

  1. सुवर्णकंकणधारी बूढ़ा बाघ और मुसाफिर की कहानी
  2. कबुतर, काक, कछुआ, मृग और चूहे की कहानी
  3. मृग, काक और गीदड़ की कहानी
  4. भैरव नामक शिकारी, मृग, शूकर, साँप और गीदड़ की कहानी
  5. धूर्त गीदड़ और हाथी की कहानी

सुहृद्भेद

  1. एक बनिया, बैल, सिंह और गीदड़ों की कहानी
  2. धोबी, धोबन, गधा और कुत्ते की कहानी
  3. सिंह, चूहा और बिलाव की कहानी
  4. बंदर, घंटा और कराला नामक कुटनी की कहानी
  5. सिंह और बूढ़ शशक की कहानी
  6. कौए का जोड़ा और काले साँप की कहानी

विग्रह

  1. पक्षी और बंदरो की कहानी
  2. बाघंबर ओढ़ा हुआ धोबी का गधा और खेतवाले की कहानी
  3. हाथियों का झुंड और बूढ़े शशक की कहानी
  4. हंस, कौआ और एक मुसाफिर की कहानी
  5. नील से रंगे हुए एक गीदड़ की कहानी
  6. राजकुमार और उसके पुत्र के बलिदान की कहानी
  7. एक क्षत्रिय, नाई और भिखारी की कहानी

संधि

  1. सन्यासी और एक चूहे की कहानी
  2. बूढ़े बगुले, केंकड़े और मछलियों की कहानी
  3. सुन्द, उपसुन्द नामक दो दैत्यों की कहानी
  4. एक ब्राह्मण, बकरा और तीन धुताç की कहानी
  5. माधव ब्राह्मण, उसका बालक, नेवला और साँप की कहानी
मानक
बेताल पच्चीसी

बेताल पच्चीसी: पच्चीसवीं कहानी

योगी राजा को और मुर्दे को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। बोला, ‘‘हे राजन्! तुमने   यह कठिन काम करके मेरे साथ बड़ा उपकार किया है। तुम सचमुच सारे राजाओं में श्रेष्ठ हो।’’                  इतना कहकर उसने मुर्दे को उसके कंधे से उतार लिया और उसे स्नान कराकर फूलों की मालाओं से सजाकर रख दिया। फिर मंत्र-बल से बेताल का आवाहन करके उसकी पूजा की। पूजा के बाद उसने राजा से कहा, ‘‘हे राजन्! तुम शीश झुकाकर इसे प्रणाम करो।’’            राजा को बेताल की बात याद आ गयी। उसने कहा, ‘‘मैं राजा हूँ, मैंने कभी किसी को सिर नहीं झुकाया। आप पहले सिर झुकाकर बता दीजिए।’’            योगी ने जैसे ही सिर झुकाया, राजा ने तलवार से उसका सिर काट दिया। बेताल बड़ा खुश हुआ। बोला, ‘‘राजन्, यह योगी विद्याधरों का स्वामी बनना चाहता था। अब तुम बनोगे। मैंने तुम्हें बहुत हैरान किया है। तुम जो चाहो सो माँग लो।’’            राजा ने कहा, ‘‘अगर आप मुझसे खुश हैं तो मेरी प्रार्थना है कि आपने जो चौबीस कहानियाँ सुनायीं, वे, और पच्चीसवीं यह, सारे संसार में प्रसिद्ध हो जायें और लोग इन्हें आदर से पढ़े।’’            बेताल ने कहा, ‘‘ऐसा ही होगा। ये कथाएँ ‘बेताल-पच्चीसी’ के नाम से मशहूर होंगी और जो इन्हें पढ़ेंगे, उनके पाप दूर हो जायेंगे।’’            यह कहकर बेताल चला गया। उसके जाने के बाद शिवाजी ने प्रकट होकर कहा, ‘‘राजन्, तुमने अच्छा किया, जो इस दुष्ट साधु को मार डाला। अब तुम जल्दी ही सातों द्वीपों और पाताल-सहित सारी पृथ्वी पर राज्य स्थापित करोगे।’’            इसके बाद शिवाजी अन्तर्धान हो गये। काम पूरे करके राजा श्मशान से नगर में आ गया। कुछ ही दिनों में वह सारी पृथ्वी का राजा बन गया और बहुत समय तक आनन्द से राज्य करते हुए अन्त में भगवान में समा गया।

