सिंघु में बर्बरता से हत्या की गई है। ऐसा बताया जा रहा है कि निहंगों ने यह हत्या की है। इससे पहले भी कोरोना लॉक डाउन में रोके जाने पर निहंगों के एक समूह ने पंजाब पुलिस के एक अधिकारी के हाथ काट दिए थे।
किसी भी फ़िरक़े को यह हक नहीं दिया जा सकता कि वह हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे। ऐसी बर्बरता सिख पंथ के गुरुओं का संदेश नहीं है। पाकिस्तान में ऐसी लिंचिंग अक्सर सुनाई देती है जिसमें मज़हब के अपमान के नाम पर सरेआम किसी की हत्या की जाए। लेकिन भारत में ऐसा प्रायः नहीं होता था।
लेकिन जब धर्मिक नफरत फैलाने और धर्म के नाम पर हिंसा को देश का शीर्ष नेतृत्व ही बढ़ावा दे तो यही माहौल बनेगा और आग फैलेगी। आखिर धर्म के नाम पर हुई इस हिंसा का विरोध मुखर होकर कोई भी दल क्यों नहीं कर पा रहा है? क्यों वोटों की प्यास इतनी हावी हो गई है कि एक ग़लत को ग़लत न कहा जा सके?
गांधी जी के नाम पर वोट लेने वाली पार्टी इस मामले पर खासतौर से चुप है। उसे शर्म आनी चाहिए। नेतृत्व वह होता है जिसमें अनुयायियों को उनके मुँह पर वे ग़लत हैं यह बोलने की ताक़त हो। बाकी आज जो हो रहा है वह नेतृत्व नहीं है। वह एक झूठ के बहाने वोट बटोरकर सत्ता और संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने की कवायद भर है। इसलिए, भाजपा तो देश को बुरी तरह बर्बाद कर ही चुकी है, कांग्रेस या कोई अन्य दल उसे फिर से ठीक करने की कोई सच्ची मंशा नहीं रखता है।
सत्ता के केंद्र में वोट, और वोटों के केंद्र में जाति-धर्म-भाषा के समीकरणों ने भारत के समाज को धर्मांधों और हिंसक भीड़ का समाज बना दिया है। ऐसा कोई धर्म नहीं जिसको पालन करने वाले नफ़रतों को दिलों में न पालते हों। धार्मिक और जातीय कट्टरता की एक होड़ चल पड़ी है। ऐसा लगता है 1947 में देश को जोड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह इतनी अधिक असफल हुई है कि अब कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।
– हितेन्द्र अनंत