विविध (General), My Poems (कविताएँ)

बुलेट ट्रेन

१.

मुंबई से अहमदाबाद
बुलेट ट्रेन
चार डिब्बे
पहला रोटी
दूजा दवाई
तीजा किताबें
चौथा थोड़ा अमन चैन
चला सकोगे?

२.

कर्ज़ा जापान का
पुर्ज़ा जापान का
ट्रेन सेठ की
सफ़र सेठ का
तमाशा साहेब का
तारीफ़ साहेब की
आँखें ग़रीब की
तालियाँ ग़रीब की

– हितेन्द्र अनंत

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My Poems (कविताएँ)

वैलेंटाइन डे उपहार

हम पति-पत्नी की
वैलेंटाइन डे उपहार पर चर्चा:
उसने कहा नौलखा हार
मैंने कहा दसलखा सूट
उसने कहा हरे काँच की चूड़ियाँ
मैंने कहा मफ़लर
-हितेन्द्र

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My Poems (कविताएँ)

रमन उठ, रमन सो जा

रमन उठ
पुलिस लाइन जा
हेलीकॉप्टर में बैठ
जगदलपुर जा
हेलीकॉप्टर से उतर
महारानी अस्पताल जा
शहीदों के शवों पर फूल चढ़ा
खेद प्रकट कर
बदला लेने की कसम खा
मुआवजे की घोषणा कर
जांच आयोग बिठा
परिजनों के साथ फोटो खिंचवा
फिर से हेलीकॉप्टर में बैठ
रायपुर जा
हेलीकॉप्टर से उतर
सिविल लाइन जा
घर में घुस
बिस्तर पे लेट
चादर तान
सो जा
-हितेन्द्र अनंत

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My Poems (कविताएँ)

सागर हो जाओ – कविता

तुमने चाहा था
ऐसा हो एक घर 
जिसकी खिड़की से
दिखता हो सागर

तुमने सागर में डूब जाना नहीं चाहा कभी 
डूबकर सागर ही हो जाना नहीं चाहा कभी 

डूब जाओ
सागर हो जाओ
खिड़की से जो दिखेगा
आखिर कब तक टिकेगा

– हितेन्द्र अनंत

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My Poems (कविताएँ)

दोपहर के नाम दो कविताएँ

1. दोपहर का अंतर

छोटे शहरों की
सुबह जल्दी होती है
लेकिन देर से शुरू होता है दिन
यह दिन
मौसम के हिसाब से बड़ा या छोटा हो सकता है
लेकिन इन शहरों की दोपहर हमेशा लंबी होती है
छोटे शहरों की शामें हसीन
और रातें रंगीन
हो भी सकती हैं और नहीं भी
लेकिन सबसे खूबसूरत होती है
तो दोपहर, छोटे शहरों की दोपहर

बड़े शहरों में
देर से होती है सुबह
बहुत ही जल्द शुरू होता है दिन
यहाँ की शामें हसीन
और रातें रंगीन
हो भी सकती हैं और नहीं भी
लेकिन बड़े शहरों की
दोपहर नहीं होती
कम से कम दिखायी नहीं देती कभी
शायद दिन की लंबी चादर से ढंक जाती है
शायद शाम के गहरे सागर में डूब जाती है
शायद रात के अंधेरे में खो जाती है

एक बड़े शहर और एक छोटे शहर में
दोपहर का अंतर होता है

2. जब दोपहर होती है

दुनिया के सभी बड़े कवि और चित्रकार
शायद दोपहर को सुस्ताते थे,  ऊंघते थे
इसीलिये उनकी अधिकांश कविताओं और चित्रों में
दिखायी देती हैं केवल शामें, रातें या सुबहें ही
दोपहरें गायब हैं

चित्रकारों को दोपहर दिखायी नहीं दी कभी
जैसे कि उन्होंने पनघट पर पानी भरती
पनिहारिनों के खूब बनाये चित्र
पर नहीं दिखायी दीं उन्हें वे महिलाएँ
जो छत पर या बाहर आंट पर बैठी
एक दूसरे के सिरों में तेल लगा रही होती हैं
या फुरसत से जुएं तलाश रही होती हैं

हर शाम
अपने-अपने प्रिय के लौटने की राह देखती
सज-संवर कर तैयार स्त्रियों पर
जिन्होंने लिखी होंगी कविताएँ
कुछ नहीं लिखा उन्होंने
उन पर जो दोपहर को आंगनों और छतों पर
मसाले और अचार सुखा रहीं हों
स्वेटर बुन रही हों
मेथी की भाजी चुन रही हों
या कोइ गीत गुनगुना रही हों
या यूं ही बस धूप सेंक रही हों

