एक ऐसे त्यौहारी समय में, जब मेरे मोहल्ले की आंटी की कर्कश आवाज़ में भजन सुनकर लगा कि इससे तो डीजे वाले बाबू हाई डेसिबल में “रा रा रक्कम्मा” लगा देते तो अच्छा था…
उन दिनों, जब पता चला कि एक कॉमरेड ने इस सवाल का उत्तर ढूंढने के लिए पार्टी की लीडरशिप छोड़ दी कि “स्टालिन के शासन को दुनिया के सबसे निकृष्ट तानाशाही शासनों में एक माना जाए कि नहीं?” (अपन और बाकी दुनिया इसका उत्तर पहलेइच्च जानते थे दीदी)…
एक ऐसे मौसम में, जब प्रदेश के सारे बाँधों में सौ प्रतिशत पानी भर जाने और अल नीनो के भाई ला नीना के कारण धान की खेती के लिए पर्याप्त बारिश न होने की खबरें एक साथ छप रही हों…
तब जब मन्नू भंडारी का एक उपन्यास इतना झेलाऊ लगा कि दस पन्नों के आगे डर लगने लगा और बीस के बाद हार मान ली…
…ऐसे अमृतकाल में अपन मोहल्ले में और इधर भी चुप रहे। और खुद के चुप रहने पर हैरत भी की और दुखी भी हुए।
– हितेन्द्र अनंत