एक रोचक क़िस्सा सुनाता हूँ।
संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन जी की मृत्यु के करीब एक महीने पहले ईद के दिन उन्होंने भोपाल के कोह-ए-फ़िज़ा इलाके में मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की इच्छा व्यक्त्त की। मप्र के तब के गृह मंत्री बाबूलाल गौर ने इसकी मालूमात होते ही तुरन्त वहाँ जाकर उन्हें मस्जिद जाने से रोका। एक पूर्व सरससंघचालक का मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ना वाकई संघ और भाजपा के लिए घातक हो सकता था। हालांकि बाद में संघ ने बयान दिया था कि सुदर्शन जी वहाँ नमाज़ पढ़ने नहीं बल्कि केवल ईद की बधाइयां देने के लिए जाना चाहते थे।
इसके करीब एक महीने बाद सितंबर 2012 में, रायपुर में सुदर्शन जी का निधन हुआ। उनकी अंतिम यात्रा नागपुर में निकली जिसमें बड़ी संख्या में शहर के मुसलमान शामिल हुए। नमाज़ पढ़ने की सुदर्शन जी की इच्छा अधूरी रह गयी और वह किस्सा भुला दिया गया। हालांकि कुछ मुस्लिम संगठनों ने इन घटना को इस तरह देखा कि जीवन के अंतिम समय में सुदर्शन जी सत्य के क़रीब जा रहे थे। मुझे वह बात सही नहीं लगती।
ईद के बहाने वह क़िस्सा मुझे फिर याद आया। मुझे ऐसा लगता है कि सुदर्शन जी नमाज़ इसलिए नहीं पढ़ना चाहते थे कि वे इस्लाम के तरफ़ झुकने लगे थे। न ही इसलिए कि उम्र के साथ उनकी बुद्धि थोड़ी फ़िर गयी थी। मुझे लगता है कि नफ़रत की सीमाएं जब ख़त्म होने लगती हैं तो भावनाओं का चक्र मनुष्य को मोहब्बत की तरफ़ ले जाता है। यानी नफ़रत की इंतेहा में आप किसी विषय पर इतना सोच लेते हैं कि अंततः उससे आपको मोहब्बत हो जाती है। मुझे लगता है कि सुदर्शन जी की नफ़रत मोहब्बत में तब्दील हो गयी थी। वे इस्लाम या मुसलमानों से नफरत करते-करते थक गए थे, बोर हो गए थे और आजिज़ आ चुके थे। इसलिए अब वे मुसलमानों के क़रीब आकर उनसे दोस्ती करना चाहते थे। यह ठीक है कि सामजिक जीवन में और पेशेवर मजबूरियों के चलते उनके अनेक मुस्लिम मित्र रहे होंगे, लेकिन यह भोपाल वाला क़िस्सा अंदर से आए बदलाव का नतीजा था।
काश ऐसा कुछ दुनिया के सभी मजहबों-ख्यालों के सभी कट्टर नेताओं के साथ हो, और उम्र के अंतिम पड़ाव में न होकर जल्द से जल्द हो, ताकि उनकी नफ़रत जल्द से जल्द मोहब्बत में तब्दील हो जाए और इस दुनिया की बहुत से मुश्किलें आसान हो जाएं। मैं जानता हूँ कि यह चाह बस एक ख़्याली पुलाव बनकर रह जाएगी। लेकिन यह पक्के तौर पर सत्य है कि नफ़रत की इंतेहा हो जाए तो उसे मोहब्बत में परिवर्तित कर देना असम्भव नहीं।
यदि आप किसी से बहुत ज़्यादा नफ़रत करते हैं, तो एक बार इस तरह से सोचकर देखिए। नहीं करते तो जान लीजिए कि जब अंत में मोहब्बत करनी ही है, तो नफ़रत की ही क्यों जाए?
– हितेन्द्र अनंत