समीक्षा

पुस्तक – “एक देश बारह दुनिया”

शिरीष खरे की पुस्तक “एक देश बारह दुनिया” पढ़ी।

यह पुस्तक रिपोर्ताज संकलन भी है साथ ही यात्रा ससंमरण भी। शिरीष ने नर्मदा की यात्रा (परिक्रमा नहीं) की है। एक पत्रकार होने के नाते उन्होंने अनेक राज्यों के अनेक क्षेत्रों यात्राएँ की हैं, वहाँ से रिपोर्टें भेजी हैं। लेकिन इस दौरान एक पत्रकार बहुत कुछ देखता-समझता है जिसे अख़बारों में या तो छापा नहीं जाता या छापा जाना सम्भव नहीं। गनीमत है कि शिरीष जैसे कुछ लोग इन संस्मरणों को डायरी में लिख लेते हैं।

“एक देश बारह दुनिया”, शिरीष के उन्हीं संस्मरणों के ज़रिए एक भुला दी गयी लेकिन विशाल और त्रासदीग्रस्त दुनिया में पाठक को ले जाती है। जिन रास्तों से गुज़रते हुए हम-आप तस्वीरें खींचकर “ब्यूटीफुल कंट्रीसाइड” का स्टेटस सोशल मीडिया पर लगा देते हैं, उन जगहों पर ठहरकर एक पत्रकार देख पाता है कि यही “ब्यूटीफुल कंट्रीसाइड” दरअसल अन्यायों, तकलीफों, बीमारियों, लूट, चोरी, दोहन, शोषण की एक ऐसी दुनिया है जिससे निजात पाना वहाँ के निवासियों के लिए लगभग असम्भव है। शिरीष के ही शब्दों का उपयोग किया जाए तो “टूसी या थ्रीसी – दो कॉलम या तीन कॉलम” की छोटी सी जगह में इन जगहों की जो ख़बरें छपती हैं, जिन्हें यह विज्ञापनों से दबे हुए पृष्ठ में या तो देख नहीं पाते या देखकर भी “टू डिप्रेसिंग” मानकर पढ़ते नहीं, दरअसल उन ख़बरों से अखबार पटा होना चाहिए और हर रात की प्राइम टाइम बहस का यही एक मुद्दा होना चाहिए।

इस क़िताब में नर्मदा की धीमी मौत की सच्चाई है, विस्थापन की कहानियाँ हैं, अफसरों, ठेकेदारों और नेताओं के ज़ुल्मों की दास्तानें हैं। राजस्थान की उन दो महिलाओं की कहानियाँ हैं जिन्होंने से ज़ुल्मों ने लड़ने के दो अलग रास्ते चुने, न्याय अलबत्ता दोनों को अबतक नहीं मिला। इस क़िताब में ग़ायब होते जंगल, मालिकों से प्रवासी मजदूरों में जबरन बदले जा रहे किसान और बंदूकों के साये में जी रहे आदिवासी भी हैं जिनका पुलिस न जाने कब फर्जी एनकाउंटर कर दे या कब मुखबिरी के आरोप में नक्सली उन्हें मार डालें।

“पत्रिका” के पत्रकार के रूप में शिरीष ने रायपुर-बस्तर में करीब तीन वर्ष बिताए, उनके इस दौरान के संस्मरणों का मेरे लिए और भी अधिक महत्त्व है क्योंकि छत्तीसगढ़ मेरा गृह राज्य है, और जिन वर्षों की कहानी शिरीष इस पुस्तक में लिखते हैं, तब मैं मेरे ही राज्य के लाखों युवाओं की तरह कहीं बाहर नौकरी कर रहा था। जब इक्कीस साल पहले हमारा राज्य अस्तित्व में आया था तब मैं कॉलेज में था, मेरे जैसे नौजवानों की आँखों में तब खुशहाली के जो सपने थे वो जल्द ही बर्बाद हो गए, उनकी बर्बादी का एक बड़ा कारण वह है जो “एक देश बारह दुनिया” के छत्तीसगढ़ के हिस्से में बेहद मार्मिक विवरण के साथ लिखा है।

शिरीष की पुस्तक को पढ़ना एक ऐसा पीड़ादायक अनुभव है जिससे हर पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय, शहरी भारतीय को गुजरना ही चाहिए। वह जो इस जैसी क़िताबों में छपा है, जब हर ड्राइंग रूम की बहसों का हिस्सा बनेगा तब शायद हम जान पाएंगे कि भारत का शासन तंत्र किस कदर अपने नागरिकों का शोषण करता है, विकास के असली मायने क्या हैं, और यह कि क्यों सदियों पुरानी दमन की व्यवस्थाएँ आज भी वैसी की वैसी जारी हैं।

एक महत्वपूर्ण पुस्तक जिसे पढ़ा जाना ज़रूरी है।

हितेन्द्र अनंत

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