समाज

रोज़ा-इफ़्तार बनाम नवरात्रि का फलाहार

गिरिराज सिंह, नवरात्रि, ईद, फलाहार और इफ़्तार

स्वामी विवेकानंद ने अनेकों बार कहा है कि हिन्दू धर्म और इस्लाम में सबसे बड़ा फ़र्क है कि इस्लाम में सामूहिकता है, हिन्दू धर्म में नहीं।

इस्लाम एक संगठित धर्म है जिसमें एक साथ मिलकर अनेक धार्मिक कार्य करने पर जोर है। हिन्दू धर्म व्यक्ति केंद्रित धर्म है जिसका सर्वोच्च भाव है व्यक्ति की सांसारिक बंधनों से मुक्ति और परमात्मा को प्राप्ति।

मैं अब नास्तिक हूँ और मुझे दोनों धर्म समान रूप से अच्छे या बुरे लगते हैं। लेकिन, मेरे परिवार में और आसपास नवरात्रि धूमधाम से मनाई जाती रही है। अष्टमी के हवन के भंडारे और कन्या भोज को छोड़ दें तो मैंने कभी नहीं देखा कि नवरात्रि का उपवास सामूहिक रूप से खोलने का कोई रिवाज़ हो। अव्वल तो उपवास का रिवाज़ है, नियम या अनिवार्यता नहीं।

ईद में रोज़ा रखना एक कर्तव्य है। हिन्दू धर्म में उपवास कर्तव्य नहीं बल्कि विधि है जिसका कोई बंधन नहीं।

और उपवास खोलना एक नितांत निजी कार्य है। परिवार के लोग शायद कभी-कभी मिलकर ऐसा करते हैं, कभी आसपड़ोस के लोग भी, लेकिन ऐसा कोई पक्का रिवाज़ नहीं है।

हिन्दू चाहें जैसा उपवास रख सकते हैं, नौ दिन का, प्रतिदिन एक समय का, केवल फलाहार का, निर्जला, सब उनकी खुद की मर्जी है। मैंने यह कभी नहीं देखा कि इस बारे में किसी पंडित से लोगों ने पूछा हो कि उपवास के दौरान इंजेक्शन लगवाने से क्या होता है? हिंदुओं को मालूम है कि उपवास स्वैच्छिक है इसलिए ऐसे प्रश्न उन्हें आतंकित नहीं करते। ऐसे प्रश्न मुस्लिम दुनिया में आम हैं। क्योंकि वहाँ इसको एक कर्तव्य माना जाता है। कर्तव्य होने की वजह से लोगों के मन में डर या शंकाएँ अधिक होती हैं।

तो किसी भी तरह से नवरात्रि के उपवास सामूहिक रूप से खोलने की परंपरा मैंने नहीं देखी। गिरिराज सिंह बिहार से हैं, यदि बिहार में ऐसी कोई परम्परा हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं, लेकिन जो परंपरा शेष भारत में भी प्रायः नहीं ही है, उसकी बिना वजह ईद के इफ्तार से तुलना करके हिन्दू नेताओं से माने जाने की अपेक्षा रखने का क्या तुक है?

मुझे लगता है कि राजनीतिक मंसूबों और समाज में विभाजन की अपनी योजना के चलते ये लोग हिन्दू धर्म का पूरा स्वरूप बदल कर रख देंगे (काफ़ी हद तक बदला ही है). एक हिन्दू इसे सही माने या ग़लत यह उसे सोचना है।

हितेन्द्र अनंत

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