My Poems (कविताएँ)

ढाबे जैसी दाल

उन्हें जीते हुए राज्य गिनने दीजिए
आपको लाशें गिनने का काम दिया गया है
आपसे उम्मीद है कि आप इंजेक्शन ढूंढते रहें
आपको चाहिए कि आप एम्बुलेंस में लेटे हुए
हर अस्पताल के बाहर चक्कर लगाएँ
और पलंग न होने पर ठुकराए जाते रहें
आपको यह करना है कि अपनी दुकानें बंद रखें
नौकरियाँ ढूंढिए, न मिलें तो सब्ज़ी बेचिए
और फिर भी वक्त है तो
वो कहानियाँ आपको आध्यात्म सिखाएंगी
कि कैसे एक अमीर एक महंगी कार से अस्पताल आया
और पलंग उसे भी न मिला तो फर्श पर लेटा कराहता रहा
जीवन या तो नश्वर है
या जीवन है “लॉक डाउन एन्जॉय” करने का नाम
ब्लेसिंग इन डिसगाइस क्यों नहीं ढूंढते आप
हिन्दी में उसका मतलब है “आपदा में अवसर” तलाशना
इतने काम हैं आपके पास
और आप हैं कि हिसाब लगा रहे हैं
कि जनता इतना कुछ होने के बाद भी
उन्हें वोट क्यों देती है?
आप परेशान क्यों हैं कि लोकतंत्र का क्या होगा?
वैसे भी कौन सा लोकतंत्र साहब?
कौन सा लोकतंत्र?
कौन जनता?
ये नफ़रत के नशे में चूर, पागल, बीमार, भूखी भीड़, जनता है?
और वो छलावा जो “पहुँच” का तंत्र है, वह लोकतंत्र?
छोड़िए यह सब
जाइए देखिए यू ट्यूब में
कि ढाबे जैसी दाल घर में कैसे बनाएँ

-निरालाई गुप्तेस्तोव

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मानक
My Poems (कविताएँ)

कहानियाँ

मरुस्थल की रेत के पास होती हैं
बहती नदियों की कहानियाँ

जंगलों की कहानियाँ
धरती में दबा कोयला सुनाता है

मूर्तियाँ सुना सकती है
छैनियों और पत्थरों की कहानियाँ

मेरे पास तुम्हारी
और तुम्हारे पास मेरी कहानियाँ हैं

एक दिन उन नदियों और जंगलों की तरह
हम दोनों न होंगे

इसलिए चलो अपनी सारी कहानियाँ सुना दें हम
बहुत सारे बच्चों को
पीपल के पेड़ों को
बहती हुई नदियों
और गुफाओं को

हम नहीं होंगे
हमारी कहानियाँ होंगी

– हितेन्द्र अनंत

मानक
My Poems (कविताएँ)

द मेकिंग ऑफ़ – अ हिंदी कविता

द मेकिंग ऑफ़ – अ हिंदी कविता

[कवि ने सोचा कि कविता लिखी जाए
कविता में जनता के सरोकार हों
ग्राम्य जीवन की महक हो
इसलिए कवि ने लिखा]

चरवाहों के बच्चे
घूमते हैं सारा दिन
हाथों में बाँसुरी और एक लाठी लिए
हाँकते हुए बकरियों को

(यहाँ पैसिव वॉइस में “बच्चे चरवाहों के” लिखा जा सकता  था
घूमते की जगह “भटकते हैं सारा दिन” कैसा रहेगा?
बाँसुरी और लाठी कुछ जम नहीं रहा
बकरियों की जगह भेड़ें लिखें तो अपील यूनिवर्सल होगी
चरवाहों में कुछ मिथिकल सा एलिमेंट है
इसे प्रगतिशील और कंटेम्परेरी
बनाने के लिए चरवाहों को
मज़दूरों से रिप्लेस किया जाए)

[सो अब कवि ने लिखा]

बच्चे मज़दूरों के
भटकते हैं सारा दिन
उस बनती हुई ऊँची इमारत के इर्द गिर्द
जहाँ बिखरी हुई रेत और गिट्टी की तरह
बिखरता जाता है उनका बचपन

