उदारवादी मध्यवर्ग के पास नायकों का अकाल है।इसलिए ज़रा सी अच्छी बात दिखते ही यह वर्ग किसी को भी नायक बना देने पर उतारू है। और जैसे ही कोई ज़रा सी खोट मिले, उसका नव-नायक तत्काल खलनायक में बदल जाता है।एक भाषण और मोहुआ मोइत्रा नायक। एक रोना और राकेश टिकैत नायक। कभी अन्ना हज़ारे तो कभी अरविंद केजरिवाल नायक। यहाँ तक कि बीते दिनों में जिनके लिए खलनायक थे वो शरद पवार और उद्धव ठाकरे भी आज नायक हैं। इसी तरह कभी नायक और उम्मीद माने जाने वाले नीतीश कुमार और ज्योतिरादित्य सिंधिया आज खलनायक हैं। दक्षिणपंथी लोगों के लिए इसका ठीक उल्टा सत्य है।
इसमें उदारवादी-मध्यवर्ग की कोई ग़लती भी नहीं है। पोस्ट ट्रुथ वर्ल्ड में उदार-मध्य वर्ग के लिए झंडा बुलन्द करने वाले कोई नहीं बचे हैं। जो थे वो बार-बार हार रहे हैं। जीतता हुआ नायक दिखाई नहीं देता। फासीवादी उभार ने आवाज़ों को दबाने का जो काम किया है, उसके चलते आवाज़ उठाने वाला हर शख़्स नायक लगने लगता है।कम से कम भारत के बारे में यह सत्य है कि यहाँ सत्ता का केंद्र व्यक्ति है न कि संस्थान। इसलिए व्यक्ति के बदलते ही संस्थान धवस्त हो जाते हैं। आज जो संस्थानों के कमज़ोर होने का ग़म ज़ाहिर कर रहे हैं, वो यह नहीं समझते कि बीते कल में भी इन संस्थानों पर व्यक्तियों की ही छाप थी। नेहरूवियन कंसेंसस (जो कि अनेक मायनों में देश के लिए शुभ था) को यूँ ही वह नाम नहीं मिल गया था।इसलिए जब संस्थानों पर भरोसा न हो, तब नायकों की तलाश स्वाभाविक है।
लेकिन इस व्यक्ति केंद्रित अपेक्षा के अपने नुकसान हैं। उदार-मध्यवर्ग हो या दक्षिणपंथी समाज, दोनों को लगता है कि उनका काम व्यक्ति ढूंढने तक सीमित है। आगे का काम व्यक्ति करे। और इस तरह समाज किसी भी प्रकार के स्थायी परिवर्तन से वंचित रह जाता है। भारत की क्रिकेट टीम का इतिहास देख लीजिए – व्यक्ति केंद्रित है। संगीत जो है वह गायक या वादक केंद्रित है। ऑर्केस्ट्रा जैसी कोई चीज़ शायद ही भारत में जन्म ले सकती थी।
– हितेन्द्र अनंत