भारत की विदेश नीति के समक्ष इस समय एक बड़ी चुनौती है अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात। करीब बीस वर्षों के बाद अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फौजों की पूर्णतः वापसी प्रारम्भ हो गई है। सितंबर ग्यारह २००१ के आतंकी हमलों के बाद अमेरिका ने अल क़ायदा से लड़ने और आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध के नाम पर अफ़ग़ानिस्तान में तत्कालीन तालिबानी शासन पर हमले शुरू किए थे। ज़मीन पर तब के तालिबान विरोधी और भारत समर्थक “नॉर्दन अलायंस” ने भी अमेरिका के वायुसैनिक समर्थन से तालिबान पर हमले किए । अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका समेत उसके सहयोगी मुल्क़ों, जिन्हें नैटो सेनाएँ कहा जाता है, ने धीरे-धीरे अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा जमाया और एक समर्थक सरकार की स्थापना कर देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत की।
तालिबान एक ऐसी ताकत है जो महिला-विरोधी, उग्र-इस्लामिक मान्यताओं के तहत मध्ययुगीन बर्बर तरीकों से पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान में हुक़ूमत कर रही थी। इनके तथाकथित शरीया प्रेरित न्याय के दिल दहला देने वाले दृश्य पूरे विश्व ने देखे हैं। उनके बर्बर रवैये और उनकी मानवाधिकार विरोधी शासन प्रणाली का समर्थक शायद हुए कोई मुल्क या व्यक्ति हो सकता है।
जब अमेरिका ने तालिबान को सत्ताच्युत किया तो पाकिस्तान ने उन्हें अपने देश में पनाह दी। पाकिस्तान एक तरफ़ अमेरिका से आर्थिक सहायता लेता रहा, दूसरी तरफ उसने तालिबान और ओसामा बिन लादेन को पनाह दी। आगे जो कुछ हुआ वह इतिहास है।
ख़ैर, अफगानिस्तान में इन बीते २० वर्षों में भारत ने वहाँ की स्थानीय सरकार से अच्छे सम्बन्ध बनाए, वहाँ सडकों, अस्पतालों, बांधों और वहाँ की संसद सहित अनेक सुविधापरक इमारतों का निर्माण किया। इन सबसे ऐसा महसून होने लगा था मानों अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय प्रभाव अब स्थायी होने जा रहा है। लेकिन, भारत की सरकार के वहाँ की अमेरिका द्वारा स्थापित सरकार के साथ चाहे जैसे सम्बन्ध रहे हों, अमेरिका कभी भी अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और वहाँ की नयी राष्ट्रीय सेना को पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं बना पाया। नतीजा यह है कि इधर अमेरिकी फौजों की वापसी शुरू हुई है, उधर अफगानिस्तान के बड़े शहरों को छोड़कर लगभग अस्सी प्रतिशत भूमि पर तालिबान का फिर से क़ब्ज़ा हो चुका है। अब यह केवल समय की बात है कि कब तालिबान वहाँ पूरी तरह क़ब्ज़ा कर होनी सरकार पुनः स्थापित करे।
फौजों की इस वापसी के पहले, पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका ने तालिबान से बातचीत शुरू की थी। अफ़ग़ानिस्तान का भविष्य निर्धारित करने के लिए होने वाली इन मुलाक़ातों में भारत का कोई स्थान नहीं था। ये सारी मुलाक़ातें पकिस्तान के सहयोग से हो रही थीं, जिनमें रूस और चीन भी मुख्य रूप से शामिल थे। आज भी जब अफ़ग़ानिस्तान में पूरी तरह नया बदलाव आने वाला है , तब भारत को आधिकारिक रूप से इन चर्चाओं में कोई स्थान नहीं दिया गया है। अलबत्ता इस मामले में भारत की भूमिका को लेकर कुछ ज़बानी खर्च ज़रूर अमेरिका और रूस के द्वारा किया गया है , लेकिन उसे नाम भर का ही माना जाना चाहिए।
अफ़ग़ानिस्तान में बदलते हालातों की पृष्ठभूमि में इन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है:
१. अमेरिका भले ही यह जानता है कि पाकिस्तान ने तालिबान का साथ देकर उसकी पीठ में छुरा भौंका है, फिलहाल २० वर्षों बाद हारकर एक सम्मानजनक वापसी हेतु उसे पाकिस्तान पर निर्भर रहने के सिवा और कोई रास्ता नज़र नहीं आता है। इसमें सबसे बड़ा कारण पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति है , साथ ही यह भी कि इस क्षेत्र में पाकिस्तान एक बड़ी सैन्य ताकत है और उसके तालिबान के साथ प्रगाढ़ समबन्ध हैं। भविष्य में इस क्षेत्र में अमेरिकी हितों की गारण्टी हेतु पाकिस्तान का सहयोग अमेरिका के लिए आवश्यक है।
२. अमेरिका के समबन्ध ईरान से कभी भी बहुत अच्छे नहीं रहे, इसलिए पाकिस्तान एवँ तालिबान को किसी तरह अपने पक्ष में रखकर वह ईरान के विरुद्ध इस क्षेत्र में संतुलन साधना चाहेगा।
३. रूस ने बीते पाँच-सात वर्षों में पकिस्तान से बेहद अच्छे सम्बन्ध बना लिए हैं। रूस के भारत के साथ भी अच्छे सम्बन्ध हैं, किन्तु अफ़ग़ानिस्तान के प्रश्न पर उसे पाकिस्तान अधिक भरोसेमंद और उपयोगी मुल्क़ दिखाई पड़ता है। बीते सात वर्षों में भारत ने जिस प्रकार खुद को अमेरिकी पाले में अधिक धकेला है, वह भी इसका एक कारण है।
४. चीन के पूरी दुनिया में रेल एवँ सड़क मार्ग बिछाकर वैश्विक प्रभुत्व जमाने के अभियान, जिसे वह “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” कहता है, में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा सहयोगी है। यदि अफ़ग़ानिस्तान जैसे भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण मुल्क़ में चीन को सुविधानुसार सड़कों और रेलमार्ग बिछाने की आज़ादी मिलती है, तो यह उसके व्यापारिक और सामरिक हितों के लिए अति आवश्यक होगा। अतः चीन भी तालिबान के नेतृत्व में बनने वाली अगली सरकार में पाकिस्तान के माध्यम से अपने हितों की गारण्टी की व्यवस्था सुनिश्चित करना चाहता है।
5. भारत की एक उम्मीद है ईरान। जहाँ चीन ने पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर कब्ज़े के ज़रिए इस पूरे क्षेत्र में अपनी सामरिक-व्यापरिक उपस्थिति मज़बूत की है , वहीं ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास में भारत का प्रदर्शन सुस्त और फिसड्डी ही रहा है। अतः ईरान के पास अफ़ग़ानिस्तान में बनने वाली नई सरकार से सहयोग करने के अतिरिक्त और कोई चारा हो ऐसा लगता नहीं है।
६. वैश्विक परिदृश्य में भारत हमेशा ही एक उदासीन ताकत रहा है। श्रीलंका और बांगलादेश के सीमित उदाहरणों को छोड़ दें तो भारत ने कभी भी अपने सीमाओं के बाहर सीधे सैन्य दखल में अरुचि दर्शायी है जो कि अनेक कारणों से उचित ही है। लेकिन इससे यह भी स्पष्ट है की भारत चाहे जो कर ले, वह अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार को ऐसी कोई मदद प्रदान करने के हालत में नहीं है जिससे कि वह तालिबान को वहाँ क़ब्ज़ा ज़माने से रोक सके।
ऐसे में, भारत के पास क्या विकल्प हैं? अफ़ग़ानिस्तान में एक दुश्मन सरकार के होने का अर्थ है भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं का पूरी तरह असुरक्षित हो जाना। साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में सहयोगी सरकार होने का अर्थ यह भी हो सकता है कि पाकिस्तान की सेना और वहाँ का जिहादी तंत्र अब कश्मीर की ओर अपना ध्यान केंद्रित करे। इन सबके ऊपर यह कि अपनी पूर्वी सीमाओं पर भारत पहले ही चीन के साथ संघर्ष की स्थिति में है। ऐसे में पश्चिम की ओर भी यदि सैन्य तनाव बढ़ा तो उसके प्रतिकूल परिणाम हो सकते हैं।
हाल ही में, जब चीन ने लद्दाख क्षेत्र में भारत के विरुद्ध सैन्य-तनाव को बढ़ावा दिया, तब भारत ने उचित क़दम उठाते हुए पाकिस्तान से गुप्त रूप से बातचीत प्रारम्भ की थी। यह बातचीत संयुक्त अरब अमीरात के सहयोग से प्रारम्भ हुए थी। इस बातचीत का एक नतीजा यह था कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर दोनों देशों की और से होने वाली गोलाबारी कुछ माह पूर्व लगभग रुक गयी थी। जब पूर्वी सीमा पर चीन के साथ तनाव हों, तब पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान के साथ हालात थोड़े सामान्य करना एक उचित नीति है। इसी नीति का एक यह भी परिणाम निकला कि भारत की केन्द्र सरकार ने कश्मीर में स्थानीय राजनैतिक ताकतों को बातचीत के बुलाया।