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बेताल पच्चीसी

बेताल पच्चीसी: चौबीसवीं कहानी

किसी नगर में मांडलिक नाम का राजा राज करता था। उसकी पत्नी का नाम चडवती था। वह मालव देश के राजा की लड़की थी। उसके लावण्यवती नाम की एक कन्या थी। जब वह विवाह के योग्य हुई तो राजा के भाई-बन्धुओं ने उसका राज्य छीन लिया और उसे देश-निकाला दे दिया। राजा रानी और कन्या को साथ लेकर मालव देश को चल दिया। रात को वे एक वन में ठहरे। पहले दिन चलकर भीलों की नगरी में पहुँचे। राजा ने रानी और बेटी से कहा कि तुम लोग वन में छिप जाओ, नहीं तो भील तुम्हें परेशान करेंगे। वे दोनों वन में चली गयीं। इसके बाद भीलों ने राजा पर हमला किया। राजा ने मुकाबला किया, पर अन्त में वह मारा गया। भील चले गये।                  उसके जाने पर रानी और बेटी जंगल से निकलकर आयीं और राजाव को मरा देखकर बड़ी दु:खी हुईं। वे दोनों शोक करती हुईं एक तालाब के किनारे पहुँची। उसी समय वहाँ चंडसिंह नाम का साहूकार अपने लड़के के साथ, घोड़े पर चढ़कर, शिकार खेलने के लिए उधर आया। दो स्त्रियों के पैरों के निशान देखकर साहूकार अपने बेटे से बोला, ‘‘अगर ये स्त्रियाँ मिल जों तो जायें जिससे चाहा, विवाह कर लेना।’’                  लड़के ने कहा, ‘‘छोटे पैर वाली छोटी उम्र की होगी, उससे मैं विवाह कर लूँगा। आप बड़ी से कर लें।’’                  साहूकार विवाह नहीं करना चाहता था, पर बेटे के बहुत कहने पर राजी हो गया।                  थोड़ा आगे बढ़ते ही उन्हें दोनों स्त्रियां दिखाई दीं। साहूकार ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’                  रानी ने सारा हाल कह सुनाया। साहूकार उन्हें अपने घर ले गया। संयोग से रानी के पैर छोटे थे, पुत्री के पैर बड़े। इसलिए साहूकार ने पुत्री से विवाह किया, लड़के ने रानी से हुई और इस तरह पुत्री सास बनी और माँ बेटे की बहू। उन दोनों के आगे चलकर कई सन्तानें हुईं।                  इतना कहकर बेताल बोला, ‘‘राजन्! बताइए, माँ-बेटी के जो बच्चे हुए, उनका आपस में क्या रिश्ता हुआ?’’                  यह सवाल सुनकर राजा बड़े चक्कर में पड़ा। उसने बहुत सोचा, पर जवाब न सूझ पड़ा। इसलिए वह चुपचाप चलता रहा।                  बेताल यह देखकर बोला, ‘‘राजन्, कोई बात नहीं है। मैं तुम्हारे धीरज और पराक्रम से खुश हूँ। मैं अब इस मुर्दे से निकला जाता हूँ। तुम इसे योगी के पास ले जाओ। जब वह तुम्हें इस मुर्दे को सिर झुकाकर प्रणाम करने को कहे तो तुम कह देना कि पहले आप करके दिखाओ। जब वह सिर झुकाकर बतावे तो तुम उसका सिर काट लेना। उसका बलिदान करके तुम सारी पृथ्वी के राजा बन जाओगे। सिर नहीं काटा तो वह तुम्हारी बलि देकर सिद्धि प्राप्त करेगा।’’                  इतना कहकर बेताल चला गया और राजा मूर्दे को लेकर योगी के पास आया। 

