समीक्षा

पठान फ़िल्म पर

सब बोले 500 करोड़ किया है, सेक्युलरिज़्म भी बचाना है, तो हम कल रात हो आए।

आठ बजे के शो में हॉल 40 प्रतिशत भरा था।

सिनेमा में अभी तक यह नहीं ढूंढ पाया हूँ कि अच्छा क्या था?

शाहरुख के एक्शन में दम नहीं। एक सीन में सलमान उनसे बेहतर कर गए। शाहरुख सलमान जितना तो नहीं शायद देवानंद से बेहतर एक्शन कर पाए इस फ़िल्म में।

जॉन अब्राहम चड्डी पहने अच्छे लगते हैं, बॉडी में दम है, लेकिन अभिनय उनको नहीं आता।

दीपिका को अभिनय आता है, एक्शन भी अच्छा कर रही थीं, लेकिन उनका चरित्र लिखने वाले ने घिसा पिटा बना दिया।

डिम्पल और आशुतोष राणा में डिम्पल बेहतर अभिनय करती हैं। आवाज़ अच्छी है लेकिन आशुतोष बड़बोले हैं – स्क्रीन पर भी।

दरअसल सबसे कमज़ोर कड़ी है कहानी और संवाद। संवाद इतने घटिया हैं कि मीम के ज़माने में एक ढंग की पंचलाइन नहीं मिलेगी मीमस्टर्स को।

कहानी लगता है इसलिए लिखी गई कि विदेशों से तकनीशियन बुलाकर बढ़िया एक्शन दिखाना था, तो कुछ कहानी भी तो चाहिए थी, सो डाल दी। लॉजिक यानी तर्क का बॉलीवुड से यूँ भी रिश्ता नहीं है, लेकिन थोड़ी बहुत मर्यादा तो रखनी थी।

मर्यादा से याद आया, बेशर्म रंग गाना सिर्फ़ स्किन दिखाने के लिए बनाया है। अपन को उससे कोई समस्या नहीं है, लेकिन दुनिया में कुछ जगहों पर ये सब कहानी के आधार पर किया जाता है। अपने यहाँ ये करियर चमकाने का अस्त्र है।

मुझे वाकई लग रहा है कि 26 जनवरी वाला लंबा वीकेन्ड न होता और राइट विंग का साथ न होता तो फ़िल्म शायद ही इतना चल पाती।

पीआर चाहे जो बात मनवा दे। यह फ़िल्म शाहरुख की प्रतिष्ठा बढ़ाने या बचाने में असफल हुई है।

पठान फ़िल्म पैसा बर्बाद है। तय है कि मोदी जी 2029 का चुनाव भी जीतेंगे।

– हितेन्द्र अनंत

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