विविध (General)

लोकतंत्र, मतदाता और तार्किकता

लोकतंत्र में चुनावों के सम्बन्ध में यह मानकर चला जाता है कि मतदाता ईमानदार होते हैं और वे जो चुनेंगे वो सही ही होगा।

भारत सहित अन्य देशों का हमारा अनुभव बताता है कि मतदाता ईमानदार नहीं होते। न ही वे युक्तिसंगत निर्णय लेते हैं। भारत में जो संविधान उन्हें मतदान का अधिकार देता है, मतदाता उसी संविधान की सभी मूल भावनाओं के ख़िलाफ़ जाकर या उन्हें पर रखकर मत देते आए हैं। इनमें जाति-धर्म और पैसे का लालच सबसे बड़े कारण हैं। मतदाता सूचनाओं का तार्किक विश्लेषण करने में अक्षम हैं। जिन प्रसार माध्यमों का काम मतदाताओं तक यह विश्लेषण सरल भाषा में पहुँचाना है, वे या तो असफल होते हैं या बिक जाते हैं।

नतीजा यह है कि काग़ज़ पर अच्छी दिखने का बावजूद यह चुनाव आधारित लोकतांत्रिक प्रक्रिया हमें ऐसी सरकारें देने में नाकाम रही हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान के मूल्यों पर आधारित समाज और देश का निर्माण कर सकें।

भारत का समाज भावुकता प्रधान है। यह तर्क से ऊपर भावनाओं को रखता है। भारत एक व्यक्ति केन्द्रित समाज भी है, यहाँ निजी हित सर्वोपरि है। केवल एक परिप्रेक्ष्य में सामूहिक हित को निजी हित से ऊपर रखा जाता है, वह है जाति और धर्म। इसलिए जहाँ एक ओर मतदाता घोर व्यक्तिवादी है, वह अपने और अपने जाति-धर्म के अतिरिक्त और किसी समूह का हित सोचे यह हमेशा सम्भव नहीं है। भावुकता प्रधान होने के कारण भारत के मतदाताओं को भावुक मुद्दों के द्वारा बरगलाना भी आसान है।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय चूँकि देश पर विदेशियों का क़ब्ज़ा था इसलिए यह माना गया कि आज़ादी के बाद भारत के लोग भारत के सभी वर्गों हित में निर्णय लेंगे। यह अनुमान बँटवारे के समय हुए दंगों से ही ग़लत साबित हुआ।

लोकतंत्र अन्य सभी शासन व्यवस्थाओं से बेहतर है, लेकिन उसे अनुकूल वातावरण चाहिए। जिस स्तर का पागलपन हम आजकल खुलेआम देख रहे हैं, उसला दोष केवल भाजपा को देना उचित नहीं है। हममें इस पागलपन के बीज पहले से मौजूद थे। वह बीज आज वृक्ष बन गए तो हम चौंक जाएँ यह उचित नहीं।

हमारे संविधान की मूल भावनाओं पर आधारित समाज बनाने के लिए समाज को बदलना बेहद आवश्यक है। लेकिन यह काम असम्भव होने की हद तक कठिन है।

हितेन्द्र अनंत

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