समाज

टिकटॉक और एक देश का समाज

समाजविज्ञान के लिए भारत में एक बड़ी घटना है जिसका अध्ययन होना चाहिए। यदि हुआ है या हो रहा है, तो मैं उसके बारे में जानना चाहूंगा।

यूँ पिछले तीस सालों में ऐसा बहुत कुछ है जो बड़े पैमाने पर बदला है, और जिसका अध्ययन या तो हुआ नहीं या मुझ जैसे पाठकों तक पहुँचा नहीं। फिर भी यह एक घटना है जिसके अनेक आयाम हैं।

टिकटॉक या शार्ट वीडियोज़। ये पिछले पाँच सालों से देहातों, गलियों, झोपड़ियों में बनाए जा रहे हैं। इन्हें बनाने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि वही अपने आप में एक मार्के की बात है।

अव्वल तो इससे यह पता चलता है कि देश में कितना टैलेंट है! लोग पंद्रह सेकण्ड्स में अपनी कला का क्या ख़ूब प्रदर्शन करते हैं। देश में इतनी प्रतिभा थी, जो घरों की चारदीवारी में बंद थी, अब वह सामने आ रही है तो हैरानी होती है।

दूसरा, वर्जनाएँ टूट रही हैं। जिन्हें अबतक “बहुएँ” या “भाभियाँ” समझकर चूल्हे तक सीमित माना जा रहा था, ऐसा लगता है उनमें देह के सौन्दर्य को दिखाने की एक सदियों पुरानी ललक थी जो अब पूरी हो रही है। हिन्दी के अखबार जिन्हें “सम्भ्रान्त घराने की महिलाएँ” कहते हैं, वो बारिश में हाइवे पर भीगते हुए वीडियो बना रही हैं। पानी से तरबतर इन महिलाओं की देह का सौंदर्य नृत्य के साथ जुड़कर करोड़ों “लाइक्स” जुटा रहा है। सिर्फ़ में हाइवे में भीगना नहीं है, कुछ खेतों के ट्यूबवेल के पानी में भीग रही हैं तो कुछ घर के बाथरूम में भी! इनमें हर उम्र की स्त्रियाँ हैं, लेकिन बहुमत विवाहिताओं और अधेड़ उम्र की महिलाओं का है। ऐसा लगता है सदियों की घुटन को दूर कर खुली हवा में साँस लेने का एक ज़रिया मिल गया है।

तीसरे, एक वर्ग है जो सोलह से बाइस की उम्र के लड़के लड़कियों का है। इनके वीडियो जो आते हैं, उनकी अलग ही शैली है। इनमें अक्सर तीन-चार लड़के-लड़कियों के समूह पर कुछ फिल्माया जाता है। इनकी भाषा और इनकी दुनिया एकदम अलग है।

चौथे, ऐसे वीडियोज़ हैं जिनमें पति-पत्नी दोनों हैं। प्रायः इनमें पति की उपस्थिति मेहमान कलाकार की सी होती है, लेकिन कुछ हैं जो दोनों के दोनों समान रूप से प्रतिभावान हैं।

पाँचवी बात यह है, कि एक गाना आता है और उसपर पूरा देश नाचने लगता है। कुछ दिनों तक किसी एक गाने का चलन  रहता है फिर कोई दूसरा आ जाता है।

इन सभी वीडियोज़ से एक बात तो साफ़ है कि देश का बड़ा वर्ग खुलकर नाचना चाहता है। बड़े वर्ग को परिधानों में, ओढ़ने-ढँकने या बांधने वाले कपड़ों से परहेज़ है। 

लेकिन फिर ऐसे लोग हैं जो इन वीडियोज़ को देखते तो चाव से हैं लेकिन उनके घर में ऐसा हो जाए तो बखेड़ा खड़ा कर दें।

आखिर भारत को इतना नाचना क्यों है? लोग जो मोटे तौर पर एक पाबंदी पसंद करने वाले, मध्य युगीन सोच रखने वाले निज़ाम को बढ़ चढ़कर वोट देते हैं, वो उसी निज़ाम से इतने अलग क्यों हैं? क्या दोनों बातों में कोई रिश्ता है? घरों के भीतर, खेतों में, खलिहानों में, सोसायटी की छत पर रोज़ अलग अलग फ़िल्मी गीतों पर नाचने वाली महिलाओं का सोचना क्या है? उनके घरवालों पर इसका क्या प्रभाव है? उनके वीडियोज़ देखने वाले जो उनके मोहल्ले या गाँव के लोग हैं वो उनसे किस तरह पेश  आ रहे हैं? यदि कोई सेलेब्रिटी स्टेटस इससे बन रहा है तो ये लोग उससे कैसे डील कर पा रहे हैं? कोई है जो इन पर सोचेगा?

इन बातों पर शोध होना चाहिए। पेपर पढ़े जाएँ, क़िताबें लिखी जाएँ। इसे समझा जाए और समझाया जाए। पीएचडी हो तो कुछ इस विषय पर भी हो!

हितेन्द्र अनंत

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