दर्शन (Philosophy)

क्या हिन्दू सहिष्णु होते हैं? क्या सेकुलरिज़्म हमारे डीएनए में है?‏

क्या हिन्दू सहिष्णु होते हैं? क्या सेकुलरिज़्म हमारे डीएनए में है?
(संदर्भ – प्रधानमंत्री का हालिया भाषण)

यह कहना कि सेकुलरिज़्म हमारे डीएनए में है, यह पहले अधिक चर्चित तरीके से यों कहा जाता था कि हिंदू सहिष्णु होते हैं। यह हिंदुओं की प्रकृति मानी जाती है। मेरा मत है कि यह एक प्रकार का अर्धसत्य है। हिन्दू अवश्य ही सहिष्णु होते हैं लेकिन ईश्वर की अवधारणा एवं उपासना के संदर्भ में। हिन्दू परंपरा में ईश्वर को लेकर कोई स्पष्ट मत नहीं है। वेदों से लेकर पुराणों तक और शंकराचार्य से लेकर रामानुजाचार्य तक अनेक मत हैं। सम्भवतः यह मताधिक्य ही कारण है कि किसी ऋषि को यह लिखना पड़ा – “एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति”। हिन्दू मत पर इसी देश में चलने वाली अन्य अनीश्वरवादी धाराओं का भी गहरा प्रभाव रहा है। यही कारण है कि हिन्दू अन्य मतावलंबियों के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। वे आसानी से जीसस को भगवान मान लेते हैं। वे मस्जिदों और मज़ारों के सामने सर भी झुकाते हैं। अन्य धर्मों की ईश्वर को लेकर एक स्पष्ट और अपरिवर्तनीय राय है। हिंदू परम्परा की अनेक धाराओं में ऐसा एकमत नहीं है। अतः हिंदुओं को ईश्वर के एक नहीं बल्कि करोड़ों रूप स्वीकार हैं। ईश्वर की अवधारणा पर बहसों से सारा हिन्दू वाङ्गमय भरा पड़ा है। आप आसानी से ऐसे हिन्दू देख सकते हैं जो मूर्ति पूजा भी करते हैं लेकिन पूछने पर कहते हैं कि ईश्वर निराकार है। इसलिए अन्य धर्मों में वर्णित ईश्वर की अवधारणा से हिंदुओं की भावनाएं आहत नहीं होती। लेकिन हिंदुओं की सहिष्णुता यहाँ आकर ख़त्म हो जाती है।

जाति, वर्ण, खान-पान और वैवाहिक संबधों के मामले में हिन्दू बड़े कट्टर होते हैं। खासतौर पर जाति और खान-पान सम्बंधी मामलों में। हिंदुओं में पगड़ी पहनने न पहनने, पगड़ी के रंग से लेकर जूतों के उपयोग या तिलक लगाने की शैली तक के कठोर नियम रहे हैं। भोजन में पथ्य-अपथ्य को लेकर जो कट्टरता थी वह लगभग आज भी उतनी ही कठोर है। जातियों में भी उपजातियां और क्षेत्रीय विभिन्नताएं इतनी भयंकर हैं कि उनको लेकर आज भी प्रत्येक समाज में संघर्ष जारी है। इन सभी प्रश्नों में हिंदुओं में कट्टरता का वही स्तर देखा जा सकता है जो ईश्वर को लेकर अन्य धर्मों के अनुयायियों में है। यहां ध्यान देने योग्य यह है कि खान-पान और छुआछूत को लेकर मुस्लिम या ईसाई समाजों में जरा भी कट्टरता नहीं है। किसी ईसाई के लिए हिन्दू के घर या हिन्दू दलित के घर भोजन करना या उससे हाथ मिलाना जरा भी कठिन नहीं। आज से साठ साल पहले तक हिंदुओं के जाति आधारित तालाब हुआ करते थे। गाँवों में आज भी मिल जाएंगे। पीने के पानी के स्रोत को विभिन्न जातियों से वंचित रखने वाला समाज कट्टर न कहा जाए यह आश्चर्यजनक होगा। यह वही समाज है जहां कुछ दशकों पूर्व तक यदि भोजन करते समय शूद्र को देख भी लिया तो भोजन अपथ्य हो जाया करता था। यह वही समाज है जहाँ अनेक गाँवों में कुछ जातियों को आज भी अधिकार नहीं कि वे अपनी बरात में दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ाएं, ऐसा होने पर हिंसा की घटनाओं के अनेक उदाहरण आज भी मौजूद हैं। सुबह-सुबह घर से बाहर निकलते वक्त किन-किन जातियों के लोगों का दिख जाना अशुभ होता है यह ज्ञान आज भी गाँवों में बांटा जाता है। कुछ ही दिन पहले एक दलित की नाक काट दी गयी क्योंकि उसने किसी शादी में उच्च जाति के लोगों के साथ बैठकर भोजन करने की हिमाकत की। कट्टरता का यह वर्णन और भी वीभत्स है लेकिन यहां केवल संकेत किया गया है। सिर्फ़ जाति विभेद नहीं बल्कि पूजा पद्धति, शुद्ध-अशुद्ध संबंधी नियम, विभिन्न रीति-रिवाजों और विधियों के सम्बन्ध में भी घोर कट्टरता पायी जाती है।

इसलिए हिंदुओं के डीएनए में सहिष्णुता जैसा कुछ नहीं है। वे कहीं सहिष्णु हैं तो कहीं कट्टर, ठीक वैसे ही जैसे कि अन्य धर्मों के लोग कहीं सहिष्णु हैं तो कहीं घोर कट्टर।

भारत में विभिन्न धर्मों का हज़ारो वर्षों का शांतिपूर्ण सहअस्तित्व रहा है। यह गर्व का विषय है। लेकिन इसका कारण बहुसंख्यकों की नस्ली खूबी (डीएनए) नहीं है।

-हितेन्द्र अनंत

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