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बेताल पच्चीसवीं: तेईसवीं कहानी

कलिंग देश में शोभावती एक नगर है। उसमें राजा प्रद्युम्न राज करता था। उसी नगरी में एक ब्राह्मण रहता था, जिसके देवसोम नाम का बड़ा ही योग्य पुत्र था। जब देवसोम सोलह बरस का हुआ और सारी विद्याएँ सीख चुका तो एक दिन दुर्भाग्य से वह मर गया। बूढ़े माँ-बाप बड़े दु:खी हुए। चारों ओर शोक छा गया। जब लोग उसे लेकर श्मशान में पहुँचे तो रोने-पीटने की आवाज़ सुनकर एक योगी अपनी कुटिया में से निकलकर आया। पहले तो वह खूब ज़ोर से रोया, फिर खूब हँसा, फिर योग-बल से अपना शरीर छोड़ कर उस लड़के के शरीर में घुस गया। लड़का उठ खड़ा हुआ। उसे जीता देखकर सब बड़े खुश हुए।                  वह लड़का वही तपस्या करने लगा।                  इतना कहकर बेताल बोला, ‘‘राजन्, यह बताओ कि यह योगी पहले क्यों तो रोया, फिर क्यों हँसा?’’                  राजा ने कहा, ‘‘इसमें क्या बात है! वह रोया इसलिए कि जिस शरीर को उसके माँ-बाप ने पाला-पोसा और जिससे उसने बहुत-सी शिक्षाएँ प्राप्त कीं, उसे छोड़ रहा था। हँसा इसलिए कि वह नये शरीर में प्रवेश करके और अधिक सिद्धियाँ प्राप्त कर सकेगा।’’                  राजा का यह जवाब सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा जाकर उसे लाया तो रास्ते में बेताल ने कहा, ‘‘हे राजन्, मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि बिना जरा-सा भी हैरान हुए तुम मेरे सवालों का जवाब देते रहे हो और बार-बार आने-जाने की परेशानी उठाते रहे हो। आज मैं तुमसे एक बहुत भारी सवाल करूँगा। सोचकर उत्तर देना।’’                  इसके बाद बेताल ने यह कहानी सुनायी।                                                                 

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बेताल पच्चीसी

बेताल पच्चीसी: बाईसवीं कहानी

 कुसुमपुर नगर में एक राजा राज्य करता था। उसके नगर में एक ब्राह्मण था, जिसके चार बेटे थे। लड़कों के सयाने होने पर ब्राह्मण मर गया और ब्राह्मणी उसके साथ सती हो गयी। उनके रिश्तेदारों ने उनका धन छीन लिया। वे चारों भाई नाना के यहाँ चले गये। लेकिन कुछ दिन बाद वहाँ भी उनके साथ बुरा व्यवहार होने लगा। तब सबने मिलकर सोचा कि कोई विद्या सीखनी चाहिए। यह सोच करके चारों चार दिशाओं में चल दिये।            कुछ समय बाद वे विद्या सीखकर मिले। एक ने कहा, ‘‘मैंने ऐसी विद्या सीखी है कि मैं मरे हुए प्राणी की हड्डियों पर मांस चढ़ा सकता हूँ।’’ दूसरे ने कहा, ‘‘मैं उसके खाल और बाल पैदा कर सकता हूँ।’’ तीसरे ने कहा, ‘‘मैं उसके सारे अंग बना सकता हूँ।’’ चौथा बोला, ‘‘मैं उसमें जान डाल सकता हूँ।’’            फिर वे अपनी विद्या की परीक्षा लेने जंगल में गये। वहाँ उन्हें एक मरे शेर की हड्डियाँ मिलीं। उन्होंने उसे बिना पहचाने ही उठा लिया। एक ने माँस डाला, दूसरे ने खाल और बाल पैदा किये, तीसरे ने सारे अंग बनाये और चौथे ने उसमें प्राण डाल दिये। शेर जीवित हो उठा और सबको खा गया।            यह कथा सुनाकर बेताल बोला, ‘‘हे राजा, बताओ कि उन चारों में शेर बनाने का अपराध किसने किया?’’            राजा ने कहा, ‘‘जिसने प्राण डाले उसने, क्योंकि बाकी तीन को यह पता ही नहीं था कि वे शेर बना रहे हैं। इसलिए उनका कोई दोष नहीं है।’’            यह सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा जाकर फिर उसे लाया। रास्ते में बेताल ने एक नयी कहानी