रात के सन्नाटे में विरह के गीत सुनायी देते होंगे
पर दोपहर के सन्नाटे में भी तो
आंगन में लड़कियों की चहक सुनायी देती है
बिल्लस खेलती
बेख़ौफ़ हंसती लड़कियों की चहक
या फिर सुनायी देता है संगीत
जो अनाज पछोरते सूप से निकलता है
या सुनायी देती है आवाज
फेरीवालो की

फेरीवालों की जब सुनायी देती है आवाज
तब सारी औरतें जुट जाती हैं साथ
उनमें से किसी एक के घर
जहाँ रोक लिए जाते हैं वे फेरीवाले
वे बेच सकते हैं ऊन, साड़ियाँ, चूड़ी, बिंदी, कुछ भी
वे चमका सकते हैं पीतल के बर्तन
धार कर सकते हैं चाकुओं में
या बेच सकते हैं बर्तन, पुराने कपड़ों के बदले

दोपहर शांत और खूबसूरत होती है
दोपहर घर पर नहीं होते पुरूष
दोपहर पर अधिकार होता है
स्त्रियों का
दिन के इस अंतराल में
बहुत सारी जिम्मेदारियों से मुक्त
पुरूषों की निगरानी से मुक्त
अपनी मर्जी से समय काटती स्त्रियों का

स्त्रियों के चित्र ऐसे समय के भी बनाए जाएं
स्त्रियों के ऐसे समय पर भी कविताएँ लिखी जाएँ
जब स्त्रियाँ मुक्त होती हैं
जब दोपहर होती है

-हितेन्द्र अनंत

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विविध (General), My Poems (कविताएँ)

माणसाने (नामदेव ढसाळ की मराठी कविता का हिंदी अनुवाद)

मराठी के प्रख्यात कवि, दलित चेतना के प्रमुख स्वर श्री नामदेव ढसाळ का आज सुबह निधन हो गया। उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी एक महान रचना “माणसाने” के अनुवाद का प्रयास ज़ारा अकरम खानKrantikumar Arade और Dinesh Kapse के सहयोग से किया है। आप भी पढ़िये। (अनुवाद की सारी त्रुटियाँ केवल और केवल मेरी)।

panther
माणसाने – नामदेव ढसाळ
‌‌‌————–
मनुष्य
पहले तो खुद को पूरी तरह बर्बाद करे
चरस ले, गांजा पिये
अफ़ीम लालपरी खाए
छक के देसी दारू पिये
इसको, उसको, किसी को भी
माँ-बहन की गालियाँ दे
पकड़कर पीटे

मर्डर करे
सोते हुओं का कत्ल करे
लड़कियों-छोरियों को छेड़े
क्या बूढ़ी, क्या तरूणी, क्या कमसिन
सभी को लपेट कर
उनका व्यासपीठ पर करे बलात्कार

ईसा के, पैगंबर के, बुद्ध के, विष्णु के वंशजों को फांसी दे
देवालय, मस्जिद, संग्रहालय आदि सभी इमारतें चूर-चूर कर दे

दुनियाभर में एक फफोले की तरह फैल चुकी
इन इंसानी करतूतों को फूलने दे
और अचानक फूट जाने दे

इसके बाद जो शेष रह गये
वे किसी को भी गुलाम न बनायें
लूटें नहीं
काला-गोरा कहें नहीं
तू ब्राह्मण, तू क्षत्रिय, तू वैश्य, तू शूद्र ऐसे कहकर दुत्कारें नहीं
आकाश को पिता और धरती को माँ मानकर
उनकी गोद मे मिलजुलकर रहें

चांद और सूरज भी फीके पड़ जाएँ
ऐसे उजले कार्य करे
एक-एक दाना भी सब बांट कर खाएँ
मनुष्यों पर ही फिर लिखी जाएँ कविताएँ
मनुष्य फिर मनुष्यों के ही गीत गायें

-नामदेव ढसाळ
——–

-हितेन्द्र अनंत

मूल मराठी कविता यहाँ से पढ़िये
http://www.globalmarathi.com/20120215/5490157106900750983.htm

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My Poems (कविताएँ)

