अपनी बात

मौन का अर्थ

मौन का पहला अर्थ खुद को बोलने से रोकना होता है।

उसके आगे है कि केवल सुनना अच्छा लगे और बोलने की इच्छा न रहे।

उससे भी आगे है कि सुनने की ही आवश्यकता न रहे।

लेकिन सबसे आगे है कि सुन लिए गए और बोल दिए गए का अंदर कोई असर न हो। यही वास्तविक मौन है।

– हितेन्द्र अनंत

Advertisement
मानक
अपनी बात

पोहा, पेट्रोल, और प्यार की एक छोटी सी कहानी

नेक काम में न जाने कितने विघ्न आते हैं! और काम नेक होने के अलावा थोड़ा सा रूमानी भी हो, तो लगता है कि सारी कायनात…। 

ठण्ड के दिन हैं। अलसुबह मन हुआ कि इस देश के जिस भविष्य का हम घर में पालन कर रहे हैं, उसे स्कूल छोड़ने के बाद पत्नी के साथ किसी बढ़िया ठेले में गर्म पोहा खाया जाय और उसके बाद कड़क चाय पीकर घर वापसी की जाय। विचार रोमांटिक, पत्नी सहमत। सुबह जब शहर में ट्रैफिक कम हो, और ठण्ड के दिन हों, तो स्कूटर में थोड़ी ठण्ड सहते हुए शहर के पुराने हिस्से में जाकर किसी प्रसिद्ध ठेले में नाश्ता करने का जो आनंद है, वो नाक़ाबिल-ए-बयाँ है। खाने के अलावा, शहर में सुबह यूँ ही भटकने का जो मज़ा है वह हइये है।

तो हम तैयार होकर निकलने ही वाले थे कि देखा कि हमारी घरेलू सहायक आम दिनों की बजाय आज पहले ही घर आ गई है! कारण यह था कि काफ़ी दिनों से देरी से आने के कारण बीते कल ही श्रीमतीजी ने उसे समय पर आने की हिदायत देते हुए “समय का पालन” विषय पर एक लम्बा भाषण दिया था। हमने कब सोचा था कि भाषण का असर भी हो जाएगा! अब उसके काम पूरा करने तक रुकना पड़ा और मन-मस्तिष्क में पोहे की कड़ाही बार-बार आगमन करती रही। इधर ये भी लग रहा था कि सड़कों पर ट्रैफिक बढ़ जाएगा और ठण्ड कम हो जाएगी। यानी वो मज़ा नहीं आएगा जो सोच रखा था। 

आखिकरकर काम पूरा हुआ और हम घर से निकले। थोड़ा ही आगे गए थे कि एक नई मुसीबत से पाला पड़ा।  स्कूटर का पेट्रोल ख़त्म हो गया! ये मुसीबत सिर्फ पेट्रोल ख़त्म होने और मेरे द्वारा स्कूटर को पेट्रोल पम्प तक घसीटे जाने की नहीं थी। इसके साथ एक और विपदा थी। दरअसल स्कूटर में पेट्रोल खत्म हो गया है, ऐसा उसका इंडिकेटर कुछ दिनों से बता रहा था, लेकिन पेट्रोल भरवाने जाने की पत्नी की तमाम अपीलों के बावजूद मैं सीना चौड़ा करके उसे समझाता रहा कि “अरी पगली, काँटा भले ही कहे कि पेट्रोल “एम्प्टी” है, गाड़ी में बीसेक किलोमीटर का पेट्रोल फिर भी रहता है”।  सालों हो गए, मुझे पत्नी कहती रही कि जाओ पेट्रोल भरवा आओ, और मैं टालता रहा। इतने सालों तक मैं सही भी था, आज पहली बार ग़लत साबित हो गया। 

तो हुआ यह कि जिस जगह पेट्रोल सिरा गया वहाँ से पम्प तक पैदल जाने के बीस मिनट के रास्ते में पत्नी को मजबूरन मुझे “पेट्रोल समय पर भरवाने” के विषय पर भाषण देना पड़ा। कभी प्रोफेसर रह चुकीं पत्नी जी का भाषण देने का यह दूसरा दिन था। मुझे पत्नी पर बेहद तरस आया कि उसे लगातार दूसरे दिन ऐसा करना पड़ रहा है। बात उसकी तकलीफ़ की थी। बाकी आप जो सोच रहे/रही हैं कि मुझे डाँट खानी पड़ी, वह ग़लत है। दरअसल अपन मुश्किल से मुश्किल वक्त में भी मुस्कुराना जानते हैं। ही ही ही। 