(पैसिव वॉइस बेहतर है
भटकते की बजाय भटकते रहते हैं होना चाहिए
बिखरी हुई रेत की जगह “बिखरी हुई बालू” बेहतर होगा
बचपन बिखरता जाता है या छूटता जाता है?
बिखरने में लय है
इसके आगे जल-जंगल-ज़मीन की एंट्री बनती है
इसके आगे कॉन्फ्लिक्ट जल्द आना चाहिए
एक इमोशनल कैरेक्टर भी चाहिए
माँ को लाना होगा)

[सो कवि ने आगे लिखा]

माँ उन बच्चों की
चाहकर भी नहीं ले पाती उनकी सुध
उसके सर पर काम का बोझ है
और दिल में बच्चों के बिखरते बचपन का दर्द
याद आती है उसे
गाँव के जल, जंगल और ज़मीन की

(सुध नहीं ले पाती या नज़र नहीं रख पाती?
माँ की एंट्री इमोशनल है
लेकिन जनवादी पक्ष छूटना नहीं चाहिए
कविता की शुरुआत में ही सरोकार हैं सर्वहारा वर्ग के
लेकिन अब तक इस कविता में आग नहीं है)

[कवि अब आग कहाँ से लाएगा
वह कोई गुलज़ार तो है नहीं
कि “जा पड़ोसी के चूल्हे से आग लई ले”
यह नितांत छिछोरी बात हो गई
वैसे पड़ोसी के चूल्हे से आग लेने में
एक क़िस्म की कॉमरेडरी तो है ही
कवि ने फ़ैसला किया है कि वह आगे लिखेगा]

कृपया ध्यान दें:
१. कोष्ठक से बाहर है वह कविता है।
२. ( ) के अंदर कवि की टीप है।
३. [ ] के अंदर निरालाई गुप्तेस्तोव की टीप है।

प्रस्तुति
निरालाई गुप्तेस्तोव
सुदूर साइबेरिया के क्रांतिकारी कवि
नोट: इनकी खुद की कविताओं में हमेशा आग होती है।







मानक
My Poems (कविताएँ)

अफसर लिखे सो कविता – निरालाई गुप्तेस्तोव

अफ़सर लिखे तो कविता हो जाती है

वो गर्मी के दिन थे
सड़क पर पिघल रहा था कोलतार
(कवि क्या डामर है जो डामर लिखेगा?)
उसके पैरों में नहीं थी चप्पल
सर पर तपता सूरज
हाथों में थैला
मुट्ठी में सौ का नोट
मन में सूची सामानों की
दिल में खौफ़ मालकिन का
कि देर ना हो जाए

अफसर ने लिखी यह कविता
सर्वहारा वर्ग के प्रति उसकी संजीदगी को देखकर
पत्रिका के सम्पादक की आंखों में आँसू आ गए
अफ़सर की कविताओं में बिम्ब है चिम्ब है इम्ब है
भाषा ऐसी है कि वैसी है
संवेदना स्वर बनकर फूट पड़ी है
नए प्रतिमान गढ़े हैं
कविता हो तो ऐसी हो

  • निरालाई गुप्तेस्तोव
    (सुदूर रूस के साइबेरिया प्रांत में रहने वाले क्रांतिकारी कवि)
    नोट – इनकी कविताओं में आग है।
मानक
My Poems (कविताएँ)

रुक जाना चाहिए

एक दिन बस रुक जाना चाहिए
इससे कोई फ़र्क़ नही पड़ता कि अब तक आप कितना चले
और कितना चलना बाक़ी है

क्यों रुकना चाहिए?
क्योंकि सिर्फ़ चलते रहना
दरअसल एक प्रकार का थम जाना ही है

हितेन्द्र अनंत

मानक
My Poems (कविताएँ)

नदी किनारे नारियल है रे भाई

नदी किनारे
नारियल है रे भाई
नारियल है रे

टॉर्च की लाइट में
टेम्परेचर है रे भाई
टेम्परेचर है रे

कैंडल की लाइट में
टेम्परेचर है रे भाई
टेम्परेचर है रे

दिए की लाइट में
टेम्परेचर है रे भाई
टेम्परेचर है रे

म्हारे कोरोना का काल
टेम्परेचर है रे भाई
टेम्परेचर है रे

म्हारे मोदी जी में
स्वैग है रे भाई
स्वैग है रे

नदी किनारे
नारियल है रे भाई
नारियल है रे

  • निरालाई गुप्तेस्तोव
    साइबेरिया, रूस
    (नोट – हमारी कविताओ में आग है)
मानक
विविध (General), My Poems (कविताएँ)

