#सबरीमाला की समस्या ऊपरी तौर पर भले ही ऐसी लगे कि यह दक्षिणपंथियों द्वारा भड़काई आग है, पर सच यह है कि वहाँ के (केरल के!) समाज में यह मुद्दा बेहद भीतर पैठ बना चुका है।
समाज का भीड़ में तब्दील होकर एक सर्वोच्च संवैधानिक शक्ति के फ़ैसले को धता बताना सामान्य घटना नहीं है। पहली घटना भी नहीं है। ऐसी घटनाएं बार-बार भारत के भीतर से कमज़ोर हो चुके लोकतंत्र और गणतंत्र की असहाय स्थिति की ओर इशारा करती हैं।
डॉक्टर आम्बेडकर चाहते थे कि सामाजिक सुधारों पर राजनैतिक सुधारों से पहले ध्यान दिया जाए। कांग्रेस पहले आज़ादी यानी राजनैतिक सुधार चाहती थी। अब लगता है कि सामाजिक सुधार न हो पाने का नुक़सान बड़ा हुआ है। यह गणतांत्रिक भारत की विफ़लता भी है। गणतांत्रिक व्यवस्था के चलते प्रगतिशील कानून बन भी रहे हैं तो लागू नहीं हो पा रहे। प्रतिस्पर्धी राजनीति (चुनावी मजबूरियाँ) कांग्रेस और सी.पी.एम. जैसे दलों को भी मजबूर कर रही हैं कि वो सबरीमाला के रास्ते रोककर खड़ी भीड़ को वहाँ से बलपूर्वक हटाने का समर्थन करें।
समाज यदि तंत्र को और उसके अधिकारों को पूरी तरह स्वीकार नहीं करेगा तो तंत्र कमज़ोर होगा ही। और हुआ तो एक दिन यह समाज सुरक्षित नहीं रह पाएगा और फ़िर पहले की तरह अंधकार में जीने को अभिशप्त रहेगा।
राजनैतिक विरुद्ध सामाजिक सुधारों के विषय पर भले ही डॉक्टर आम्बेडकर (और वो सही थे) के गांधीजी और कांग्रेस से मतभेद रहे हों, सच तो यही है कि व्यापक भारतीय समाज में यदि कोई एक व्यक्ति सामाजिक सुधारों को पहुँचा सकता था तो वह मोहनदास करमचंद गांधी था।
आम्बेडकर और गांधी, दोनों अपने बनाए भारत को बढ़ता हुआ नहीं देख पाए। नेहरू भी जैसे भारत को बनाना चाहते थे और बनाने का प्रयास करते रहे, उनके जाने के बाद वह सारा सपना अब मिट चुका।
ऊपरी परत को छोड़ दें तो भारत का समाज आज भी हद दर्जे का सामंतवादी, जातिवादी, अंधविश्वासी और प्रगतिविरोधी है। यह समाज राममोहन राय से लेकर विवेकानन्द तक तमाम सुधारकों के आने के बाद भी नहीं सुधर पाया है। इसे शायद फ़िर से औपनिवेशिक गुलामी सरीखे किसी बाहरी झटके का इंतज़ार है।
ख़ैर, कांग्रेस और वामपंथी दल तथा आंदोलन कम से कम इतना तो अवश्य करें कि क़ानून की आड़ न लेते हुए सामाजिक बुराइयों का खुलकर विरोध करें। यह उन्हें चुनावी ज़मीन पर शायद ध्वस्त कर दे, पर इतिहास में उनका खोया गौरव अवश्य लौटा सकता है।
हितेन्द्र अनंत