पेट्रोल भर गया तब अहसास हुआ कि अब भी हवा में ठंडक है और सड़कें ख़ाली ही हैं।  सो हम अन्ततः पोहे की अपनी प्रिय दुकान गए और जुर्माने के तौर पर थोड़ी सी जलेबी और समोसे का भी सेवन किया। चाय अच्छी थी इसलिए लगा कि घर वापसी भी उतनी कठिन नहीं होगी।

अलबत्ता, अच्छे नाश्ते के लिए मैं सुबह कितनी भी दूर जा सकता हूँ। हाल ही में अच्छा पोहा खाने के लिए रायपुर से राजनांदगाँव की सत्तर किलोमीटर की यात्रा की। राजनांदगाँव में “खंडेलवाल होटल” बरसों पुरानी दुकान है जहाँ का पोहा जगत के सर्वश्रेष्ठ पोहे का खिताब पाने का हकदार है। रतलामी सेव न हो, तो इंदौरी पोहा भी खंडेलवाल के पोहे के सामने पानी भरे, साथ चने की तर्री न हो तो नागपुरी पोहा खंडेलवाल के पोहे के सामने दंडवत हो जाए। जब पुणे रहता था तो किसी ख़ास दुकान पर वडा-पाव खाने लिए एक घंटे दूर तक जाना भी मेरे लिए आम बात थी।

दुनिया गर्म हो रही है। ठण्ड के दिन कम हो रहे हैं। खाने-पीने की ये रवायतें, ये मज़े ज़िंदा रहें। डाँट खाने का क्या है, पोहे के साथ वह भी मिलाकर खाते रहेंगे। 

– हितेन्द्र अनंत 

नोट्स:

१. रायपुर शहर में अनेक जगहों पर अच्छा पोहा मिलता है। जो मुझे पसंद हैं, उनमें एक फूल चौक/जयस्तंभ चौक का “साहू जी का पोहा” है, लेकिन उससे भी अधिक, पुरानी और प्रतिष्ठित दुकान है साहू जलेबी (कानूनी नाम – साहू समोसा होटल,, पुराना बस स्टैंड)

२. राजनांदगाँव शहर में पोहे की दो दुकानें प्रसिद्द हैं, एक “मानव मंदिर”, और दूसरी “खंडेलवाल होटल” । मेरी राय में खंडेलवाल बेहतर है। 

३. सुबह का प्लान सिर्फ़ रोमांटिक नहीं था, “अखिल भारतीय चटोरा महसंघ” का संस्थापक और अध्यक्ष होने के नाते भी मेरे कुछ कर्तव्य होते हैं।  

मानक
अपनी बात

अपन चुप रहे

एक ऐसे त्यौहारी समय में, जब मेरे मोहल्ले की आंटी की कर्कश आवाज़ में भजन सुनकर लगा कि इससे तो डीजे वाले बाबू हाई डेसिबल में “रा रा रक्कम्मा” लगा देते तो अच्छा था…

उन दिनों, जब पता चला कि एक कॉमरेड ने इस सवाल का उत्तर ढूंढने के लिए पार्टी की लीडरशिप छोड़ दी कि “स्टालिन के शासन को दुनिया के सबसे निकृष्ट तानाशाही शासनों में एक माना जाए कि नहीं?” (अपन और बाकी दुनिया इसका उत्तर पहलेइच्च जानते थे दीदी)…

एक ऐसे मौसम में, जब प्रदेश के सारे बाँधों में सौ प्रतिशत पानी भर जाने और अल नीनो के भाई ला नीना के कारण धान की खेती के लिए पर्याप्त बारिश न होने की खबरें एक साथ छप रही हों…

तब जब मन्नू भंडारी का एक उपन्यास इतना झेलाऊ लगा कि दस पन्नों के आगे डर लगने लगा और बीस के बाद हार मान ली…

…ऐसे अमृतकाल में अपन मोहल्ले में और इधर भी चुप रहे। और खुद के चुप रहने पर हैरत भी की और दुखी भी हुए।

