संस्मरण

शनिवार का बाज़ार 

सप्ताह में एक दिन बाज़ार भरता था। मेरे गाँव छुरा में शनिवार के दिन बाज़ार भरता था। गरियाबंद के लिए शायद शुक्रवार था, पाण्डुका के लिए गुरूवार और बाकी गाँवों के लिए और दिन तय थे। बाज़ार मेरे घर के बहुत पास भरता था। वह जगह बरगद के एक विशाल पेड़ के नीचे थी। गाँव में उसे बर रूख या बड़ झाड़ भी कहते थे। ज़्यादातर दुकानदार बरगद की छाँह में ज़मीन पर प्लास्टिक की चादर या जूट के बोरे पसार कर उस पर सामान रखते थे। उस समय इलेक्ट्रॉनिक तराज़ू नहीं हुआ करते थे। वज़न के बाटों की जगह कई दुकानदार पत्थरों से तौलते थे। बाज़ार में ग्राम पंचायत ने बहुत सी छोटे आकार की झोपड़ियाँ भी बनाई थीं जिन्हें हटरी कहते थे। इन हटरियों में कुछ बड़े सब्ज़ी वालों के साथ ही किराना वाले, कपडे वाले, बर्तन वाले और सोनार भी दुकान लगाते थे। छत्तीसगढ़ी शब्द हटरी का हिन्दी अर्थ झोपड़ी होता है; हिन्दी हाट का अर्थ बाज़ार, अंग्रेज़ी में भी हट का अर्थ झोपड़ी ही होता है; ऐसा हमारे स्कूल शिक्षक बताते थे। हटरी में जो सोनारों की दुकानें थीं, उनमे से एक सोनार गरियाबंद से आते थे, ये हमारे पिता के मित्र थे। अतः इस दिन प्रायः इनका दोपहर का भोजन हमारे घर हुआ करता था। इनके अलावा केवल एक और दुकानदार था जिसे मैं जानता था, वह था मेरे साथ पढ़ने वाला नंदकुमार साहू। वह अपने पिता के साथ बाज़ार में सब्ज़ी बेचा करता था। नंदकुमार मेरे साथ मिडिल स्कूल में था। मिडिल स्कूल मेरे घर से एकदम पास ही था। शनिवार का स्कूल पूरा करने के बाद नंदकुमार पिता के साथ दुकान पर बैठ जाता था।   

जब मैं प्रायमरी स्कूल में था, मुझे याद है कि मेरे घर से स्कूल की दूरी करीब डेढ़ किलोमीटर थी। शनिवार के दिन हम सफ़ेद कमीज और हाफ़ पैंट पहनकर स्कूल जाते थे। बाकी दिनों के लिए सफ़ेद कमीज और खाकी हाफ़ पेंट हुआ करती थी।  शनिवार के दिन स्कूल जल्दी छूट जाता था। वैसे तो हम पैदल ही घर जाते थे, लेकिन शनिवार के दिन आसपास के गाँवों से जो बैलगाड़ियाँ बाज़ार की ओर जा रही होती थीं, हम दौड़कर उनपर बैठ जाते थे। बैलगाड़ी पर बैठकर घर जाने में मुझे बहुत आनंद आता था। हालाँकि ऐसा अवसर कभी-कभार ही मिलता था। दूर-दराज़ के गाँवों के ऐसे बहुत से व्यापारी थे जो शुक्रवार की शाम को ही अपने सामान और बैलगाड़ियों के साथ बाज़ार में डेरा डाल देते थे। ये लोग रात का खाना बरगद के नीचे ही पकाया करते थे।   

