राहुल गांधी वह नहीं हैं जो कांग्रेस समर्थक सोचते हैं।
राहुल गांधी जो भी हो “एक भला आदमी है”, यह बात भोले-भाले कांग्रेस समर्थकों का भ्रम है।
जो व्यक्ति बिना किसी प्रशासकीय अनुभव के खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान ले, उसके पहले बिना किसी चुनाव के पार्टी का अध्यक्ष बन जाए,वह दरअसल सत्तालोलुप है, भला आदमी नहीं।
भला आदमी क्या होता है? मैं खाली सड़क में रात को बारह बजे भी सिग्नल पर गाड़ी रोकता हूँ, ईमानदारी से टैक्स भरता हूँ। तो क्या मैं पार्टी अध्यक्ष पद के लायक हो गया? यह भला आदमी होने का बहाना दरअसल परिवार के प्रभामंडल से सम्मोहित कांग्रेसियों का हथियार है जिससे वे अपनी स्वामीभक्ति को खुद से छिपाना चाहते हैं।
2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद न केवल राहुल ने नैतिकता के आधार पद से इस्तीफा दिया, बल्कि यह भी कहा मेरे परिवार से बाहर जिसको चाहो अध्यक्ष बनाओ। लेकिन ऐसा कहने के बाद अपनी बहन के साथ मिलकर खुलेआम पार्टी के निर्णय लेना यह दर्शाता है कि राहुल को सत्ता के बिना राहत नहीं मिलती। इस्तीफा दिया था तो निर्णय नहीं लेने चाहिए। दूर रहो। आपकी बहन केवल एक राज्य की महासचिव है, वह पूरे देश में पार्टी के फैसले क्यों ले रही है?
दरअसल यह राहुल गांधी की घोर परिवारवादी मानसिकता को दर्शाता है। अब इसके आगे की बात करते हैं।
2014 में कांग्रेस के 9 मुख्यमंत्री थे। अभी केवल 2 हैं। 2014 के बाद से जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं, इनमें कांग्रेस ने भाजपा से सीधी टक्कर की स्थिती में केवल 3 चुनाव जीते, और उनसे बनी सरकारों में भी एक गिरवा दी।
सीधे मुकाबलों में भाजपा के ख़िलाफ़ कांग्रेस का जीत प्रतिशत करीब 4 प्रतिशत है। यह सब तब हुआ है तब कांग्रेस के सारे फैसलों पर राहुल गांधी की मोहर है।
संगठन क्षमता की बात करें तो उनके महान फैसलों का महान तमाशा पंजाब में पिछले छह महीनों में हम देख चुके हैं। पार्टी की अंदर के लड़ाई को यूँ सरेआम होने देने में न केवल नेतृत्व की असफलता थी बल्कि उसकी (अर्थात भाई-बहन की) सक्रिय भागीदारी भी थी। और नहीं तो अपने मातहत लोगों पर भी आपका नियंत्रण नहीं जिनकी नियुक्ति आपने खुद की है!
कांग्रेस खुद को विपक्ष का सबसे बड़ा और आवश्यक अंग मानती है। लेकिन उसके शासक परिवार के मुखिया का व्यवहार देखिए। राहुल गांधी ने आज तक मुम्बई जाकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं की है। पार्टी टूटने के डर से बचने के लिए आप महाराष्ट्र सरकार में शामिल हुए। यदि महान नैतिकतावादी हो तो शामिल नहीं होना था , यदि हुए तो फैसले को स्वीकार करो। यह फूफा की तरह चलती बारात से दूरी बनाना क्या एक अच्छे नेता को शोभा देता है? यूपीए के विस्तार के लिए खुद आगे होकर राहुल विपक्ष के किस नेता के घर जाकर उससे मिले? क्यों विपक्ष के नेता (पवार, ममता सहित) आज भी सोनिया गांधी से मिलते हैं, राहुल से नहीं?
मेरे गृहराज्य छत्तीसगढ़ में भी उनके दौरे के लिए हमारे मुख्यमंत्री को महीनों मिन्नतें करनी पड़ीं। अंततः वे तब आए जब हमारे मुख्यमंत्री ने असम के बाद उत्तर प्रदेश चुनावों का जिम्मा उठाया (अर्थात क्या किया यह बताने की आवश्यकता नहीं है)।
संगठन क्षमता की एक और बानगी। अपने अनेक साक्षात्कारों में राहुल ने यह स्वीकार किया है कि उनकी पार्टी का प्रचार तंत्र कमज़ोर है। लेकिन यदि ऐसा है तो अमरिंदर सिंह जैसे को पार्टी से निकालने का दम रखने वाले राहुल एक अदद रणदीप सिंह सुरजेवाला को प्रवक्ता पद से हटाने का दम क्यों नहीं रखते? यह तो कोई भी एक कांफ्रेंस देखकर बता देगा कि सूरजेवाला एक फिसड्डी प्रवक्ता है। जो अध्यक्ष वही ठीक नहीं कर सकता वह पार्टी और देश में क्या खाक ठीक कर देगा?
बाद इन सबके, जब चारों ओर से कांग्रेस की यह आलोचना हो रही है कि वह परिवारवादी पार्टी है तो नैतिकता का दूसरा नाम राहुल गांधी, क्यों नहीं यह घोषणा कर देते कि चूँकि यह चर्चा है, आरोप है, इसलिए मेरा परिवार इस पद से दूर रहेगा। इन बातों से आहत कांग्रेसी यही सोचे कि यदि महात्मा गांधी पर इस आरोप का दसवाँ हिस्सा भी लगता तो वो क्या करते? इसलिए, नैतिकता के ये दावे झूठे हैं।
चुभेगी बात लेकिन सच यही है कि राहुल गांधी सत्ता के आदी हो चुके हैं, उन्हें पार्टी पर नियंत्रण की सनक है, और उनकी सँगठन क्षमता दोयम दर्जे से भी गई बीती है। उनके और उनकी बहन के नेतृत्व को देश की जनता नकारते-नकारते थक गई है। इसलिए पुरखों का दिया कुछ संस्कार बाकी हो तो तत्काल पार्टी के निर्णय तंत्र से सौ कोस दूर चले जाएँ। ऐसा करके वे और उनकी बहन देश की सबसे बड़ी सेवा करेंगे। एक अप्रैल से अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाएँ पूरी क्षमता से बहाल भी हो रही हैं। इसका फ़ायदा फ्रीक्वेंट फ्लायर राहुल को अवश्य ही उठाना चाहिए।
– हितेन्द्र अनंत