– हितेन्द्र अनंत

मानक
अपनी बात

पैमाने

एक बड़ी लंबी सड़क शहर से मेरे गाँव तक आती है। वह गाँव के जिस सिरे से जुड़ती है, मुझे लगता है कि गाँव वहीं से शुरू होता है। अब भी मैं गाँव की कल्पना करूँ तो उसका नक्शा वहीं से बनाना शुरू करता हूँ।

शहर के जिस हिस्से में मैं ज़्यादातर रहा हूँ, मुझे लगता है कि असली शहर तो यही है, बाकी उसका विस्तार है।

मैं अपनी नस्ल के इंसानों को मानक समझते हुए, बाकी नस्लों के इंसानों की शारिरिक बनावट को कौतुहल से देखता हूँ।

मैं स्वयं को इस दुनिया का केंद्र मानता हूँ। इस दुनिया को मैं पूरे यूनिवर्स का केंद्र मानता हूँ।

मुझे लगता है कि समय दिन और रात में विभाजित है। मुझे पूरा विश्वास है कि बारह महीनों में विभाजित वर्ष ही जीवन को मापने का सबसे सही पैमाना है। मैं समझता हूँ कि जो भी बड़े परिवर्तन विश्व में होने हैं, वो मेरे जीवनकाल के भीतर ही हो जाएंगे।

जिन पैमानों, संदर्भों, मानकों और दायरों से मैं विश्व और जीवन को समझता हूँ, वह सब ग़लत हों, या बदल दिए जाएँ, या उन्हें मैं भूल जाऊँ तो?

– हितेन्द्र अनंत 

मानक
संस्मरण

शनिवार का बाज़ार 

सप्ताह में एक दिन बाज़ार भरता था। मेरे गाँव छुरा में शनिवार के दिन बाज़ार भरता था। गरियाबंद के लिए शायद शुक्रवार था, पाण्डुका के लिए गुरूवार और बाकी गाँवों के लिए और दिन तय थे। बाज़ार मेरे घर के बहुत पास भरता था। वह जगह बरगद के एक विशाल पेड़ के नीचे थी। गाँव में उसे बर रूख या बड़ झाड़ भी कहते थे। ज़्यादातर दुकानदार बरगद की छाँह में ज़मीन पर प्लास्टिक की चादर या जूट के बोरे पसार कर उस पर सामान रखते थे। उस समय इलेक्ट्रॉनिक तराज़ू नहीं हुआ करते थे। वज़न के बाटों की जगह कई दुकानदार पत्थरों से तौलते थे। बाज़ार में ग्राम पंचायत ने बहुत सी छोटे आकार की झोपड़ियाँ भी बनाई थीं जिन्हें हटरी कहते थे। इन हटरियों में कुछ बड़े सब्ज़ी वालों के साथ ही किराना वाले, कपडे वाले, बर्तन वाले और सोनार भी दुकान लगाते थे। छत्तीसगढ़ी शब्द हटरी का हिन्दी अर्थ झोपड़ी होता है; हिन्दी हाट का अर्थ बाज़ार, अंग्रेज़ी में भी हट का अर्थ झोपड़ी ही होता है; ऐसा हमारे स्कूल शिक्षक बताते थे। हटरी में जो सोनारों की दुकानें थीं, उनमे से एक सोनार गरियाबंद से आते थे, ये हमारे पिता के मित्र थे। अतः इस दिन प्रायः इनका दोपहर का भोजन हमारे घर हुआ करता था। इनके अलावा केवल एक और दुकानदार था जिसे मैं जानता था, वह था मेरे साथ पढ़ने वाला नंदकुमार साहू। वह अपने पिता के साथ बाज़ार में सब्ज़ी बेचा करता था। नंदकुमार मेरे साथ मिडिल स्कूल में था। मिडिल स्कूल मेरे घर से एकदम पास ही था। शनिवार का स्कूल पूरा करने के बाद नंदकुमार पिता के साथ दुकान पर बैठ जाता था।   