अब अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में भारत के पास निम्न विकल्प हैं:
१. भारत यह उम्मीद करे कि किसी प्रकार अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार व उसके समर्थकों का क़ब्ज़ा बरकरार रहे एवँ तालिबान के पकड़ वहाँ ढीली हो। वर्तमान हालातों और अमेरिका की सैन्य अनुपस्थिति के चलते ऐसा होना लगभग असम्भव है।
२. भारत ईरान के साथ मिलकर किसी ऐसे गठजोड़ को खड़ा करे जो वहाँ अमेरिका-रूस-चीन के तालिबान और पाकिस्तान के साथ सहकर के विरुद्ध एक क्षेत्रीय ताकत बने। भारत के रूस और विशेषकर अमेरिका से सम्बन्धों के चलते ऐसा कुछ होगा यह लगभग अकल्पनीय है।
३. भारत तालिबान से बातचीत करे। यूँ सच तो यही है कि किसी न किसी रुप में भारत ने तालिबान से बातचीत प्रारम्भ कर ही दी है। हालाँकि इसे आगे बढ़ाया जा सकता है और एक औपचारिक रिश्ते की ओर भी बढ़ना सम्भव है। तालिबान के अपने चाहे जो विचार हों, भारत फ़िलहाल खुद के हितों को प्राथमिकता दे तो उसके पास यही सही चारा नज़र आता है। तालिबान से सहयोग के बदले में भारत उसे अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान विरोधी ताक़तों के साथ मध्यस्थता की पेशकश तो कर ही सकता है , साथ ही तालिबान के लिए भारत से व्यापारिक संबंधों का होना अति आवश्यक होगा क्योंकि यदि उसे अफ़ग़ानिस्तान को स्थाई रूप से चलाना है तो आर्थिक सम्बन्ध हमेशा काम आएँगे।
तीसरे विकल्प का सबसे बड़ा फ़ायदा यह हो सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत विरोधी तत्वों को उनकी गतिविधियों से रोका जाए। साथ ही उस क्षेत्र से होकर जाने वाले रास्तों पर भारत के व्यापरिक हित सुरक्षित रहें।
इस विकल्प का सबसे बड़ा विरोधी पक्ष है तालिबान की विचारधारा। लेकिन कूटनीति समझौतों का नाम है। इसमें वैचारिक शुद्धता के लिए विशेष स्थान नहीं है। भारत के अनेक ऐसे मुल्कों से प्रगाढ़ सम्बन्ध हैं जिनका मानवाधिकारों के मामले में कोई ख़ास स्थान नहीं रहा है।
तालिबान सहित पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को कम से कम बना लेना भारत के लिए आवश्यक है कि यदि चीन के साथ सीमा पर तनाव हो तो ये दोनों, हमारी उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर दोहरा तनाव खड़ा न करें। लेकिन ऐसा करने में सबसे बड़ी बाधा है भारत की आंतरिक राजनीति। यदि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार और उसके सहयोगी प्रदेश सरकारें और अन्य संगठन भारत में मुस्लिम विरोधी आग को हवा देते रहे, जैसा की वे खासतौर से पिछले छः-सात वर्षों से कर रहे हैं, तब भारत के लिए इन पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान सहित सऊदी अरब तथा अन्य अरबी देशों, एवँ इंडोनेशिया तथा मलेशिया जैसे मुस्लिम देशों से सम्बन्ध बनाए रखना कठिन होता जाएगा। लेकिन दूसरी और, वर्तमान सरकार का जीतकर सत्ता में सबसे बड़ा कारण उसकी मुस्लिम विरोधी राजनीति है।
कूटनीति और राजनीति में यही फ़र्क़ है। हालाँकि दोनों में व्यवहारिकता आवश्यक है, किन्तु कूटनीति जीत-हार से बढ़कर अपने हितों के संरक्षण पर ध्यान देती है, अतः कूटनीतिक सफ़लता के लिए अधिक लचीलापन आवश्यक होता है। कूटनीति वह नहीं कि आपने पैसे देकर एक विदेशी मुल्क में हज़ारों की भीड़ को सम्बोधित कर दिया, कूटनीति वह है जहाँ आप उस एक कमरे में बैठे चंद वार्ताकारों के साथ बातचीत का मौक़ा हासिल कर पाएँ, जिस कमरे में आपके पड़ोस के सबसे अधिक महत्वपूर्ण मुल्क़ का भविष्य तय किया जा रहा हो। ज़ाहिर है, कूटनीति डंका बजाने का काम नहीं है।
– हितेन्द्र अनंत