समीक्षा

फिल्म समीक्षा – पेस्तनजी (1988)

“पेस्तनजी” भारत के पारसी समुदाय पर केंद्रित गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है। एक समुदाय जिसका भारत के स्वतंत्रता संग्राम, उद्योग जगत, विज्ञान और कानून की दुनिया और साथ ही कलाजगत में योगदान उसकी जनसंख्या में हिस्से के ठीक उलट है, उसकी संस्कृति पर शायद और भी बहुत सी फ़िल्में बननी चाहिए थीं। मुख्यधारा के सिनेमा में पारसियों के किरदार या तो हंसोड़ होते हैं, या एक तंग सी गढ़ी गयी छवि के भीतर ही रहते हैं।

बहरहाल। पारसी समुदाय पर फिल्मों की बात करें तो लोग शायद अशोक कुमार अभिनीत बासु चटर्जी की “खट्टा-मीठा” (1978) को ज़रूर याद करते हैं। “पेस्तनजी” कम से कम एक मामले में “खट्टा-मीठा” से कहीं बेहतर है, वह है भारतीय “बॉम्बे पारसी” समुदाय की संस्कृति को बारीकियों से चित्रित करने में। इसके कलाकारों की भाषा और उच्चारण तुलनात्मक रूप में बेहतर हैं।

यह दो जिगरी दोस्तों पेस्तनजी (अनुपम खेर) और पिरोजशाह (नसीरुद्दीन शाह) की कहानी है। शीर्षक से तो लगता है कि इसकी मुख्य भूमिका में अनुपम खेर हैं, शायद निर्देशक ने यह सोचा भी हो, लेकिन फिल्म देखकर ऐसा लगता नहीं। यह फिल्म नसीर साहब पर ही केंद्रित है। इन दोनों के अलावा शबाना आज़मी ने “जेरू” की भूमिका निभाई है और किरण खेर ने सूना मिस्त्री की।

पारसी लहजा और हावभाव अभिनय में उतार लेना इस फ़िल्म के कलाकारों के लिए शायद सबसे बड़ी चुनौती रही होगी। नसीरुद्दीन शाह ने इस काम को यूँ किया है कि उन्हें पहली बार इस फिल्म में देखने वाले श्याद सोच लें कि वे असल ज़िंदगी में भी पारसी ही हैं। नसीर ने न केवल पात्र की भाषा और लहजे को बल्कि पात्र के स्वभाव और उसके गुणों को पूरी तरह अपनी चाल-ढाल में उतारा है। शबाना ने भी पात्र को पूरी दक्षता के साथ उतारा है। लेकिन अनुपम एवं किरण निराश करते हैं। अनुपम का उत्तर भारतीय लहज़ा जाता नहीं। उनका अभिनय बस ठीक ही है। यह खासतौर से तब अखरता है जब वे नसीर के सामने पर्दे पर हों। तब दर्शक के लिए स्वाभाविक है कि वह दोनों की तुलना करे। किरण की भूमिका छोटी है, फिर भी अंतिम कुछ दृश्यों के अतिरिक्त वे विशेष प्रभाव नहीं छोड़तीं।

एक और उल्लेखनीय भूमिका है पिरोज़ शाह के नौकर छगन की जो अभिनेता चंदू पारखी ने निभाई है। उन्हें टीवी पर देखने वाले उनके ख़ास अंदाज़ के परिचित होंगे। उनके और नसीर के बीच के संवाद भी इस फिल्म का आकर्षण हैं।

कहानी कुछ यूँ है कि पेसी (पेस्तनजी) और पिरोज़शाह (पिरोज़) दोनों बचपन के दोस्त हैं। पेसी थोड़े लापरवाह क़िस्म का मस्तमौला व्यक्ति है और पिरोज़ गंभीर है। पिरोज़ के लिए जेरु (शबाना) का रिश्ता आता है, लेकिन फैसला लेने में पिरोज़ इतनी देर लगा देता है कि जेरु की शादी पेसी से हो जाती है। पिरोज़ को यह अखरता तो है लेकिन वह दोनों से दोस्ती और स्नेह बनाए रखता है। आगे चलकर पेसी और जेरु के रिश्तों में ठहराव आ जाता है और पेसी का सूना मिस्त्री (किरण) से विवाह से बाहर का रिश्ता हो जाता है। यह सब देखकर पिरोज़ अपने जिगरी दोस्त से नाराज़ हो जाता है। पिरोज़ पैसों और कारोबार के मामले में तो निपुण है लेकिन बेहद भावुक किस्म का इंसान है। रिश्तों की जटिलता को वह समझ नहीं पाता है। फिल्म दोनों दोस्तों के बिगड़ते-सुधरते संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती है।

कहानी अपने आप में बहुत अनोखी नहीं है, लेकिन पटकथा अच्छी है। विजया मेहता का निर्देशन भी अच्छा है।

भारतीय हिंदी सिनेमा में अस्सी और नब्बे का दशक समानांतर सिनेमा आंदोलन के लिए भी जाना जाता है। पेस्तनजी उस आंदोलन की एक यादगार फिल्म रहेगी।

– हितेन्द्र अनंत

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