जब मैं प्रायमरी स्कूल में था, मुझे याद है कि मेरे घर से स्कूल की दूरी करीब डेढ़ किलोमीटर थी। शनिवार के दिन हम सफ़ेद कमीज और हाफ़ पैंट पहनकर स्कूल जाते थे। बाकी दिनों के लिए सफ़ेद कमीज और खाकी हाफ़ पेंट हुआ करती थी।  शनिवार के दिन स्कूल जल्दी छूट जाता था। वैसे तो हम पैदल ही घर जाते थे, लेकिन शनिवार के दिन आसपास के गाँवों से जो बैलगाड़ियाँ बाज़ार की ओर जा रही होती थीं, हम दौड़कर उनपर बैठ जाते थे। बैलगाड़ी पर बैठकर घर जाने में मुझे बहुत आनंद आता था। हालाँकि ऐसा अवसर कभी-कभार ही मिलता था। दूर-दराज़ के गाँवों के ऐसे बहुत से व्यापारी थे जो शुक्रवार की शाम को ही अपने सामान और बैलगाड़ियों के साथ बाज़ार में डेरा डाल देते थे। ये लोग रात का खाना बरगद के नीचे ही पकाया करते थे।   

मैं एक सरकारी कॉलोनी में रहता था। कॉलोनी के बाहर दफ्तर था, उसके आगे एक घूरा था जिसमें सब लोग कचरा फेंकते था। स्कूल में गुरूजी ने बताया था कि घूरे में फेंके हुए कचरे से कम्पोस्ट खाद बन जाती है। घूरे के आगे बाईं ओर मिडिल स्कूल जाने का रास्ता था, और दाईं ओर बर रुख था। बाज़ार से सब्ज़ी हमेशा मम्मी ही लाती थी। वह पड़ोस की आंटियों के साथ मिलकर सामान लाने जाती थी। मुझे याद है कि बाजार जाने से पहले मम्मी पाउडर लगाकर बालों को अच्छी तरह सँवारकर जाती थी। जब मम्मी तैयार होती थी तो मैं ध्यान से उन्हें तैयार होते हुए देखता था। मुझे याद हो गया था कि कब वह चेहरे पर पाउडर लगाती है और कब मांग में सिन्दूर भरती है। कभी-कभी मैं भी मम्मी के साथ सब्ज़ी लाने जाता था। सब्ज़ी न भी लेनी हो तो भी मैं दोस्तों के साथ हर शनिवार को बाज़ार का एक चक्कर लगा लिया करता था। इस दिन सामान खरीदने के लिए आसपास के छोटे गाँवों से हज़ारों लोग आते थे। एक मेला सा लग जाता था।

बर रुख के पीछे हटरियाँ बनी थीं। बाज़ार की जगह के चारों और सड़क के किनारे खाने-पीने के सामानों की दुकानें लगती थीं। इनमें गुलगुल भजिया, मिर्ची भजिया, कैंडी फ्लॉस जिसे गाँव में बॉम्बे मिठाई कहते थे और हिन्दी में कुछ जगहों पर “बुड्ढी के बाल” भी कहते हैं, आदि बेचे जाते थे। कुछ भेल पूरी या चाट के ठेले भी बाद में लगने लगे थे। इसके अलावा खिलौनेवाले होते थे जो प्रायः प्लास्टिक या मिट्टी से बने खिलौने, पुंगी, चकरी या फिरकी, झुनझने, बाँसुरी, और फुग्गे बेचा करते थे। एक कोने में मछली वाले बैठते थे। उनके पास जो तरह-तरह की मछलियाँ होती थीं उन्हें देखना हमें अच्छा लगता था। उस समय तक गाँवों में बोतल बंद पानी नहीं मिलता था। हालाँकि ऐसे पानी का विज्ञापन हमने टीवी में देखा था। बाज़ार के एक छोर पर, अस्पताल के सामने एक हैण्डपम्प था, बाज़ार आने वाले लोग उसी से पानी पी लेते होंगे। हैंडपम्प के पास ही एक छोटा सा रेस्तराँ था जिसका नाम “कैलाश होटल एन्ड बासा” था। यहाँ चाय-नाश्ते और खाने का प्रबंध हो जाता था। शायद कुछ गाँव वाले कैलाश के पास ही कुछ खा लेते होंगे।  