नजर मिला सवाल कर, जो हो सके बवाल कर

पाई-पाई का हिसाब ले

नजर मिला सवाल कर

जब राजा ही डकैत हो

जो हो सके बवाल कर॥

 

रत्नगर्भा धरती यह जननी तेरी

धरती के सारे रत्नों को चोर लिया

सुजलाम-सुफलाम धरती यह जननी तेरी

जल-जंगल को और फसल को चोर लिया

चोर लिया फिर भी जब पेट न भरा इनका

तुझसे तेरी धरती को भी चोर लिया॥

 

चोर कर जमीन, जंगल और जल

खड़े कर लिये इन चोरों ने विशाल महल

माल भरा है जो महलों में

माल वो सारा तेरा है

पंचायत से संसद तक

अब चोरों का ही डेरा है॥

 

तो आग लगा दे महलों में

और दंड दे चोरों को कुछ इस प्रकार

कि महलों का धरती पर ना अवशेष रहे

और दुबारा चोरी करने को

चोर न कोई धरती पर ही शेष रहे॥

 

पर इससे पहले कि चोरों को

चोरी का मिल जाये दंड

इससे पहले कि महलों को

जला दे अग्नि प्रचंड

कितना तुझको लूटा है

इसका भी ख़याल कर

पाई-पाई का हिसाब ले

नजर मिला सवाल कर

जब राजा ही डकैत हो

जो हो सके बवाल कर॥

 

-हितेन्द्र अनंत

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My Poems (कविताएँ)

स्मृति क्या है

स्मृति क्या है?

 

स्कूल की टाटपट्टी है

जिसे बिछाने, झटकने और लपेटने की

पारियाँ बंधी होती थीं।

 

पापा की बुलेट की टंकी है

जिस पर बैठकर मैं

एक्सीलरेटर घुमाता और

सोचता कि गाड़ी चल रही है।

 

स्कूल के पास का कुँआ है

जिसका पानी मीठा था

और जिसमें मेरी चाक-कलम गिर गयी थी।

 

राखी है

जिसमें लगे फोम को भिगाकर

हम पट्टी पोंछा करते थे।

 

गुरूजी की सायकल है

जिसका पैडल जब चैनकवर से घिसता

तो आवाज आती थी पहचानी सी।

 

पेटी के ढक्कन के पीछे

चिपके हुए स्टीकर हैं

पंजा छाप, कमल छाप

चक्र छाप और हाथी।

 

आँगन है

जहाँ मम्मी की पुरानी साड़ी बिछाकर

ईंटों से दबाकर हर कोने पर

हम बड़ी-पापड़ सुखाया करते थे।

 

स्कूल की खपरे वाली छत है

उससे छनकर आने वाली

धूप की रेखा

रेखा में तैरते थे धूलकण।

 

हिन्दी की पुस्तक है

जुलाई के महीनें में ही

पढ़कर खत्म कर देता मैं

सारी कविताएँ और कहानियाँ।

 

ईश्वर है

पोलियो हो गया था उसे

ट्रायसाइकिल से आता था स्कूल।

 

नीले रंग का धब्बा है

खान सर की शर्ट की जेब पर

उनका निब-पेन पोकता था न

इसलिये बन जाता था।

 

स्कूल में चलने वाला

टीकाकरण अभियान है

“काकर मूड़ में काय हे?

सूजी देवैया आय हे!!”

हम गाते थे जब स्कूल में

डॉक्टर आता था।

 

खाना छुट्टी है

जब सब खाना खाने घर जाते

और बहुत से वापस नहीं आते

दूसरी पाली के स्कूल में।

 

टेमा है

दवा की शीशी में

भरा मिट्टी तेल

ढक्कन में छेद कर लगायी बाती

और बनायी चिमनी, यानी टेमा।

 

 

पहला और आखिरी सावन-सोमवार है

स्कूल की आधी छुट्टी होती थी।

 

काँवर है

जिसके दोनों सिरों पर

तेल के पीपे फँसाकर

कुएँ से पानी लाकर

घर की टंकी भरते थे।

 

‘माता देवाला’ है

नवरात्रि में वहाँ काँटों के झूले पर

वो झूलते थे जिनको

देवी आती थी।

 

 

-हितेन्द्र

 

 

 

 

 


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My Poems (कविताएँ)