भुला देना चाहता हूँ

आपके लिए आसान होगा यह कहना
कि सब कुछ याद रखा जाएगा
मेरे लिए नहीं है
अब तक जो याद रखा है
और रोज़ जो जुड़ता जा रहा है
वह मुझे बहुत बीमार बना रहा है

क्या करूंगा मैं याद रखकर?
क्या कोई जंग जीत जाने के बाद
सज़ाएँ लिखूंगा और बख़्शीशें बाटूंगा?
या स्वर्ग और नर्क के दरवाज़े पर
कहूँगा कि आप बाएँ मुड़िए और आप दाएँ?

इससे पहले भी बहुत कुछ याद रखा
क्या हुआ?

यह जो यादें भरी हैं
वो अंदर हैं
तकलीफ़ें बनकर रहती हैं
यादें हैं तो बार-बार आती हैं
बार-बार, वही सब
अब और नहीं

लोग कहते हैं यह दुनिया बहुत छोटी हो गई है
पर इस छोटी सी दुनिया में भी
किसी कोने में एक छोटी सी और दुनिया होगी
मैं वहाँ छिपकर रहना चाहता हूँ
जो है वह भुला दूँ
और नया कुछ न जोड़ूँ

आप मुझे कायर, भगौड़ा और डरपोक कहिए
कहिए मेरा भी यह सब याद रखा जाएगा
मैं आपके इस याद रखने को भी
भुला देना चाहता हूँ

– हितेन्द्र अनंत

मानक
My Poems (कविताएँ)

इससे पहले कि

इससे पहले कि सब कुछ भूल जाऊँ
मैं वो सारी कहानियाँ लिख देना चाहता हूँ

इससे पहले कि विलुप्त हो जाएँ
मैं वो सारी भाषाएँ सीख लेना चाहता हूँ

इससे पहले कि ये शहर डूब जाए
मैं इसकी हर गली के नुक्कड़ पर चाय पी लेना चाहता हूँ

इससे पहले कि लोग लिखना छोड़ दें
मैं स्याही की बहुत सारी दवातें और कलमें खरीद लेना चाहता हूँ

इससे पहले कि आमों के मौसम खत्म हो जाएँ
मैं गुलेल से बगिया के सारे कच्चे आम तोड़ लेना चाहता हूँ

इससे पहले कि शोर इतना हो जाए कि कुछ सुनाई न दे
मैं रात के एकांत में वो गीत गाना चाहता हूँ

इससे पहले कि तुम बूढ़ी होकर एक दिन पहचानो ही न मुझे
मैं तुमसे बहुत, बहुत प्यार करना चाहता हूँ

हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General), सामयिक (Current Issues), My Poems (कविताएँ)

देखो सब ठीक है

तस्वीरें आ रही हैं
देखो सब ठीक है
देखो सब ठीक है

कितनी खुश है जनता देखो
सब्ज़ी ख़रीद रही है
खाना खाती है दो वक्त का
और सांस भी ले रही है
मुँह बंद
कान बंद
आँखें भी बंद
सोच भर सकती है
देखो सब ठीक है

बंदूक से डरती है
जेल में भरती है
सड़कों पर चलने से
कितना डरती है
ज़िंदा है शरीर से
देखो सब ठीक है

लोगों की
गर्दनों पर चाकू
कनपटी पर बंदूक
चौराहों पर टैंकर
गलियों में बूटों की कदमताल
सुरक्षित हैं लोग
देखो सब ठीक है

हितेन्द्र अनंत

मानक
विविध (General), सामयिक (Current Issues), My Poems (कविताएँ)

ये भीड़

भीड़ मुसलमान को मारती है
भीड़ दलित को पीटती है
पुलिस मुसलमान को मारती है
पुलिस दलित को पीटती है
पुलिस भीड़ को बचाती है
भीड़ पुलिस को मार डालती है
भीड़ एक दिन भीड़ बनाने वाले को भी मार डालेगी।

– हितेन्द्र अनंत

(उप्र में गाय के नाम और जमा हुई भीड़ द्वारा पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह को मार दिए जाने पर)

मानक