एक बड़ी लंबी सड़क शहर से मेरे गाँव तक आती है। वह गाँव के जिस सिरे से जुड़ती है, मुझे लगता है कि गाँव वहीं से शुरू होता है। अब भी मैं गाँव की कल्पना करूँ तो उसका नक्शा वहीं से बनाना शुरू करता हूँ।
शहर के जिस हिस्से में मैं ज़्यादातर रहा हूँ, मुझे लगता है कि असली शहर तो यही है, बाकी उसका विस्तार है।
मैं अपनी नस्ल के इंसानों को मानक समझते हुए, बाकी नस्लों के इंसानों की शारिरिक बनावट को कौतुहल से देखता हूँ।
मैं स्वयं को इस दुनिया का केंद्र मानता हूँ। इस दुनिया को मैं पूरे यूनिवर्स का केंद्र मानता हूँ।
मुझे लगता है कि समय दिन और रात में विभाजित है। मुझे पूरा विश्वास है कि बारह महीनों में विभाजित वर्ष ही जीवन को मापने का सबसे सही पैमाना है। मैं समझता हूँ कि जो भी बड़े परिवर्तन विश्व में होने हैं, वो मेरे जीवनकाल के भीतर ही हो जाएंगे।
जिन पैमानों, संदर्भों, मानकों और दायरों से मैं विश्व और जीवन को समझता हूँ, वह सब ग़लत हों, या बदल दिए जाएँ, या उन्हें मैं भूल जाऊँ तो?
– हितेन्द्र अनंत