धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन एक बात है और धर्मों की बुराई दूसरी। दूसरी बात से समाज में वैमनस्य बढ़ता है। धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन अवश्य किया जाना चाहिए। लेकिन इस बारे में लिखने में हर प्रकार की सावधानी बरतनी चाहिए। तुलनात्मक अध्ययन में आलोचना होगी ही। लेकिन उसे अकादमिक ईमानदारी से और सावधानीपूर्ण भाषा में ही प्रस्तुत करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त, एक धर्म के व्यक्ति को दूसरे धर्म की आलोचना से बचना चाहिए। कट्टरता, कुरीतियों और हिंसा की आलोचना कोई भी किसी की भी करे वह अलग बात है। लेकिन किसी अन्य के धर्म के मूल तत्वों की आलोचना केवल और केवल अकादमिक होनी चाहिए। उसमें भी यथासंभव पक्षपातपूर्ण खंडन-मंडन से बचना चाहिए।
किसी भी धर्म या परंपरा से शोषित या पीड़ित वर्ग को यह अधिकार है कि वह अपने शोषक धर्म या परंपरा की आलोचना करे। हालाँकि उन्हें भी कम से कम इतना ध्यान रखना चाहिए कि उनकी बातों से हिंसा न फैले।
जो स्वयं को नास्तिक, रहस्यवादी आदि समझते हैं, उन पर यह विशेष ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी बात संयमित ढंग से रखें। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रायः यह वर्ग धर्मों की सबसे प्रमुख बुराई धार्मिकों के बीच हिंसा को बताता है। ऐसे में स्वयं इसी वर्ग को ऐसे हालात नहीं बनने देने चाहिए जिससे कि सामाजिक शांति को नुक़सान पहुँचे।
अकादमिक आलोचना अथवा तुलनात्मक अध्ययन को प्रकाशित करते समय भी यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी बातों का पाठक या श्रोता कम से कम इस योग्य हो कि आलोचना को समझ सके। ऐसी बातें बिना ध्यान दिए हर किसी के बीच बाँटने की नहीं होतीं।
- हितेन्द्र अनंत