प्राथमिक स्कूल – शिक्षक पढ़ाने में मेहनत करते थे। बच्चे पढ़ जाएँ यह उनकी दिलचस्पी थी। लेकिन वही रटाने वाली शिक्षा, मारना पीटना। गाँव का सरकारी स्कूल। कुछ शिक्षक स्कूल से ज़्यादा खेत में वक्त बिताते थे। एक दारू पीकर आते थे।
मिडिल स्कूल – बेहद अच्छा। शिक्षक दिलचस्पी लेकर पढ़ाते थे। कहानियों के ज़रिए रुचि जगाते थे। तमाम गतिविधियों पर ज़ोर था। कोई ठीक से न पढ़े तो उसके घर चले जाते थे। गाँव का ही सरकारी स्कूल। जातिगत दुराग्रह शिक्षकों में था। जातिसूचक विशेषणों और उपमाओं का उलाहना देना आम बात थी। यह सब पिछड़े वर्ग के शिक्षक भी किया करते थे। बच्चों से मारपीट यहाँ भी आम थी।
हाईस्कूल – शिक्षकों को घण्टा मतलब नहीं था कि कौन क्या कर रहा है। जो ट्यूशन जाए उसकी इज़्ज़त थी। बाकी जो रटकर लाए वो अच्छा था। कोई पीछे है तो क्यों है इनको कोई लेना देना नहीं था। सिलेबस पूरा करने के अलावा शिक्षकों को कुछ नहीं आता था। बेहद घटिया अनुभव। शहर का सबसे प्रतिष्ठित हिंदी माध्यम का निजी स्कूल। हम यहाँ अवसाद का शिकार हो गए थे लेकिन न शिक्षकों ने न घरवालों ने कोई नोटिस लिया। अवसाद की वजह पढ़ाई ही थी।
सरकारी पॉलिटेक्निक – ढाई साल के कोर्स में छः महीने से अधिक कक्षाएँ नहीं लगीं। प्रयोगशालाएँ बन्द। परीक्षा दो, डिप्लोमा लो। सीखा कुछ नहीं शिक्षकों से।
निजी इंजीनियरिंग कॉलेज – बेहद घटिया। सिलेबस को किताबों से पढ़कर लिखवाने का नाम ही लेक्चर था। कुछ को छोड़कर ज़्यादातर अभी-अभी ग्रेज्युएट हुए लड़के-लड़कियाँ पढ़ा दिया करते थे। पूरे तीन साल एक शिक्षक नहीं मिला जो मुझसे बेहतर अंग्रेज़ी बोलता हो या किसी विषय को रुचिकर बनाकर समझा सके। प्रयोगशाला में सूचीबद्ध प्रयोग थे, करो या नकल मारो। रट्टा मार डिग्री हासिल की वह भी अच्छे दर्जे से। मैंने अधिकांश पर्चों में मोदी जी से बढ़कर फेंका। विश्वविद्यालय डिग्री की एजेंसी था, कॉलेज उसका एजेंट।
बी-स्कूल – ढाँचा अच्छा था। प्रोफेसर खुद सिलेबस बनाते, अपनी मर्ज़ी से परीक्षा लेते, चाहे न लेते। कॉलेज 24 घण्टे खुला रहता था। प्रोफेसरों में इस अच्छी व्यवस्था का फ़ायदा लेने की योग्यता नहीं थी। किया उन्होंने वही, रट्टा मार। फर्क के नाम पर यह था कि रटकर लिखना नहीं है, प्रेजेंटेशन देना है। यहाँ प्रोफेसरों से ज़्यादा जो इंडस्ट्री में काम करने वालों के लेक्चर होते थे उनसे सीखा। लाइब्रेरी 24 घंटे खुली थी। जो चाहे खुद उठाकर पढ़ लो। बाकी का वहाँ से सीखा। एक बात थी कि यहाँ प्रोफेसरान से बहस की। एक दो को बुरा लगा, बाकी ने बुरा नहीं माना। दर्ज़े में अपन यहाँ काफ़ी ऊपर रहे।
कुलमिलाकर, एक दो को छोड़कर कोई शिक्षक नहीं जिसके लिए दिल में इज़्ज़त हो। शिक्षक दिवस फालतू का दिन है। इसे रट्टामार विशेषज्ञ दिवस कहना चाहिए।
– हितेन्द्र अनंत
मेरे अनुभव भी कुछ ऐसे ही रहे हैं – जो शिक्षक मिले सब टाइम-पास या बेकार. परंतु पत्नी शिक्षिका रही हैं, और उनके विद्यार्थी बीस पच्चीस वर्षों बाद भी उन्हें शिद्दत से याद करते हैं. बहुतों को अच्छे शिक्षक भी मिले. नवोदय में एक शिक्षक ऐसे हैं जिनके जन्मदिवस पर अभी भी उनके पुराने छात्र व्यक्तिगत रूप से बधाई देने पहुंचते हैं – देश-विदेश से.
आशीष श्रीवास्तव की ये 3 पोस्टें आपको देखनी चाहिए –
https://www.khalipili.in/2015/09/2015.htmlhttps://www.khalipili.in/2020/07/blog-post.htmlhttps://www.khalipili.in/2018/06/blog-post.html
तो, दिवस फ़ालतू नहीं है, अपना अनुभव जरूर इसे फ़ालतू बना देता है! 🙂
जी हाँ रवि भैया। अपन को अनुभव ही कुछ ख़राब हुए, सबके अनुभव अलग हो सकते हैं।