समझिए क्यों कृषि को कॉरपोरेट के हाथों में देना ख़तरनाक होगा
मैं लाइसेंस-परमिट राज का समर्थक नहीं हूँ। लेकिन बात जब विश्व की चन्द बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की हो तो मुक्त बाज़ार या मुक्त व्यापार सिर्फ़ छलावा साबित हुए हैं।
- अमेज़न और फ्लिपकार्ट का असर अपने पड़ोस की मोबाइल बेचने वाली दुकान के मालिक से पूछिए।
- ओयो की वजह से होटल वालों को वाकई कितना व्यापार मिला और असल में वो किस तरह ओयो और उस जैसी वेबसाइटों पर आश्रित रहने को मजबूर हो गए यह उनसे पूछिए।
- जोमैटो और स्विगी के ख़िलाफ़ तो बहुत सारे रेस्त्रां (बड़े-बड़े भी) हड़ताल कर चुके हैं। जिन्होंने एक तरफ़ अंतिम ग्राहकों पर कब्ज़ा कर मांग पर एकाधिकार बना लिया है, दूसरी तरफ़ रेस्त्रां मालिकों पर कमीशन बढ़ा-बढ़ाकर उन्हें लूटा है।
- रिलायंस रीटेल, डीमार्ट, मोर, स्टार बाज़ार आदि के कारण मोहल्ले की किराना दुकानों का अस्तित्व केवल दूध, ब्रेड, अंडे जैसी चीज़ें बेचने तक सीमित हो गया है। इनसे वह काम छीनने का काम अब बिग बास्केट डेली जैसी ऍप्लिकेशन बनाने वाली कम्पनियाँ कर रही हैं।
- इन सबका सबसे बड़ा असर यह है कि आम आदमी जिन आसान और कम पूंजी से खुल जाने वाले व्यापारों के सहारे आत्मनिर्भर हो जाया करता था, उन व्यापारों को शुरू करना और चलाए रखना अब बेहद मुश्किल होता जा रहा है।
- इस आम आदमी के लिए तर्क दिया जाता है कि वह इन्हीं बड़ी कंपनियों में नौकरी कर सकता है! कोई यह नहीं सोचता कि स्वरोजगार, व्यापार और बमुश्किल राशन दे पाने वाली नौकरी, इन सबमें फर्क होता है। कोई महीने का पचास हजार देने वाली दुकान छोड़कर महीने का दस हजार देने वाली नौकरी कर तो क्या यह विकास है?
- आम व्यापारी से उसके व्यापार का स्वामित्व छीन लेना क्या विकास है?
- यदि कृषि में भी कॉरपोरेट की पूंजी आई (आने ही लगी है) तो किसान अपनी ही ज़मीन पर मज़दूरी करने को बाध्य हो जाएंगे।
- कांट्रेक्ट फार्मिंग बंधुआ मजदूरी का ही दूसरा नाम है।
- ग्राहक यह सोचकर खुश न हों कि उन्हें जब विकल्प मिल रहे हैं, सस्ता सामान मिल रहा है तो उन्हें क्या लेना-देना? आप भी इसी समाज का हिस्सा हैं। ये दुकानदार, ये किसान, ये दिनभर मोटरसाइकिल पर डिलीवरी देने वाले आपके ही भाई-बंधु हैं। कल आपकी नौकरी छूट जाए तो आपके पास भी स्वरोजगार के वही रास्ते होंगे जो इन लोगों के पास हैं।
- एक न एक दिन ये सस्ता सामान मिलना भी बंद हो जाएगा। याद कीजिए इस देश में कभी दस के आसपास टेलिकॉम कम्पनियाँ थीं, अब तीन बची हैं। चौथी बीएसएनएल वैसे भी गिनती में नहीं आती। आपको क्या लगता है? यह सस्ताई का ज़माना आखिर कब तक टिकेगा? एक न एक दिन ये कम्पनियाँ या तो आपस में समझौता कर दाम बढ़ा लेंगी या इनमें भी एक और ख़त्म हो जाएगी। फिर आपका क्या होगा?
- मुक्त बाज़ारों का अर्थ होता है न्यूनतम सरकारी नियंत्रण और सभी को व्यापार में भागीदारी का मौका। मुट्ठीभर कंपनियों के हाथ पूरा बाज़ार सौंप देना दरअसल ग़ुलामी के सिवा और कुछ नहीं है।
- जूते से लेकर ज्वेलरी बेचने वाली कंपनियों ने आपका बहुत कुछ छीन लिया है। उसे समझिए।
- अपनी सरकारों से मुक्त बाज़ारों की मांग कीजिए। मांग कीजिए कि लोन पाना और किश्तें चुकाना आपके लिए भी उतना ही आसान हो जितना इन कंपनियों के लिए है।
- मांग कीजिए कि क़ानून ऐसे बनें कि किसी भी व्यापार में गिनी-चुनी कंपनियों का गिरोह क़ब्ज़ा न कर पाए।
- हितेन्द्र अनंत