मैं एक सरकारी कॉलोनी में रहता था। कॉलोनी के बाहर दफ्तर था, उसके आगे एक घूरा था जिसमें सब लोग कचरा फेंकते था। स्कूल में गुरूजी ने बताया था कि घूरे में फेंके हुए कचरे से कम्पोस्ट खाद बन जाती है। घूरे के आगे बाईं ओर मिडिल स्कूल जाने का रास्ता था, और दाईं ओर बर रुख था। बाज़ार से सब्ज़ी हमेशा मम्मी ही लाती थी। वह पड़ोस की आंटियों के साथ मिलकर सामान लाने जाती थी। मुझे याद है कि बाजार जाने से पहले मम्मी पाउडर लगाकर बालों को अच्छी तरह सँवारकर जाती थी। जब मम्मी तैयार होती थी तो मैं ध्यान से उन्हें तैयार होते हुए देखता था। मुझे याद हो गया था कि कब वह चेहरे पर पाउडर लगाती है और कब मांग में सिन्दूर भरती है। कभी-कभी मैं भी मम्मी के साथ सब्ज़ी लाने जाता था। सब्ज़ी न भी लेनी हो तो भी मैं दोस्तों के साथ हर शनिवार को बाज़ार का एक चक्कर लगा लिया करता था। इस दिन सामान खरीदने के लिए आसपास के छोटे गाँवों से हज़ारों लोग आते थे। एक मेला सा लग जाता था।

बर रुख के पीछे हटरियाँ बनी थीं। बाज़ार की जगह के चारों और सड़क के किनारे खाने-पीने के सामानों की दुकानें लगती थीं। इनमें गुलगुल भजिया, मिर्ची भजिया, कैंडी फ्लॉस जिसे गाँव में बॉम्बे मिठाई कहते थे और हिन्दी में कुछ जगहों पर “बुड्ढी के बाल” भी कहते हैं, आदि बेचे जाते थे। कुछ भेल पूरी या चाट के ठेले भी बाद में लगने लगे थे। इसके अलावा खिलौनेवाले होते थे जो प्रायः प्लास्टिक या मिट्टी से बने खिलौने, पुंगी, चकरी या फिरकी, झुनझने, बाँसुरी, और फुग्गे बेचा करते थे। एक कोने में मछली वाले बैठते थे। उनके पास जो तरह-तरह की मछलियाँ होती थीं उन्हें देखना हमें अच्छा लगता था। उस समय तक गाँवों में बोतल बंद पानी नहीं मिलता था। हालाँकि ऐसे पानी का विज्ञापन हमने टीवी में देखा था। बाज़ार के एक छोर पर, अस्पताल के सामने एक हैण्डपम्प था, बाज़ार आने वाले लोग उसी से पानी पी लेते होंगे। हैंडपम्प के पास ही एक छोटा सा रेस्तराँ था जिसका नाम “कैलाश होटल एन्ड बासा” था। यहाँ चाय-नाश्ते और खाने का प्रबंध हो जाता था। शायद कुछ गाँव वाले कैलाश के पास ही कुछ खा लेते होंगे।  

जो सब्ज़ियाँ मिलती थीं उनमें आलू-प्याज़ के अलावा तुरई, गिलखी, भिन्डी, टमाटर, तरह-तरह की पत्तेदार भाजियाँ, अलग-अलग प्रकार के कांदे, नीम्बू वगैरह होते थे। सभी सब्ज़ी वाले ज़ोर-ज़ोर से सब्ज़ियों के नाम और उनके भाव दिन भर पुकारते रहते थे। कुछ सब्ज़ियों के छत्तीसगढ़ी नाम अलग थे, लेकिन टमाटर के लिए पताल के अलावा बाकी सब्ज़ियों के लिए सब्ज़ी वाले हिन्दी नामों को ही लेते थे। शायद जब गाँव के ग्राहक सब्ज़ी खरीदते होंगे तब वे सब्ज़ियों के नाम अपनी भाषा में लेते होंगे। छत्तीसगढ़ी में प्याज़ को गोंधली, भिन्डी को रमकलिया, और सहजन की फली को मुनगा कहते हैं। बरबट्टी, खेखसी, जरी आदि वे सब्ज़ियाँ हैं जिनके हिन्दी नाम मुझे नहीं मालूम।  