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बेताल पच्चीसी: इक्कीसवीं कहानी

विशाला नाम की नगरी में पदमनाभ नाम का राजा राज करता था। उसी नगर में अर्थदत्त नाम का एक साहूकार रहता था। अर्थदत्त के अनंगमंजरी नाम की एक सुन्दर कन्या थी। उसका विवाह साहूकार ने एक धनी साहूकार के पुत्र मणिवर्मा के साथ कर दिया। मणिवर्मा पत्नी को बहुत चाहता था, पर पत्नी उसे प्यार नहीं करती थी। एक बार मणिवर्मा कहीं गया। पीछे अनंगमंजरी की राजपुरोहित के लड़के कमलाकर पर निगाह पड़ी तो वह उसे चाहने लगी। पुरोहित का लड़का भी लड़की को चाहने लगा। अनंगमंजरी ने महल के बाग़ मे जाकर चंडीदेवी को प्रणाम कर कहा, ‘‘यदि मुझे इस जन्म में कमलाकर पति के रूप में न मिले तो अगले जन्म में मिले।’’            यह कहकर वह अशोक के पेड़ से दुपट्टे की फाँसी बनाकर मरने को तैयार हो गयी। तभी उसकी सखी आ गयी और उसे यह वचन देकर ले गयी कि कमलाकर से मिला देगी। दासी सबेरे कमलाकर के यहाँ गयी और दोनों के बगीचे में मिलने का प्रबन्ध कर आयी। कमलाकर आया और उसने अनंगमंजरी को देखा। वह बेताब होकर मिलने के लिए दौड़ा। मारे खुशी के अनंगमंजरी के हृदय की गति रुक गयी और वह मर गयी। उसे मरा देखकर कमलाकर का भी दिल फट गया और वह भी मर गया। उसी समय मणिवर्मा आ गया और अपनी स्त्री को पराये आदमी के साथ मरा देखकर बड़ा दु:खी हुआ। वह स्त्री को इतना चाहता था कि उसका वियोग न सहने से उसके भी प्राण निकल गये। चारों ओर हाहाकार मच गया। चंडीदेवी प्रकट हुई और उसने सबको जीवित कर दिया।            इतना कहकर बेताल बोला, ‘‘राजन्, यह बताओ कि इन तीनों में सबसे ज्यादा राग में अंधा कौन था?’’            राजा ने कहा, ‘‘मेरे विचार में मणिवर्मा था, क्योकि वह अपनी पत्नी को पराये आदमी को प्यार करते देखकर भी शोक से मर गया। अनंगमंजरी और कमलाकर तो अचानक मिलने की खुशी से मरे। उसमें अचरज की कोई बात नहीं थी।’’            राजा का यह जवाब सुनकरव बेताल फिर पेड़ पर जा लटका और राजा को वापस जाकर उसे लाना पड़ा। रास्ते में बेताल ने फिर एक कहानी कही।