जो सब्ज़ियाँ मिलती थीं उनमें आलू-प्याज़ के अलावा तुरई, गिलखी, भिन्डी, टमाटर, तरह-तरह की पत्तेदार भाजियाँ, अलग-अलग प्रकार के कांदे, नीम्बू वगैरह होते थे। सभी सब्ज़ी वाले ज़ोर-ज़ोर से सब्ज़ियों के नाम और उनके भाव दिन भर पुकारते रहते थे। कुछ सब्ज़ियों के छत्तीसगढ़ी नाम अलग थे, लेकिन टमाटर के लिए पताल के अलावा बाकी सब्ज़ियों के लिए सब्ज़ी वाले हिन्दी नामों को ही लेते थे। शायद जब गाँव के ग्राहक सब्ज़ी खरीदते होंगे तब वे सब्ज़ियों के नाम अपनी भाषा में लेते होंगे। छत्तीसगढ़ी में प्याज़ को गोंधली, भिन्डी को रमकलिया, और सहजन की फली को मुनगा कहते हैं। बरबट्टी, खेखसी, जरी आदि वे सब्ज़ियाँ हैं जिनके हिन्दी नाम मुझे नहीं मालूम।  

कभी-कभी इसी दिन शहर से राशन लिए एक सरकारी गाड़ी आती थी। इस गाड़ी में “नागरिक आपूर्ति निगम” लिखा होता था। यह नीले रंग की एक मेटाडोर थी। हालाँकि गाँव में कंट्रोल के सामान की एक दुकान थी, पर कभी-कभी शहर से आने वाली इस गाड़ी में राशन कार्ड दिखाकर शक़्कर, चांवल, और गेहूँ आदि खरीदे जा सकते थे। हम इस गाड़ी और गाँव की कंट्रोल की दुकान से केवल शक़्कर और मिट्टी का तेल खरीदते थे।

महिलाओं की ज़रूरत के सामानों की दुकानें अलग हुआ करती थीं। इनमें कंघी, काजल, फीता, बक्कल, पिन, पाउडर, क्रीम, और आईना जैसी चीज़ें मिलती थीं। चूड़ी की दुकानें अलग थीं और इनका हम बच्चों से एक अलग रिश्ता था। 

नंदकुमार के पिता सब्ज़ी बेचते थे, इस कारण स्कूल के दोस्त उसे “सरहा भाँटा” या “किरहा भाँटा” कहकर चिढ़ाते थे।  भाँटा का अर्थ बैंगन होता है, सरहा यानी सड़ा हुआ और किरहा यानी कीड़ेदार। नंदकुमार ने अपने गाँव में पाँचवी तक स्कूल किया था। छठवीं से वह हमारे साथ छुरा के मिडिल स्कूल में आ गया था। शुरू में उसने स्कूल के सर से शिकायत की थी कि ये लोग मुझे इस तरह चिढ़ाते हैं। हालाँकि शिकायत के बावजूद चिढ़ाना बंद नहीं हुआ। छठवीं की परीक्षा में एक बार नंदकुमार ने पैरों में बहुत कुछ लिखकर नकल मारने की कोशिश की। मैंने यह देखकर उसकी शिकायत कर दी। सर ने उसकी पिटाई की और परीक्षा से बाहर कर दिया। परीक्षा खत्म होने के बाद मैंने घर जाकर मम्मी को बताया कि किस तरह मैंने एक नकल मारने वाले लड़के की शिकायत की। यह सुनकर मम्मी ने मुझे डाँटा। मम्मी को डर था कि कहीं ऐसा न हो कि मेरी शिकायत के कारण बाद में कभी वह लड़का मुझे मारे या कोई नुकसान पहुँचाए। मम्मी मुझे यह समझा ही रही थी कि घर की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो नंदकुमार खड़ा था। मम्मी की बात सुनकर मुझे लगा कि शायद नंदकुमार मुझे मारने के लिए आया है। लेकिन उसने मुझसे बस इतना पूछा कि उसे आज के विषय में फेल कर दिया जाएगा या कि सभी विषयों में? मैंने उससे कहा कि वह चिंता न करे, उसे बाकी विषयों की परीक्षा में बैठने दिया जाएगा।  

आज सोचता हूँ कि नंदकुमार के नकल मारने में आखिर ग़लत क्या था? वह खेतों में अपने पिता की मदद करता था, न जाने कितने किलोमीटर दूर गाँव से साइकिल चलाकर स्कूल आता था, और फिर बाज़ार के दिन दुकान पर भी बैठता था। आखिर उसे पढ़ने का समय ही कब मिलता होगा। मेरे पापा और मम्मी दोनों मुझे पढ़ाते थे। नंदकुमार को घर में पढ़ाने वाला शायद ही कोई होगा।