कभी-कभी इसी दिन शहर से राशन लिए एक सरकारी गाड़ी आती थी। इस गाड़ी में “नागरिक आपूर्ति निगम” लिखा होता था। यह नीले रंग की एक मेटाडोर थी। हालाँकि गाँव में कंट्रोल के सामान की एक दुकान थी, पर कभी-कभी शहर से आने वाली इस गाड़ी में राशन कार्ड दिखाकर शक़्कर, चांवल, और गेहूँ आदि खरीदे जा सकते थे। हम इस गाड़ी और गाँव की कंट्रोल की दुकान से केवल शक़्कर और मिट्टी का तेल खरीदते थे।

महिलाओं की ज़रूरत के सामानों की दुकानें अलग हुआ करती थीं। इनमें कंघी, काजल, फीता, बक्कल, पिन, पाउडर, क्रीम, और आईना जैसी चीज़ें मिलती थीं। चूड़ी की दुकानें अलग थीं और इनका हम बच्चों से एक अलग रिश्ता था। 

नंदकुमार के पिता सब्ज़ी बेचते थे, इस कारण स्कूल के दोस्त उसे “सरहा भाँटा” या “किरहा भाँटा” कहकर चिढ़ाते थे।  भाँटा का अर्थ बैंगन होता है, सरहा यानी सड़ा हुआ और किरहा यानी कीड़ेदार। नंदकुमार ने अपने गाँव में पाँचवी तक स्कूल किया था। छठवीं से वह हमारे साथ छुरा के मिडिल स्कूल में आ गया था। शुरू में उसने स्कूल के सर से शिकायत की थी कि ये लोग मुझे इस तरह चिढ़ाते हैं। हालाँकि शिकायत के बावजूद चिढ़ाना बंद नहीं हुआ। छठवीं की परीक्षा में एक बार नंदकुमार ने पैरों में बहुत कुछ लिखकर नकल मारने की कोशिश की। मैंने यह देखकर उसकी शिकायत कर दी। सर ने उसकी पिटाई की और परीक्षा से बाहर कर दिया। परीक्षा खत्म होने के बाद मैंने घर जाकर मम्मी को बताया कि किस तरह मैंने एक नकल मारने वाले लड़के की शिकायत की। यह सुनकर मम्मी ने मुझे डाँटा। मम्मी को डर था कि कहीं ऐसा न हो कि मेरी शिकायत के कारण बाद में कभी वह लड़का मुझे मारे या कोई नुकसान पहुँचाए। मम्मी मुझे यह समझा ही रही थी कि घर की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो नंदकुमार खड़ा था। मम्मी की बात सुनकर मुझे लगा कि शायद नंदकुमार मुझे मारने के लिए आया है। लेकिन उसने मुझसे बस इतना पूछा कि उसे आज के विषय में फेल कर दिया जाएगा या कि सभी विषयों में? मैंने उससे कहा कि वह चिंता न करे, उसे बाकी विषयों की परीक्षा में बैठने दिया जाएगा।  

आज सोचता हूँ कि नंदकुमार के नकल मारने में आखिर ग़लत क्या था? वह खेतों में अपने पिता की मदद करता था, न जाने कितने किलोमीटर दूर गाँव से साइकिल चलाकर स्कूल आता था, और फिर बाज़ार के दिन दुकान पर भी बैठता था। आखिर उसे पढ़ने का समय ही कब मिलता होगा। मेरे पापा और मम्मी दोनों मुझे पढ़ाते थे। नंदकुमार को घर में पढ़ाने वाला शायद ही कोई होगा।

बाज़ार के दिन कभी-कभी कुछ खेल दिखाने वाले आते थे। इनमें कभी कुछ नट होते थे, मदारी होते थे, कुछ जादूगर और कुछ सपेरे भी आया करते थे। एक बार एक बायोस्कोप वाला भी आया था। सपेरे कभी-कभी कई फ़ीट लम्बे साँप लाते थे। जादूगर के खेल में सबसे अधिक भीड़ जुटती थी।  मदारी के साथ भालू कम ही होता था, हालाँकि बंदर हमेशा होता था।  एक बार साँप और नेवले की लड़ाई भी देखी थी। खेल के बाद लोग पैसे देते थे। कुछ लोग पैसे दिए बिना वापस चले जाते थे।  

