गुडगाँव में वह हो रहा है जो हम पाकिस्तान में होता देख चुके हैं।
गुडगाँव के कुछ हिन्दू रहवासियों को मुसलमानों का किसी खुले मैदान में नमाज़ पढ़ना पसन्द नहीं आ रहा। इस दौर में एक बड़े अपवाद के तौर पर गुडगाँव का प्रशासन मुस्लिमों को सुरक्षा दे रहा है और नमाज़ पढ़ने में उनकी मदद कर रहा है।
मुझे नमाज़ की जानकारी नहीं लेकिन यह कोई डीजे बजाकर शोर मचाने वाला उपक्रम नहीं है। सार्वजनिक नमाज़ प्रायः शुक्रवार की दोपहर को पढ़ी जाती है। अधिकतम पन्द्रह मिनट का शांत कार्यक्रम होता है। चूँकि फ़िलहाल मस्जिदों में कोरोना के चलते भीड़ बढ़ाना स्वीकृत नहीं है, इसलिए कहा जा रहा है कि उस क्षेत्र के कामगार मुसलमान एक मैदान में अपना धार्मिक कर्तव्य अदा कर रहे हैं।
जब हिंदुओं के कुछ उत्सवों में दस-दस दिन लगभग पूरे दिन-रात डीजे बजाया जाता है, सड़कें घेरी जाती हैं, और जुलूसों के दौरान ट्रैफिक को बाधित जिया जाता है, तब पूरी आबादी इसे त्यौहारों की आवश्यकता समझकर साथ देती है। क्या दो मिनट की अज़ान सुन लेना या घर के सामने किसी को नमाज़ पढ़ते देख लेना इतना पीड़ादायक अनुभव है?
सुना है कि गुडगाँव के वही उपद्रवप्रेमी लोग अब ठीक नमाज़ के वक्त भजनों को लाउडस्पीकर पर बजा रहे हैं। ज़ाहिर है कि भजन को ठीक नमाज़ के वक्त गाने का हिन्दू धर्म में कोई आदेश या नियम नहीं है। बल्कि हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती ही यह है, और अन्य धर्मों के मुकाबले यह गुण उसमें बेहतर है, कि इसका कोई भी नियम स्वैच्छिक है। हिन्दू धर्म में उपासना का कोई एक नियमबाध्य तरीका नहीं है। अनेक तरीके हैं और अनेक मीमांसाएँ हैं जो उन तरीकों के पालन न हो पाने की स्थिति में विकल्प बताती हैं, और कोई हिन्दू चाहे इन्हें माने, चाहे न माने, वह फिर भी उतना ही हिन्दू रह सकता है। ऐसे में ऐन नमाज़ के वक्त भजन गाना सिवाय एक अन्य धर्म से नफ़रत के प्रदर्शन के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।
दरअसल हिन्दुओं का इतना भयादोहन किया गया है कि उन्हें दाढ़ी-टोपी वाले मुसलमान देखते ही डर लगने लगता है। दूसरी और अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज के सत्तालोलुप वर्ग को यह समझ आने लगा है कि हिन्दुओं के नाम पर कट्टरता का प्रदर्शन करने से उन्हें सत्ता की मलाई का एक छोटा सा टुकड़ा मिल सकता है। अतः समाज में कट्टरता दिखाने की होड़ लग रही है।
यही सब पाकिस्तान में हुआ। वहाँ जब सभी अल्पसंख्यकों का लगभग सफाया कर दिया गया, और आबादी को एक कट्टर इस्लाम की झूठी पहचान में ढाल दिया गया तो अब सत्ता पाने और प्रभाव जमाने के लिए एकमात्र विकल्प बचा है कि खुद को दूसरों से बेहतर मुसलमान साबित किया जाए। यही कारण है कि वहाँ इस्लाम के एक फ़िरक़े का दूसरे पर बम फेंकना अब आम बात हो गई है।
गुडगाँव के ये लोग उन्हीं हिन्दुओं की प्रारंभिक प्रजाति हैं जो एक दिन आपस में लड़ेंगे और यह साबित करने के लिए कि वही असली हिन्दू हैं, एक-दूसरे का ख़ून करने से भी न हिचकेंगे।
गुडगाँव का समझदार पुलिस प्रशासन हिंसा रोक रहा है। लेकिन देश के बहुसंख्यक समाज के दिलों में, उन्हीं के धर्म के संतों-महापुरुषों की शिक्षाओं की जो प्रतिदिन हत्या हो रही है, उसे कौन रोकेगा?
– हितेन्द्र अनंत