बाज़ार के दिन कभी-कभी कुछ खेल दिखाने वाले आते थे। इनमें कभी कुछ नट होते थे, मदारी होते थे, कुछ जादूगर और कुछ सपेरे भी आया करते थे। एक बार एक बायोस्कोप वाला भी आया था। सपेरे कभी-कभी कई फ़ीट लम्बे साँप लाते थे। जादूगर के खेल में सबसे अधिक भीड़ जुटती थी।  मदारी के साथ भालू कम ही होता था, हालाँकि बंदर हमेशा होता था।  एक बार साँप और नेवले की लड़ाई भी देखी थी। खेल के बाद लोग पैसे देते थे। कुछ लोग पैसे दिए बिना वापस चले जाते थे।  

बाज़ार का दिन ख़त्म हो जाने के बाद अगले दिन यानी रविवार को हम फिर से बाज़ार स्थल का मुआयना करते थे। इसके दो कारण थे। एक तो हमें मालूम था कि इतनी भीड़ होने के कारण हो न हो कुछ लोगों के गिरे हुए सिक्के या रुपयों के नोट हमें मिल जाएंगे। कुछेक बार ऐसा हुआ भी था इसलिए हर रविवार को हमें यह उम्मीद रहती थी। कोई सिक्का या रुपया जिसे मिल जाए वह “पैसा पा गेन रे!” ऐसा बार-बार कहता हुआ सब दोस्तों को बताता था। इसके अलावा हम उस जगह जाते थे जहाँ चूड़ियों की दुकानें लगती थीं। यहाँ से हम काँच की, अलग-अलग रंगों की फूटी हुई चूड़ियाँ इकट्ठी करते थें। हम चूड़ियों के संग्रह का एक खेल खेलते थे जिसके लिए यहाँ से चूड़ियाँ इकट्ठा करना हमारे लिए बेहद ज़रूरी था।

छत्तीसगढ़ में सब्ज़ी या कुछ और सामान खरीदने के साथ एक परम्परा जुड़ी हुई है। बेचने वाला जब सब्ज़ी तौल लेता है, या दर्ज़न के भाव देने वाली चीज़ें गिन लेता है, तो वह साथ में थोड़ी सी सब्ज़ी या चीज़ें और देता है जिसे पुरौनी कहते हैं। यह शायद इसलिए होता होगा कि यदि ग्राहक को दुकानवाले के तौलने पर थोड़ा शक हो तो वह अतिरिक्त सामान मिलने से खुश हो जाए। कुछ दुकानदार खुशी से पुरौनी दे देते थे, कुछ मांगने पर देते थे। एक बार मेरे कोई रिश्तेदार बहुत दूर से हमारे घर आए। उन्हें पुरौनी की यह परम्परा मालूम हुई तो उन्होंने खुद इसका परीक्षण करना चाहा। वो बाज़ार गए और लौटकर आए तो खुशी से हमें बताया कि एक सब्ज़ी वाले की दुकान पर बहुत भीड़ थी। सब्ज़ी वाला सभी ग्राहकों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहा था। रिश्तेदार ने एक दर्ज़न नीम्बू खरीदे और उससे पूछा एक और पुरौनी में ले लूँ? सब्ज़ी वाले ने उनकी ओर बिना देखे कह दिया कि हाँ ले लो।  रिश्तेदार ने उसके ध्यान न देने के कारण पाँच बार और वही सवाल पूछा और इस तरह आधा दर्ज़न नीम्बू मुफ़्त में ले लिए। यह किस्सा हमारे परिवार में काफ़ी समय बाद तक सुनाया जाता रहा।  

गाँव छोड़ने के करीब पच्चीस साल बाद मैं वहाँ दुबारा लौटा। बरगद का वह विशाल पेड़ नहीं था। उस पेड़ की लटकती जड़ों में हम झूला झूलते थे। पेड़ की कमी मुझे इस तरह महसूस हुई मानों मेरे बचपन का कोई दोस्त अब नहीं रहा। उसी यात्रा में मुझे यह भी मालूम हुआ कि नंदकुमार का भी अल्प आयु में निधन हो गया था। बाज़ार अब भी उसी जगह भरता है। लेकिन बाज़ार को छत देने वाला बर रुख अब नहीं है। सब्ज़ी वालों के शोर में एक आवाज़ नंदकुमार की थी जो कम हो गई है।

– हितेन्द्र अनंत 

मानक
अपनी बात

इन दिनों मैं क्यों कम लिखता और बोलता हूँ?

