रज़ा मीर साहब का उपन्यास “मर्डर एट मुशायरा” पढ़ा।
यह एक हिस्टॉरिकल फिक्शन है (हिन्दी में क्या कहेंगे?)। साथ ही फिक्शन के भीतर मर्डर मिस्ट्री भी है। सबसे मज़ेदार बात है कि इस उपन्यास के केन्द्र में चचा ग़ालिब मर्डर की गुत्थी सुलझाने के लिए जासूस नियुक्त किए जाते हैं।
ग़ालिब, फ्रेज़र, मेटक्लेफ, ज़फ़र ये सारे ऐतिहासिक पात्र हैं लेकिन रज़ा मीर के इस उपन्यास में कहानी में अतिरिक्त भूमिका भी निभा रहे हैं। कहानी की पृष्ठभूमि में 1857 का भारतीय सैन्य विद्रोह है।
मीर साहब 1857 के समय की दिल्ली को एकदम आपके सामने ला खड़ा करते हैं। पूरा शाहजहाँनाबाद ऐसा चित्रित है कि आपको लगता है कि आप उस समय में जी रहे हैं। मीर साहब ने दिल्ली का नक्शा बख़ूबी कहानी में खींचा है।
एक और बात जो अच्छी लगी वह है उस वक़्त के भोजन का बारीकियों के साथ विवरण। अवधी, मुग़ल भोजन, साथ में अंग्रेज़ी भोजन का तड़का। अक्सर उपन्यासों में भोजन पर इतनी अच्छी तरह ध्यान नहीं दिया जाता है।
उस वक्त की तहज़ीब, मिलीजुली भाषा, हिन्दू-मुस्लिम सहजीवन का एकदम सजीव चित्रण मीर साहब ने किया है। अंग्रेज़ों के भीतर उस वक्त जो विरोधाभास था, कि कुछ भारतीयों को हीन दृष्टि से देखते थे और कुछ यहाँ के भव्य सांस्कृतिक परिवेश से पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे, वह भी उपन्यास का अहम हिस्सा है।

कहीं यह उपन्यास उतना अच्छा जान नहीं पड़ता तो वह है प्लॉट। मर्डर मिस्ट्री में वह बात नहीं जो शीर्षक पढ़कर किसी भी पाठक को अपेक्षा होगी।
भाषा सपाट और सरल है।
सबसे सुन्दर बात है उपन्यास में चचा ग़ालिब की शायरी के सौंदर्य का बिखरा होना। मीर साहब ने शायरी के उचित उद्धरणों से उपन्यास को और भी दिलचस्प बना दिया है।
पढ़ने की वक़ालत हम भी करते हैं।
हितेन्द्र अनंत