बच्चों सुन लो नयी कहानी, यों हँस कर के बोली नानी,
एक था हितेन्द्र दिल्लीवार, प्राइवेट कंपनी में था एच-आर॥
जीवन उसका एक चक्कर था, संसार उसका एक दफ्तर था,
सुबह नौ से शाम पाँच को, सोमवार से शुक्रवार॥
निगाह डालकर एक सरसरी, सुबह वो पढ़ता था अखबार,
बस-स्टॉप की राह पकड़ता, नहा-धोकर हो तैयार ॥
बस में एक ‘महिला सीट’ खाली, बगल में कन्या भोली-भाली,
हिम्मत ना पर होती थी, कहीं ना समझे उसे मवाली॥
हर रोज़ मिला करती थी कन्या, उसका था पिछला स्टॉप,
“तिरछी नजरिया” से ‘हितेन्द्र’, देखा करता था चुपचाप॥
एक दिन थी भीड़ कम, बारिश का मौसम सीटें खाली,
और साथ में खाली थी, सीट कन्या के बाजू वाली॥
क्या मैं यहाँ बैठ जाऊँ? पूछ बैठा दिल्लीवार,
मुख पर उसके लज्जा थी, अचानक क्या कर डाला यार!
विचलित ना थी कन्या पर, मुसकाई, फिर देखा एक बार,
कन्या के होठों पर उत्तर, बाहर आने को था तैयार॥
अब क्या कहेगी, क्या उत्तर देगी? सोच रहा था दिल्लीवार,
हाँ कहेगी-ना कहेगी, या होगा अपना बंटाढार॥
‘हितेन्द्र’ आगे की कथा ने, एक नया मोड़ लिया,
कंडक्टर की गलती से बस ने, एक स्टॉप छोड़ दिया॥
यह देख कन्या गुस्साई, उठी सीट से फ़िर चिल्लाई,
“कंडक्टर, क्यों नहीं रोकी बस? ऐसी क्या थी विपदा आई?”॥
खींच के रस्सी, बजा के घंटी, कंडक्टर ने रोकी बस,
सारा दृश्य देख रहा था, ‘हितेन्द्र’ हुआ ना ‘टस से मस’॥
ये कैसा आया भँवर बीच में, ये कैसे डूब रही है नैया?
इतने में फिर बोली कन्या “अब आप बैठ जाओ भैया”॥
हृदय की वो दशा हो गयी, लगने लगा जगत निस्सार,
बस-यात्रा से हुई विरक्ति, सोच रहा था दिल्लीवार॥
नयी एक स्कूटर लाउंगा, उसी से फिर दफ्तर जाउंगा
चाहे कुछ भी हो जाए, इस बस में फिर ना कभी आउंगा॥
स्कूटर से फिर ‘हितेन्द्र’, दफ्तर को जाता दिल्लीवार,
सुबह नौ से शाम पाँच को, सोमवार से शुक्रवार॥
-हितेन्द्र
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