बीते कुछ सालों में स्टैंड अप कॉमेडी करने वालों और ऐसे आयोजनों की संख्या में बड़ी वृद्धि हुई है। यह अच्छी बात है। इनमें से ज्यादातर कार्यक्रम यू-ट्यूब या सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं। उनमें से काफ़ी कुछ देखने के बाद और कुछ आयोजनों में जाने के बाद मोटे तौर पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इनमें हास्य के बेहद सीमित व गिने-चुने विषय होते हैं:
1. राजनैतिक लतीफ़े – मोदी/राहुल, नोटबंदी इत्यादि
2. सेक्सिस्ट, स्त्री विरोधी लतीफ़े
3. नस्ली (रंग, रूप कद काठी इत्यादि) भद्दे लतीफ़े
4. स्टीरियोटिपिकल लतीफ़े (गुजराती ऐसे, पंजाबी वैसे आदि)
5. सामाजिक कुरीतियों, अंतर्विरोधों पर कटाक्ष और व्यंग्य
6. पीढ़ीगत अंतर (जनरेशनल गैप) पर लतीफ़े
इनमें क्रमांक 1 और 5 को छोड़ दें, तो बाकी का स्तर प्रायः अच्छा नहीं होता। इन नकारात्मक और अक्सर ग़लत विषयों पर ही अधिकांश कार्यक्रम केंद्रित होते हैं। लगभग सभी प्रस्तोता गालियों का खुल्लम-खुल्ला इस्तेमाल करते हैं जो कि अलग से बहस का विषय हो सकता है।
समस्या यह है कि जब इन सबमें प्रतियोगिता इन्हीं नकारात्मक विषयों पर हो तो इस उभरती कला के भविष्य के प्रति आशान्वित नहीं हुआ जा सकता। यदि प्रतियोगिता नीचे से नीचे गिरने की हो तो भला कला का स्तर ऊपर उठेगा कैसे?
मैं यह मानता हूँ कि समाज की सच्चाई पर हास्य करना एक हद तक स्वीकार्य होना चाहिए, लेकिन हंसने के लिए गालियों और सेक्सिस्ट विषयों पर निर्भरता आखिर कितनी उचित है और कब तक चलेगी? कुछ बड़े कलाकार इस विधा में हैं जो कि वाकई स्तरीय काम कर रहे हैं, लेकिन लगता है कि विषयवस्तु की कमी उन्हें भी उसी गर्त में धकेल रही है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो हालात थोड़े बेहतर हैं, लेकिन वहाँ भी यही बीमारी दिखाई देती है। स्टैंड अप कॉमेडी ऐसी विधा है जो आज के समय में बेहद ज़रूरी है। लेकिन इसका स्तरीय बनना भी उतना ही आवश्यक है। चूंकि अभी शुरुआत ही हुई है, इसलिए उम्मीद बनी हुई है।
– हितेन्द्र अनंत