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बेताल पच्चीसी: बीसवीं कहानी

चित्रकूट नगर में एक राजा रहता था। एक दिन वह शिकार खेलने जंगल में गया। घूमते-घूमते वह रास्ता भूल गया और अकेला रह गया। थक कर वह एक पेड़ की छाया में लेटा कि उसे एक ऋषि-कन्या दिखाई दी। उसे देखकर राजा उस पर मोहित हो गया। थोड़ी देर में ऋषि स्वयं आ गये। ऋषि ने पूछा, ‘‘तुम यहाँ कैसे आये हो?’’ राजा ने कहा, ‘‘मैं शिकार खेलने आया हूँ। ऋषि बोले, ‘‘बेटा, तुम क्यों जीवों को मारकर पाप कमाते हो?’’            राजा ने वादा किया कि मैं अब कभी शिकार नहीं खेलूँगा। खुश होकर ऋषि ने कहा, ‘‘तुम्हें जो माँगना हो, माँग लो।’’            राजा ने ऋषि-कन्या माँगी और ऋषि ने खुश होकर दोनों का विवाह कर दिया। राजा जब उसे लेकर चला तो रास्ते में एक भयंकर राक्षस मिला। बोला, ‘‘मैं तुम्हारी रानी को खाऊँगा। अगर चाहते हो कि वह बच जाय तो सात दिन के भीतर एक ऐसे ब्राह्मण-पुत्र का बलिदान करो, जो अपनी इच्छा सक अपने को दे और उसके माता-पिता उसे मारते समय उसके हाथ-पैर पकड़ें।’’ डर के मारे राजा ने उसकी बात मान ली। वह अपने नगर को लौटा और अपने दीवान को सब हाल कह सुनाया। दीवान ने कहा, ‘‘आप परेशान न हों, मैं उपाय करता हूँ।’’            इसके बाद दीवान ने सात बरस के बालक की सोने की  मूर्ति बनवायी और उसे कीमती गहने पहनाकर नगर-नगर और गाँव-गाँव घुमवाया। यह कहलवा दिया कि जो कोई सात बरस का ब्राह्मण का बालक अपने को बलिदान के लिए देगा और बलिदान के समय उसके माँ-बाप उसके हाथ-पैर पकड़ेंगे, उसी को यह मूर्ति और सौ गाँव मिलेंगे।            यह ख़बर सुनकर एक ब्राह्मण-बालक राजी हो गया, उसने माँ-बाप से कहा, ‘‘आपको बहुत-से पुत्र मिल जायेंगे। मेरे शरीर से राजा की भलाई होगी और आपकी गरीबी मिट जायेगी।’’            माँ-बाप ने मना किया, पर बालक ने हठ करके उन्हें राजी कर लिया।            माँ-बाप बालक को लेकर राजा के पास गये। राजा उन्हें लेकर राक्षस के पास गया। राक्षस के सामने माँ-बाप ने बालक के हाथ-पैर पकड़े और राजा उसे तलवार से मारने को हुआ। उसी समय बालक बड़े ज़ोर से हँस पड़ा।            इतना कहकर बेताल बोला, ‘‘हे राजन्, यह बताओ कि वह बालक क्यों हँसा?’’            राजा ने फौरन उत्तर दिया, ‘‘इसलिए कि डर के समय हर आदमी रक्षा के लिए अपने माँ-बाप को पुकारता है। माता-पिता न हों तो पीड़ितों की मदद राजा करता है। राजा न कर सके तो आदमी देवता को याद करता है। पर यहाँ तो कोई भी बालक के साथ न था। माँ-बाप हाथ पकड़े हुए थे, राजा तलवार लिये खड़ा था और राक्षस भक्षक हो रहा था। ब्राह्मण का लड़का परोपकार के लिए अपना शरीर दे रहा था। इसी हर्ष से और अचरज से वह हँसा।’’            इतना सुनकर बेताल अन्तर्धान हो गया और राजा लौटकर फिर उसे ले आया। रास्ते में बेताल ने फिर कहानी शुरू कर दी

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बेताल पच्चीसी: उन्नीसवीं कहानी