दुनिया गोल है

 दुनिया गोल है

एक रोज़ जब लेटा था

हर रोज़ की तरह बगीचे में

हवा का झोंका उड़ा लाया मेरे पास

पास ही के पेड़ के एक फ़ूल को

फ़ूल को मैंने देखा था, पहले भी

उस बगीचे में सबसे सुंदर था जो

पर नहीं मालूम था पहले कि सुगंध भी है उसमें

सुगंध जिससे पता चलता है

कि फ़ूल सुंदर तो होते ही हैं,

आत्मा भी होती है उनमें

आत्मा, जो सुगंध है

इससे पहले कि छू लेता उसे

हवा फ़िर उड़ा ले गयी फ़ूल को

कुछ दूर मुझसे

कुछ दूर, बस कुछ ही दूर

मालूम नहीं ये हवा कि शरारत थी

या फ़ूल की इच्छा

पर हो चुका था वक्त और जाना ज़रूरी था

बगीचे से दूर

मैं बगीचे से बाहर हूँ

और मेरी निगाहें हैं

आगे की ओर जाने वाली सड़क पर

सड़क पर मेरे कदम तेज़ हैं

और वो डगमगा भी नहीं रहे

ना ही मैं मुड़कर देख रहा हूँ

क्योंकि पीछे मुड़कर देखने से

आगे चलना मुश्किल होता है

मेरा रास्ता पूर्व की ओर जाता है

और हवा उड़ा ले गयी है फ़ूल को

पश्चिम की ओर

मालूम नहीं ये कितना सच है

पर किताबों में लिखा है

कि दुनिया गोल है

 

-हितेन्द्र

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My Poems (कविताएँ)

सुबह नौ से शाम पाँच को, सोमवार से शुक्रवार॥

बच्चों सुन लो नयी कहानी, यों हँस कर के बोली नानी,

एक था हितेन्द्र दिल्लीवार, प्राइवेट कंपनी में था एच-आर॥

जीवन उसका एक चक्कर था, संसार उसका एक दफ्तर था,

सुबह नौ से शाम पाँच को, सोमवार से शुक्रवार॥

निगाह डालकर एक सरसरी, सुबह वो पढ़ता था  अखबार,

बस-स्टॉप की राह पकड़ता,  नहा-धोकर हो तैयार ॥

बस में एक ‘महिला सीट’ खाली, बगल में कन्या भोली-भाली,

हिम्मत ना पर होती थी, कहीं ना समझे उसे मवाली॥

हर रोज़ मिला करती थी कन्या, उसका था पिछला स्टॉप,

“तिरछी नजरिया” से ‘हितेन्द्र’, देखा करता था चुपचाप॥

एक दिन थी भीड़ कम, बारिश का मौसम सीटें खाली,

और साथ में खाली थी, सीट कन्या के बाजू वाली॥

क्या मैं यहाँ बैठ जाऊँ?  पूछ बैठा दिल्लीवार,

मुख पर उसके लज्जा थी, अचानक क्या कर डाला यार!

विचलित ना थी कन्या पर, मुसकाई, फिर देखा एक बार,

कन्या के होठों पर उत्तर, बाहर आने को था तैयार॥

अब क्या कहेगी, क्या उत्तर देगी? सोच रहा था दिल्लीवार,

हाँ कहेगी-ना कहेगी, या होगा अपना बंटाढार॥

‘हितेन्द्र’ आगे की कथा ने, एक नया मोड़ लिया,

कंडक्टर की गलती से बस ने, एक स्टॉप छोड़ दिया॥

यह देख कन्या गुस्साई, उठी सीट से फ़िर चिल्लाई,

“कंडक्टर, क्यों नहीं रोकी बस? ऐसी क्या थी विपदा आई?”॥

खींच के रस्सी, बजा के घंटी, कंडक्टर ने रोकी बस,

सारा दृश्य देख रहा था, ‘हितेन्द्र’ हुआ ना ‘टस से मस’॥

ये कैसा आया भँवर बीच में, ये कैसे डूब रही है नैया?

इतने में फिर बोली कन्या “अब आप बैठ जाओ भैया”॥

हृदय की वो दशा हो गयी, लगने लगा जगत निस्सार,

बस-यात्रा से हुई विरक्ति, सोच रहा था दिल्लीवार॥

नयी एक स्कूटर लाउंगा, उसी से फिर दफ्तर जाउंगा

चाहे कुछ भी हो जाए, इस बस में फिर ना कभी आउंगा॥

स्कूटर से फिर ‘हितेन्द्र’, दफ्तर को जाता दिल्लीवार,

सुबह नौ से शाम पाँच को, सोमवार से शुक्रवार॥

-हितेन्द्र

मानक