बाज़ार का दिन ख़त्म हो जाने के बाद अगले दिन यानी रविवार को हम फिर से बाज़ार स्थल का मुआयना करते थे। इसके दो कारण थे। एक तो हमें मालूम था कि इतनी भीड़ होने के कारण हो न हो कुछ लोगों के गिरे हुए सिक्के या रुपयों के नोट हमें मिल जाएंगे। कुछेक बार ऐसा हुआ भी था इसलिए हर रविवार को हमें यह उम्मीद रहती थी। कोई सिक्का या रुपया जिसे मिल जाए वह “पैसा पा गेन रे!” ऐसा बार-बार कहता हुआ सब दोस्तों को बताता था। इसके अलावा हम उस जगह जाते थे जहाँ चूड़ियों की दुकानें लगती थीं। यहाँ से हम काँच की, अलग-अलग रंगों की फूटी हुई चूड़ियाँ इकट्ठी करते थें। हम चूड़ियों के संग्रह का एक खेल खेलते थे जिसके लिए यहाँ से चूड़ियाँ इकट्ठा करना हमारे लिए बेहद ज़रूरी था।

छत्तीसगढ़ में सब्ज़ी या कुछ और सामान खरीदने के साथ एक परम्परा जुड़ी हुई है। बेचने वाला जब सब्ज़ी तौल लेता है, या दर्ज़न के भाव देने वाली चीज़ें गिन लेता है, तो वह साथ में थोड़ी सी सब्ज़ी या चीज़ें और देता है जिसे पुरौनी कहते हैं। यह शायद इसलिए होता होगा कि यदि ग्राहक को दुकानवाले के तौलने पर थोड़ा शक हो तो वह अतिरिक्त सामान मिलने से खुश हो जाए। कुछ दुकानदार खुशी से पुरौनी दे देते थे, कुछ मांगने पर देते थे। एक बार मेरे कोई रिश्तेदार बहुत दूर से हमारे घर आए। उन्हें पुरौनी की यह परम्परा मालूम हुई तो उन्होंने खुद इसका परीक्षण करना चाहा। वो बाज़ार गए और लौटकर आए तो खुशी से हमें बताया कि एक सब्ज़ी वाले की दुकान पर बहुत भीड़ थी। सब्ज़ी वाला सभी ग्राहकों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहा था। रिश्तेदार ने एक दर्ज़न नीम्बू खरीदे और उससे पूछा एक और पुरौनी में ले लूँ? सब्ज़ी वाले ने उनकी ओर बिना देखे कह दिया कि हाँ ले लो।  रिश्तेदार ने उसके ध्यान न देने के कारण पाँच बार और वही सवाल पूछा और इस तरह आधा दर्ज़न नीम्बू मुफ़्त में ले लिए। यह किस्सा हमारे परिवार में काफ़ी समय बाद तक सुनाया जाता रहा।  

गाँव छोड़ने के करीब पच्चीस साल बाद मैं वहाँ दुबारा लौटा। बरगद का वह विशाल पेड़ नहीं था। उस पेड़ की लटकती जड़ों में हम झूला झूलते थे। पेड़ की कमी मुझे इस तरह महसूस हुई मानों मेरे बचपन का कोई दोस्त अब नहीं रहा। उसी यात्रा में मुझे यह भी मालूम हुआ कि नंदकुमार का भी अल्प आयु में निधन हो गया था। बाज़ार अब भी उसी जगह भरता है। लेकिन बाज़ार को छत देने वाला बर रुख अब नहीं है। सब्ज़ी वालों के शोर में एक आवाज़ नंदकुमार की थी जो कम हो गई है।

– हितेन्द्र अनंत 

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