वक्रोलक नामक नगर में सूर्यप्रभ नाम का राजा राज करता था। उसके कोई सन्तान न थी। उसी समय में एक दूसरी नगरी में धनपाल नाम का एक साहूकार रहता था। उसकी स्त्री का नाम हिरण्यवती था और उसके धनवती नाम की एक पुत्री थी। जब धनवती बड़ी हुई तो धनपाल मर गया और उसके नाते-रिश्तेदारों ने उसका धन ले लिया। हिरण्यवती अपनी लड़की को लेकर रात के समय नगर छोड़कर चल दी। रास्ते में उसे एक चोर सूली पर लटकता हुआ मिला। वह मरा नहीं था। उसने हिरण्यवती को देखकर अपना परिचय दिया और कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक हज़ार अशर्फियाँ दूँगा। तुम अपनी लड़की का ब्याह मेरे साथ कर दो।’’            हिरण्यवती ने कहा, ‘‘तुम तो मरने वाले हो।’’            चोर बोला, ‘‘मेरे कोई पुत्र नहीं है और निपूते की परलोक में सदगति नहीं होती। अगर मेरी आज्ञा से और किसी से भी इसके पुत्र पैदा हो जायेगा तो मुझे सदगति मिल जायेगी।’’            हिरण्यवती ने लोभ के वश होकर उसकी बात मान ली और धनवती का ब्याह उसके साथ कर दिया। चोर बोला, ‘‘इस बड़ के पेड़ के नीचे अशर्फियाँ गड़ी हैं, सो ले लेना और मेरे प्राण निकलने पर मेरा क्रिया-कर्म करके तुम अपनी बेटी के साथ अपने नगर में चली जाना।’’            इतना कहकर चोर मर गया। हिरण्यवती ने ज़मीन खोदकर अशर्फियाँ निकालीं, चोर का क्रिया-कर्म किया और अपने नगर में लौट आयी।            उसी नगर में वसुदत्त नाम का एक गुरु था, जिसके मनस्वामी नाम का शिष्य था। वह शिष्य एक वेश्या से प्रेम करता था। वेश्या उससे पाँच सौ अशर्फियाँ माँगती थी। वह कहाँ से लाकर देता! संयोग से धनवती ने मनस्वामी को देखा और वह उसे चाहने लगी। उसने अपनी दासी को उसके पास भेजा। मनस्वामी ने कहा कि मुझे पाँच सौ अशर्फियाँ मिल जायें तो मैं एक रात धनवती के साथ रह सकता हूँ।            हिरण्यवती राजी हो गयी। उसने मनस्वामी को पाँच सौ अशर्फियाँ दे दीं। बाद में धनवती के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसी रात शिवाजी ने सपने में उन्हें दर्शन देकर कहा, ‘‘तुम इस बालक को हजार अशर्फियों के साथ राजा के महल के दरवाज़े पर रख आओ।’’            माँ-बेटी ने ऐसा ही किया। उधर शिवाजी ने राजा को सपने में दर्शन देकर कहा, ‘‘तुम्हारे द्वार पर किसी ने धन के साथ लड़का रख दिया है, उसे ग्रहण करो।’’            राजा ने अपने नौकरों को भेजकर बालक और अशर्फियों को मँगा लिया। बालक का नाम उसने चन्द्रप्रभ रखा। जब वह लड़का बड़ा हुआ तो उसे गद्दी सौंपकर राजा काशी चला गया और कुछ दिन बाद मर गया।            पिता के ऋण से उऋण होने के लिए चन्द्रप्रभ तीर्थ करने निकला। जब वह घूमते हुए गयाकूप पहुँचा और पिण्डदान किया तो उसमें से तीन हाथ एक साथ निकले। चन्द्रप्रभ ने चकित होकर ब्राह्मणों से पूछा कि किसको पिण्ड दूँ? उन्होंने कहा, ‘‘लोहे की कीलवालाव चोर का हाथ है, पवित्रीवाला ब्राह्मण का है और अंगूठीवाला राजा का। आप तय करो कि किसको देना है?’’            इतना कहकर बेताल बोला, ‘‘राजन्, तुम बताओ कि उसे किसको पिण्ड देना चाहिए?’’            राजा ने कहा, ‘‘चोर को; क्योंकि उसी का वह पुत्र था। मनस्वामी उसका पिता इसलिए नहीं हो सकता कि वह तो एक रात के लिए पैसे से ख़रीदा हुआ था। राजा भी उसका पिता नहीं हो सकता, क्योंकि उसे बालक को पालने के लिए धन मिल गया था। इसलिए चोर ही पिण्ड का अधिकारी है।’’            इतना सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका और राजा को वहाँ जाकर उसे लाना पड़ा। रास्ते में फिर उसने एक कहानी सूनायी।

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