अमेज़न प्राइम पर आई “अनपॉज़्ड” निहायत ही घटिया दर्जे की फ़िल्म है।
इसकी पहली कहानी जो निखिल आडवाणी की है वही झेली नहीं गई। अव्वल तो यह समझना चाहिए कि करेंट अफेयर्स पर फ़िल्म बनाना बेवकूफ़ी है। जो इतना सामयिक विषय है, उस पर जनता आपसे अधिक जानती है। बनाना है तो बीस साल बाद बनाइए।
लेकिन भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स समेत, भेड़चाल यह है कि अच्छी कहानी लिखने से पहले यह सोचा जाता है कि क्या बिकेगा? बेचने का सोचकर बनाई गई हर कहानी बिक नहीं सकती। सोचा होगा कि हर किसी का ध्यान कोरोना महामारी पर है तो चलो उसी पर फ़िल्म बना लेते हैं, अटेंशन सबका यूँ ही मिल जाएगा। यही **यापा हो गया।
इस कहानी में जिसमें कोविड-30 दिखाया गया है, नायक समाचार चैनलों में कोरोना की ख़बरों से ऊब चुका है। अमां आडवाणी जी, तो भाई यह क्यों नहीं सोचा कि हर जगह कोरोना की ख़बरों और बातों से हम भी परेशान हैं। क्यों फ़िल्म में वही सब घसीट रहे हो?
रहा सवाल जो कुछ फ्यूचरिस्टिक यानी भविषय के लिहाज़ से दिखाया गया है, वह भी निहायत ही टुच्चा प्रयोग है। बिना गहरे रिसर्च किए आनन-फानन में कुछ भी बनाएंगे तो यही होगा। भविष्य का अर्थ केवल वॉइस असिस्टेंट पर चलने वाले घर नहीं होते। वह भी बनाना हो तो पहले वॉइस असिस्टेंट क्या है यह सीख लेना था।
कला और बाज़ार का गहरा रिश्ता है। लेकिन इस रिश्ते में कला का पलड़ा भारी न हुआ तो बाज़ार कला को खा जाता है। ओटीटी यानी इंटरनेट आधारित फिल्म माध्यमों के साथ यही हो रहा है। अस्सी के दशक की तरह फिर से मसला फार्मूला की तरफ़ चला गया है। दो चार सीमित फ़ार्मूले हैं जिन पर काम हो रहा है। गाली-हिंसा-राजनीति एक है, जासूस-आतंकवाद-देशभक्ति दूसरा। इसी तरह एक है छोटे शहरों की पृष्ठभूमि में कुछ भी कचरा परोस देना।
एंथोलॉजी ऐसी फिल्म होती है जिसमें किसी एक थीम (आवश्यक नहीं कि थीम का कहानी से कोई सीधा रिश्ता हो) के इर्द गिर्द एक से अधिक अलग-अलग कहानियाँ होती हैं। अनपॉज़्ड ऐसी एंथोलॉजी है जिसे न ही देखा जाए।
– हितेन्द्र अनंत