आजकल यूँ तो मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूँ, लेकिन जितना अधिक चाहता हूँ, उतना ही कम कहता हूँ। ऐसा बहुत कुछ मेरी दुनिया में घटित हो रहा है जो मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है। लेकिन हर बार जब मन करता है कि किसी बात पर मेरी अपनी भी कोई बात होनी चाहिए, तब मैं चुप हो जाता हूँ।  

कभी-कभी मैं यह सोचकर चुप हो जाता हूँ कि जो मैं कहने जा रहा हूँ, वैसा ही जब पहले कहा था तो उसका कोई असर नहीं हुआ। कभी इसलिए कुछ नहीं कहता कि मुझे लगता है कि इस विषय में मेरे लिए फ़िलहाल कोई भी मुकम्मल राय बना पाना संभव नहीं है, या कि मुझे कुछ भी कहने से पहले और अधिक जानने की आवश्यकता है।  

लेकिन इन दोनों कारणों से बढ़कर एक कारण और है। बीते दस सालों में दुनिया में बात करना बहुत ही मुश्किल हो गया है। किसी भी बात को कहना चाहो तो यह सोचना पड़ता है कि सुनने या पढ़ने वालों की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। ऐसे विषय जिन पर पहले कभी कोई बहस नहीं हुआ करती थी, लोग अब उन पर घंटों उलझे रहते हैं। यदि किसी बात का केवल एक पक्ष भी हो, तो भी लोग उस बात के दो पक्ष या अनेक पक्ष बना लेते हैं। शायद इसीलिए बना लेते हैं ताकि कहने वाले के जवाब में वे भी कुछ कह पाएँ। इससे किसी भी बात के कहे जाने पर एक शोर-शराबे का माहौल बन जाता है। केवल दो लोग एक बंद कमरे में बात कर रहे हों, वे ज़ोरों से भले ही बात न करें, लेकिन उनकी बातों से बाहर नहीं तो उनके अपने भीतर ही शोर हो जाता है। 

लोग पहले जब चौपालों में या बैठकों में आपस में बातें करते थे, तो कुछ लोग कहने वाले होते थे, और बहुत से सुनने वाले।  बहसें तब भी होती होंगी, लेकिन उन बहसों से किसी को पीड़ा नहीं पहुँचती थी। अब लोग शायद यह देखने लगे हैं कि कैसे हम बात करें कि किसी न किसी को पीड़ा हो। बात चाहे साहित्य की हो, राजनीति की, या किसी बीमारी के इलाज की ही क्यों न हो , लोगों से किसी भी विषय पर बात करना एक पीड़ादायक अनुभव बनता जा रहा है।  

ईमानदारी से यह स्वीकार करता हूँ कि कुछ साल पहले जब इस किस्म की चर्चाओं की शुरुआत हुई, तो मैं खुद बातों को उलझाने में या बात करते हुए एक क़िस्म की वाचिक हिंसा फैलाने में सुख पाया करता था। किसी से अपनी बात मनवा ली, या किसी को बहस में हरा दिया, या किसी को इतना परेशान कर दिया कि उसने बहस ही छोड़ दी, मैं इन सबमें आनंद महसूस किया करता था। लेकिन बीते करीब एक साल से मुझे ऐसा लगने लगा है कि इससे एक तो मेरे भीतर की शांति भंग हो रही है, दूसरे, मुझे या इन चर्चाओं में भाग वाले किसी और को भी, इन सब बातों से कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। कई बार बेहद उद्वेलित कर देने वाली घटनाओं पर भी मैं इसीलिए चुप रहने लगा हूँ।

