समाज

धर्मों के नाम पर हिंसाएँ क्यों होती हैं?

धर्मों के दो स्वरूप होते हैं। पहले एक आंतरिक स्वरूप होता है, जिसमें धर्म की अवधारणाएँ होती हैं, उसकी शिक्षा होती है और उसका दर्शन होता है।

लेकिन इस आंतरिक स्वरूप को जनसुलभ बनाने के लिए धीरे-धीरे उसका बाह्य स्वरूप आकार लेता है। इसमें अनेक बाते होती हैं, हलाल-हराम, शुभ-अशुभ, पवित्र-अपवित्र आदि। बाह्य स्वरूप में वेशभूषा, खानपान, केश व्यवस्था – बाल, दाढ़ी, चोटी इत्यादि आते हैं, साथ ही इनमें आंतरिक स्वरूप का ज्ञान देने वाली क़िताबें भी आती हैं जो खुद बाह्य स्वरूपों का एक हिस्सा बन जाती हैं।

समय के साथ प्रत्येक धर्म के बाह्य स्वरूप इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उस धर्म के आंतरिक स्वरूप को जानने समझने की चेष्टा कोई नहीं करता।

बाह्य स्वरूपों का पालन कट्टरपंथी विचारों को बढ़ावा देता है क्योंकि यही बाह्य स्वरूप उस धर्म के अनुयायियों को अन्य धर्मों के अनुयायियों से अलग दिखाता है। मसलन, बाल कभी न कटाना, दाढ़ी रखना, मूँछ न रखना, गंजे हो जाना, चोटी रखना, या कि खास रंग के कपड़े पहनना आदि।

धर्मो की असली शिक्षाओं का बाह्य दिखावे के सामने गौण हो जाना ही धर्मों के मॉडल का असफल हो जाना है। सभी धर्म इस मामले में एक बराबर हैं कि वे सभी असफल हो चुके हैं। क्यों असफल हैं? क्योंकि उनके मानने वाले उनकी शिक्षाओं को ताक पर रखकर केवल दिखावटी अंतरों को ही धर्म समझ बैठते हैं। ऐसी असफलता केवल धर्मो की हो ऐसा नहीं है, राजनीतिक विचारधाराओं के साथ भी ऐसा ही होता है।

इसलिए एक समय के बाद धर्मो में क़िताब का अपमान, कार्टून, चित्र, मांस भक्षण, लहसुन-प्याज़, जैसी बातें इंसानों की हत्याएँ करवा देती हैं, जबकि उनकी शिक्षाओं जिनमें, भलाई, मदद, सेवा, अहिंसा, भाईचारा आदि बातें (जितनी भी हों या जैसी भी हों) गौण हो जाती हैं।

आम लोगों को समझाने की गरज से या स्थानीय संस्कृति के तत्वों को अंगीकार करने की आवश्यकता से, धर्म जिन बाह्य स्वरूपों को अपनाते हैं, वही उनकी असल शिखाओं को कहीं अंदर दफ़ना देते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि धर्मो के नाम पर स्वाभाविक हिंसाएँ नहीं रुकेंगी।

फिर क्या है जो इस क़िस्म की हिंसाओं को रोक सकता है? एक ऐसा तंत्र जो धर्मों से भी अधिक कट्टर तौर पर सेक्युलर हो , लिखे हुए क़ानून पर चले, उसका सख़्ती से पालन कराए, न्याय करे और सबके लिए समान हो।

दुःख की बात यह है कि कम से कम भारत में ऐसा तंत्र भी उसी चक्र का शिकार है, ऐसा तंत्र कागज़ों में छपा तो है लेकिन उस पर अम्ल कितना होता है यह लिखने की आवश्यकता नहीं।

– हितेन्द्र अनंत

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