मैं किसी से यह नहीं कहना चाहता कि वे चुप रहें, न ही मैं मौन रहने की कोई वक़ालत कर रहा हूँ। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि हम एक ऐसे अभूतपूर्व समय में जी रहे हैं जहाँ किसी भी प्रकार की अर्थपूर्ण चर्चा की शायद कोई भी संभावना नहीं बची है। ऐसी अवस्था में क्या किया जाना चाहिए यह मैं नहीं कह सकता। न ही मैं उन्हें ग़लत कह सकता हूँ जो तमाम बाधाओं के बावजूद अपनी बात अभी भी रख रहे हैं। लेकिन निजी तौर पर कुछ भी कहना मुझे अब निरर्थक ही लगने लगा है। यहाँ मैं जानबूझकर ऐसी चर्चाओं के उदाहरण नहीं लिख रहा, क्योंकि उन उदाहरणों के उल्लेख मात्र से इसे पढ़ने वाले का ध्यान उन घटनाओं पर चला जाएगा और इस लिखे हुए का भी वही परिणाम होगा जिसकी मुझे शिकायत है। 

चुप रहकर क्या मुझे अधिक शांति का अनुभव होता है? नहीं। मेरे भीतर बहुत सी बातें हैं, बहुत से विषयों पर मेरी एक राय है, इसलिए मैं भीतर बहुत शांत हूँ ऐसा भी नहीं है। लेकिन किसी बात को कहने के बाद आजकल जो वाचिक हिंसा का माहौल बनता है, मैं फिलहाल उस अतिरिक्त वेदना से तो बचना ही चाहता हूँ। 

– हितेन्द्र अनंत 

मानक
संस्मरण

जय भोले!

आज फखरुद्दीन की याद आ गई।

हम दोनों कालीबाड़ी स्कूल में पढ़ते थे। रायपुर शहर में कालीबाड़ी (काली माँ का मंदिर) के आसपास के इलाके को इसी नाम से जाना जाता है।

एक दिन फखरुद्दीन ने मुझे बताया कि कालीबाड़ी में एक पान की दुकान है। वह पानवाला शंकर जी का भक्त है उसने अपनी दुकान में एक बड़ा सा घण्टा लटका रखा है। जब भी कोई उसकी दुकान के सामने से गुज़रते हुए “जय भोले” की आवाज़ लगा दे तो पानवाला श्रद्धापूर्वक घण्टा बजा देता है।

उस उम्र में यह बात मुझे इतनी दिलचस्प जान पड़ी कि मैंने फखरुद्दीन से कहा कि मुझे वह दुकान दिखाए। आधी छुट्टी के वक्त हम सायकल से वहाँ गए। दुकान के पास आते ही फखरुद्दीन ने ज़ोर से आवाज़ लगाई “जय भोले!” और पान वाले ने घण्टा बजा दिया।

यह देखकर हम इतना हँसे कि थोड़ी दूर आगे जाकर हँसते ही रहे। बाद में अनेक बार हमने यह प्रयोग आज़माया और सफ़ल भी रहे।

फखरुद्दीन एक ख़ास अदा से “जय भोले!” कहता और फिर ज़ोरों से पैडल मारकर भाग जाता। कालीबाड़ी इलाका चारों ओर स्कूलों से घिरा है। इसलिए शायद पानवाले भैया को बच्चों की इस हरकत से कभी दिक्कत नहीं हुई होगी। भक्ति की बात तो खैर है ही।

आज घर में किसी कारणवश यह क़िस्सा सुनाया और फखरुद्दीन की याद आ गई। तब न उसे मालूम था कि मैं हिन्दू हूँ न मुझे मालूम था कि वह मुसलमान है।

फिर पढ़ाई में कमज़ोर होने के कारण मैं कुछ देर से इंजीनियरिंग कॉलेज पहुँचा जहाँ वह मेरा सीनियर था।

उसके कुछ साल बाद अचानक रायपुर रेल स्टेशन में मिल गया। मैंने जुर्माना अदा कर, उसके साथ नागपुर तक सफ़र तय किया। इस समय तक सबके पास मोबाइल फोन आ गए थे। लेकिन हम दोनों ने एक दूसरे को उसके घर के लैंडलाइन नम्बर बता दिए और अपनी याददाश्त और दोस्ती की दाद दी। उसके बाद से उससे सम्पर्क नहीं है। बीएसएनएल में अफ़सर हो गया था तब।

फखरुद्दीन को अपना नाम पसंद नहीं था। लड़कियों और नए लोगों को अपना नाम फ़ारुख बताया करता था। हमारे लिए हमेशा ही वह फखरू था (फ में बिना किसी नुक्ते के)।

– हितेन्द्र अनंत

मानक